
(इस पन्ने पर डॉ. अशोक बत्रा (संपादकीय), दिव्या माथुर, सच्चिदानंद जोशी, जय वर्मा, अनिल जोशी, शैलजा सक्सेना, अलका सिन्हा, आचार्य राजेश कुमार, निशा भार्गव, डॉ शिप्रा शिल्पी सक्सेना, रेखा राजवंशी, आराधना झा श्रीवास्तव, सुनीता पाहूजा, अनीता वर्मा, मनोज श्रीवास्तव ‘अनाम’ की रचनाएं संकलित है। रंग संयोजन एवं पृष्ठ संकल्पना : नवीन कुमार नीरज)

रंगोत्सव की रंग भरी फुहार से हमने आज का ये विशेष पृष्ठ निकाला है। आपकी कलम के तीखे रंग और तेवर तो इसमें हैं ही साथ में गुझिया की मिठास और ठंडाई की सुगंध भरी गुलाबी सी ख़ुशबू भी है। इससे पूर्व कुछ ऐसे ही महकता हुआ सा गुलाबी विशेषांक हमने महिला दिवस पर भी निकाला था जिसे आपने ढेर सारा प्यार दिया था। आगे भी समय समय पर इस तरह के प्रयोग हम करते रहेंगे ।
होली के अवसर पर भांग में भीगी शुभकामनाओं के साथ आप सबसे अनुरोध करती हूँ कि आप हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी दीप जलाकर होली दीयों के साथ मनाएँ। होली की बरसात में टेसू के रंग जैसी टीस आपके मन में कभी न उठे। होली पर आपको खूब चयास लगे और आपको अपने मन की बात कविताओं में ना करनी पड़े। ईश्वर आपको हमारे व्यंग्य व कविताओं को झेलने की शक्ति दे।
महकते रंगों की बौछार होनी चाहिए
होली में प्यार की फुहार होनी चाहिए
अवध की मस्ती और बनारस की भांग
होली बरसाने की लट्ठमार होनी चाहिए
गुझिया और तीखी भुजिया का तड़का
ठिठोली में ऐसी ही तकरार होनी चाहिए
– अनीता वर्मा
संपादकीय

होली का दिन आया यारो! ऐसे मिश्री घोल के।
जैसे कोई मोर नाचता, है पंखों को खोल के।।
यदि सचमुच ही हम मोर होते तो महसूस करते कि हमारे पंख खुल गए हैं और पाँव थिरकने लगे है। मैं तो महसूस करता हूँ कि मेरे भीतर छिपे एक निर्मल चित्त ने चारों दिशाओं में अपनी बाहें फैला दी हैं। दोस्तो! आओ, खेलें, झूमें, नाचें और रंगों में सराबोर हो जाएँ। मन में गूँज उठता है यह गाना —
पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही।
हो सकता है, इसी झूठे अभिनय में से सचमुच कोई राह निकल आए। या सद्भाव का यह रंग गोरे-काले सभी रंगों पर छा जाए।
सच तो यह है कि रंग खेलने से पहले होलिका-दहन जरूरी है। जो कूड़ा – कचरा है, द्वेष और कटु संबंधों की गाँठें हैं, उनका जलना, खाक होना जरूरी है। वरना फाग भी दिखावटी हो जाता है।
गज़ब का है होली उत्सव! हर कोई चाहता है, खुलना, खेलना। यारों के संग गलबाहीं, परिचितों के साथ आलिंगन और अपरिचितों के साथ घुलने-मिलने की पहल। मटकूमल को देखो, हर किसी को भाभी-भाभी कहता है और बाहों में भरने को आमादा है। किसी को जीजी, किसी को साली। मटकू से ज्यादा उसकी घरवाली। किसी को देवर, खिला के घेवर, ले लेती ज़ेवर। फिर कहती होली। सचमुच सरस है मधुर रंगोली। कितनी है मस्ती और धौल धप्पा। होली है मानो दही गोलगप्पा।
दृश्य यह है कि–
कोई गीला, कोई सूखा, रंग लिए है हाथों में।
पर उसने तो है रंग डाला, आजू बाजू डोल के।
होली का दिन आया यारो..
केवल प्रेमपूर्वक संग-संग रहने का सुख भी होली की अनुभूति करा देता है। अभी अभी खेली है भारत के करोड़ों- करोड़ों लोगों ने बिना किसी भेदभाव के होली। महारास में डूबकर, नहाती रमाती मज़ेदार होली।
न कहीं हुड़दंग, न ही बदरंग। सब पर चढ़ा एक ही रंग। साधु और स्वादु एक साथ। करते मिले महारास। जटाधारी भी, खल्वाट भी। सचमुच का महारास, एक विराट होली। समन्वय की महाधारा में महास्नान — यह होली अभी-अभी भारत ने कुम्भ में खेली है। विश्वभर को बताया है किसी को छोटा किए बगैर, अपने वर्चस्व और सर्वश्रेष्ठता का ढिंढोरा पीटे बगैर कि हम पूरे विश्व को कैसे एक महारास में निमज्जित कर सकते हैं। मज़ाल है, अपने अंधड़ जैसे महावेग में भी किसी समुदाय के साथ वैर-विरोध, पत्थरबाजी या छींटाकशी हुई हो।
आज, जबकि दुनिया खून के रंग से लाल हुई जा रही है ; मधुर संवाद की जगह ट्रम्प-जैलेंसकी जैसे उखाड़ू विवाद जन्म लेने लगे हैं, होली की सार्थकता और बढ़ गई है। माना कि घावों से छिली हुई दुनिया सामने है, गाज़ा पट्टी और युक्रेन लहूलुहान पड़े हैं, ऐसे में रसखान जैसी मसृण मरहम चाहिए, न कि मुंबई में आया कसाब ; बरसाने की रस फुहारती होली चाहिए, न कि लट्ठमलट्ठ होली।
परन्तु! परन्तु इसके लिए चाहिए — थोड़ी विस्मृति, थोड़ी भूलने की इच्छा। घावों को कुरेदने की बजाय किसी मरहम की तलाश। निरंतर खिंचे-खिंचे रहने की बजाय ‘मस्तराम है मस्ती में’ का तेवर।
होली के दिन वो फन्नेखाँ, सुबक सुबक कर सोच रहा।
क्यूँ रहता हूँ खिंचा खिंचा-सा, अपनी जिंदड़ी रोल के।
होली का दिन आया यारो…
इस होली पर मेरे ईश्वर! इतनी ताकत सबको दे।
बंदूकों में पिचकारी के रंग दिखाएँ घोल के।
होली का दिन आया यारो ऐसे मिश्री घोल के।
जैसे कोई मोर नाचता है पंखोँ को खोल के।
डॉ. अशोक बत्रा, गुरुग्राम
व्हाट्सअप – लुत्फ़, कोफ़्त और किल्लत

– दिव्या माथुर
एक ज़माना था कि जब हम व्हाट्सऐप को प्रभु का वरदान मान बैठे थे, फिर जो वरदानों की बौछार शुरू हुई कि, वो कहते हैं न, कि ‘तौबा की, फिर तौबा की, फिर तौबा कर के तोड़ दी, मेरी इस तौबा पर तौबा, तौबा तौबा कह उठी’। अब तो यह आलम है कि सचित्र और स-वीडियो कृपा हर सुबह बरसती है – सोमवार को शिव जी, मंगलवार को हनुमान जी (आज आपकी कुंडलिनी भी जाग सकती है), बुधवार को गणेश जी, वीरवार को विष्णु जी, शुक्रवार को संतोषी माता, शनिवार को शनि देव (नवग्रह) और फिर सभी दिनों में सबसे महत्वपूर्ण रविवार (बाइबिल के अनुसार आराम फ़रमाने का दिन), को सूर्य नारायण जी; उनके बिना तो अंधेर नगरी चौपट राज न हो जाएगा। लोग राजा रवि वर्मा का नाम तक नहीं जानते पर उनके बनाए चित्रों के बगैर अब सुप्रभात नहीं होती।
‘जय राम जी’, नमस्ते और ‘जय श्री कृष्णा, केम छो’ के बाद स्वरचित अथवा गूगल से उठाए गए उपदेश, नेपथ्य में बीवी-बच्चों की रेलमपेल के चलते मुसलमानों के बच्चों की हाय-तौबा, भारत की सभ्यता, वास्तुकला और संस्कृति इत्यादि वीडियो पेलने के बाद शुरू होता है स्वरचित रचनाओं का दौर, जिसमें अतुकांत अथवा तुक भिड़ाई गई अटपटी कविताएं सरपट दौड़ लगाने लगती हैं, तालियाँ पीटने के अनुरोध/धमकियों सहित, तुर्रा यह कि बिना आपकी अनुमति के आपको पचासियों पटलों पर शामिल कर लिया जाता है।
फिर आया कोरोना, हमसे अधिक हमारे स्वास्थ्य की चिंता इन्हें-उन्हें सताने लगी। विश्व के वैज्ञानिक जब टीके बनाने पर करोड़ों खर्च कर रहे थे, हमारे तथाकथित विशेषज्ञों ने अपने बलबूते पर ही जड़ी बूटी, ध्यान, योग इत्यादि द्वारा इस महामारी को मार भगाया। व्हाट्सअप का लुत्फ़ जल्दी ही कोफ़्त में बदलने लगा था जब अपने को अक्लमंद समझने वाले लोगों ने नए नए उपयोग हम पर लादने शुरू किए, एक रोग के पीछे तीर कमान ताने सैंकड़ों कुकुरमुत्तों से उग आए तथाकथित डॉक्टर्स। असली डॉक्टर्स के हाथ पाँव जोड़ते घायल हिरनियों से तड़पते मरीज़ और कैसी भी दवा-दारू मुहैया कराने में अस्त-व्यस्त उनके लाचार परिवार।
इस बीच एकाएक गेरुए कपड़ों, टीकों और कृत्रिम रुद्राक्ष की मालाओं से सुसज्जित बाबाओं और गहनों से लदीफदी, भारी मेक-अप से लिपि-पुती माताओं ने व्हाट्सअप पर हमला बोल दिया, ‘इस संदेश को दस मिनट के अंदर 20 लोगों को नहीं भेजा तो तुम्हारी खैर नहीं’। इस जमाने में चार कंधे जुटाना मुश्किल है और रिश्तेदारों ने तो हमें यूँ ही त्याग रखा है, कहाँ से जुटायें 20 लोग इसलिए यह मामला न्यायालय के बाहर ही निपट गया।
इसी दौरान शुरू हुआ ऑनलाइन सम्मेलनों का दौर; आंचलिक गोष्ठियों को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने के वास्ते एक आध प्रवासी को शामिल करने का फ़ैशन ‘फलाँ देश के फलाँ व्यक्ति तीस चालीस सालों से हिंदी की सेवा कर रहे हैं।’ जो दो वाक्य ठीक से नहीं लिख सकते, ऐसे ऐसे फ़लाने ढिमकों को प्रतिष्ठित, लब्ध-प्रसिद्ध, विख्यात, प्रख्यात जैसे संबोधनों से सुसज्जित किया जाने लगा। मज़े की बात तो यह है कि वे भी अपनी गिरेबान में झाँकने की बजाय राजसी गौरव स्वीकार कर लेते हैं। दोनों पारियों के लेखक सेवक एक दूसरे की इज़्ज़त बचाए रखते हैं; उनकी रचनाएं ‘वाह वाह’ के साथ सुनी/पढ़ी जाती हैं, है कोई माई का लाल/लल्ली जो इनकी आलोचना करने की हिमाकत कर सके।
डिस्क इतनी भर चुकी है कि फ़ोन ठीक से काम नहीं कर रहा, यह रोजमर्रा की किल्लत है, रोज़ ‘डिलीट’ करती हूँ और हर रोज़ ‘डिस्क फ़ुल’ का संकेत भयाक्रांत करता है किंतु व्हाट्सअप रूपी इस विकराल किल्लत के विकल्प क्या हैं? क्या बने बात जहां व्हाट्सअप हटाये न बने।
मुख्य अतिथि की अर्हता
(व्यंग्य आलेख)

