संपादकीय वक्तव्य

वो महकती सी लड़की,
और नुक्कड़ की अम्मा
खुद से ही खुद को सवाल पूछती है
सवालों में अपने जबाब ढूँढती है
वो लड़कियाँ और तितलियाँ
वो रंग बिरंगी मछलियाँ
वो सड़कें पगडंडियाँ
वो अल्हड़ सी मस्तियाँ
ना जाने कहाँ से कहाँ को चली है
ना जाने कहाँ जाके गुम हो गई है
उनकी उड़ानों का हाल पूछती है
वो ख़ुद से ही अक्सर सवाल पूछती है
काग़ज़ कलम और किताबों की दुनिया
वो मौसम बांसती और गुलाबों की दुनिया
वो रूह में महकते शब्द और नज़ारे
वो खुले आसमानों में चमकते सितारे
कहाँ खो गए वो साथी सहारे
अकेली सी अम्मा दीवारों की दुनिया
एलेकसा से उसका हाल पूछती है
ये टिंडर ये इंस्टा आभासी सी दुनिया
ये नक़ली मोहब्बत मुखौटों की दुविधा
कहाँ है वो रांझा, ससि और पुन्नु
लिए मन में अपने मलाल पूछती है
इक सच्ची सी लड़की सवाल पूछती है

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष

देश की आधी आबादी यानि कि स्त्री और वो भी या तो दोयम दर्जे की नागरिक या फिर पुरुष की परछाई बनकर उसके पीछे चलती हुई। यूँ तो परिवार की धुरी पर उससे इतर अपने सपनों को ताक पर रखकर हर दिन संघर्ष करती हुई सी। यह स्थिति ना केवल भारतीय स्त्री की है बल्कि विश्व के अधिकांश देशों में महिलाओं की है। जीवन यापन, घर परिवार यहाँ तक कि धन उपार्जन में भी उसकी सहभागिता होती है लेकिन फिर भी उसे दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में देखा जाता है। अरमीनिया में अपने शिक्षण के तीन बरसों के दौरान मैंने पाया कि स्त्री हर जगह काम करती है। दुकानों, स्टोर, मॉल, मार्केट सब जगह उनका वर्चस्व था पर फिर भी घर के अधिकांश निर्णय पुरुष ही लेते थे।
यूँ तो स्त्री हर समाज की रीढ़ है। हमारे समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे न केवल परिवार को संभालती हैं, बल्कि वे समाज में भी सक्रिय रूप से भाग लेती हैं पर इस सब के बावजूद उन्हें वो सब अधिकार नहीं मिल पाते जो एक पुरुष को प्राप्त हैं। पित्तृात्मक सोच और सामाजिक मान्यताओं के कारण स्त्री अपने सपनों को ताक पर रखकर जीवन भर अपने परिवार के लिए संघर्ष करती रहती हैं। उसका स्वयं का अस्तित्व, उसका होना, ना होना सा ही होता है।

इस सबसे इतर यह भी महत्वपूर्ण है कि स्त्री के सम्पूर्ण विकास के बिना किसी भी समाज की सम्पूर्णता सम्भव नहीं है। महिला विकास के बिना समाज का विकास संभव नहीं है। महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक अवसर प्रदान करने से ही वो अपने अधिकारों का उपयोग कर सकती हैं और समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला सकती हैं।इस सब के लिए उन्हें स्वयं आगे आना होगा। वर्तमान में पिछले कुछ वर्षों में स्थितियां बदल रही हैं पर फिर भी परिदृश्य में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया है।
रोमानिया जैसे यूरोपियन सोच वाले देश में भी अपनी कक्षाओं में जब जब स्त्री की स्थिति पर बात चली तो निराशा ही हाथ लगी। हर जगह बराबरी करने वाली महिलाएँ यहाँ पर भी दोयम दर्जे पर ही थी। अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती हुई। धनोपार्जन की भी चिंता और अपने बच्चों की देखभाल , हालाँकि पुरुष भी इसमें योगदान देते थे पर फिर भी पूरा कार्यभार उनके कंधों पर ही था।

भारत की बात करें तो भारत में महिला विकास के लिए कई कार्यक्रम और नीतियां चलाई जा रही हैं। इनमें बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सुकन्या समृद्धि योजना और महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम शामिल हैं। पर ये योजनाएं कितनी उन तक पहुँच पा रही हैं। यहाँ पर भी स्थिति विकट ही है। हालाँकि इन कार्यक्रमों के माध्यम से महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक अवसर प्रदान किए जा रहे हैं पर अभी वस्तु स्थिति बहुत निराशाजनक है। इसके अलावा, महिलाओं के खिलाफ हिंसा और भेदभाव को रोकने के लिए कानूनी प्रावधान भी किए गए हैं। पर उन क़ानूनों के रहते हुए भी स्त्री घर में और बाहर कितनी सुरक्षित हैं ये हम सब जानते हैं। आँकड़े बताते हैं कि विश्व के आपराधिक मामलों में लगभग 20% या तो महिला उत्पीड़न के या फिर महिलाओं से जुड़े होते हैं।

