संस्कार

– रीता कौशल, ऑस्ट्रेलिया

इशान फूला नहीं समा रहा था। ख़ानदान-परिवार में ही नहीं बल्कि अपनी मित्र मंडली में वह पहला व्यक्ति है जो अपनी मास्टर डिग्री करने के लिए अमेरिका जा रहा था। एक नहीं बल्कि चार-चार विश्वविद्यालयों से निमंत्रण मिला था उसे।

शिकागो वाली यूनिवर्सिटी का प्रस्ताव उसे कुछ बेहतर लग रहा था। वहाँ उसे पढ़ने के साथ-साथ कुछ घंटे कॉलेज लेब में भी काम करने का अवसर मिल रहा था। एक पंथ दो काज,  पढ़ाई भी करने को मिलेगी और हर हफ़्ते बीस घंटे काम करने से कुछ आमनदनी भी हो जाएगी। “पापा तो ये खबर सुनकर बहुत ही खुश होंगे, ज़रूर इन चार में से इसी प्रस्ताव को प्राथमिकता देंगे।” सोचता हुआ वह सारे काग़ज़-पत्र सम्भाले बरामदे में बैठे पिता के पास आ कर बैठ गया। 

“शिकागो! शिकागो ही क्यों जब दूसरे चार और विकल्प भी हैं?” पिताजी ने ईशान की प्राथमिकता पर हैरानी जतायी।

“इसमें पढ़ने के साथ-साथ थोड़ी बहुत आय का भी जुगाड़ हो रहा है इसलिए! ईशान ने बताया।

“कमाने की अभी से क्या पड़ी है तुम्हें…तुम तो बस पढ़ो-लिखो।”

” पापा मैं कब तक आप पर निर्भर रहूँगा…तेईस साल का हो चुका हूँ, अब मुझे खुद भी तो थोड़ा-बहुत काम करना चाहिये।”

“वजह अच्छी है, और तुम्हारी सोच भी। पर क्या तुम जानते नहीं, अमेरिका के इस इलाक़े में कालों का वर्चस्व है?”

“तो…तो क्या हुआ वे भी तो वहाँ के नागरिक हैं, अमेरिका का हिस्सा हैं वे सदियों से…उनसे कैसा परहेज़?”

“चोर होते हैं वो…”

“ये किसने कह दिया आपसे…चोरी की घटनायें तो पूरे विश्व में होती रहती हैं…चोर तो कोई भी हो सकता है। चोरी का किसी ख़ास नस्ल से सम्बंध नहीं होता…अभाव, भूख, मजबूरी, बुरी-परिस्थितियाँ भले-भलों को चोर-उचक्का बना सकती हैं।”जर

“चार किताबें पढ़ ली हैं तो अपने आप को बहुत ज्यादा विद्वान समझने लगे हो तुम…हमने कह दिया सो कह दिया। जहाँ सेर भर माटी वहाँ सवा सेर माटी। हर हफ़्ते 20 घंटे के काम से 20 डॉलर प्रति घंटा कमाकर हमारी पुस्तों का गुज़ारा तो हो नहीं जाएगा। जैसे यहाँ तक तुमको पढ़ाया-लिखाया है वैसे आगे भी उठापटक करके पढ़ा लेंगे।” पिताजी तैश में आ चुके थे।

इशान जाते-जाते बात को आगे खींच कर पिता का दिल नहीं तोड़ना चाहता था …इकलौता बेटा जो ठहरा! इसकी ज़रूरत भी क्या थी जब दूसरे विकल्प थे उसके हाथ में। शिकागो यूनिवर्सिटी नहीं तो टैक्सस यूनिवर्सिटी सही! ईशान ख़ुशी-ख़ुशी टैक्सस जाने की तैयारी में लग गया।