सच्चिदानंद जोशी
शनिवार की सुबह सुबह फोन की घंटी बजी। अनजान नंबर था। वैसे जब से चुनाव प्रचार वालो ने फोन का सहारा ले लिया है तबसे अनजान नंबर उठाने में दहशत ही होती है। इंदौर, अहमदाबाद, बैंगलोर और न जाने कहां कहां के कोड से चुनाव प्रचार के फोन आते हैं।
ये नंबर कुछ अलग था इसलिए उठा लिया।
“नमस्ते भाई साहब, प्रमोद बोल रहा हूं गौ सेवा न्यास से। आप क्या कर रहे हैं इस रविवार?”
प्रश्न अचानक, अप्रत्याशित था और पूछने वाला अपरिचित।
“माफ कीजिए प्रमोद जी आपको पहचाना नहीं।” मैंने यथा संभव विनम्र होते हुए कहा। प्रमोद जी ऐसे हंसे मानो मैंने कोई बहुत मजाकिया लतीफा सुनाया हो।
“आप कैसे पहचानेंगे। आपका नंबर तो मुझे गोवर्धन भाई साहब ने दिया है। कल हमारे न्यास का वार्षिक उत्सव है उसमें आपको बुलाना चाहते हैं, मुख्य अतिथि के रूप में। “
गोवर्धन भाई साहब को मैं जानता था। लेकिन गौ सेवा में मेरी गति शून्य ही थी। लिहाजा मैंने क्षमा याचना करते हुए कहा, “गौ सेवा में मेरी कोई गति नहीं है। और आपको तो गोवर्धन भाई साहब को ही बुलाना चाहिए था। वे तो इस क्षेत्र में बहुत काम कर चुके हैं।” प्रमोद जी ने फिर एक ठहाका लगाते हुए कहा,
“जी बुलाया तो उन्हें ही था, वे आने भी वाले थे। लेकिन ऐन वक्त पर उनका दूसरा कार्यक्रम आ गया। इसलिए वे हमारे यहां नहीं आ पाएंगे। उन्होंने ही आपका नाम सुझाया है।”
गौ सेवा विषय का तनिक भी ज्ञान न होते हुए मुझे गौ सेवा न्यास के कार्यक्रम में गोवर्धन भाई साहब की अनुशंसा के कारण जाना पड़ा। कार्यक्रम में अंत में आभार प्रदर्शन के समय प्रमोद जी ऑडियंस को ये बताना नहीं भूले कि ऐन वक्त पर गोवर्धन जी के न आ पाने के कारण हमें इन्हें मुख्य अतिथि के रूप में बुलाना पड़ा। साथ ही उन्होंने यह भी बता दिया कि गौ सेवा मेरा विषय न होते हुए भी मैं सिर्फ उनके आग्रह पर आया हूं। वैसे ऑडियंस को भी यह बात मेरा भाषण सुनकर समझ में आ ही गई होगी।
अपमान की पराकाष्ठा तो तब हुई जब कुछ दिन बाद गोवर्धन भाई साहब से अनायास भेंट हुई और मैंने उन्हें ये वाकया सुनाया। मुझे लगा कि वे आखिरी समय में ये दायित्व निभाने के लिए मेरा शुक्रिया अदा करेंगे। लेकिन उनकी प्रतिक्रिया इसके उलट थी।
“अरे तो वो प्रमोदवा आपको फांस ले गया। मैंने तो उससे पीछा छुड़ाने की नीयत से तीन चार नाम बता दिए थे उनमें आपका भी नाम था। बाकी तो बचकर निकल लिए आप फंस गए। “गोवर्धन भाई बोले और इसके बाद उन्होंने अपना चिरपरिचित ठहाका लगाया। उस दिन मुझे उनका वो ठहाका बिल्कुल भी पसंद नहीं आया।
ऐसे ही एक और कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलावा आया। आयोजक ने बड़े गर्व से बताया कि उसने इस कार्यक्रम के लिए तीन सौ की कैपेसिटी वाला ए सी हाल किराए से लिया है। इससे पहले कि मैं उसकी प्रशंसा में कुछ कह पाता आयोजक ने पूछा, “आप कितने लोग ला पाएंगे”। मुझे वो प्रश्न समझ में नहीं आया, “कितने का क्या मतलब है?”
“मतलब ये कि घनश्याम जी को बुलाओ तो वो अपने चालीस-पचास श्रोता तो ले ही आते हैं। अब ये हाल बड़ा है तो आप पचास की जिम्मेदारी तो ले ही लीजिए।” मामला मेरी समझ से बाहर था। मेरे चेहरे का भाव देख आयोजक महोदय मायूस हो गए और उन्होंने अपने सहयोगी को यूं घूरा मानो कह रहे हों, “ये किसके पास ले आए यार।”
मेरा नाम सहयोगी ने सुझाया था शायद इसलिए कोशिश करना उसका भी फ़र्ज़ था। चर्चा की बागडोर सम्हालते हुए बोला, “अच्छा ऑडियंस तो हम जुटा लेंगे जैसे तैसे, आप पब्लिसिटी और अखबार में खबर का देख लीजिए। सुना है आपके अखबारों में अच्छे संबंध हैं। दो-चार भी प्रेस फोटोग्राफर आ गए तो काम बन जाएगा। अपने चेलों से कहकर सोशल मीडिया पर कार्यक्रम की सूचना और खबर शेयर करवा दीजियेगा।”
“देखिए मैं कोशिश करूंगा। लेकिन वादा नहीं कर सकता। मेरी कोई मीडिया टीम नहीं है। “मैंने बात स्पष्ट करते हुए कहा। तब तक आयोजक महोदय मेरे फेस बुक, एक्स और इंस्टाग्राम अकाउंट चेक कर चुके थे और मुझसे मिलने के लिए हुई वक्त की बरबादी पर झल्ला रहे थे। उनसे रहा नहीं गया और सहयोगी से बोले, “चलो यार ,बहुत समय बर्बाद हुआ। अब घनश्याम जी से ही दोबारा पूछते हैं।”
जिंदगी में अर्हता न होने के कारण कई नौकरियों में ठुकराए गए है। लेकिन अपने पास मुख्य अतिथि की भी अर्हताएं नहीं है, ये जानकर नौकरी में ठुकराए जाने से भी ज्यादा दुख होने लगा।
मुख्य अतिथि के रूप में आयोजक आपसे समय पर आने की और दिए गए विषय पर भाषण इत्यादि देने की अपेक्षा करते हैं तो समझ में आता है। लेकिन जब आयोजक आपसे यह भी अपेक्षा करे कि आप ऑडियंस भी लाएं और कार्यक्रम की प्रसिद्धि में योगदान भी दें तो लगता है कि ऐसे आयोजनों के लिए विनम्रता से मना ही कर देना चाहिए।
लेकिन वो अगर पहले पता हो तो मना करें। यदि कोई आयोजक मान ही बैठे कि आप ये सब करेंगे तो आप क्या कर सकते हैं। एक बार ऐसे ही आयोजन में दिए गए समय पर पहुंच गए। देखा हॉल एकदम खाली था। लगा कि गलत हॉल में आ गया हूं। फिर स्टेज पर नजर गई जहां कार्यक्रम का बैनर लगा लगा था और जो आयोजक महोदय थे वो स्टेज पर फूल माला का इंतज़ाम कर रहे थे। फिर लगा कि मैं शायद गलत समय पर आ गया हूं।
“आइए सर। देखिए न, ससुर एकौ ऑडियंस नहीं आया। इतनी पब्लिसिटी किए, बैनर-पोस्टर सब छपवाए लेकिन कोई फटकने का नाम ही नहीं ले रहा है।”
मैं असमंजस में था कि आयोजक महोदय के इस स्वागत संबोधन का क्या उत्तर दूं। कार्यक्रम का विषय गंभीर था इसलिए दो तीन दिन लगकर भाषण की तैयारी की थी।
आयोजक का भुनभुनाना जारी था, “वो ससुरे स्कूल वाले भी ऐन वक्त पर दगा दे गए। और ये रामेश्वर भी नहीं आया अभी तक।”
“रामेश्वर कौन ?” मैंने एक निरर्थक प्रश्न पूछा । क्योंकि रामेश्वर कोई भी होता तो क्या फर्क पड़ने वाला था मुझे।
“अरे हमारी संस्था का सेक्रेटरी। उसे भेजा था पास वाली बिल्डिंग से कुछ कोचिंग के बच्चों को लाने।”
“कोचिंग के बच्चे?”
“अरे वो बच्चे रहते हैं न आस-पास के कमरों में, बुलाने पर आ जाते हैं नाश्ते के लालच में। भंवरी के यहां से कचौड़ी भी बनवा लिए पचास आदमियों के हिसाब से, यहां पांच आदमी भी नहीं हो रहे हैं। का करें हमारी तो समझे से बाहर है।”
“कार्यक्रम की अध्यक्षता तो त्रिपाठी जी को करनी है न, वो भी नहीं आए अभी तक। ” मैंने जरा विषय बदले इस नीयत से पूछा।
“त्रिपाठी जी है बिजी आदमी। अभी होंगे किसी दूसरे कार्यक्रम में, अपने भाषण के समय आ जायेंगे। ऑडियंस नहीं देखेंगे तो वो भी नाराज़ होंगे। कहेंगे किसको बुला लिए हो, कौने आने को ही नहीं है।”
मेरे मन में इस बात अपराध बोध गहराता जा रहा था कि मेरे कारण ही ऑडियंस नहीं आ पाया है। तभी रामेश्वर भी पसीना पोछता आ गया। उसके चेहरे से दिख रहा था कि उसे सफलता नहीं मिली है। वह चुप भी रहता तो भी बात समझ आ ही जाती। लेकिन उसने बता कर मेरी ग्लानि को और बढ़ाना जरूरी समझा।
“कोई नहीं आ रहा भैया। भंवरी की कचौड़ी के लालच में भी नहीं आ रहे। ससुरे कहते है सेल्फी वाला गेस्ट बुलाते तो मजा आता। अब इनके साथ कौन सेल्फी लेगा। कोई लाइक नहीं मिलेगा।”
ऐसा लगने लगा कि यह सत्र अब यही समाप्त हो और मैं घर की राह लूं। लेकिन चूंकि हाल का किराया दिया जा चुका था और भंवरी की कचौड़ियां आ चुकी थी इसलिए कार्यक्रम हुआ। आयोजन समिति के तीन और हाल की सफाई वाले चार इस तरह सप्तऋषियों के सामने मैंने बड़े जतन से तैयार किया भाषण सुनाया। त्रिपाठी जी ने अपने जासूस के माध्यम से यहां के ऑडियंस का हाल जान लिया और कन्नी काट ली। कहना न होगा कि उसका ठीकरा भी आयोजक ने मेरे ही सिर फोड़ दिया।
अंततः बिना तय आवागमन व्यय, बिना शॉल गुलदस्ते लिए मैंने घर की राह ली। संतोष बस इतना ही था कि आयोजक महोदय ने सदाशयता भंवरी की दस कचौड़ियां बांध दी थी।
जय वर्मा

वासंती रंग मोहे भावे रे
वासन्ती रंग मोहे भावे रे,
रंग नया दिखलावे रे।
मिटा तिमिर तेरे आने से
छाए है रंग फाल्गुन के।
विहँस रही है आज प्रकृति,
दिन आए है मधुवन के।
भौरों की गुनगुन मनवा को,
और अधिक उकसावे रे।
वासंती रंग मोहे भावे रे।।
सुबह की लालिमा देख रहे,
पंछी गाते उड़-उड़ के।
वासंती परिधान धरा का,
नैन देखते मुड़-मुड़ के।
खिली-खिली नव कलिका अपना,
सुंदर रूप दिखावे रे,
वासंती रंग मोहे भावे रे।।
उषा भी आई सज धज कर
मुस्कान पसर गई चारों ओर।
नई उमंग के गीत सुनाने,
आतुर है मानव के मोर।
रंगोलीमय सुंदर धरती,
बिंदिया-सी माथ लगावे रे।।
ऋतु के संग में सुखद सवेरा,
आशाओं की किरणें लाई।
वासंती रंग सबसे न्यारा,
खुशियों की सौगातें लाई।
हृदय बावरा मगन हुआ है,
गीत प्रेम के गावे रे।
वासंती रंग मोहे भावे रे।
*****
– जय वर्मा, ब्रिटेन
अतुल की उसके दांतो से प्रेमकथा
(व्यंग्य कथा)