असल में इसके लिए महिलाओं को जागरूक होना होगा। उन्हें अपनी सृजन क्षमता और ताक़त पर भरोसा करना होगा। इस सबके साथ-साथ हमें नारी शक्ति और महिला विकास के लिए मिलकर काम करना होगा। हमें महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करना होगा और उन्हें सशक्त बनाना होगा। तभी हम एक समृद्ध और सशक्त समाज का निर्माण कर सकते हैं।
देश की आर्थिक प्रगति के लिए आधी आबादी को स्वयं आगे बढ़कर अपनी पितृसत्तात्मक सोच के विचार को पूर्णतः दूसरे अर्थों में विकसित करने की आवश्यकता है, जिसे वह स्वयं ही बदल सकती है।
वैश्विक मंचों पर मैंने कई बार अपनी बात रखी है और आज अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर हमें यह तय करना होगा कि एक दिन तय करने से बेहतर होगा कि हर दिन हम इस आधी आबादी के साथ मिलकर उसकी तरह सोचकर उसके लिए भी रास्ते तैयार करें। तभी हम उस रास्ते तक पहुँच सकते हैं जहां से हमने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए यात्रा प्रारंभ की थी। मूलतः मैं कवयित्री हूँ तो अपनी पंक्तियों से ही बात आगे बढ़ाती हूँ कि-

इस से पहले कि कुछ हो
इससे पहले कि कुछ भी ना बचे
इससे पहले बचे हुए लोग कुछ सोचे
इससे पहले वो बचे हुए लोग
बचा ले वो कुछ थोड़ा सा
वो जो कुछ थोड़ा सा है
और अभी भी है उस अन्तिम स्त्री का
जिसका होना भी है लगभग होने ना होने सा
सोचे और समझे उस होने का होना
नहीं तो कुछ भी नहीं बचेगा
असल में सोचना होगा उनकी तरह
जिसे बचाना है हमें
ऐसा वैसा कुछ करने से
क़ानून से इतर
बदलना होगा अपने भीतर के क़ानून को

– अनीता वर्मा

प्रस्तुत है महिला दिवस पर एक लघु कथा

गुलाब की खुशबू

        –अलका सिन्हा

सूरज की किरणें दीवार पर उतर आई थीं। उनकी रोशनी से हड़बड़ा कर उठी। आज इतनी देर कैसे हो गई। मैं तो हमेशा सूर्योदय से पहले उठ जाती हूं। घड़ी में देखा तो आठ बजने वाले थे। बताओ, आज अभी तक ऊषा, यानी मेरी कुक भी नहीं आई। वरना उसकी घंटी से ही जाग जाती। पहला फोन तो उसी को किया, “क्या हुआ ऊषा? आई नहीं अब तक?”

“बस दीदी, अभी आ रहे हैं। आज देर हो गई।” उसने हड़बड़ाते स्वर में जवाब दिया।

“आजकल हर रोज ही देर हो जाती है तुम्हें…”

मन झल्ला गया। मनु को ऑफिस जाने में देर हो जाएगी। आज तो लंच बनने से रहा। मैं बालों को समेटती हुई किचन की तरफ भागी।

अभी सोच ही रही थी कि जल्दी में क्या बनाया जा सकता है कि दरवाजे की घंटी बज गई।

जल्दी से दरवाजा खोला। ऊषा को देखकर इतमीनान हुआ।

“आप हटो दीदी, हम संभाल लेंगे।” उसने मुझे बाहर खदेड़ दिया और द्रुत गति से अपने काम में लग गई। मुझे गुस्सा तो बहुत आ रहा था पर मैंने खुद पर काबू किया और रसोई से बाहर निकल आई। देखूं, दस मिनट में क्या तैयार कर लेगी। आजकल रोज ही देर करने लगी है। कभी कहती है, रिक्शा नहीं मिला तो कभी घर का कोई बहाना बना देती है। मन बुरी तरह से झल्ला रहा था।

“दीदी, नाश्ता तैयार है।”

पलक झपकते ही उसने प्याज का परांठा सेंक दिया था। मैंने जल्दी से मनु को नाश्ता करा कर ऑफिस भेजा तो मेरी सांस में सांस आई। अब मैं बिखरे घर को समेटने लगी।

“दीदी”, ऊषा की आवाज में संकोच था।

“हां, कहो।” अब तक मेरा स्वर सामान्य हो चुका था।

उसने स्लैब पर रखे अपनी शॉल में हाथ घुसा कर बाहर निकाला तो देखा उसके हाथ में गुलाब का एक फूल था।

“मुबारक हो दीदी।” उसने वह फूल मेरी ओर बढ़ा दिया।

… मैं कुछ समझ नहीं पाई।

“आप हर बार मुझे गुलाब देते हो न आठ मार्च को कि आज औरतों का दिन है… इस बार मैं भी आपके लिए गुलाब लाई हूं।”

“ओ… आज वीमेन्स डे है!” मेरे चेहरे पर आह्लाद छा गया।

हर बार मैं ऑफिस की ओर से ‘वीमेन्स डे’ का कार्यक्रम आयोजित किया करती थी और इसे भी मुबारकबाद के साथ एक गुलाब दिया करती थी। इस बार मैं रिटायर होकर घर में थी और मुझे क्या, घर में किसी को ध्यान ही न रहा कि आज ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ है।

हर साल जिस कार्यक्रम को लोग रस्मअदायगी कहकर हल्के में ले लिया करते थे, ऊषा आज उनका जवाब बनकर खड़ी थी। कमाल है, एक गुलाब की खुशबू से पूरा घर महक उठा था… 

