उनके लेखन में प्रकृति और पर्यावरण पर हुई चर्चा

साहित्य अकादेमी द्वारा साहित्य मंच कार्यक्रम में रवींद्रनाथ ठाकुर की जयंती के अवसर पर प्रकृति और पर्यावरण पर रवींद्रनाथ ठाकुर विषयक विमर्श का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रख्यात अंग्रेजी लेखिका मालाश्री लाल ने की तथा राधा चक्रवर्ती, रेवा सोम और रेखा सेठी ने अपने अपने आलेख प्रस्तुत किए। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में मालाश्री लाल ने कहा कि रवींद्रनाथ ठाकुर हमेशा अपनी जयंती पर एक कविता लिखते थे। उनके जीवन पर प्रकृति और संगीत का बेहद प्रभाव था। इस प्रेम के चलते ही उन्होंने शांतिनिकेतन के रूप में प्रकृति के बीच पढ़ने पढ़ाने का अनोखा संकल्प लिया था।

उन्होंने उनकी कहानियों में भी प्रकृति वर्णन की बात की। आगे उन्होंने कहा कि यह खुशी की बात है कि रवींद्रनाथ ठाकुर के लेखन का सभी भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं में अनुवाद होने के कारण आज जब प्रकृति सबसे ज्यादा दयनीय स्थिति में है तब प्रकृति और पर्यावरण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता हमें नए विकल्प अपनाने के प्रति संकेत कर रही है। राधा चक्रवर्ती ने गीतांजलि से उदाहरण देते हुए कहा कि वह अपने गीतों में मानवीय जीवन और हमारे ब्रह्मांड के साथ चक्रीय संबंध को एक दूसरे का पूरक मानते हैं और उसमें कीड़े मकोड़े जैसे मकड़ी, चींटी आदि से भी सीखने की प्रेरणा देते हैं। इतना ही नहीं वह मानव की प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी को भी चिह्नित करते हैं। विश्व भारती की तुलना तपोवन की प्राचीन परंपराओं से करते हुए ही उन्होंने शांति वन में प्रकृति से जुड़े त्योहारों को मनाना शुरू किया।

वे मानव के पूंजीवाद और भोगवादी आचरण को सभ्यता का विरोधी मानते थे। रक्तबीज में उन्होंने बड़े बांधों का विरोध भी किया। काफी पहले प्रकृति को लेकर उनके व्यक्त किए गए विचार आज भी प्रासंगिक हैं। रेवा सोम ने टैगोर के गीतों में प्रकृति चित्रण पर अपनी बात रखते हुए कहा कि उनके 283 गीतों में प्रकृति का वर्णन है। शांतिनिकेतन में भी उन्होंने ऋतुओं के परिवर्तन के आधार पर शरद उत्सव, हेमंत उत्सव, बसंत उत्सव और मानसून उत्सव मनाने की परंपरा आरंभ की। विश्वकर्मा दिवस पर स्थानीय आदिवासियों की बनाई वस्तुओं को खरीदने का प्रयास भी प्रकृति से निरंतर संतुलित संबंध बनाने का तरीका था। अंत में उन्होंने अपने द्वारा गीतांजलि का एक गाया गीत वीडियो के द्वारा सभी के लिए प्रस्तुत किया। रेखा सेठी ने उनके विपुल साहित्य का जिक्र करते हुए कहा कि राष्ट्रगान में भी वे प्रकृति, पहाड़, नदी समुद्र से ही भारत देश को पूरा मानते हैं। उनकी यही समावेशी दृष्टि उनके पूरे साहित्य में देखी जा सकती है। पश्चिम जहां प्रकृति पर नियंत्रण चाहता है वहीं भारतीय संस्कृति प्रकृति के प्रति समर्पण की चाह रखती है। उनकी बहुत सी कविताएँ प्रातः, संध्या, रात्रि और आकाश आदि शीर्षकों से प्रकृति का ही वर्णन करती हैं।

उनके लेखन में नहीं बल्कि उनके संगीत और चित्रों में भी प्रकृति भरपूर मात्रा में देखी जा सकती है। बोलाई कहानी का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि कैसे एक बच्चा पेड़ काटने पर सबसे ज्यादा उदास होता है। वह प्रकृति को केवल मानव प्रेम तक ही नहीं बल्कि अध्यात्म तक जाने का रास्ता बताते हैं। ठाकुर भारत की सांस्कृतिक व्यवस्था को भी हमारी इसी पर्यावरणीय व्यवस्था से संचालित मानते हैं ।कार्यक्रम के आरंभ में स्वागत वक्तव्य देते हुए साहित्य अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने कहा कि 20वीं शताब्दी के महान व्यक्तित्व के रूप में रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने लेखन में प्रकृति और पर्यावरण के जो संबंध महसूस किए वे आज तक प्रासंगिक हैं। उन्होंने अपने सभी कला माध्यमों में प्रकृति को भरपूर रूप से जाना समझा और चित्रित किया। कार्यक्रम का संचालन साहित्य अकादेमी के उपसचिव देवेंद्र कुमार देवेश ने किया।

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