– अनिल जोशी
जवानी में लोगों को अलग तरह के शौक होते हैं। जैसे क्रिकेट खेलना, बॉडी बनाना, सुंदर लड़कियों के घर चक्कर लगाना और पैसे और ताकत के लिए सीधे-टेढ़े रास्तों को अपनाना। पर सीनीयर सिटीजन अपने चेहरे पर अलग किस्म का मास्क लगा लेते हैं, पूरे वैष्णव। उनके शौक भी सादा और वैष्णव हो जाते हैं जैसे चींटियों को दाना डालना, सत्संग सुनना, लोगों के रिश्ते कराना आदि- आदि।
साथ ही सीनीयर सिटीजन को एक और शौक होता है वे उस उम्र में किसी ना किसी बीमारी के विशेषज्ञ बन जाते हैं। राजनेता, व्यापारी, मल्टीनेशनल में काम करने वाले ब्लड प्रेशर व ह्रदय रोग विशेषज्ञ, मधुशाला के प्रेमी लीवर विशेषज्ञ, मीठे के चींटे डायबटीज विशेषज्ञ आदि-आदि। आम तौर पर यह विशेषज्ञता उन पर जिंदगी ने थोपी हुई होती है। हस्पताल में गए दो बार स्ट़ड लग गए तो ह्रदय रोग के बारे में ऐसे बताने लगते हैं जैसे किसी फेमस ब्राँड की विेशेषताएं बता रहे हों। कैंसर, ह्रदय रोग या किडनी लीवर की बीमारियो के विशेषज्ञों का लोगों में बड़ा आदर है, लोग उनकी बात बहुत ध्यान से सुनते हैं। पर इसमें जोखिम बहुत है। इन बीमारियों का फस्ट हैंड अनुभव बहुत भारी पड़ जाता है। इसलिए मैंने सोचा क्यों ना मैं दांतों की बीमारी का विशेषज्ञ बन जाऊं। किडनी और लीवर तो एक-दो है। दांत तो बतीस होते हैं। दांतों से अतुल की प्रेमकथा बहुत रोचक है।
अतुल जिस निम्न मध्यमवर्गीय परिवेश में बडे हुए तो वहां घर में टूथब्रश और पेस्ट नहीं होता था। दातुन होती थी या नमक तेल। दातुन करना बड़ा अच्छा लगता था। दांत खुरचते रहो, आसपास थूकते रहो। सारी सड़क पर थूकते चलना जैसे दांत साफ करने का अनिवार्य हिस्सा हो। तब स्वच्छता जैसे लफड़े नहीं होते थे और कहीं अपराध बोध भी नहीं होता। आप एक बार थूकते तो सामने वाला दो-तीन बार थूकता था। पैदल चलने वाले या साईकल पर चलने वाले दातुन करने वालों से पांच-दस फुट दूर से ही निकलते थे। जाने यह अगली बार किस तरफ मूँह करे। चारों तरफ फैले दातुन के टुकड़े होने से कोई फर्क नहीं पड़ता था। वही सब करते लोग यह सोचते थे कि उनके दांतों को कुछ नहीं हो सकता। उन्हें कुल्ला करने या रात को सोने से पहले ब्रश करने या दांतो का ध्यान रखने की कोई जरूरत नहीं।
जबानी में ही जब लोगो के दिल में दर्द रहता है अतुल को पहली बार दांत दर्द हुआ। दांत का दर्द दिल के दर्द का बाप होता है। आधी रात को जब आप अपना मुहं थामे आई-आई कर रहे होते हो तो सारे दर्द फीके लगते हैं। उसमे अपने सुजे हुए मुँह और दर्द में डूबे चेहरे के साथ कई रातें मुकेश के गाने सुनते हुए बितायी। उसकी जेब में प्रेमिका की तस्वीर के बजाए लोंग रहने लगी। दिल के दर्द के साथ दांत के दर्द की ऐसी जुगलबंदी हुई कि वह अपने मुहल्ले का ट्रेजडी किंग हो गया।
आजाद मार्केट, पुरानी दिल्ली के पास लाइन से दांतो के डाक्टर की दुकान थी, पर वहाँ या तो दांत बनाए जाते थे- मतलब पूरा सैट या दांत उखाडे जाते थे। बीच के मामले, छोटी -मोटी बातें जैसे रूट कैनाल, फिलिंग जैसी चीजों का वहां कोई अस्तित्तव नहीं था। उम्र ऐसी नहीं थी कि वह दो-चार दांत उखड़वा के घूमता।
इसी बीच किसी ने उसे कनाट प्लेस में दांतों के डाक्टर एक चड्डा साहब का पता बताया। उन्होंने कुछ दवाई वगैर लगाई पर बात नहीं बनी। एक दिन उनसे अतुल का दर्द देखा नहीं गया और अतुल कुर्सी पर बैठा हुआ आंख में आंसू लिए हुए था तो उन्होंने पंजाबी में कहा ‘कड दां’ मतलब निकाल दूं। उसे कुछ देर उनकी भाषा समझने में लगी। वह सोच ही रहा था कि उन्होंने अतुल के असमंजस को हाँ समझ के एक बड़े लोहे के औजार से दांत पर ग्रिप बनाई। दांत जन्म से उसका साथी था। वह उसे छोड़ना नहीं चाहता था। चड्डा साहब अपने बुढ़ापे की ताकत चैक कर रहे थे। वह आह-आह कर चीख रहा था। पर दांत और डाक्टर की गुत्थम-गुत्था के बीच उसकी कौन सुनता! थोड़े देर में कड़क आवाज हुई। उनका चेहरा मुरझा गया। बोले दांत आधे में टूट गया है बेटा अब ज्यादा दर्द होगा। अतुल जो इतने देर से कराह रहा था और दर्द की कल्पना से सिहर उठा पर आधा टूटा दांत ले किधर जाता, क्या खाता! लंबी चौड़ी जद्दोजहद के बाद उन्होंने दाढ़ निकाल दी और बाकी जख्म समय के साथ भरने के लिए छोड़ दिए।
थोड़ी देर बात उसे ब्रिटेन में नौकरी मिली। वहाँ किसी ने उसे बताया कि आपके घर के पास एक पाकिस्तानी महिला डॉक्टर है। वह उसके क्लिनिक में गया। जैसे ही उसे देखा वहीं से उसके मन में भारत और पाकिस्तान के क़रीब होने और यहाँ तक एक होने के सपने जन्म लेने लगे। उसे अखंड भारत की बातें कुछ समझ में आयीं। उसने अपने स्तर पर भारत और पाकिस्तान में ट्रैक 2 डिप्लोमेसी भी शुरू की। वह सुंदर, ह्रष्ट पुष्ट और मृदुभाषी थी। इतने गुण होने के बाद डाक्टरीय योग्यता मूर्ख ही देखते हैं। वह मि.अ.. तुल ऐसे प्यार से बोलती थी कि वह शर्मा जाता। वह कुर्सी पर बिठाकर अपना मुंह उसके इतना नजदीक ले आती थी, इतना नजदीक ले आती थी कि आज तक पत्नी के अलावा किसी का मुंह उसके इतना नजदीक नहीं आया था। अगर किसी मरीज और डाक्टर में इश्क होने की संभावना है तो वह सबसे ज्यादा दांतों के डाक्टर से हैं। जिनकी बात कहीं ना बन रही हो या अपनी प्रेमकथा पर औपचारिक मुलम्मा चढ़ाना चाहते हों वे दांतो के डाक्टर के क्लिनिक में टिराई कर सकते हैं। कई बार उसे शर्म भी आती पर वह सोचता यह नहीं शर्माती तो मैं क्यों शर्माऊं। वह जहॉ भारत और पाकिस्तान के एक होने की बातें सोचता था, मुझे ऐसा लगा कि वह पाकिस्तान की तरफ से उसे लूट कर पाकिस्तानियों की तरफ से बदला ले रही थी। वैसे भी वहाँ चक्कर लगाना उसका पत्नी को पसंद नहीं था। एक बार उस डाक्टर ने उसे चार्ट दिखाया जिसमें 32 दांतों के चित्र थे। फिर एक-एक कर बताया कि मेरे कितने दांतों में इंफेक्शन है। अतुल को समझ में आया कि वह जिस दांत के दर्द की वजह से यहां आया हूँ वह उसको ठीक करने के साथ उसके दांतो का ठेका उठाना चाहती थी। उधर रोज खाली होती जेब को देख उसकी पत्नी गुस्से में थी। अफसोस व्यक्तिगत स्तर पर भारी प्रयासों के बाद भी भारत और पाकिस्तान के संबंध ना सुधर सके यद्यपि बावजूद जेब कटने की कड़वाहट के कई मीठी यादें शेष रहीं।
अब जब भारत लौटा तो उम्र की वजह से पुराने इंफेक्शन उभर आने लगे। सी.जी.एच.एस डिस्पेंसरी की बात कुछ खास है, वह कुछ साल पहले तक तो दांतो की परेशानी को परेशानी ही नहीं मानती थी और उसे व्यक्तिगत स्तर पर लौंग खाकर, कुल्ले-गरारे कर हल करने का सुझाव देती थी। ऐसा लगता थी कि वे नैचरोपेथी को बढ़ावा देना चाहते थे। अब उन्होंने यह कार्य ठेके पर निजी डाक्टरों के हवाले कर दिया है। यह डॉक्टर जानते हैं कि कर्मचारी को किस-किस चीज का पैसा सरकार द्वारा स्वीकृत है। उसे चाहे-अनचाहे सब कुछ करने के लिए फुसलाते हैं। वह दुनिया भर घूमा पर चूना लगाने की कला में भारतीयों जैसा दक्ष कोई नहीं। यह पान के पते के बिना, कत्थे के बिना चूना लगा देते हैं और जहां सरकार जैसा दैत्याकार व्यक्तित्व हो तो वहां चूना लगाना तो बनता ही है। इनकी बला से दाएं से चौथे के बजाए पांचवा दांत निकल जाए पर पैसा और रिकार्ड बरोबर रहना चाहिए।
इधर एक परिचित को मुंह का कैंसर हो गया। उसके बाद तो उसे बुरे -बुरे सपने आने लगे। जिन डाक्टरों के पास एक-आध बार दिखा कर छोड़ आया था और दांतों को भगवान भरोसे छोड़ दिया था वे सपने में आ आकर कहने लगे हम कहते थे तुम्हें मुंह का कैंसर होगा। डाक्टरों से चारों और घिरा वह आपरेशन थिएटर में खुद को देखता। वहां अगले जन्म में बचपन से ही दांतों का ध्यान रखने का संकल्प ले रहा होता। उसकी नींद खुल जाती तो रात को तीसरी बार ब्रश करने लग जाता।
अब डॉक्टर उसके दांत देखते हैं तो मुस्करा देते हैं। कोई दांत कुंवारा नहीं बचा। सबके चेहरे पर झाईंयां है और दागदार हैं। मुझे अच्छा लगता है दांतो के डाक्टर के पास पूरी तैयारी से बैठना। बुखार वगैरह बीमारी में डाक्टर आपका चेहरा देख या थर्मामीटर लगाने की औपचारिकता पूरी करते हैं। पर दांतो का डॉक्टर आपको खास कुर्सी पर बिठाता है, लिटाता है। उसका सहायक पानी रखता है। एक-एक औजार दिए जाते हैं। सामने चेहरे पर लाइट पड़ती है, जैसे अभी फोटो खीचने वाली हो या शूटिंग होने वाली हो। पैसे तो लगते हैं पर दांतो का डाक्टर आपको वी.आई.पी बना देता है। इंजेक्शन लगने के बाद दांतो में घुसने वाली पिन भी मजा देती है। बल्कि अतुल की तरह नियमित लोगों को तो पिन की कमी खलती रहती है। घर बैठे बैठे लगता है कि काश कोई पिन घुसाए और चल पड़ता है दांतों के डाक्टर की ओर।
अब तो दांतो के डाक्टर के पास जाना उसकी हॉबी बन गई है। डॉक्टर की दुकान मार्केट में है। वह और भी दो-चार काम कर लेता है, जैसे सब्जी खरीदना, बाल काटना आदि। पर मुख्य रूप से लोग यही मानते हैं कि वह डाक्टर साहब के पास आया है और साथ में बाल कटवा रहा है या सब्जी ले रहा है। उसकी पत्नी को भी पता है कि उसे दांतों के डाक्टरों के पास जाना पसंद है इसलिए गाहे-बगाहे पूछ लेती है, कई दिन हो गए दांतों के डाक्टर के पास नहीं गए। उसकी यादें ताजा हो जाती हैं और जब चलने लगता है तो चुपचाप सब्जी का थैला पकड़ा देती है।
साथी उसे दांतो का विशेषज्ञ समझते हैं वह उन्हें दांतों के डाक्टर का पता बता देता है। कुछ को छोड़ कर भी आता है। कुछ उसे परोपकारी मानते हैं, कुछ दोस्तों ने हवा उड़ा दी है कि इसे कमीशन मिलता है। उन्हें अतुल के दांतों से अमर प्रेम कथा के बारे में कुछ नहीं पता।
अँखियाँ लड़ीं ख़ुद से
(व्यंग्य)