      —————————–


महिला दिवस पर कविताओं की प्रस्तुति

चंदन पानी


हम चंदन पानी न हो पाये
चंदन पानी न हो पाये
कोल्हू के बैल से घूमें गए
गले में रस्सी लटकाये
दिन रात पसीना बहा कर भी
इक बूँद तेल की न पाये
तैरा किए सतहों पर ही
चंदन पानी न हो पाये

पहल करे कब कैसे कौन
तोड़ न पाए कभी मौन
कभी साथ बैठे न सपने सजाए
नियति के भरोसे पछताए
दिन और रात रहे उम्र भर
चंदन पानी न हो पाये

चुरा ली नज़र झट कभी जो मिली
उँगलियाँ हमारी न उलझीं कभी
गलबहियों की तो खूब कही
मुँह बाएँ गए रस्में निभाये
दिल की थाह बिना पाए
चंदन पानी न हो पाये

सरकारी चक्की में पिसे
अफ़सर बनने की चाह लिऐ
बच्चों का अपने पेट काट
घूस में लाखों रुपये दिए
आँखों से अपनी अलग गिरे
चंदन पानी न हो पाये

बढ़ा पिता का रक्तचाप
माँ के गठिए का दर्द बढ़ा
मनमानी बच्चों की बढ़ी
फ़ासला हमारे बीच बढ़ा
बस रहे दूरियाँ तय करते
चंदन पानी न हो पाए

समय क़तर कैंची से हम
अब जीवन फिर से शुरू करें
थामो….. लो पतवार तुम्हीं
अपने रंग में रंग डालो मुझे
पानी और तेल नहीं रहें
हम चंदन पानी हो जाएँ।

*** *** ***

– दिव्या माथुर


नारी

आँखों मे पीड़ा
एक भय
एक शर्म
छिपाती हुई
शरमाती हुई
बेबस
सांसों की आवाज़ को सीने में
दबाये हुए उसे नहीं है ज्ञात
कि क्या है कारण
परेशानी का
बीमारी का
उसके परिवार की स्थिति का
या उसके बच्चे के स्वभाव का
जिसके एक रोने की आवाज़
से ही वह
हो जाती है बेचैन
वह अपनी बिमारी भूलकर
बच्चे को सहलाती है
चुप करने के लिये
खुश करने के लिये
देती है एक मुस्कराहट
खूब सारा प्यार
फिर भूल जाती है कि
डॉक्टर के यहाँ स्वयं को
दिखाने आई थी
मगर बच्चे की तरफ देखकर
करुणा भरी आवाज में कहती है
संक्षेप में एक बात
डाक्टर मैं तो ठीक हूँ
बस आप मेरे बच्चे का कर दो इलाज़

*** *** ***

– जय वर्मा


धरती और बादल

एक धरती है,
एक बादल है
धरती है सृष्टि की रानी
और बादल के पास है पानी
युगों-युगों से चल रही है
यह प्रेम कहानी।

बादल के हृदय में पीड़ा के तूफान से गड़‌गड़ाहट होती
वो धरती को पुकारता
रजस्वला धरती बादल को निहारती
रात भर करवटें पलटती, मचलती
पपीहा चीत्कार करता
पूरबा चलती
वो ब्याह रचाते
और मंत्र पढ़कर
मन से, प्रयोजन से, हृदय से एक हो जाते।

फिर धरती आषाढ़ के लिए तरसती
और आषाढ़ के एक दिन
उमड़-घुमड़ कर बाँहें फैलाता बादल आता
मांग में इन्द्रधनुष का सिंदूर भरता
और
धरती को गोद हरी कर जाता
धरती उसकी संतति को
अपना क्षण-क्षण और कण-कण दे पालती-पोसती
बादल आवारा था
फिर न जाने कूदता-फांदता, धमाचौकड़ी मचाता
कहाँ चला जाता
किसी पहाड़ी से टकराता
मतवाली ऋतुओं में उसका मन चंचल हो जाता।

धरती एकनिष्ठ थी, समर्पित थी
जो सर्दी-गर्मी सब ऋतुएँ सहती
पर बैरी बलम की बेवफाई के बारे में
किसी से कुछ न कहती,
धरती ने बंधन को पवित्र माना।

बादल के संवेदनहीन होने पर वो जली भी
बादल ने जिसमें भी चाहा,
वो उस सांचे में ढली भी
उसने अपने-आप को कतरा-कतरा गलाया
और अपना रक्त देकर बीज को वृक्ष बनाया
उसके लिए न अपना रूप जरूरी था, न आकार
उसने दिया माँ का प्यार,
और सृष्टि ने पाया भरा-पूरा परिवार।

यज्ञ की अग्नि में धरती ने धू-धू कर आहुति दी
सातों वचन निभाए
जबकि बादल महाराज
यदा-कदा ही नजर आए।

समय बदला
धरती की समझ में आया
कि क्या है
जो बादल के पास पानी है
तू भी ती सृष्टि की रानी है
पर्वत जैसे स्तन नदिया सी चाल

उन्मुक्त हवाओं से लहराते बाल
अगर बादल के समीप लाली है
तो
तेरे पास भी तो हरियाली है
तुम बादल से बाँहें खोलकर मिलो
पर बीज को वृक्ष बनाने की जिम्मेदारी
तुम ही क्यों लो?

