– डॉ सिंह स्मिता, सिंगापुर

रिश्ते और वक्त

नीरव शांत जल विहीन
मरुस्थल बन गया ताल है,
जीवन की कठोर तपिश से
जीवन जीना हो गया मुहाल है,
रिश्ते-नाते बस नाम के रह गए आज कल,
क्यों आखिर बना ऐसा हाल है।

मतलबी दुनिया मतलबी लोग,
खींचे जाते हैं उनकी ओर
जिनके पास सधे मतलब की डोर,
लोग स्वार्थ से रख रहे आज रिश्ते
ऐसे लोग भर गए चहुँ ओर।

ऐसा ही है कलियुग में चलन
लगता है कलयुगी प्रचलन,
मन में चल रहे अनेक विचार
चल रहा दिमागी द्वन्द,
हर रिश्ते चलाने हेतु
लोग करने लगे आंकलन।

हीरे की परख जौहरी करते
रिश्तों की परख करता है वक्त,
कहा गए वो सारे मित्र, रिश्ते और सूत्रधार,
जीवन है अस्त-व्यस्त, बंद है बात व्यवहार।

कृत्रिम जीवन जीने लगे हैं लोग,
अनजाने में अनजाने लोग बन गए बड़े रिश्तेदार,
खून के रिश्ते टूट रहे हैं,
मन के रिश्ते सूख रहे हैं।
अनजान लोगों में सुख खोज रहे हैं
माँ बाप को भूल-भाल कर,
सुख दुनिया में खोज रहे हैं।

कौन उठाए बोझ उनका सोच रहा
कर रहा साज़िशें,
सियासत और विरासत पर चढ़ रही रिश्तों की बली,
प्रतीत हो रहा है ऐसा
चारों ओर मची बड़ी खलबली।

बेशुमार भीड़ पड़ी, पर लोग हो रहे एकाकी,
मन मन्थन, आत्मचिंतन, जग चिंतन छोड़
लोग दिखा रहे बेबाक़ी।

आज मुझे यह बात कहनी पड़ी
जो दिग्भ्रमित युवा वर्ग की थी,
मैंने तो सुनी ऐसी भी बात
और देखे ऐसे भी माँ बाप,
जो पूछते इन बच्चों का कम ही हाल।

मतलब मेरा उन बच्चों से
जो धैर्य से बैठा कर रहे प्रतीक्षा,
पर दूध भी मिलता पहले उसको
जो बच्चा चीखे चिल्लाए,
जग विदित है यह चलन
क्यों है ऐसा प्रचलन।
क्यों हो गई ममता भी कठोर,
क्यों नहीं देखती उस बच्चे की ओर
जो विवश खड़ा कर रहा इंतजार,
कब समय आएगा जब माँ करेगी न्योछावर प्यार।

जग में प्रायः वाचाल की चाल
आज सुनी और समझी जाती,
सीधे लोग ठगे ही जाते,
खड़े सोचते ठगे रह जाते।
देख यह सब जीवन के रंग
हम विस्मित, मूक देखते रह जाते,
करुण पुकार, चीख चीत्कार,
अनसुना करने वाले रिश्तेदारी की हो गयी भरमार।

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