– डॉ. शैलजा सक्सेना
जब भी देखते हैं, हम ख़ुद को देखते हैं, ख़ुद को मानते हैं, ख़ुद से बड़ा कब, किस को मानते हैं। यही सोचते सब चले जा रहे हैं, मगन हैं कि शंहशाहे आलम चले जा रहे हैं।
सबके दिल में एक यही ख्याल। मैं एकदम गिरे-पड़े लोगों की बात नहीं कर रही, पर किसी की भी अगर अपने एक पैर पर भी खड़े होने की हिम्मत है, तो उसके मन में भी यही विचार है। ‘‘तू होगा तो अपने घर का होगा, यहाँ तो हम ही हम हैं।” इतनी विविधता में एकता तो संस्कृति दिवस मनाने वाले समय में नहीं होती, जितनी इस एक विचार में है। इस विचार में एक अलग नशा है, धरती से गगन तक, सब अपनी सेवा में खड़े दिखाई देते हैं। सब कुछ पर जब अपना अधिकार तो सड़क पर ‘पिच्च’ करके थूक भी दें, तो भी क्या? पीछे आने आने वाले छींटे से बचना चाहकर भी बच न पाए तो यह उसकी गलती, वह कुछ कहे, तो हम गाली-गुफ़्ता पर। यह उसका काम है कि वह देखकर चले। सड़क उसके बाप की थोड़े ही है! आजकल लोग अपना काम ठीक नहीं करते और बेकार ’दूसरों’ पर दोष!
कवि महोदय ’ख’ मंच पर चढ़े बाद में कि उन्हें तालियों की तलब पहले लग आई। मंच पर पहला वाक्य यही बोले, ’तालियाँ बजती रहनी चाहिए’। उनके हिसाब से तालियों और कविताओं का आपस में क्या मेल, कविता कैसी भी हो, दर्शक का धर्म है ताली बजाना, उसे अपना धर्म निबाहना चाहिए। हम अपना धर्म निबाह रहे हैं, जैसी मर्ज़ी हुई, वैसा सुना रहे हैं। यूँ भी कविता से ज़्यादा लोगों को कॉमेडी भाती है, तभी तो कवियों को चुटकुलों की लाइन लगानी पड़ती है। हमने जो सुनाया, वह अमर है! जो लिखा, वह कालजयी! संस्थानों में साहब, बहुत धाँधली चलती है पुरस्कारों की! इसको उठा, उसको बिठाने की, वरना अपने दिल का खून देकर हम लिख रहे हैं, किसी की मजाल जो कह दे कि कोई कमी है। ‘ख’ महोदय का कवि सम्मेलन के बाद का व्याख्यान जारी है, उनके बगल में बैठे ‘ग’ महोदय मन ही मन ऊब रहे हैं, ‘ख’ को कोस रहे हैं, ’चार कविता ढंग की न लिखीं और ख़ुद को तोप समझ रहा है यह ‘ख’! ‘हमें देखो, हमारे तो मंच पर चढ़ने से पहले ही दर्शक हमारा नाम सुनने को बेताब होते हैं, तभी तो आयोजक हमारे घर हर समय फोन खटकाया करते हैं।’ कई अन्य महोदय आँखें बंद करे, अपनी कविता के प्रेम में डूबे थे और ‘ख’ की बेसुरी बातों और ‘ग’ के बिगड़े मुँह को देख, अपने परम आनंद और अपने श्रेष्ठ काव्यत्व रस को बिगाड़ना नहीं चाहते थे।
इधर यह गोष्ठी थी< तो उधर घर पर ‘ख’ की पत्नी ने मौके का लाभ उठा अपनी मित्र मंडली को आमंत्रित कर लिया था। वे अपनी मित्रों पर अपने रेशमी, मुलायम दही बडों की धौंस जमाना चाह रही थीं, ‘हमारे मिस्टर तो कहते हैं, खाना तो तुम्हारे हाथ का ही स्वाद लगता है, बड़े-बड़े रेस्टोरेंट के खाने से वह तृप्ति नहीं होती, जो तुम्हारे खाने से होती है’। उनकी मित्र प्रशंसा करने में कंजूसी कर रही हैं, श्रीमती ‘ख’ को भी चारों तरफ़ से ‘वाह! वाह!’ सुनने की इच्छा है; पर यह वाह, वाह की चाह उनकी पूरी होती नहीं दिख रही। वे मन ही मन भुनभुना रही हैं, ‘सब जलती हैं, किसी की तारीफ़ करना आता ही नहीं। सच्चाई कबूलने से क्या उरेज़!” उधर अन्य महिलाएँ मन में सोच रही हैं, ‘इतना भी क्या बढ़िया बना लेती हैं, जो पति महोदय फ़िदा हैं। वे तो कवि हैं, बढ़ाकर कह दिया होगा मन रखने को और ये सच मान बैठीं। इनसे बढ़िया तो हम बनाते हैं।”
श्रीमान ‘प’ सरकारी संस्थान के पुनीत महकमें में काम करते हैं। 10 बजे पधारकर, अपने व्हाट्सएप से निगाह उठाकर वे कुछ ज़रूरी फ़ाइलें छाँटते हैं और एक कोने में दो या तीन फ़ाइल रख लेते हैं। अब पूरा दिन इन्हीं को देखा जायेगा। उनके हिसाब से सबसे ज़्यादा काम वे ही करते हैं, बाकी लोगों को देखें तो सारे दिन में एक या हद से हद दो फ़ाइल देखते हैं और अपने को बड़ा कमीला समझते हैं। ‘प’ साहब परेशान हो जाते हैं उनकी काहिली देखकर। एक तो हर समय यह छोटू चाय ले -लेकर आ जाता है, फिर कोई एक सिगरेट पीने उठेगा तो तीन उसके साथ उठ लेंगे। भैया, देश की नैया इन्हीं लोगों के कारण मँझधार में है। ‘प’ साहब के झुँझलाने को बाकी लोग जानते हैं और यह भी कि सारे दिन में तीन फ़ाइलें कोने में रखे ‘प’ दिन भर मोबाइल पर लगे रहते हैं, बहुत हुआ तो कोई स्क्रीन खोल लिया कम्प्यूटर पर। साहब का बुलावा आया तो दो-चार कागज़ का काम कर लिया वरना दिन भर दूसरों को भारत देश की हालत का ज़िम्मेदार बताकर उपदेश। काम तो अब वे ही लोग करते हैं, काम करने वाले को ही चाय- सिगरेट से अपनी थकान उतारने का अधिकार है, जिसने कुछ किया नहीं, जो थका नहीं, उसे क्योंकर चाय की तलब लगेगी?
सड़क पर दो गाड़ियों का एक्सीडेंट हुआ। काली गाड़ी ने गलत मोड़ ले लिया और सामने से आती कार को ठोंक दिया। दोनों कार वाले गाड़ी से उतरकर अपने नुकसान को ज़्यादा बताते लड़ने पर आमादा। दोनों अपने-अपने काम की जल्दी के समय इस एक्सीडेंट के लिए दूसरे को ज़िम्मेदार ठहरा रहे थे.. ‘तुझे पता है टाइम इज़ मनी’ और तेरी वजह से मैं यहाँ अटक गया।’- सुनकर दूसरे का स्वर ऊपर हुआ, ‘गलत मोड़ ख़ुद लिया और मेरा इतना नुकसान किया। मेरे दस काम इसके चक्कर में अटक गए, और अब मुझे बता रहा है, ‘टाइम इज़ मनी’!” हद हो गई। पहला फ़िल्मी अंदाज़ में गुर्रा रहा था, ‘तुझॆ पता है मैं कौन हूँ?’ -पास से गाड़ी गुनगुनाती निकल गई, “मुझसे अच्छा इस दुनिया में न होगा कोई और…”- ट्रैफ़िक के इस तमाशे को देखने वालों में नौजवान लड़के ने अपने बालों पर हाथ फिराया, ख़ुद को हीरो से कम न समझता, कॉलेज की लड़कियों के बारे में सोचता चल पड़ा। उधर कुछ हटकर दीवार की ओर मुँह किए खड़ा आदमी भी अपने अधिकारों का प्रयोग करता स्वयं को किसी देशभक्त से कम न समझ रहा था। धीरे-धीरे पुलिस की गाड़ी प्रकट हुई, जिससे अपने को श्रेष्ठ पुलिस कर्मचारी मानने वाले आदमी ने दोनों से अलग-अलग बात की और अपने अधिकारों के प्रयोग से कुछ हिसाब लगाते हुए अपने कर्तव्य को निर्धारित करने की चेष्टा की।
पास ही पनवाड़ी की दुकान पर पान लगाते आदमी ने दबी ज़ुबान में गाली बकी और कहा, “ठुल्ला, आ गया, अब कर लो टाइम इज़ मनी।’’ पान खाते आदमी ने ‘यह जीवन है..’ के दार्शनिक शांत भाव से तुच्छ भीड़ को क्षुद्र बातों पर लड़ते देख, अशांति महसूस की ही थी कि उसके दाँत के नीचे सुपारी का ज़रूरत से ज़्यादा बड़ा टुकड़ा आ गया, जिसने पान का मज़ा ही नहीं खराब किया; बल्कि दाँत हिला देने वाला दर्द भी पैदा कर दिया था। इधर पनवाड़ी दूसरी ओर खड़े नए ग्राहक को विश्वास दिला रहा था, “हमसे अच्छा कोई पान पूरे शहर में लगाकर तो दिखाए, नाम बदल दीजिएगा।”
सड़क के दूसरी ओर टी.वी. शो रूम में टी वी पर कोई डिबेट चल रही थी। पार्टियों के प्रवक्ता और एंकर की ऊँची आवाज़ें शो रूम की दीवारों को फ़ाड़कर बाहर निकलने को आमादा थीं। एक- दूसरे की कमियों और अपनी पार्टी की अच्छाइयों की न समाप्त होने वाली सूचियों को बताने की गरज़दार आवाज़ें एंकर को यह हिसाब लगाने का समय दे रही थी कि किस पार्टी की तरफ़ से इस समय बोलने में उसे फ़ायदा होगा और किस को उकसाने से उसकी टी. आर. पी. बढ़ेगी। मन ही मन वह हँस रहा था, “तुम्हारा चिल्लाना भी मेरी चाल का एक हिस्सा, तुम्हें चुप कराना भी मेरी चाल का एक हिस्सा” अब मुझ जैसा समझदार मीडिया में और कौन? मेरे कार्यक्रम की रेटिंग देख लो! उधर प्रवक्ता सोच रहे थे, “मुझसे बढ़िया बोलने वाला कौन? तभी तो पार्टी मुझॆ हर बार भेजती है, मैं ही तो पार्टी का चेहरा हूँ, इतना सा बोल/ चिल्लाकर मेरा जीवन ठाठ से चल रहा है और हर कोई पहचानता है मुझॆ सो अलग!” डिबेट मंच पर सब अपनी श्रेष्ठता की मिठास में मुदित मन डूबे चिल्ला रहे थे।
पीछे किसी दुकान के रेडियो से गाना सुनाई दे रहा था, “अँखियाँ लड़ीं तुझसे…” -गाना लिखने वाले ने सोचा होगा कि कितना बढ़िया गाना लिखा है; पर सच कहो, तो यह गलत गाना है! आज किसी को दूसरे से अँखियाँ लड़ाने की फ़ुरसत भी है? यह आत्ममुग्धता का समय है। अपने पर ‘वारी-वारी’ जाने का, अपने ढिंढोरे पीटने का, अपने को श्रेष्ठ कहने का, अपने से आगे किसी को न बढ़ने देने का, अपनी शान और दूसरे की औकात बताने का, अपने झूठ को सच में बदलकर उसे स्वयं भी सच मान लेने का…तो फिर यह गीत हुआ न गलत! लिखना तो यह चाहिए , “अँखियाँ लड़ीं ख़ुद से… !”
अलका सिन्हा