टैक्सस में इशान के सपनों को पंख मिल रहे थे। पिताजी भारत में फूले नहीं समाते थे। इकलौता बेटा जैसा चाहा वैसा ही निकला। स्वभाव का शांत, पढ़ने-लिखने में होनहार, किसी पिता को जीवन से और क्या चाहिए होता है! उनकी इस ख़ुशी की सतह के ठीक नीचे कुछ आशंकाएँ भी कुलबुलाती रहतीं थीं। यदा-कदा वे आशंकाएँ अखबारी खबरों के चप्पू की मार से उछल कर सतह के ऊपर आ जातीं। छोटी-छोटी बात पर लाड़ में ठुनकने वाला बेटा, पता नहीं ये गोरे लोग उससे कैसा व्यवहार करें? वे जितना इस विचार को झटकते वह उतना ही उन्हें परेशान करता। इशान से हर फ़ोन वार्तालाप में वे यही जानना चाहते कि बस, ट्रेन, होटल, सिनेमा हॉल, कालेज आदि जगहों पर कोई उससे बुरा व्यवहार तो नहीं करता?

“नहीं पिताजी, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है जैसा आप सोच रहे हैं। ये देश तो बना ही बाहर से आये अलग-अलग नस्ल के लोगों से है…टेलेंट की कद्र होती है यहाँ।” इशान पिता को आश्स्वत करने की कोशिश करता।

पिता पुत्र के जवाब से संतुष्ट होते भी और नहीं भी। कभी अपनी शंका व्यक्त कर देते तो कभी मौन रह जाते, “मगर हमने तो कल ही अख़बार में पढ़ा था कि वहाँ…”

“पापा, इतने बड़े देश में कहीं कोई दो-एक घटना घट गयी तो इसका अर्थ ये क़तई नहीं है कि गली-गली में रोज़ ही ऐसा हो रहा है…आप अनावश्यक ही चिंत्ता करते रहते हैं।”

बेटे के तर्कों को सुन पिता खुद को समझाने का प्रयास करते, “जब वे अपने बेटे के सुन्दर-सलोने मुखड़े को देखते नहीं थकते तो क्यों कोई भेदभाव करेगा उनके पुत्र के साथ…इशान है ही ऐसा !” वही सवाल, वही जवाब, सदियों पुराने पूर्वाग्रह! पिता-पुत्र के बीच रोज़ के टेलीफोन वार्तालाप के साथ, समय अपनी गति से खिसकता रहा और इशान की पढ़ाई का पहला सेमिस्टर ख़त्म हो गया। बेटा एक महीने की छुट्टी पर घर आ रहा था। पिता के पैर ख़ुशी के अतिरेक से ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। सोच रहे थे जैसे एक सेमिस्टर निकल गया वैसे ही बाक़ी बचा वक्त भी कट जायेगा और फिर बेटा हमेशा के लिये उनके पास वापस आ जायेगा।

“पापा ये क्या? मैं जब अमेरिका के लिए रवाना हुआ था तब भी आपना मकान ख़ाली पड़ा था और जब वापस आया हूँ तब भी इसमें कोई किरायेदार नहीं है।” इशान ने घर में घुसते ही घर के उस हिस्से की तरफ़ झाँक कर देखा, जिसे उसके पिता अतिरिक्त आमनदनी के लिए किराये पर उठाते थे।

“नहीं बेटा! पिछले छह महीने से अपना मकान किराये पर नहीं उठा।” पिताजी ने गहरी साँस भरी। बेटे ने अभी-अभी घर में कदम रखा था और पिता के ना चाहते हुए भी कम आमदनी की खींच-खाँच उसके सामने उजागर हो गयी।

“ऐसा कैसे पापा? आपने मुझे फ़ोन पर तो कभी नहीं बताया।”

“छोड़ो तुम भी आते ही कहाँ उलझ गए…सात समंदर पार से आए हो, नहा-धो कर खाना-बाना खाकर आराम करो…अब ये मकान ज़रा पुराने ढंग का हो गया है…बाथरूम में गीज़र की फ़िटिंग नहीं है…बेडरूम के साथ जुड़ा हुआ बाथरूम भी नहीं है इसमें, इसलिए नयी चाल के लोग इसे लेना पसंद नहीं करते।”

