
भाषा विमर्श : पूर्वोत्तर की भाषाओं और हिन्दी का पारस्परिक संबंध
भाषा सृष्टि का वरदान है, प्रकृति का भयदान है। महान राष्ट्र भारत, भाषाओं की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। पूर्वोत्तर का क्षेत्र भाषायी विविधता से भरा है जिसे पहले ‘सेवेन सिस्टर्स’ के रूप में अभिहित किया जाता था किन्तु पूर्वोत्तर विकास परिषद में सिक्किम के सम्मिलित कर लिए जाने के बाद अब ‘अष्ट लक्ष्मी’ की संज्ञा दी जाती है। इस क्षेत्र की भाषाओं और हिन्दी के पारस्परिक संबंध पर विमर्श हेतु वैश्विक हिन्दी परिवार द्वारा सहयोगी संस्थाओं के तत्वावधान में 20 अप्रैल को आभासी कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में देश-विदेश से अनेक साहित्यकार, विद्वान विदुषी, तकनीकीविद, प्राध्यापक, अनुवादक, शिक्षक, राजभाषा अधिकारी, शोधार्थी, विद्यार्थी और भाषा प्रेमी आदि जुड़े थे।

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय के सम कुलपति डॉ॰ किरण हजारिका ने प्रसन्न मुद्रा में कहा कि इस क्षेत्र में 250 से अधिक जन जातियों और 75 से अधिक विशेष पहनाओं तथा एशियाई परिवार की हजारो बोलियों के बीच हिन्दी सबको साथ लेकर चलती है। असमियाँ, मणिपुरी, बोड़ो और बंगला आदि संविधान की अष्टम सूची में हैं और अन्य को जोड़ने की मांग उठना स्वाभाविक है। संस्कृत काल में ‘जोगिनी तंत्र’ की रचना असम में हुई। तेरहवीं सदी के माधव देव और चौदहवीं सदी के शंकर देव की रचनाएँ जगजाहिर हैं जिसमें ‘बरज भाषा’ का भी पुट है। रामायण का किष्किंधा काण्ड और महाभारत की कृष्ण संस्कृति पूर्वोत्तर से ओतप्रोत है। मणिपुरी रासलीला स्वतः विशिष्ट है। पूर्वोत्तर में हिन्दी ‘लिंगुआ फ्रेंका’ के रूप में सशक्त भूमिका निभा रही है। यहाँ विश्वविद्यालयों में उच्च स्तर पर हिन्दी पठन-पाठन, लेखन बोधन और शोध कार्य द्रुत गति से चल रहा है। पिछले पंद्रह वर्षों में आमूल परिवर्तन हुआ है। आइये, हम सब मिलकर पूर्वोत्तर में हिन्दी संगम बढ़ाएँ।

आरंभ में दिल्ली से साहित्यकार डॉ॰ बरुण कुमार द्वारा पृष्ठभूमि सहित आत्मीयता से स्वागत किया गया। तत्पश्चात भोपाल के रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय में प्रवासी साहित्य-संस्कृति सलाहकार डॉ॰ जवाहर कर्नावट ने दीर्घकालिक अनुभवजन्यता और विविध संदर्भों सहित संचालन संभाला। इस अवसर पर उत्तर पूर्व पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग में हिन्दी विभाग के प्रो॰ माधवेंद्र प्रसाद पाण्डेय का मंतव्य था कि पूर्वोत्तर, भाषाओं की प्रयोगशाला है जहां हिन्दी अब एक डेढ़ दशक से सहज और स्वाभाविक रूप से फैलते हुए अङ्ग्रेज़ी को चुनौती दे रही है। माना जाता है कि हिन्दी के आदि काल के सुप्रसिद्ध ‘सरहपा’ यहीं के बासिन्दे थे। मातृशक्ति क्षेत्र माने जाने वाले पूर्वोत्तर से सिद्ध और नाथ संप्रदाय का पुराना संबद्ध है जहां की अनेक भाषाओं का लुप्त होना सोचनीय है। इस पर यथेष्ट ध्यान आवश्यक है। कवि अज्ञेय ने अनेक रचनाएँ शिलांग में लिखीं। असम से जुड़ीं प्रो॰ पुष्पा सिंह ने कहा पूर्वोत्तर की भाषाएँ भी वहाँ की भावनाओं से जुड़ीं हैं। उन्होने शंकर देव के एक ‘बरजगीत’ का मुखड़ा सुनाकर उच्चारण भेद स्पष्ट किया और भाषाओं को राजनीति के दलदल से उबारने की अपील की।