उठो पार्थ, अब किचन संभालो
अभी अंधेरा नहीं छंटा था
तारों का घट नहीं हटा था
सूरज की किरनों का चेहरा
घूंघट में ही छिपा पड़ा था
पंछी अभी नहीं चहके थे
भंवरे अभी नहीं बहके थे
रात्रि का ढलना बाकी था
सूरज का उगना बाकी था
तभी समर का बिगुल बजा था…
और नींद में खलल पड़ा था…
बज उठी घड़ी रणभेरी-सी
उठ जाग मुसाफिर भोर भई।
कितनी प्यारी नींद भोर की
कहो भला क्यों नींद तोड़ दी
सपनों का तांता जुड़ता था
मन पंछी बन के उड़ता था
फिर क्यों इसकी राह मोड़ दी
कहो भला, क्यों नींद तोड़ दी।
उठो पार्थ, अब किचन संभालो
पानी भर लो, मुंह धो डालो
आलस छोड़ो, चादर फेंको
गरमा-गरम परांठे सेंको।
दो चूल्हों का गैस भला
तुमसे टक्कर लेगा क्या
आटा गूंधो, रोटी डालो
सब्जी छौंको, दूध उबालो
जब तक सब्जी पके गैस पर
तब तक कुछ कपड़े धो डालो
उठो पार्थ, अब किचन संभालो।
किचन संभालो, बच्चे पालो
घर भी निपटे, दफ्तर भी
कुछ ऐसी तरकीब निकालो
नए रंग में खुद को ढालो
उठो पार्थ, अब किचन संभालो।
घर से दफ्तर, दफ्तर से घर
ठक-ठक, ठक-ठक,
ठक-ठक, ठक-ठक,
सैंडल की धुन पर बजा बीन
खट-खट, खट-खट
खट-खट, खट-खट
चलती रहती है यह मशीन।
वह दौड़ रही बस के पीछे
या बस पीछे से आती है
आगे भी बस, पीछे भी बस
सरकस का खेल दिखाती है।
वह दौड़ रही, वह दौड़ रही
वह दौड़-दौड़ कर कहां थकी
वह पलट-पलट कर देख घड़ी
वह झटक-झटक कर देख अरी
वह समय पकड़ने जाती है
वह दौड़ रही बस के पीछे
या बस पीछे से आती है।
दफ्तर से घर को फोन मिला
बच्चों को डांट पिलाती है
पहले होमवर्क कर लो
फ्रिज में रखे फल कटे हुए
उनको खा लो, फिर कुछ सो लो
वह बच्चों को दुलराती है
दफ्तर से फोन मिलाती है।
दफ्तर में घर, घर में दफ्तर
यह जीवन समर भयंकर है
इस पर भी मान कहां मिलता
घर को देने को सब अपना
वह रहती हरदम तत्पर है।
दफ्तर में घर, घर में दफ्तर
यह जीवन समर भयंकर है।
चाहा है हमने यह हरदम
वह भले रही हो पढ़ी-लिखी
लेकिन चूल्हा-चौकी में भी
उससे टक्कर में कोई नहीं
सरकारी दफ्तर में हो वो
या किसी स्कूल में टीचर हो
ताकि वह घर को पाल सके
खुद को हर तरह ढाल सके
सीमा पर लड़ते सैनिक-सी
वह हर पग पर लड़ती रहती
जो डटे हुए सीमाओं पर
सहते रहते आंधी-पानी
हैं वीर देश के सेनानी
हंस-हंस दे देते कुर्बानी
उनके आगे नतमस्तक हैं
हैं डटे हुए जो बलिदानी।
उनसे भी आगे एक कदम
लोहा लेती है जो हरदम
भिड़ती रहती है घड़ी-घड़ी
उसको अनदेखा करने में
हमने छोड़ी है कसर नहीं
उसके आगे सर नमन-नमन
गौरव की जो अधिकारी है
जो कई मोरचों पर लड़ती
वह बड़ी आम-सी नारी है।
*****
– अलका सिन्हा
होली के उड़ते रंग
(व्यंग्य आलेख)

आचार्य राजेश कुमार
आप कहेंगे कि भई, इसमें इतना हंगामा करने की कौन-सी बात है? होली के रंग तो उड़ते ही हैं, तो इसमें कौन-सी नई चीज़ हो गई, जो इतना हुड़दंग मचा रहे हो। लेकिन भाई, ज़रा रुकें! एआई के चैट असिस्टेंट की तरह बिना सुने जवाब देना शुरू मत कर दें। मैं होली के रंगों से उड़ते रंगों की बात कर रहा हूँ, मतलब जैसे लोगों के चेहरों से रंग उड़ते हैं, जब वे पाते हैं कि वह उम्मीदवार जीत गया है, जिसे किसी ने भी वोट नहीं डाला। मतलब यह कि मैं होली के ग़ायब होते जा रहे रंगों की बात कर रहा हूँ। ख़ुशी, उम्मीद और एकता के वे जीवंत रंग, जो चुनाव जीते चुके नेता के वादे से भी तेज़ी से गायब हो रहे हैं।
हाँ, अब आई आपको बात समझ में! अब तो आप भी मेरे सुर में सुर मिलाकर कहेंगे कि होली का जो गुलाबी रंग है, वो तो छीन लिया है, महँगाई ने। इनकम टैक्स में जीएसटी में एसजीएसटी में सर्विस टैक्स में कुछ इतना भाई-चारा हो गया है कि पता नहीं चलता कि हम किराने का सामान खरीद रहे हैं या मालदीव में नेता की छुट्टी का ख़र्च उठा रहे हैं। और यह भी समझ में नहीं आता कि हम सरकार को टैक्स क्यों दे रहे हैं, क्योंकि सरकार के काम तो हमें खुद करने पड़ते हैं। गुंडों और पुलिस से भी हमें खुद बचना होता है, अस्पतालों में बड़ा बिल फिर भी देना ही होता है जिसे देखकर ही दिल का दौरा पड़ जाता है, स्कूल-कॉलेजों में मोटी फ़ीस हमें ही देनी होती है जिसका हिसाब-किताब लगाना भी वे नहीं सिखाते, और बिजली जाने पर जनरेटर रॉक कॉन्सर्ट से भी ज़्यादा तेज़ आवाज़ में जनरेटर चलाने के लिए हम ही मजबूर होते हैं।
सही कहा, अब होली का जो नीला रंग है, वो नेताओं के झूठे वायदों ने छीन लिया है, जो सबके सब जुमले ही निकलते हैं। उनके वायदों में हम जीते हैं, तो ये जानकर ही जीते हैं कि हमने उन्हें झूठा जाना है, अगर हमें भरोसा होता, तो हम ख़ुशी से मर न जाते! असल में तो ये हमारी ही कमी है कि हम उन पर भरोसा करते हैं और उन्हें सुनकर सर्कस में सील की तरह ताली बजाते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि उनके वायदे इतने अच्छे होते हैं कि वे कभी सच हो ही नहीं सकते। अब भला प्रेमी अगर प्रेमिका को कहे कि मैं तेरे लिए आसमान के तारे तोड़कर ले आऊँगा और प्रेमिका उस पर भरोसा कर ले, तो यह तो प्रेमिका की ही बेवकूफी कही जाएगी न। इसमें भला नेता क्या कर सकता है? कुछ नहीं।
अब जो होली का लाल रंग है, वह कभी जुनून और प्यार का प्रतीक था, लेकिन अब उस पर विभाजन और नफरत का रंग चढ़ गया है, और वह कमबख़्त सूरदास की काली कामरि जैसा है जिस पर कोई और रंग नहीं चढ़ सकता। नेता लोगों को लड़वाते हैं और लोग तैश में आकर लड़ते हैं और नेता उन्हें लड़वाकर उनकी रोटी हड़प कर जाता है। लोग फिर पछताते हैं, पर तब तक नेता जो है वह खेत चुगकर उड़ चुका होता हो, इसलिए पछताने का भी कोई फ़ायदा नहीं होता। और लड़ाई किस बार पर होती है? तीन सौ साल पहले औरंगजेब ने हमारे मंदिर तोड़ दिए थे। अरे भाई, क्यों नहीं समझते कि दुनिया भर में वो दौर ही था तोड़-फोड़ का! उसके बिना हमलावार का काम पूरा नहीं होता था, ठीक वैसे ही जैसे आज के हमलावरों का काम तुम्हें लड़वाए बिना पूरा नहीं होता, क्योंकि अगर तुम नहीं लड़ोगे, तो फिर नेता से पूछोगे कि महँगाई क्यों है, रुपया क्यों लुढ़कता जा रहा है, पेट्रोल में आग क्यों लगी है, लड़कियों के रेप क्यों करवा रहे हो, वगैरह-वगैरह।
और जो होली का पीला रंग है, उसे छीन लिया है, हमारी प्रदूषित हवा ने, जिसे साफ़ करने के लिए सरकार तो कुछ करती ही नहीं, क्योंकि वो वैसे भी और क्या करती है, जो यह भी करे, लेकिन हम भी इसे ख़राब करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। बैन लगाने के बावजूद पटाखे जलाएँगे बल्कि और ज़्यादा जलाएँगे, कोने की दुकान से दूध ख़रीदने के लिए एसयूवी चलाकर जाएँगे, कूड़ा घर के बाहर फेंककर समझ लेंगे कि सफ़ाई हो गई, नदियों में गंदगी फेंककर सोचेंगे कि पूजा हो गई और पाप दूर हो गए। इस तरह हमने पूरे देश को ही बड़ा कचरा पात्र बना दिया है, जिसे साफ़ करने के नाम पर नेता अलग से पैसा साफ़ कर जाते हैं। पहले तो दुश्मन गैस चैंबर बनाते थे, लेकिन अब तो हम इसमें भी आत्मनिर्भर हो गए हैं, और अपनी हत्या के लिए अब हमें किसी दुश्मन की ज़रूरत नहीं रह गई। हम खुद ही इसे बढ़िया तरह से कर रहे हैं।
बाकी के रंग अपनी संतानों के उतरे हुए चेहरे देखकर उड़ जाते हैं, जो उदास हैं, क्योंकि उनके पंख कतर दिए गए हैं, और उनके सपने छीन लिए गए हैं। उनके लिए न रोज़गार हैं, न फलने-फूलने का परिवेश। वे देखते हैं कि अयोग्य व्यक्ति आगे बढ़े जा रहे हैं, और योग्य व्यक्ति अपनी डिग्रियों को संभाले बैठे हैं, क्योंकि आजकल नकली डिग्रियों का बोलबाला हो गया है। वे बीमार नज़र आते हैं और निराशा के गर्त में उतरते जा रहे हैं।
क्या हम कोशिश नहीं कर सकते कि होली के रंग फिर से लौट आएँ और देश फिर से ख़ुशियों से सराबोर हो जाए? एक ऐसी होली ले लाएँ, जहाँ समृद्धि का गुलाबी रंग लौट आए, विश्वास का नीला रंग फिर से बहाल हो, जुनून का लाल रंग हमें एकजुट करे और धूप का पीला रंग हमारे आसमान को रोशन करे। क्योंकि, जैसा कि रूमी ने कहा था, “घाव वह जगह है, जहाँ से प्रकाश आपके अंदर प्रवेश करता है।”
निशा भार्गव

खाते खाते और खाते
लोगों के खुल जाते हैं खाते
बड़े बड़े खाते, मोटे मोटे खाते
गुपचुप खाते
और हम करते रह जाते है
बातें बातें और बातें।
*** *** *** *** ***
शरीर में शुगर और कोलेस्ट्रल बढ़ने का
बरसों बाद समझ आया चक्कर
जिसको देखो वही कहता है तुम्हारे
मुंह में घी शक्कर
तुम्हारे मुंह मे घी शक्कर
*** *** *** *** ***
थोक विक्रेता की बेटी का विवाह
जब फुटकर विक्रेता से हुआ तो
वह परेशान हो गईं
उदास हो गई
उसके दिल में टीस पैदा हो गई
वह बोली कौन कहता है
मैं शादी के बाद रईस हो गई
अरे मैं तो थान थी कटपीस हो गई।
*** *** *** *** ***
नारी का दर्जा आज भी दोयम है
उसकी तरक्की के आड़े एक नहीं दो दो यम हैं
अपने और पराए दोनों क्या कम हैं
सता कर ही लेते उसे दम हैं।
*** *** *** *** ***
कपड़े टाइट कैरेक्टर लूज
ड्रेस व्हाइट काली करतूत
नित नई फाइट नए नए एक्सक्यूज
हमेशा कन्फ्यूज
यही है आजकल की न्यूज़
आपके क्या हैं व्यूज़?
*****
– निशा भार्गव
ऐसी बानी बोलिए _कबीरा आपा खोए LOL
(व्यंग्य आलेख)

