गुलशेर ख़ाँ शानी

गुलशेर ख़ाँ शानी का जन्म 16 मई, 1933 को जगदलपुर में हुआ था। अनेक भारतीय भाषाओं के अलावा रूसी, लिथुवानी, चेक और अंग्रेज़ी में भी उनकी रचनाएं अनूदित हुईं। वे मध्य प्रदेश के ‘शिखर सम्मान’ से अलंकृत और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत थे।

उनके बाबा पढ़ने के शौकीन थे। बचपन में बाबा के लिए लाईब्रेरी से किताबें लाना और जमा करना शानी के जिम्मे था। किताबें लाने-ले जाने के सफर में, वे कब उनकी साथी हो गईं, शानी को मालूम ही नहीं चला।

 उन्होंने अपनी लेखनी का सफ़र जगदलपुर से आरंभ कर ग्वालियर और फिर भोपाल, दिल्ली तक तय किया। वे ‘मध्‍य प्रदेश साहित्‍य परिषद’, भोपाल के सचिव और परिषद की साहित्यिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ के संस्‍थापक-संपादक रहे।

दिल्‍ली में वे ‘नवभारत टाइम्स’ के सहायक संपादक भी रहे और साहित्य अकादमी से संबद्ध हो गए। साहित्‍य अकादमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्‍य’ के भी वे संस्‍थापक संपादक रहे थे। इस संपूर्ण यात्रा में शानी साहित्‍य और प्रशासनिक पदों की ऊँचाईयों को निरंतर छूते रहे।

मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्‍त शानी बस्तर जैसे आदिवासी इलाके में रहने के बावजूद अंग्रेज़ी, उर्दू, हिन्‍दी के अच्‍छे ज्ञाता थे। एक अमेरिकी समाज विज्ञानी डॉ. एडवर्ड जे, जो भारत आदिवासी जीवन पद्धति का विस्तृत समाजशास्त्रीय अध्ययन करने आए थे शानी ने उनके आदिवासियों पर किए जा रहे शोध में भरपूर सहयोग किया और शोध अवधि तक उनके साथ सूदूर बस्‍तर के अंदरूनी इलाकों में घूमते रहे। कहा जाता है कि उनकी दूसरी कृति ‘शालवनो का द्वीप’ इसी यात्रा के संस्‍मरण के अनुभवों में पिरोई गई है। उनकी इस कृति की प्रस्‍तावना उसी विदेशी ने लिखी और शानी ने इस कृति को प्रसिद्ध साहित्‍यकार प्रोफेसर कांति कुमार जैन जो उस समय ‘जगदलपुर महाविद्यालय’ में ही पदस्‍थ थे, को समर्पित किया है।

‘शालवनों के द्वीप’ एक औपन्‍यासिक यात्रावृत है। मान्‍यता है कि बस्‍तर का जैसा अंतरंग चित्र इस कृति में है, वैसा हिन्‍दी में अन्‍यत्र नहीं है।

शानी ने ‘साँप और सीढ़ी’, ‘फूल तोड़ना मना है’, ‘एक लड़की की डायरी’ और ‘काला जल’ जैसे उपन्‍यास लिखे।

हिंदी में मुस्लिम बैकग्राउंड पर जो सर्वश्रेष्ठ कहानियां लिखी गई हैं, उनमें ज्यादातर शानी की हैं। ‘युद्ध’, ‘जनाजा’, ‘आईना’, ‘जली हुई रस्सी’, ‘नंगे’, ‘एक कमरे का घर’, ‘बीच के लोग’, ‘सीढ़ियां’, ‘चहल्लुम’, ‘छल’, ‘रहमत के फरिश्ते आएंगे’, ‘शर्त का क्या हुआ’, ‘एक ठहरा हुआ दिन’, ‘एक काली लड़की’, ‘एक हमाम में सब नंगे’ वगैरह कहानियों में शानी ने बंटवारे के बाद के भारतीय मुस्लिम समाज के दुख-तकलीफों, डर, भीतरी अंतर्विरोधों, यंत्रणाओं और विसंगतियों को बड़ी ही खूबसूरती से दर्शाया है।

शानी आदिवासी अंचल में पैदा हुए और उनका शुरुआती जीवन जगदलपुर में बीता लेकिन उन्होंने आंचलिक कहानियां सिर्फ पांच लिखीं। ‘चील’, ‘फांस’, ‘बोलने वाले जानवर’, ‘वर्षा की प्रतीक्षा’ और ‘मछलियां’ कहानियों में वे आदिवासी जीवन के अर्थाभाव, विषमताओं, पीड़ाओं को पूरी संवेदनशीलता से उकेरते हैं। आदिवासी लोक जीवन को देखने-महसूसने की दृष्टि उनकी खुद की अपनी है।

 लगातार विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में छपते हुए ‘बबूल की छाँव’, ‘डाली नहीं फूलती’, ‘छोटे घेरे का विद्रोह’, ‘एक से मकानों का नगर’, ‘युद्ध’, ‘शर्त क्‍या हुआ ?’, ‘बिरादरी’ और ‘सड़क पार करते हुए’ नाम से कहानी संग्रह व प्रसिद्ध संस्‍मरण ‘शालवनो का द्वीप’ लिखा। शानी ने अपनी यह समस्‍त लेखनी जगदलपुर में रहते हुए ही लगभग छ:-सात वर्षों में ही की। जगदलपुर से निकलने के बाद उन्‍होंनें अपनी उल्‍लेखनीय लेखनी को विराम दे दिया।

बस्तर के बैलाडीला खदान कर्मियों के जीवन पर तत्‍कालीन परिस्थितियों पर उपन्यास लिखने की उनकी कामना मन में ही रही और 10 फ़रवरी, 1995 को वे इस दुनिया से रुख़सत हो गए।

-रजनीकांत शुक्ला

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