विशिष्ट अतिथि के रूप में विश्व हिन्दी सचिवालय मॉरीशस के पूर्व महासचिव एवं पूर्वोत्तर में तीन दशको से कार्यरत डॉ॰ विनोद कुमार मिश्र ने कहा कि पूर्वोत्तर के विपुल साहित्य से जोड़ने में अनुवाद की महती भूमिका है जिसमें गत दशक में गुणात्मक परिवर्तन आया है। नई पीढ़ी निरंतर हिन्दी पढ़-लिख रही है और व्यवहृत कर रही है पूर्वोत्तर में हिन्दी का बहनापा बढ़ रहा है और भाषाई दूरियाँ मिट रही हैं।

जापान से जुड़े पद्मश्री से सम्मानित प्रो॰ तोमियो मिजोकामि ने पूर्वोत्तर के अनुभव सुनाये और बताया कि जापान में पूर्वोत्तर के असंख्य लोग कार्यरत हैं। उन्होने पूर्वोत्तर में पुनः यद्ध स्मारक देखने की सदिच्छा प्रकट की। डॉ॰बरुण कुमार का कहना था कि बांगलादेश नहीं बना होता तो हम भाषायी एकात्मकता के साथ होते। अरुणाचल में सबसे अधिक लुप्त होती भाषाओं को बचाना होगा। नई शिक्षा नीति भाषाई अस्मिता में कारगर सिद्ध होगी। पूर्वोत्तर के हिन्दी साहित्य सौन्दर्य को स्थापित करने में डॉ॰ कुबेर नाथ राय का अवदान चिरस्मरणीय रहेगा किन्तु स्थितिजन्य विवशतावश उन्हें पूर्वोत्तर छोड़ना पड़ा। भाषाई समेकन में पूर्वोत्तर अपेक्षाकृत अधिक जूझ रहा है।

अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के मानद निदेशक डॉ॰ नारायण कुमार ने कहा कि गांधीजी द्वारा स्थापित राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा से पूर्वोत्तर के अधिकांश विद्यार्थी लाभान्वित होते हैं। वहाँ चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों की भी हिन्दी प्रचार में अहम भूमिका है। आवागमन की कठिनाइयों के बावजूद पारस्परिक संबंध बढ़ रहा है। वहाँ के आधुनिक साहित्य में कवीन्द्र रवीन्द्र और विद्यापति की छाप है। वीरेंद्र भट्टाचार्य और इंदिरा गोस्वामी सरीखे साहित्यकारों का अहम योगदान है। साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ से पुरस्कृत विद्वानों की सशक्त भूमिका है। हैदराबाद से जुड़े डॉ॰ वेंकटेश्वर राव ने पूर्वोत्तर के जन मन में हिन्दी के प्रति रुचि और उत्साह की सराहना की।

कार्यक्रम विश्व हिन्दी सचिवालय, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद, केंद्रीय हिन्दी संस्थान, वातायन और भारतीय भाषा मंच के सहयोग से वैश्विक हिन्दी परिवार के अध्यक्ष श्री अनिल जोशी के मार्गनिर्देशन में सामूहिक प्रयास से आयोजित हुआ। कार्यक्रम प्रमुख एवं सहयोगी की भूमिका का निर्वहन ब्रिटेन की सुप्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार सुश्री दिव्या माथुर और पूर्व राजनयिक सुनीता पाहुजा द्वारा किया गया। अंत में जापान के ओसाका विश्वविद्यालय के प्रो॰ वेद प्रकाश सिंह के शालीन कृतज्ञता ज्ञापन के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ। यह कार्यक्रम “वैश्विक हिन्दी परिवार, शीर्षक के अंतर्गत यू-ट्यूब पर उपलब्ध है।


रिपोर्ट लेखन – डॉ॰ जयशंकर यादव