डॉ शिप्रा शिल्पी सक्सेना, कोलोन , जर्मनी
ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोए।
औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय।
15 वीं शताब्दी में जब कबीरदास ने ये दोहा लिखा था तब उनके दिवास्वप्न में भी नहीं आया था कि वाणी की, भाषा की एवं सौम्य, सुंदर, सरल और सुसंस्कृत शब्दों की चाशनी से लबालब भरे जिन शब्दों की वो बात कर रहे है वो 21वीं सदी में आते आते डायनासोर की प्रजाति हो जायेंगे। शब्द सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते होते, इतने अनकटौटे और अरबेटी हो जायेंगे, कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में भी उसको व्याख्यायित करने वाला कोई न मिलेगा। वाणी इतनी निर्लज्ज हो जाएगी कि द्रोपदी की लाज बचाने में सक्षम कृष्ण का चीर भी जिसको नहीं ढक सकेगा। यहां तक कि संस्कारों की सभ्य सीमाओं को चीरते हुए 21वीं सदी की जंगली घास से प्रस्फुटित शब्दावली ब्रह्माण्ड को चीरते हुई पुनः असभ्यता एवं बर्बरता के युग में जाने को उद्यत हो जाएगी। जहां शोर ही संवाद था। सच कहूं तो गूगल बाबा की भी ज्ञानेंद्रियां जिस भाषा के तिलस्मी रहस्य को नहीं खोज पा रही, उसका अनुमान बेचारे कबीर दास लगाने का मंतव्य बना रहे। आर्यभट्ट के शून्य की खोज पर अध्ययन सरल है किंतु आज के युग की न्यू नॉर्मल शब्दावली के अर्थ को क्रैक कर पाना बीरबल की खिचड़ी से भी दुष्कर है। दुनिया चांद पर पहुंच गई है, ai ने मानवीय दिमागों की बत्ती गुल कर दी है, डिजिटल दौर में आदमी मशीन बन गए है और मशीन को चाहिए ऑयलिंग, ग्रीसिंग, तेल, वाणी की शीतलता से कब है इनका मेल। उसे चाहिए करेंट, पर एक बात है ये मशीनी मानव आज भी मिग 25 के युग में तरकश से शब्दों के वाण चला रहे है, हां ये बात अलग है अब इनके तरकश में मान भेदी, संस्कार भेदी, अंग भेदी, अश्लील वाणों की भरमार है। आधुनिकता के नाम पर ये इन्हें खुलेआम चला रहे हैं, लोग भी चटखारे ले ले कर सभ्य भाषा की हत्या का उत्स मना रहे हैं।
सोशल मीडिया पर बदहवास, बौखलाए, पथभ्रष्ट नवयुवक जब अपने ही रिश्तों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। तो हम, हां !! हम ही उन्हें मिलियन views देकर मालामाल कर रहे हैं। उनके अभद्र अश्लील बेसिरपैर के चुटकुलों पर बेशर्मों की तरह हंसकर उनका हौसला बढ़ा रहे हैं। जिस बेटे ने मां-बहन की इज्जत अभी सरेआम तार-तार की थी , वो ब्लॉग्स बनाकर बड़े-बड़े शोज में अपने हाईलोजन के संघर्षों की गाथा सुना रही है। अब कुल चिराग कहकर इन महान कुपूतों की झूठी शान में बट्टा थोड़ी लगाना है। और न ही इनके शब्द भेदी वाणों की शर शय्या पर अपने जमीर को लिटाना है । वाह री दुनिया, वाह रे रिश्ते। ये सब सुनकर कबीरदास सकपकाए बोले ये स्टेल्थ बॉम्बर जैसी कौन सी भाषा है, जो मेरे दोहे के परखच्चे उड़ा रही है। उलटवासी और अनगढ़ तो हम भी कहते थे, पर ये Lol क्या बला है अब तो हम भी हैं सकते में।
आनन फानन भारतेंदु जी को फोन लगाया पूछा Lol जानते हो , भारतेंदु जी ने कहा निज भाषा उन्नति है, सब उन्नति को मूल, मेरे युग में भाषा में नहीं हुई कोई भूल। Lol कुछ विचित्र लगता है, शायद मंगल ग्रह की भाषा है। कबीरदास भौचकाए बोले घट घट में जब राम को खोजा तो lol को भी खोज लेंगे। सोचा चलो वर्तमान में चलते हैं, कल ही विज्ञापन आया था, महाकुंभ लगा है ज्ञानी विज्ञानी का थाल सजी है, कोई न कोई मिल जाएगा, LOL का राज भी खुल जाएगा। महाकुंभ में प्रवेश करते ही एक गौगल धारी, सिक्सपैक युवा कबीरदास को देखते ही बोला क्या तुम ही आईआईटीएन बाबा हो, मैं भी एयर इंजीनियर हूं, पंचर बनाता हूं , hey buddy व्हाट्स अप।
कबीर दास सकपकाए बोले वत्स ! ये कौन सी भाषा है , जो हम समझ न पाए। युवक पोकर मुंह करके बोला _ Lol हिंदी है ड्यूड। कबीर ने कहा Lol _Lol क्या है ये मखौल। युवक ने कहा चिल पिल मैन हम जैज़ी है, ज्यादा बोलेंगे तो Ls हो जायेंगे, इसलिए LoL कहकर स्माइली भेज देते है, मुस्कुराने का कष्ट भी नहीं करते है। अब चौंकने की बारी कबीर दास की थी, बोले- हे राम, हमें जब हंसी आती थी हम हंसते थे, हंसने के लिए भी शब्द, हे परमानंद कैसी तेरी माया है। जैसे जैसे कबीरदास का ज्ञान बढ़ रहा था हताशा और नैराश्य से उनका हृदय डूब रहा था। कबीरदास ने मन ही मन सोचा, ये बेचारा अभी छोटा है, एक पीढ़ी ऊपर चलते हैं, युवक के मां बाप से मिलते हैं। वो अवश्य ही वाणी में शीतलता रखते होंगे; किसी का आपा न खोए ऐसा प्रयास करते होंगे।
घर में प्रवेश करते ही युवक ने जोर से आवाज लगाई, ममी, कबीर घबराए!! बोले ममी तो मरे हुए शरीर को कहते है, क्या इस युग में ममी को घर में रखते हैं। तभी एक पाउट धारी, सुंदर, छहररी काया वाली नारी साक्षात प्रकट हुई, उन्हें देख वाणी की शीतलता के सपने को लग गई ब्रेक। कबीर ने कहा- यह ममी है। आशा अभी भी बची है, बेटा पिताश्री को बुलाओ वो चिल्लाया डेड, हाय हाय! ये क्या सुना, हृदय पकड़ कर बैठ गए कबीर बोले, आह हे प्रभु !! कितना दुखद इस उम्र में वैधव्य।
युवक बोला OMG !! जैसा आप सोच रहे वैसा नहीं है, पिता जी जिंदा है। कबीरदास ने मन ही मन सोचा अब किसी से क्या ही मिलना है, गुरु को बुलाया तो जाने क्या बुला देगा। महाकुंभ में आया हूं पाप लगा देगा। टीचर ही भला है कम से कम टी बुलाएगा, फिर चाहे हम चाय समझे, कम से कम गुरु को ___तो नहीं बुलाएगा।
हम हंस सकते है, क्योंकि भाषा, वेद, पुराण, संस्कार हम में अभी जिंदा है किंतु आने वाला समय विध्वंसकारी है, सोच कर देखिए जब हमारे बच्चे इमोजी, omg, Lol से काम चलाएंगे। हमारे वेद, पुराण, संहिताएं न उनसे पढ़े और न ही उन्हें समझ आयेंगे। पूरा वाक्य बोलना भी सजा होगा, शब्दों का अकाल और सिर्फ अभद्र भाषा से उनका शब्दकोश भरा होगा।
रील की दुनिया से रियल में आइए। संवाद स्थापित कीजिए। वरना हम बस HMRJ अर्थात हाथ मलते रह जायेंगे।
रेखा राजवंशी

होली आई रे
बरसे रंग, अबीर, गुलाल
दिल में रहा न कोई मलाल
होली आई रे
बाजे फिर से ढोल मृदंग
सबके मन में नई तरंग
होली आई रे
सारे मिलकर खेलें फाग
गाएं होरी, ठुमरी, फाग
होली आई रे
उड़ने लगा गुलाल अबीर
प्रेमी मन है आज अधीर
होली आई रे
केसरिया बालम जी आए
गोरी की चूनर भी लाए
होली आई रे
गोरी ने भर ली पिचकारी
बालम जी के ऊपर मारी
होली आई रे
खाएं गुझिया और मिठाई
घुटे भंग, छनती ठंडाई
होली आई रे
*****
– रेखा राजवंशी, ऑस्ट्रेलिया
होगी प्रीत की जीत!
(व्यंग्य कथा)