तुम सिर्फ माँ नहीं हो
रूपसी हो तुम,
तुम भी जीवन को समग्रता में जियो
जीवन-रस को घूंट-घूंट पियो।

अब तक इतिहास भी आगे बढ़ चुका था
नयी-नयी तकनीकें आईं
अब धरती के पास बादल के अलावा
पानी के लिए कई अन्य स्रोत थे,
सदियों पुराना रिसता हुआ पाव था
और सबसे बड़ी बात थी
कि
आजकल बाजार में
धरती और बादल का एक ही भाव था।

धरती ने कहा
बहुत सुना
अब आप सुनिए
मैं कहूँगी
मैं अब पत्नी नहीं, सिर्फ प्रेयसी रहूँगी
प्रस्ताव मेरा तुम्हें करना हो तो करो स्वीकार
मैं रहूँगी ‘पार्टनर’ – केवल साझीदार।
इस बार जब बादल छाए, फिर धरती भागी
पर धरती में इस बार
माँ बनने की प्यास नहीं जागी
बादल न बदला था, न बदला
धरती ने भी ली अंगड़ाई
और
अपनी प्यास बुझाई
इसलिए इस बार सृष्टि नहीं हरियाई।

क्षण क्षण बुढ़ा रहा है बादल
परत-दर-परत सूख रही है धरती
पर धरती ने कहा है कि
वो माँ तभी बनेगी
जब बादल भी ये जान जाएगा
कि सिर्फ नान देने से हो को पिता नहीं कहलाएगा।

न धरती माँ बनना चाहती है,
न बादल पिता,
उदास है सृष्टि,
सूख कर पीले पड़ गए हैं पते,
क्या ये अब हरे हो पाएँगे
इन रास्तों में हम कहाँ जाएँगे?

*** *** ***

– अनिल जोशी


औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?

उनकी उम्मीद
कमल के नाल सी,
न जाने किस भविष्य में गड़ी होती है,
कठोर सच की कैंची काटती है यह नाल
पर औरतों की उम्मीदें बीजासुर सी
हज़ार शरीरों से उग आती हैं,
ये अपना पूरा सत देकर इन्हें पालती हैं,
औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?

प्यार की उम्मीद,
आदर की उम्मीद
प्रशंसा और सराहना की उम्मीद
उम्मीद अक्सर होती नहीं पूरी,
और ये कड़वाती चली जाती है
पहले ज़ुबान/ फिर दिल/ फिर दिमाग
चिड़चिड़ेपन का एक झाड़ बना
अटक जाती हैं उसमें,
नोंचती हैं गुस्से में,
अपनी ही संभावनाओं के पंख,
दुख से लहूलुहान हो जाती है!

आँसुओं से भीगकर
पत्थर हो जाते हैं रुई से सपने
एकदम पराये लगते हैं सब अपने,
तब मौत के ख़्याल से
जीने की ज़रूरत पूछ्ती हैं,
ये औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?

ज़िंदगी भर एक ही वाक्य रटती/ रटाती हैं;
“सब कुछ ठीक हो जाएगा एक दिन”

तिनके की तरह पकड़कर इन शब्दों को
ज़िन्दगी पार करने की कोशिश करती हैं,
भोली हैं,
झूठ को सच करने पर तुली रहती हैं,
फिर-फिर धोखे खाती हैं
जीने की चाह में मरी-मरी जाती हैं,
ये औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?

*** *** ***

स्त्री होने का अर्थ

स्त्री
होना है सौभाग्यवती!
सौभाग्य,
निर्भर नहीं किसी के नाम के साथ जुड़ने पर..
सौभाग्य स्त्री के खून में
उत्सव सा नाचता है,
अंग-अंग गाता है
पाँवों में हँसी की पायलें
बजती हैं खनाखन
आकाश,
बादलों सा
सिमट आता है कलाइयों पर चूड़ी बन!

स्त्री,
नदी, झरना, फूल होती है
अपने में बहती है
अपने में उगती है,
आवेग में उमड़ती है,
समुद्र हो जाती हैं स्वयं ही,
स्वयं में स्वयं को डुबा कर
हो जाती है अपनी ही माँ,
ब्रह्म हो जाती है।
दुनिया उसकी ताकत को जानती है
इसीलिए तो उसे बेड़ियों में बाँधती है
रीतियों की रस्सियों से बाँध कर
सिखाती है,
कोमलता, निर्भरता और कर्तव्य के मंत्र
पुरुषों का शारीरिक बल रचता है तंत्र!
पर स्त्री धरती है

वह बेल नहीं
कि चाहे पुरुष-वृक्ष का साथ!
मिट्टी और हवा पर
पानी और आग पर उसका भी है
बराबर से अधिकार..
प्यार से वह लौटाती है प्रकृति को
बार-बार!
हमें
केवल उसे जानना भर है
झूले की पींग सी स्वतंत्र
मेंहदी की खुश्बू सी
अपने ही भीतर से उमगती
अपनी ही प्रतिभा को,
फिर गढ़ लेगी वो
अपने जीवन के,
सारे नव-सौभाग्य-मंत्र!