इशान का मन जार-जार हो गया। वह जानता था कि पिता के पास कोई बहुत ऊँची आमदनी नहीं थी। मकान के किराये पर उठने वाले हिस्से से होने वाली आय उनके लिए हमेशा से एक ज़रूरत रही है। उसने निश्चय किया कि वह अपनी छुट्टियों के समाप्त होने से पहले इस समस्या को ज़रूर ख़त्म कर देगा। अपने स्थानीय दोस्तों की मदद लेगा, अख़बार में विज्ञापन देने की ज़रूरत हुई तो वह भी करेगा मगर इस बार अमेरिका लौटने से पहले अपने सामने ही मकान को किराये पर उठा कर जायेगा।

दूसरे दिन से ही इशान इस मिशन में जुट गया। अख़बार में विज्ञापन देने की नौबत नहीं आयी, उसकी नेटवर्किंग से ही अच्छा रेस्पॉन्स मिलने लगा और लोग किराये के लिये उसका घर देखने आने लगे।

“तुम उन्हें घर के अंदर क्यों लाए थे?” पिता अकारण ही इशान पर आग-बबूला हो रहे थे।

“वो किराये का मकान ढूंढ़ते हुए इधर आये थे। मेरे एक दोस्त ने भेजा था उन्हें हमारा घर देखने के लिए…तो उन्हें घर के अंदर लाकर किराये वाला पोर्शन तो दिखाना ही था ना…बिना देखे तो कोई मकान ले नहीं लेगा !”

“अभी इतने बुरे दिन नहीं आए हमारे कि हम इन हूसों को अपना मकान किराये पर दें।”

“मगर क्यों पापा? आप ये कैसी बात कर रहे हैं? अपना मकान पिछले छह महीने से खाली पड़ा है। आय की कितनी बड़ी क्षति हो रही है! आपकी तनख्वाह मम्मी के इलाज और घर के दूसरे खर्चों पर उड़ जाती है। जीवन भर की बचत मुझे अमेरिका में पढ़ाने में खर्च हुई जा रही है। अगर ऐसे ही चला पापा, तो घर की अर्थव्यवस्था चरमराते देर नहीं लगेगी। उचित होगा कि हम वक्त रहते समस्या का हल ढूँढ लें।”  

“हम भूखे मर जायेंगे मगर इन हूसों को अपना मकान किराये पर नहीं देंगे चोर होते हैं साले !”पिताजी बुरबुराये जा रहे थे। वह एक पल आवेश में कुर्सी पर बैठते तो दूसरे पल उठकर कमरे में चक्कर लगाने लगते।

“ऐसे क्यों कहते हैं पापा? ये भी हमारी तरह इंसान हैं इन के हृदय में भी स्पंदन होता है …वाहिनियों में लाल रंग का रक्त बहता है, फिर इनसे परहेज कैसा? जैसे आपने मुझे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भेजा है वैसे ही ये नाईजीरिया से भारत में पढ़ने आते हैं। मेरी समझ में नहीं आता आपको इनसे परेशानी क्या है?”

“तुम्हें अमेरिका पढ़ने इसलिए नहीं भेजा था कि अपने संस्कार भूल जाओ और यहाँ आकर हमें ही ज्ञान दो। भारत में क्या किराये पर मकान लेने वालों का अकाल पड़ गया है जो हम इन्हें अपना मकान देंगे?”

“लेकिन पापा पहले भी तो हमने अपना मकान विदेशियों को किराये पर दिया था। भूल गए आप…वह इटालियन जोड़ा जो कि यहाँ ‘केंद्रीय हिंदी संस्थान’ में हिंदी सीखने आया था? उन्हें तो आपने बिना किसी ना-नुकुर के अपना मकान किराये पर दे दिया था !”

“उनकी बात और थी, समझे तुम! इन कलूटों की तो सूरत देखते ही उबकाई आती है। उठाईगीरे होते है सो अलग।”

पिताजी आग उगल रहे थे और इशान हैरान-परेशान अपने जन्मदाता के विचारों को देखकर सोच रहा था अगर संस्कार ऐसे होते हैं तो कुसंस्कार कैसे होते होंगे?

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