– आराधना झा श्रीवास्तव, सिंगापुर
कपड़ों से कसमसाए वॉर्डरोब पर एक उड़ती नज़र डालकर आहना ने रोहन से कह दिया कि, “मेरे पास पार्टी में पहनने के लिए कुछ नहीं है।” “कुछ नहीं है..”, ये सुनकर ऐसा लगा या तो रोहन के कान बज रहे हों या फिर कपड़ों ने अदृश्य होने की कोई अद्भुत कला सीख ली हो। अभी कल ही तो कह रही थी कि इतने कपड़े हो गए कि वॉर्डरोब में रखने की जगह नहीं। आहना बात को इतनी जल्दी कैसे पलट देती है मैं हैरान हो जाता हूँ। यही ग़ुस्ताख़ी अगर मैंने की होती तो अब तक पलटूमल की उपाधि मिल चुकी होती लेकिन श्रीमती जी को उनकी कही बात याद कौन दिलाए? नई-नई शादी है और मैं बेवजह के क्लेश का कारण नहीं बनना चाहता। पापा ने शादी वाले दिन ही सुखी गृहस्थ जीवन के लिए एक अमोघ अचूक मंत्र कान में फूँका था।
“बेटा जी श्रीमती जी हमेशा सही होती हैं। उनकी हाँ में हाँ मिलाया करो वरना नकार दिए जाओगे। तुम भले ही दुनिया के सबसे क़ाबिल इंसान क्यों न हो लेकिन श्रीमती जी के सामने बुद्धिबल का बेवजह प्रदर्शन कर अपनी फजीहत कभी मत कराना। अपने इस फ़िल्मी गीत में इन्दीवर महोदय ने कितनी गहरी और सच्ची बात कही थी, तुम भी सुन लो और इसे अपने जीवन का मूलमंत्र बना लो –
“जो तुमको हो पसंद वही बात करेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे”
लेकिन रोहन से रहा नहीं गया। उसने पलट कर पापा से सवाल कर ही दिया, “पापा अगर कोई दिन को रात कहेगा तो मैं कैसे उसकी हाँ में हाँ मिलाऊँ आख़िर मेरी भी तो तर्कशक्ति है। विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ ऐसे कैसे अपनी मेधाशक्ति को कुंठित कर दूँ?”
पापा अपने फ़ुलफ़ॉर्म में थे। बोले, “बेटा ऐसा है कि अकबर इलाहाबादी साहब बहुत पहले तुम जैसे अक़्लमंदों के लिए लिख गए थे –
‘इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता’
इसीलिए अगर तुम्हें अपनी श्रीमती जी से पाना है प्यार, तो फिर मेरी कही बातों से न करना इंकार, वरना बेटा बाद में तुम्हें ही झेलनी होगी अपनी श्रीमती की डाँट और फ़टकार।”
शायराना अंदाज़ में पापा ने अपनी बात को इतिश्री कथा समाप्तम् के अंदाज़ में कहकर मुझे गले लगाते हुए कहा – “जा रोहन जा अब जी ले अपनी श्रीमती की मर्ज़ी वाली ज़िंदगी।”
एक पल के लिए सोचता ही रह गया कि आख़िर पापा ने ऐसा क्यों कहा क्योंकि फ़िल्मी डायलॉग तो कुछ और ही था। बाद में समझ आया कि अगर सिमरन के बाउजी उसे मनचाही ज़िंदगी जीने की आज़ादी दे रहे हैं तो बेचारे राज को तो अपनी ज़िंदगी के अरमानों का गला घोंटना ही पड़ेगा। दोनों के अरमान एक साथ फल-फूल सकें ऐसी स्थिति तो आदर्श ही कहलाएगी न.. जिसे प्राप्त करना मुझ जैसे अकिंचन के लिए अप्राप्य है इसीलिए अपनी चादर का अनुमान करते हुए मैंने उस दिन से ही अपने अरमानों के पैरों को सिकोड़ कर सोने की आदत लगवा दी। अब मैं सपने में भी आहना की अवमानना की नहीं सोचता। क्या पता मेरे सपनों में सेंध लगाकर वह वहाँ पहुँच जाए और मेरे हृदय में पल रहे विद्रोह के स्वर सुन ले तो मेरी गृहस्थी बसने के पहले ही उजड़ जाएगी।
फ़्लैशबैक की गलियारों में चक्कर लगाते-लगाते मैं भूल ही गया कि आहना न जाने कब से मुझे घूर रही है – “रोहन, सुनाई नहीं दे रहा क्या… मैं जाने कब से बड़बड़ाए जा रही हूँ और तुम हो कि कानों पर जूँ भी नहीं रेंग रही।”
इस जूँ वाली बात से मुझे बहुत चिढ़ मचती है। जिसने भी इस मुहावरे को लिखा होगा ज़रूर उसके सिर में या उसके भाई-बहनों में से किसी के सिर में जुओं ने अपना अड्डा बना लिया होगा जिसमें से किसी ने सैरसपाटे के इरादे से उसके कान के ख़ूब चक्कर काटे होंगे। मुझे भी अपनी मौसेरी बहन धानी दीदी की याद या गयी जिनकी चोटी से जुएँ बाहर निकलकर हमें अक्सर सलाम-नमस्ते करने आया करती थीं। उफ्फ़!! कितना चिढ़ता था मैं धानी दीदी के उन खूनपिपासु जुओं से।
रोहन…रोहन सुन रहे हो कि नहीं..। आहना की तेज़ आवाज़ मुझे जुओं की ख़ौफ़नाक यादों के साये से बाहर निकाल लाई। चलो पहली बार आहना के चिल्लाने से कोई अच्छी बात तो हुई। मैंने हड़बड़ा कर कहा – “हाँ आहना बेबी, मैं सुन भी रहा हूँ और देख भी रहा हूँ। चलो चलकर तुम्हारे लिए कुछ नए कपड़े ख़रीद लेते हैं।”
“रोहन, कैसी बात कर रहे हो? दो घंटे बाद पार्टी है और मैं अभी शॉपिंग करने जाऊँ?”, आहना ने खीजते हुए कहा।
रोहन ने हाँ में हाँ मिलाने की पापा जी सलाह मानते हुए कहा, “हाँ बेबी बात तो तुम्हारी ठीक है। ऐसा करो कि आज इन्ही में से कोई ड्रेस पहन लो अगली बार के लिए नए कपड़े ख़रीद लेना।”
“क्या बात कर रहे हो रोहन…इनमें से तो एक भी ड्रेस ढंग की नहीं। ये वाली ड्रेस तो कितनी ढीली है”, आहना ने मुँह बनाते हुए कहा।
इस बार रोहन सजग था सो बिना एक पल गंवाए उसने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “ढीली है तो तुम्हारे लिए आरामदेह रहेगी वैसे भी आज कितनी गर्मी है।”
“हाँ गर्मी तो है लेकिन इसे पहनकर तो झोला लगूँगी।”
“नहीं आहना, तुम पर तो सारे कपड़े फबते हैं। छरहरी हो और इतने सुंदर नैन-नक्श! यदि तुम इन्हें अपनी काया से लिपटा लो तो इन बेचारे कपड़ों के भी दिन फिर जाएँगे।”
तारीफ़ की आँच से आख़िर आहना का ग़ुस्सा पिघलने लगा और उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट तैरने लगी। आहना की मुस्कुराहट रोहन के विजय का संकेत थी लेकिन यह संकेत अधिक पल ठहर न सका। वैसे भी सुख भरे पलों को तो पंख लग जाते हैं और दुख के पैरों में तो पत्थर बंधे होते हैं। अगले ही पल आहना के चेहरे का रंग शेयर मार्केट के लाभ-सूचकांक की तरह सकारात्मक से नकारात्मक हो गया। उसने झुँझलाते हुए कहा, “अपनी बातों के जाल में उलझाकर मुझे मुद्दे से मत भटकाओ। ध्यान से देखकर बताओ इनमें से कौन सी ड्रेस पहनूँ?”
आहना के लिए रोहन की पसंद-नापसंद कितने मायने रखती है यह देखकर उसका अहम् गुब्बारे-सा फूल गया। अपनी अहमियत का अहसास हर पुरुष को असीम संतोष के भाव से भर देता है और रोहन के लिए तो शादी के बाद ऐसे पल दुर्लभ हो गए थे। प्रफुल्लित भाव से उसने वॉर्डरोब को ध्यान से देखा और उसमें से एक चाँदी रंग का परिधान चुनकर आहना को थमाया।
आहना ने बुरी सी शक़्ल बनाते हुए कहा, “ये चमचम..मुझे नमूना बनाना चाहते हो क्या?”
“तुमने ही तो मुझसे कहा था कि यह रंग फ़ैशन में है तभी तो तुम्हारी पसंद से इसे ख़रीदा था।”
“हाँ पर उस बात को पूरे दो महीने बीत चुके हैं रोहन। अब ये रंग कोई नहीं पहनता।”
“दो महीने में रंग पुराना हो गया? ऐसा है फिर तो नए कपड़े ख़रीदने का क्या फ़ायदा.. हर दो महीने में नया फ़ैशन आ जाता है।”
“हाँ अब आई न तुम्हारे दिल की बात ज़ुबान पर। अभी कुछ वक़्त पहले तो बड़े प्यार से कह रहे थे कि चलो शॉपिंग करने और अब कह रहे हो कि नए कपड़े ख़रीदने का क्या फ़ायदा…मुझे पहले से ही पता था कि तुम अव्वल दर्ज़े के कंजूस हो।”
आहना एक के बाद एक तानों के तीर चलाती जा रही थी। उसके पास तानों की अबाध आपूर्ति होती रहती है और बेचारे रोहन की स्थिति चक्रव्यूह में फँसे अभिमन्यु सी। एकाध ताना हो तो साहस के साथ सामना किया जा सकता है मगर एक साथ सारे ताने उसे ही निशाना बनाने लगे तो बेचारा क्या करे? यहाँ तो कोई दलील, कोई अपील, कोई सुनवाई काम नहीं आती है। जब चित्त भी मेरी और पट भी मेरी हो तो बेचारा अंपायर क्या करे? इससे पहले कि उसके बचे-खुचे धैर्य का कोटा समाप्त होता उसने बुझते दीए की तरह पूरी जोश के साथ एक आख़िरी कोशिश की, “आहना बेबी, तुम्हें जो ठीक लगे तुम वही पहनो। कल चलकर तुम्हारी पसंद के कपड़े ख़रीद लाएँगे।”
“हाँ…हाँ… सुन लिया मैंने। कितनी बार एक ही बात दोहराओगे? कल चलेंगे… कल चलेंगे… लेकिन आज की पार्टी का क्या? कुछ ढंग की सलाह तो दे नहीं रहे”, आहना ने फिर से तंज कसा।
रोहन ने फिर से समाप्त होते धैर्य की बैटरी पर जल रहे फ़ीके बल्ब सी मुस्कुराहट लिए आहना से कहा, “आहना तुम यह हल्की ग़ुलाबी रंग की साड़ी पहन लो जो माँ ने तुम्हें होली पर दी थी। इसमें तुम बहुत सुंदर लगती हो।”
“हाँ अब बस यही कसर बची हुई थी। तुम यही तो चाहते हो कि मैं साड़ी पहनकर आँटी जी बनकर पार्टी में जाऊँ ताकि तुम स्मार्ट और यंग लगो। मैं तुम्हारी चाल को बख़ूबी समझती हूँ।”
रोहन हैरान होकर आहना को देखता ही रह गया। किस मिट्टी की बनी हुई है यह..पहले सलाह माँगती है फिर उसकी धज्जियाँ उड़ाती है। पहले मुझ पर आरोप लगाती है और यदि चुप रहूँ तो मुँह में उँगली डालकर बोलने पर मजबूर कर देती है। अपनी श्रीमती जी की इस अदा पर रोहन को अकबर इलाहाबादी साहब का लिखा हुआ यह शेर याद आ गया –
“हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।”
मैं इधर शेर याद करने में लगा रहा उधर मेरे घर की शेरनी ग़ुस्से में और भी खूँखार होती चली गई। सारे कपड़े पलंग पर पटक कर चल पड़ी कोपभवन की ओर…हमारे घर का सबसे मनहूस कोना जहाँ समय-समय पर रुठने- मनाने का पर्व आयोजित होता रहता है। सच तो यह है कि हम दोनों हर दिन इसी कोने में मिलकर इस पर्व को मनाते रहते हैं। इस पर्व के आयोजन के लिए आपको अधिक श्रम करने की आवश्यकता नहीं है। बस देर है आपके प्राणप्रिये के चिढ़ने की जिसके लिए किसी निश्चित कारण की आवश्यकता नहीं होती। उनका मूड किसी भी बात से ख़राब हो सकता है और उनके ग़ुस्से की बिजली किसी भी क्षण आप पर गिर सकती है। घर का यह कोना मेरे लिए किसी प्रताड़ना-कक्ष से कम नहीं है क्योंकि हर बार निरपराध होते हुए भी मुझे ही अपनी ग़लती स्वीकारनी पड़ती है और फिर श्रीमती जी को उनकी पसंद की शॉपिंग करवाने की शर्त पर ही इस कारागार से जमानत मिल पाती है। आज का दिन भी अपवाद नहीं रहा। श्रीमती जी ने मेरे अनुनय-विनय पर अपनी पसंद की वही ड्रेस पहनी जिसे मैंने सबसे पहले चुना था और जिसे झोला कहकर उन्होंने तिरस्कृत कर दिया था। मैंने उस चाँदी रंग के परिधान को देखा तो चेहरे पर यह सोचकर संतोष का भाव आ गया कि अंतत: आहना ने मेरी बात तो मान ली।
आहना की एक्सरे जैसी निगाहों ने मेरे दिल का हाल भाँप लिया। मुझे गले लगाते हुए बोली, “बेबी मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहती थी इसीलिए न चाहते हुए भी तुम्हारी पसंद की ड्रेस पहन रही हूँ।”
“न चाहते हुए भी???” इस एक छोटे से वाक्य ने मेरे चेहरे के संतोष-भाव की सारी हवा निकाल कर रख दी। इतने समय से मुझे उलझाकर रखने के बाद आहना अब भी मुझ पर एहसान करने का भाव जताए जा रही थी। मैं चुपचाप सिर झुकाए, चेहरे पर कृत्रिम मुस्कान बनाए रखने की नाकाम कोशिश के साथ उसकी बातें सुनता रहा। वॉर्डरोब में कसमसाए हुए कपड़े हमें हैरान होकर देख रहे थे और पड़ोस के शर्मा अंकल के घर में इस गाने के बोल गूँज रहे थे,
ये लो मैं हारी पिया हुई तेरी जीत रे
काहे का झगड़ा बालम नयी नयी प्रीत रे….।
गाने के बोल थोड़े उलटे ज़रुर थे लेकिन परिस्थिति तो वैसी ही थी। अब तक रोहन को परिस्थिति के हिसाब से ख़ुद को ढालने की आदत हो चुकी थी और अपनी इस प्रतिभा का प्रयोग करते हुए उसने गाने के बोल बदल डाले।
“ये लो मैं हारा प्रिये हुई तेरी जीत है
काहे का झगड़ा जानम नई अपनी प्रीत है।”
रोहन इसे खुलकर गाना चाहता था किंतु गाने के बालों में ‘हारा’, ‘झगड़ा’ जैसे नए संग्राम की आधारभूमि तैयार करने में सर्वथा समर्थवान शब्दों की उपस्थिति के कारण उसके पास मन-ही-मन गुनगुनाने के सिवा और कोई उपाय न था। बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुए शांतिकाल के इन पलों को वह भंग नहीं करना चाहता था। क्या पता यह पल अगले पल हो न हो..
(विशेष टिप्पणी: इस व्यंग्य-कथा का आपकी ज़िंदगी की वास्तविकता से मिलना संयोग मात्र है। इस कथा के पात्रों को गढ़ने के लिए लेखिका को अपने दिमाग़ के घोड़े अधिक दूर तक नहीं दौड़ाने पड़े बस जिधर नज़र डाली वहीं जीते-जागते पात्र उसे नज़र आ गए घर के बाहर भी और घर के भीतर भी।)
होली