*** *** ***

– डॉ.शैलजा सक्सेना, कनाडा


आज़ाद महिला का दिन

घड़ी का अलार्म बजा
ओह !
सूरज सर पर आ गया
ओह !!!!
फिर एक नया दिन आ गया
फिर से वो ही
रोज़मर्रा का शुरू हो जाओ
घर का काम निपटाओ
गिरते पड़ते तैयार हो बाहर भागो
बसों की लंबी लाईन में लगो
धक्का मुक्की कर
दौड़ते भागते दफ़्तर पहुँचो
सब की वो ही
तिरछी,व्यंग्य से भरी
मुस्कानें के तीर सहो
तिरछी नज़रें से देख
जब मुस्कुराते हैं न सब
कैसे दिल छलनी हो जाता है
फिर वो ही बॉस का बुलावा
सँभालो फ़ाईलों को और चलो
अब इनकी बातें सुनो
सब ये क्यों सोचते हैं कि
औरतें ठीक काम नहीं कर सकती
या उनके पास घर में कोई काम ही नहीं होता
घर में सास ससुर हैं, बच्चे हैं, पति हैं
माना बच्चे बड़े हो गए
पर ज़िम्मेदारी समझें तब न
माना सास ससुर के लिये अलग से बाई लगी है
परन्तु मेरा भी तो कुछ कर्त्तव्य बनता है
और पति !!!
क्या कहूँ
कभी पानी का गिलास तक नहीं उठाया स्वयं
उन्हें ऑफ़िस से देर नहीं होनी चाहिए
मैं तो जैसे टाइम पास करने
या टहलने आती हूँ ऑफिस
इन सब बातों को
सोचते सोचते
आँसू गले तक आ पहुँचे
सर को झटका
आंसूओं को ज़बरदस्ती निगला
और
एक दिलफेंक मुस्कान के साथ
बॉस के कमरे का दरवाज़ा खोलते हुए बोली
गुड मार्निंग सर
लो हो गया
आज़ाद महिला का नया दिन शुरू

*** *** ***

– रमा पूर्णिमा शर्मा,
संस्थापक एवं संरक्षक हिंदी की गूँज अंतरराष्ट्रीय पत्रिका
टोक्यो, जापान


सुना है

सुना है नारी ही नारी की दुश्मन है
हर स्त्री को अपने भीतर भी विचरण करना चाहिए
बुद्ध की तरह सोचना चाहिए
जब वो खुद को अपने अंदर से सुनेगी
अपनी विषमताएँ, विडम्बना
छटपटाहट और कष्ट उसे चलचित्र से लगेंगे
चलते वृहत्चक्र में
नारी स्वंय अपनी आत्मा के अंतर्द्वंद के
जाल में
जकड़ी महसूस करेगी
खुलने लगेंगे दरवाजे और टूटेगा स्वत ही
रूह का ताला
सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना उसे समझ आएगी
उसे दूसरी नारी का दर्द समझ आएगा
तब वे नारी की दुश्मन नहीं कहलाएगी
वृहत समुंदर हो जाएगी।

*** *** ***

– अनिता कपूर, अमेरिका


स्त्री


चूल्हा मिट्टी का हो या गैस का
रोटी बनाते समय
उँगलियाँ मेरी ही जली है
जली उँगलियों के साथ
चेहरे पर मुस्कान लिए
तुम्हारी स्वादिष्ट थाली
मैंने ही हमेशा सजाई है

जब जाते तुम काम पर
सारे दिन की थकान भूला
शाम को दरवाज़े पर मेरी ही
निगाह ने मेरी तुम्हें ही खोजा हैं

गर्भ धारण से लेकर
प्रसव पीड़ा तक
सब सह लेती हूँ मैं
एक तुम्हारे भरोसे

तानों से छलनी हुए
ह्रदय में भी
तुमको नर्म और गर्म
कोना देती हूँ मैं तुम्हें
प्रेम अहसासों का

सिर्फ़ एक बेटी ही नहीं
बहूँ, पत्नी, माँ न जाने
एक ही पल में
कितने रिश्तों को
जीति हूँ मैं

कभी चौपड़ में दांव लगने को बाध्य
कभी धरा में समाने की मजबूरी
हर बार मैं ही छली जाती हूँ
हर बार कुलटा, चरित्रहीन
मैं ही कहलाती हूँ

फिर भी हर बार
एक नये जन्म मैं
फिर से धरती पर आती हूँ
क्यों की मुझे पता है
जिस दिन मेरा अस्तित्व
ख़त्म हो जाएगा
पुरूष तुम और तुम्हारा पौरुष
दोनों ही अर्थ हीन हो जाएगा ….

