
उर्दू लेखिका सावित्री गोस्वामी

– रीता कौशल, ऑस्ट्रेलिया
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं, और कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते। ऐसा ही अनाम रिश्ता था मेरा, उर्दू लेखिका सावित्री गोस्वामी के साथ। उम्र में दो पीढ़ियों का अंतराल, फिर भी उनके और मेरे बीच में एक अलग ही तरह की समझ थी। मुझे ही नहीं, किसी को भी अपना बना लेने का कुदरती हुनर था, उनके पास।
वे मुझसे पहली बार मैनिंग सेंटर में रूबरू हुई थीं। ये सेंटर वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया के, पर्थ शहर के मैनिंग सबर्ब में, बुजुर्गों के आपस में मिलने-जुलने, कुछ कविता-कहानी, गपशप करने का स्थान है। इस सेंटर की प्लास्टरविहीन दीवारें, नीले फूल-पत्ती के डिजाइन वाले परदे, एक बड़ा सा चाइना क्ले का भयंकर फूलदान और उसमें लगे बदरंग नकली पुष्प गुच्छ, जो कि बीस कदम की दूरी से अपनी नकलियत दिखाने में सक्षम हैं। मेरे मन का सच ये है कि ये सेंटर मुझे बेहद उबाऊ लगता है। मैं जब भी इस सेंटर में जाती हूँ या इसमें हुए किसी कार्यक्रम के फोटो या विडीयो देखती हूँ तो मेरा सारा मूड चौपट हो जाता है।
बहरहाल मैनिंग सेंटर पुराण एक भिन्न विषय है और भविष्य में इस पर पूरा एक ग्रंथ रचने का इरादा है। यह सेंटर इतना भी बुरा नहीं है। इसकी इतनी ज्यादा निंदा भी ठीक नहीं, क्योंकि इसी सेंटर में सावित्री आंटी जैसी भली मानस से मेरी पहली मुलाकात हुई थी। वह एक ऐसी शख्सियत थीं जो सिर्फ प्यार बाँटती थीं। मेरी उनके साथ जान-पहचान की अवधि बेहद छोटी रही – मात्र नौ महीने! इसमें भी, आमने-सामने की मुलाकातों की गिनती तो एक हाथ की उँगलियों पर पूरी की जा सकती है। बाकी बातें-मुलाकातें दूरभाष पर ही होती थीं। नौ महीने की इस अल्प अवधि में भी, वह मुझे अपने प्यार से सराबोर कर, मेरे हृदय में अपनी अमिट स्नेहमयी छवि अंकित कर गयीं।
मैं ऑफिस में अपने लंच टाइम के आधे घंटे का सदुपयोग, आसपास टहलने के लिए करती हूँ। सावित्री आंटी को मेरी इस आदत व लंच टाइम का पता था। अतः बारह बजते ही मुझे फोन करतीं। मैं भी बारह बजे उनके फोन का इंतजार करती और टहलते-टहलते उनसे फोन पर गप्पें मारा करती। अगर किसी कारणवश उनका फोन बारह बजकर पाँच मिनट तक न आता तो फिर मैं स्वयं उन्हें कॉल कर लेती।
अगर कभी मैं उनकी कॉल नहीं ले पाती और बाद में वापस उनको फोन करती तो कहतीं, “अरे बेटा इतना भी परेशान न हुआ करो। मैं तो फालतू हूँ इसलिए फोन करती रहती हूँ। पर तुम्हें तो सौ काम रहते हैं।” उन्हें न जाने क्यों ऐसा लगता था कि फोन करने में मेरे पैसे खर्च हो रहे हैं, जबकि मेरी मोबाइल स्कीम में असीमित लोकल कॉल मुफ्त में होते हैं। यह सोचकर वह मुझसे कहतीं, “ऐसा करो बेटा, तुम मत मुझे फोन किया करो…अभी तो तुम्हारे आगे बहुत उम्र पड़ी है…तुम्हें तो अभी पैसे से बहुत काम करने हैं…मैं तुम्हें फोन किया करूँगी…तुम्हारे अंकल मुझे कोई ऐसी-वैसी हालत में छोड़कर थोड़े ही गए हैं।” सार ये कि बस हर समय दूसरों के हित की चिंता करतीं और खुद को सबसे आखिर में रखतीं।