– सुनीता पाहूजा
हर साल की तरह फिर आया होली का त्यौहार्! फिर किया गया होलिका दहन, फिर दोस्तों-दुश्मनों को लगाया गया अबीर–गुलाल और एक बार फिर भिगोया गया उन्हें रंग-बिरंगे पानी से!
इस मशीनी युग में हम त्यौहार भी ‘मकैनिकली’ मनाने लगे हैं। सब कुछ मानो स्वतः होता चला जाता है, कोई यत्न नहीं करना पड़ता।
होलिका-दहन का समय आया – लकड़ियाँ इकट्ठी कीं, विधिवत् पूजा की, होलिका जलाई और……..और क्या? और बस……। बच्चों द्वारा पूछे जाने पर उन्हें यंत्रवत बता देते हैं कि यह सभी बुराइयों को आग में झोंक देने का त्यौहार है। यों तो हर त्यौहार बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक होता है। पर क्या हम किसी साल के किसी एक भी दिन ऐसा कर पाते हैं? क्या कभी हम अपने मन के विकारों को होम् कर पाए, क्या मन में उठने वाले ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह इत्यादि को इन त्यौहारों की पवित्र अग्नि के सुपुर्द कर पाए, क्या सभी विषय-विकारों को स्वाह कर पाए?
अपना-अपना जवाब हम जानते हैं। और किसी दूसरे के सामने हम जवाबदेह हैं भी नहीं, होंगे भी तो क्या कभी सच बोलेंगे? दरअसल जवाब तो हमें खुद को देना है और खुद से हम झूठ बोल नहीं सकते। सम्भवतः इसीलिए हम कभी स्वयं से साक्षात्कार करते ही नहीं। अक्सर खुद से नज़रें चुराए रहते हैं।
और जहाँ तक रंगों से खेलने की बात है तो उसका उद्देश्य कभी किसी ज़माने में यही रहा होगा कि सब एक-रंग हो जाएँ, दुश्मन कोई हो भी, तो दोस्त नज़र आए। रंग तो हम आज भी खूब लगाते हैं – एक-दूसरे को, मुट्ठी भर-भर कर। लेकिन क्या भेद-भाव कभी खत्म कर पाए हैं? क्या समाज में जड़ पकड़ चुकीं भिन्न-भिन्न प्रकार की असमानताओं को दूर कर पाए हैं?
सच तो यह है कि आज हम रंग इसलिए नहीं लगाते कि हम सब एक से लगें बल्कि हम तो इंतज़ार करते हैं कि सब हम पर इतना रंग लगा दें कि हमारा असली चेहरा नज़र ही न आए। एक ऐसा नकाब उस पर चढ़ जाए जिसकी ओट में हमारी चेहरे के अच्छे-बुरे भाव छिपे रहें और कोई हमारा चेहरा पढ़ कर हमारे दिल तक की राह कभी न पकड़ पाए। हम चाहते ही नहीं दूरियों को खत्म करना।
प्रह्लाद वाला विश्वास और प्रेम हमारे पास आज है कहाँ जिसमें सराबोर होकर हम इस धरती पर मानवता की महक और रंग बिखेर सकें और दिल से कह सकें — होली है भई होली है !!!
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ये होली! ये होली!
लो आ गया फाल्गुन
लेकर खुशियों की बहार,
संग ले रंगों की फुहार
और खुशबू भरी बयार,
भरने को सबके दिलों में
बस प्यार, प्यार और प्यार!
इस होली पर हर भेद-भाव भुलाना है
रूठों को मनाना है, रोतों को हँसाना है
जो दूर हैं उन्हें, दिल के करीब लाना है
खुशियाँ सबके बीच बस बाँटते जाना है
जीवन में उल्लास भर दें
रिश्तों में मिठास भर दें
रंग चढ़े मानवता का सबपर
नशा प्रेम का बोले सर चढ़कर
सभी धर्मों की हो एक ही टोली
तभी तो गर्व से हम कह सकेंगे
मुबारक हो सबको
ये होली! ये होली!!
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– सुनीता पाहूजा
क़िस्सा कनस्तर का

– अनीता वर्मा
टीन का डिब्बा यूँ तो बहुत खन खन करता है पर आज हम कनस्तर के कनेक्शन की बात करेंगे जो ढोल की पोल सा है हर दफ़्तर का है जब बजता है तो बस बजता चला जाता है। तो क़िस्सा कनस्तर का कुछ यूँ शुरू हुआ कि चरपरी सी आवाज़ वाली चाँदनी मैम की सेवानिवृत्ति का दिन पास आ रहा था।
सेवानिवृत्ति से पहले अपने चार्ज को लेकर सारा दिन सूची बनाती रहती सब काम तो हो गए लेकिन अन्तिम दिन से दो दिन पहले पता चला कि उनके चार्ज में पाँच कनस्तर थे जिन्हें कक्षाओं में कूड़ेदान के रूप में प्रयोग किया जाता था। वो पांचों कनस्तर ग़ायब थे और उनकी जगह कब नए कूड़ेदान आ गए थे पता ही नहीं चला।
दिन भर पुराने कनस्तर ढूँढने की कोशिश करती रहीं सब से चरपरी आवाज़ में तीखी मिर्ची सी पूछती रहीं पर कनस्तर तो गधे के सिर से सींग की तरह ग़ायब हो चुके थे। और उधर इनचार्ज ने साफ़ कह दिया कि कनस्तर नहीं तो क्लीयरेंस नहीं। समस्या बहुत बड़ी नहीं थी पर कनस्तर कहाँ से आएँ तो आनन फ़ानन में स्कूल के पुराने कबाड़ को ख़रीदने वाले कबाड़ी को बुलाया गया। घुच्ची आँखों वाला कबाड़ी बहुत शातिर था। तेल देखता था और तेल की धार देखता था। बहुत ना नुकर करने के बाद पाँच कनस्तर महंगे दामों में देने को तैयार हो गया।
कनस्तर को देखते ही चाँदनी मैम के चेहरे पर चाँदनी बिखर गई। अरे ये तो वही कनस्तर हैं तुम्हारे पास कैसे पहुँचें। घाघ की तरह मुस्कुराता हुआ कबाड़ी अपनी गोल गोल छोटी आँखों को घुमाकर बोला- ये तो आपको पता करना है कि कनस्तर कैसे मुझ तक पहुँचे। मुझे पैसे दें और मैं जाऊँ। अब मरती क्या ना करती मुँह मांगे दामों में कनस्तर वापिस ख़रीद लिए। उधर ये बात पूरे विद्यालय में फैल गई कि जो कनस्तर ग़ायब हुए हैं वो किसी ने कबाड़ी को बेचे थे। ये कनेक्शन कैसे बना, कहां से किसने कब कैसे और कितने में कबाड़ी को बेचे इस पर चर्चा होने लगी।
कमेटी बनाने और जाँच कमेटी गठित करने की बात होने लगी। चाँदनी मैम के चेहरे की चाँदनी पर हवाइयाँ उड़ने लगी। सेवानिवृत्ति को एक दिन बचा हुआ था और समस्या थी कि द्रोपदी के चीर की तरह लम्बी होती जा रही थी। ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। चौकीदार, सफ़ाई कर्मचारियों, सभी को इनचार्ज ने बुलाया और पूछताछ शुरू की गई।
अन्ततः रात को आनन फ़ानन में विद्यालय निरीक्षक से सम्पर्क साधा गया। गोल मटोल और बातों को गोल गोल घुमाने वाले महाशय ने चाँदनी जी को व इनचार्ज को कमरे में बुलाया। लम्बी बैठक हुई और फिर दोनों हंसती हुई कमरे से बाहर निकली। पुराने रजिस्टर में नई प्रोपर्टी में कनस्तर को बेचकर मिले पैसों से नए कूड़ेदान की ख़रीद दिखाई गई और विद्यालय निरीक्षक ने विषय को गोल घुमाते हुए गोलमाल नहीं हुआ सिर्फ पुराने के बदले नए की ख़रीद हुई है दिखा दिया। चाँदनी मैम ने चुपचाप चाँदी के क़लम देकर चार्जमुक्ति सूची पर हस्ताक्षर ले लिए। इनचार्ज ने भी चाँदी का वर्क वाला पान मुँह में दाब कर कुछ नहीं कहा। तो इस तरह से कनस्तर टनटनाता हुआ बजता रहा और फिर फेंक दिया गया एक कोने में वापिस कबाड़ी के पास।
पाँच कनस्तर पाँच बार एक ही कबाड़ी से ख़रीदे व बेचे गए और यूँ कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाए वाली बौरायी सी चाँदनी जी की जी सेवानिवृत्ति सम्पन्न हुई। बिहारी को जीवन भर पढ़ाती हुई चाँदनी जी को आज इस दोहे का अर्थ समझ आया।
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ये सम विषम का चक्कर है
मैं तो सम हूँ तुम हो विषम प्रिय
मैं नव नवीन कोमल मन की
तुम ही पत्थर पाषाण बने
मैं जीवन में रहती सम भाव नेह से
तुम विषम विकट बन जाते अक्सर
मैं सम हूँ समीकरण जीवन का
तुम विषम कोण से अड़े सदा
ये दुनिया सम से चलती है
तुम विषम बने क्यों अड़ते हो
अब तुम्हीं कहो ऐ विषम विकट
क्या जीवन नैया यूं बढ़ सकती है
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– अनीता वर्मा
मनोज श्रीवास्तव ‘अनाम’

बिल्ली-बन्दर
एक बिल्ली एक बन्दर थे
दोनों एक कमरे के अंदर थे
बन्दर बोला आई लव यू
बिल्ली बोली क्या कहता तू
हम दोनों में क्या रिश्ता है
इतना भी न तुझे पता है
बुजुर्गों का ऐसा कथन है
हम दोनों तो भाई बहन हैं
सारी दुनिया ने यह जाना
सब बच्चों के मन ने माना
तुझे पता न यह ड्रामा है
मैं मासी और तू मामा है।
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मैं बुरा आदमी हो गया
मैं अच्छा लड़का था
फ़िर दिल्ली आ गया।
एक दिन डीटीसी में किसी ने
मेरे कंधे को ठेलते हुए कहा!
आगे बsssssढ़…..!!!!!!!
मैंने मुड़कर देखा और चीखा
पी…ई…ई…छे हssssssट
वह आदमी भयाक्रांत हुआ
मेरी संस्कृति में सदा से ही
किसी को डराना गलत रहा है।
इस तरह मैं अपनी संस्कृति की
अवहेलना कर गलत आदमी हो गया।
मैं बहुत अच्छा लड़का था
फ़िर मेरा विवाह हो गया।
तदुपरान्त पत्नी ने कहा!
मुझसे पूछ कर जाना
और बता कर आना होगा।
ऑफिस के बाद दोस्ती, रिश्तेदारी
और परिवार के प्रति वफ़ादारी
अब बिल्कुल नहीं चलेगी।
तुम सिर्फ़ मेरे और मैं तुम्हारी दुनिया
और दुनिया गोल है
यही मेरे रिश्ते का मोल है।
इतना सुन के मैं बोला
कि तू बकलोल है।
और इस तरह मैं
अपनी पत्नी की अवहेलना कर
बुरा आदमी हो गया।
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– मनोज श्रीवास्तव ‘अनाम’