*** *** ***

@डॉ ऋतु शर्मा ननंन पाँडे, नीदरलैंड
अध्यक्ष अंतरराष्ट्रीय हिन्दी संगठन


महिला दिवस

आज हमारा दिन है क्या?
न!
हमें न बांधे कोई –
हमें न बांधे कोई
किसी दिन में, किसी साल में
न ही किसी और बंदिश में।
नारी बंदिशों से नहीं
बंधन से बंध जाती है
रिश्तों की अहमीयत
समझती और समझाती है।
उसे नहीं रहना प्रतिस्पर्धा में
पुरुष से कदापि,
वह जानती है, समझती है
शिव और शक्ति के संतुलन का महत्व,
वह तो बस समानता चाहती है।
वह अंतरिक्ष में जा पहुंची है,
विमान भी उड़ाती है
वह जांबाज़ योद्धा भी है,
किसी चुनौती से नहीं घबराती है।
उसकी ऊंचाइयों में आसमान है, बेशक
जानती है लेकिन ठोस ज़मीन का सच,
रसोई में रहकर भी वह कितना कुछ रच जाती है।
वह नारी जो बस घर में रहती है
कम नहीं है किसी से वह भी
खुद पढ़ी हो, न पढ़ी हो
वही तो सबको लायक बनाती है।
माँ, पत्नी, बहन और बहू-बेटी बनकर
सपने देखने की सिर्फ प्रेरणा ही नहीं
बल्कि आकार भी देती है सबके सपनों को।
खड़ी रहती है साथ कंधे से कंधा मिलाकर
मेहनत करने की ताकत देती है खिला-पिलाकर
रातें अपनी भी बिताती है साथ जाग-जाग कर
लक्ष्यों को पाने की हिम्मत दिलाती है,
लड़खड़ाता है जो, उसका सहारा बन जाती है,
घर के कोने-कोने को ही नहीं सजाती
पूरे संसार को संवारती है।
नारी केवल नाम, केवल पद और
केवल अधिकार नहीं माँगती —
नारी केवल नाम, केवल पद और
केवल अधिकार नहीं माँगती,
वह तो अपने हिस्से का सम्मान चाहती है।

*** *** ***

सुनीता पाहूजा


शक्ति स्वरूपा

घर-बाहर के काम सभी कैसे निपटाती हो
बड़ी सुघड़ता से।

अबला नहीं हो
सबला हो तुम
सबने यह माना
तुम ही तो हो
रूप शक्ति का
शिव ने पहचाना
शक्ति स्वरूपा होकर भी तुम विष पी जाती हो
बड़ी धैर्यता से।

तुम हो गंगा
जमुना हो तुम
सरस्वती तुम हो
तुम हो करुणा का सागर और
तुम ही लक्ष्मी हो
अन्नपूर्णा बनकर जग की भूख मिटाती हो
बड़ी निपुड़ता से।

सूरज की लाली हो तुम ही
शाम सिन्दूरी हो
फूलों की ख़ुशबू हो तुम
बारिश की रिमझिम हो
दीपक की बाती बनकर अँधियार मिटाती हो
बड़ी निडरता से।

*** *** ***

– आलोक मिश्रा, सिंगापुर


पराई


पांचाली या सीता की या तारा की हो सदी
बहती रही सहती रही इक नीर भरी नदी
जंगल गई उसी तरह जैसे महल गई
कहते हो तुम भी, इतना क्यों मैं बदल गई ……..1

नाजों पला वो बचपन सुनता रहा यही
तू तो पराया धन हैं, तेरा यह घर नही
बाबुल ना छोडू अंगना, कहते मचल गई
कहते हो तुम भी इतना क्यों मैं बदल गई …….. 2

खिंचती रही मैं जैसे, बिन ड़ोर की पतंग
हर रंग में रंग गई मैं, मेरा ना कोई रंग
अस्तित्व मेरा मिट गया इतना मैं घुल गई
कहते हो तुम भी इतना क्यों मैं बदल गई …….. 3

गुजरी तुम्हारे संग मैं, हर मोड़ था जुदा
सहारे जिनको कहती वो किनारे थे कहाँ
टूटे किनारें कितने ही, पर मैं सम्हल गई
कहते हो तुम भी इतना क्यों मैं बदल गई ……… 4

मैं अपने उँचे स्थान से नीचे को चल पडी
बंटती रही, छंटती रही,और हो गई बड़ी
ताल तलेय्याओं को मैं फिर भी खल गई
कहते हो तुम भी इतना क्यों मैं बदल गई ………. 5

तुमने जहाँ भी बांधा, मैं बंधके रह गई
मोड़ा जिधर भी मुझको, पा ली दिशा नई
मैं तोड़ कर पुराने, नये सांचों मे ढ़ल गई
कहते हो तुम भी इतना क्यों मैं बदल गई ……… 6

तुमने मेरे ही दम पे हर मेला लगा लिया
मैं रम गई, मैं थम गई, अमृत पिला दिया
शुभ कदमों से मैं अपने,सबको फ़ल गई
कहते हो तुम भी इतना क्यों मैं बदल गई ……. 7

उनके लिये अब गैर हूँ, जहाँ से आई थी
अब तक पराई हूँ यहाँ, कल भी पराई थी
जनम-जनम के फेरों से मैं तो दहल गई
कहते हो तुम भी इतना क्यों मैं बदल गई ……. 8
तुम ही कहो कि इतना क्यों मैं बदल गई

*** *** ***

– डॉ. नितीन उपाध्ये, दुबई


इस धरती के सारे उत्सव

इस धरती के सारे उत्सव
सिर्फ तुम्हारे ऑचल में थे

वो आंचल जिसको छू लो तो
उड़ने लगता था लहराकर।

कितने मौसम सिर्फ तुम्हारी
आँखों में उतरा करते थे।

फूलों सा खिलना सीखा था
राहों पर चलना सीखा था।

उन आंखों की झीलों में भी
देखे मैंने चन्द्र दिवाकर।

जीवन साथी बनकर तुमने,
इस दुनिया में रंग विखेरे।

मेरे मन में अपने मन के,
रसभीने से भाव उकेरे।

साथ तुम्हारे चाल कर मैंने,
आशाओं को जीत लिया था।

जाने कितनी राते बीती,
जाने कितने उगे सवेरे।

रोज नयी इक आशा बनकर
खिल जाती थी तुम मुस्काकर।

यह दुनिया भी जीने लायक,
सिर्फ तुम्हारे ही कारण थी।

वर्ना तो इस दुनिया की हर,
गति पहले से निर्धारित थी।

पास तुम्हारा होना शायद,
मुझमें जीवन का होना था।

वर्ना तो मेरी खुशियों की हर,
कथा-कहानी दारुण थी।

पाँव रखे ये जिस दिन तुमने
मेरे घर आँगन में आकर।

*** *** ***

– सुरेश पांडे, स्वीडन


स्त्री

न अलंकरण ही
और न श्रृंगार कहीं
पर हे स्त्री ईश्वर की
इस संसार की
तुम ही सबसे सुंदर कृति..!

तुम मां, बहिन बेटी
तो पत्नी किसी की
इनके बिना घर कहीं
होता बस चार दीवारी
रिश्ते-परिवार सजते इन्हीं
से तो खिलती दुनिया फूलबाड़ी …!

वजूद तेरा सौंदर्य यही
ज्यूँ संसार की सारी समृद्धि
आत्मविश्वास कहीं तेरा ही
स्त्री तुम्हारा होना : स्त्री
सबसे बड़ा गुण तुम्हारा यही कहीं..!!

*** *** ***

– सुनीता शर्मा, न्यूजीलैंड


सादर प्रणाम है

तेरे लोक-लाज की,
धर्म, कुल-समाज की,
सब छोटों को प्यार,
सब बड़ों के लिहाज की,
चिंता को, मेरा सादर प्रणाम है।

जो भूल कर मेरे विकारों को,
लापरवाही, रूखे व्यवहारों को
देते रहे मुझे प्रेम. उन विचारों को,
तेरे सब शिष्ट संस्कारों को
मेरा सादर प्रणाम है।

कभी संकट की घड़ियों में,
तेरे सशक्त अवलंब, सहारों को;
कभी नाकामी से उफनते जज़्बों को
संभाले, तेरे मजबूत किनारों को
मेरा सादर प्रणाम है।

जीवन के हर उत्थान में,
मेरे प्राप्त मान-सम्मान में,
लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा से
बच्चों के चरित्र निर्माण में
तेरे योगदान को, मेरा सादर प्रणाम है।

तेरी असीम सहन शक्ति को,
जो प्राप्त उसमें तेरी तृप्ति को,
विलास से सदा तेरी विरक्ति को,
कुटुंब में तेरी अनुरक्ति को
मेरा सादर प्रणाम है।

मेरे जीवन के भीषण ग्रीष्म में
तेरी सघन शीतल छाया को;
बावजूद मेरी कमियों के, मुझे
समर्पित तेरी आत्मा-काया को
मेरा सादर प्रणाम है।

– डॉ अवधेश प्रसाद, कैनबेरा, ऑस्ट्रलिया


महिला दिवस

आओ अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाये,
इस अवसर पर सावित्री, अहिल्या, सीता,
मीराबाई, राधा जैसी सन्नारी के गुणगान गायें,
आओ महिला दिवस मनाये
सावित्री के तप की गाथा बच्चों को सुनाए,
जिसने अपने तप के बल पर यमराज के हाथों से-
अपने पति के प्राणों को वापिस लाये,
आओ महिला दिवस मनाये,
महिला दिवस पर अहिल्या के-
पत्थर बनने की कथा सुनाए,
आओ महिला दिवस मनाये,
महिला दिवस पर सीता, मीरा, राधा के गुणगान गायें,
आओ महिला दिवस मनाये,
महिला दिवस पर महिला के-
माता, बहन, पुत्री, बहु के रूप में, कर्तव्यों का गुणगान गायें,
नर से बढ़कर है नारी यह कथा सुनाए,
आओ महिला दिवस मनाये,
महिला दिवस पर लक्ष्मी बाई, पन्नाधाय और
हांडी रानी जैसी सन्नारी के गुणगान गायें,
आओ महिला दिवस मनाये।

*** *** ***

– डॉ अमरपाल सिंह, सेकंड ओफिसर, वडोदरा, गुजरात


‘आज की नारी ‘

मैं लड़की हूं मुझे अक्सर
जताना छोड़िए साहब
यहां खतरा वहां खतरा
बताना छोड़िए साहब
मुझी पर हर दफा लांछन
लगाते थक नहीं जाते
गिरेबां में ज़रा खुद भी
कभी तो देखिए साहब
सुनी हैं बंद कमरों में
दबी कुछ सिसकियां नन्ही
मिरे कपड़ों पे अब उंगली
उठाना छोड़िए साहब
कभी ज़ुल्मत, कभी असमत
अना की बेड़ियां भारी
चढ़े फांसी दरिन्दे सब
बचाना छोड़िए साहब
कि ‘सीमा’ आज की नारी
नहीं अबला न बेचारी
खड़ी है तान कर सीना
डराना छोड़िए साहब

*** *** ***

– डॉ. सीमा बिरला, कुरूक्षेत्र, हरियाणा


नारी- एक साहस

सत्य की खोज करने से नहीं डरती,
तब भी जब हो यह दुखदायी ।
निडर हो वफादारी से प्रेम करती,
तब भी जब हो यह कष्टदायी ।।
प्रतिकूलताओं से उभरती,
पर अपने मूल को कभी न भूलती।
अपने अतीत से सीखती,
और आगे बढ़ते रहना वह चुनती ।।
तब भी जब उसके कदम हो जाते भारी ।
अपने दर्द और पीड़ा को भी
ताकत और ज्ञान में बदल देती ।।
हाँ, वह लड़खड़ा जाती, कभी वह गिर जाती ।
परन्तु जैसे सूर्य सदैव उगता,
ठीक वैसे ही एक नारी भी करती ।।
जानती है कि वह कहाँ थी,
कहाँ है और कहाँ जा रही ।
गहराई से प्रेम है करती,
करुणा के साथ है रहती ।।
प्रमाणिकता स्वरूप है नारी ।
विनम्रता का प्रतीक है नारी ।।

*** *** ***

– कृष्णानंद चौरसिया, कनिष्ठ अनुवादक, राजभाषा विभाग


महिलाओं का प्रतिमान: साहित्य में उनका प्रभाव

भारत भूमि पर, विविधता का अद्भुत राग,
महिलाएं हर क्षेत्र में रचतीं नई सृजनात्मक भाग।
साहित्य की वाणी में बसी एक नयी क्रांति,
वह लेखिका, कवयित्री, हर एक नायिका, उनकी यात्रा नितांत साक्षी।

उनकी कलम से जन्मी हैं गहरी विचारधाराएँ,
नारी का स्वाभिमान और संघर्ष को उजागर करतीं काव्य रचनाएँ।
उपयुक्त हैं वे, जो नारी के जज्बे को उकेरें,
हर एक शब्द में, बदलाव की नयी लकीरें।

उपन्यासों में गूंजते संघर्ष की गाथाएँ,
कविता में सजी, एक स्वतंत्रता की राहें।
ग्राफिक उपन्यासों में भी रचनात्मक रंग,
महिलाओं की वीरता को एक नया पंख।

भारत जैसे विशाल देश में, विविधता का अद्भुत वास,
जहाँ महिलाओं का योगदान, है अमूल्य, अचल, और खास।

हर कदम में छुपा है एक अनकहा गीत,
महिला का आकाश है, बसी हुई जिसमें रचनाओं की प्रीत।
भारत की धरती पर विविधता का है समंदर,
यहाँ महिला की शक्ति से हर तट पर चढ़े हैं सतरंगे पंखों के बवंडर।

साहित्य की भूमि पर, जहाँ शब्दों ने पंख खोले,
अनगिनत सपनों की डोरी से जीवन को जोड़े।
आधुनिक साहित्य में, वह अनकही कहानी,
जो कहती है संघर्ष की भाषा, बनी अनमोल निशानी।

वह जंग, वह अनसुनी तन्हाई,
आंसुओं से लिखी गई, पर बनी परछाई।
पर फिर भी वह न हारी, न रुकी,
हर चुनौती को पार कर, नई राहों पे झुकी।

शब्दों की माला में बंधी उसकी पीड़ा,
साहित्य में गूंजे उसकी दृढ़ता की क्रीड़ा।
हर लेखनी में बसे उसके अनुभव की रीत,
वह नारी, वह प्रेरणा, बनी हर दिल की जीत।

जय वर्मा की “रिश्ते”, मानवीय भावों का मर्म है,
हर संबंध के ताने-बाने में छिपा जीवन का धर्म है।
उषा प्रियम्वदा की “कितना बड़ा झूठ” कहती है,
दोहरी ज़िंदगी की सच्चाई, जो किसी से ना छुपती है।
नीलम मलकानिया की “पिंजरा” प्रवासी महिला की आवाज,
बंधनों में बसी चुनौतियां, और हिम्मत की चाहत साफ़।
शैलजा सक्सेना की “थोड़ी देर और”,
मन के संघर्षों की, हर महिला की मजबूरी की ओर।
जिन्होंने सागर की लहरों को भी किया नमन,
और हिंदी में ढाली, शब्दों की अनमोल नंदन।
दिव्या माथुर ने रची प्रवासी अनुभवों की अद्भुत बात,
मनोबल और संघर्ष से सजी एक अनोखी सौगात।
दिल की गहराई से झरते शब्दों का अलौकिक साथ,
रच दी लयबद्ध रचना की सुनहरी रात।

यह रचनाएं बताती हैं, प्रवासी जीवन के रंग,
संस्कृति, संघर्ष, पहचान, और उन यादों के संग।
प्रवासी महिलाओं की झलकियाँ, आंसुओं के धार में बहतीं,
हर शब्द में लिखी कहानियाँ, जोश की लहरें सदा ही कहतीं।
महिलाओं का साहित्य, उनका संघर्ष, बन चुका है स्थायी दस्तावेज़,
हर पंक्ति में गूँजता है, जज़्बे का सच्चा स्वर और संदेश।

वह जो कभी पर्दे में बसी, अब है मंच पर दमकती,
लेखिका, कवयित्री, समाज सुधारिका, उसकी यात्रा है अमिट, अनुपम, चमकती।
भारत की धरती पर, रंग-बिरंगे सपनों की बुनाई,
महिलाओं की यात्रा, साहित्य के पथ पर होगी नयी रचनाओं की परछाई।

महिलाओं के अनुभवों में छुपा है एक अनोखा गीत,
उनकी आवाज़ में बसी है, जीवन की सच्ची नीति की रीत।
उनकी कलम से निखरता है, साहित्य का रूप नया,
हर पल, हर घड़ी, बनता अमिट सितारा, आकाश में अद्वितीयता से रचा।

*** *** ***

– राजनंदिनी, छात्रा, दिल्ली

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