जिंदगी में काफी लेट, करीब साठ साल की उम्र में उन्होंने कलम पकड़ी और कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया। जिस दिन उन्हें उत्तर प्रदेश की उर्दू एकेडमी से अवॉर्ड मिला, मुझे खबर देते हुए बोलीं, “बेटा मैं तुम्हें सबसे पहले फोन कर रही हूँ। पहली बात तो ये कि मेरे अवॉर्ड की खबर तुम्हें यहाँ-वहाँ से मिलेगी, तो तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा। सोचोगी अरे आंटी वैसे तो रोज फोन करती हैं, पर अवॉर्ड मिला तो मुझे बताया भी नहीं। दूसरी बात, तुम लेखिका होने के नाते मेरी खुशी का अंदाजा लगा सकती हो कि जब हमारी कलम को, हमारे विचारों को सम्मान मिलता है तो उस मौके की खुशी क्या होती है! बेटा, मुझे लगता है कलमकारों के अलावा बाकी लोग इस लमहें की खुशी को ठीक से समझ भी नहीं सकते।”
वो यहाँ पर्थ (वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया की राजधानी) में अपनी बड़ी बेटी के साथ रहती थीं। एक बार उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया। बोलीं, “बेटा मेरे घर आओ, तो मैं तुमको अपनी कहानियाँ पढ़कर सुनाऊँगी और तुम मुझे अपनी कहानियाँ पढ़कर सुनाना।” हम दोनों एक दूसरे को अपनी कहानियाँ पढ़कर ही सुना सकते थे, एक दूसरे की पढ़ नहीं सकते थे। कारण था कि आंटी उर्दू लिपि में लिखती थीं और मैं देवनागरी लिपि में। मुझे तो उर्दू लिपि का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं है, और आंटी के शब्दों में उन्हें हिंदी आती तो थी मगर आने वाली नहीं आती थी। उनकी इस बात का अभिप्राय था कि वह हिंदी पढ़ तो लेती हैं पर सुगमता के साथ नहीं। थोड़ा समय लगाकर पढ़ पाती थीं और कभी-कभी हिंदी के कठिन शब्दों के अर्थ समझना उनके लिये मुश्किल भी होता था।
आंटी के इस निमंत्रण पर मैंने कहा, “आंटी अभी तो मैं इंडिया जा रही हूँ, इंडिया से लौटकर आपके पास जरूर आऊँगी। आंटी बोलीं, “ठीक है बेटा कोई बात नहीं इंडिया होकर आओ। मैं तुम्हारा इंतजार करुँगी।” इंडिया से वापस आने के बाद, मैंने उन्हें फिर कॉल किया। मैंने कहा आंटी मैं पर्थ वापस आ गयी हूँ और इस इतवार को आपसे मिलने आना चाहती हूँ। वो बोलीं, “बेटा इस इतवार को तो मेरी धेवती (बेटी की बेटी) हमारे घर से अपने घर में शिफ्ट हो रही है इसलिए हम सब उसके साथ व्यस्त होंगे। तुम ऐसा करो कि इससे अगले इतवार को आ जाओ।” दरअसल उनकी धेवती की अभी दो-एक महीने पहले ही शादी हुई थी और वह अपने पति के साथ, अपने नये खरीदे हुए घर में जा रही थी।
“इससे अगले इतवार को तो, मैं एक हफ्ते के लिये सिंगापुर जा रही हूँ आंटी…अब तो मैं वहाँ से लौटकर ही किसी दिन आपके पास आ पाऊँगी।” मेरे मुख से ये शब्द सुनते ही वो तपाक से बोलीं, “नहीं-नहीं बेटा ऐसा मत करो। मैं वैसे ही पिच्यासी साल की हूँ। मेरे कल का क्या पता! मैं इतना इंतजार नहीं कर सकती…आ जाओ तुम तो…इसी इतवार को आ जाओ। मैं सचमुच ही तुम से मिलना चाहती हूँ…टालमटोल वाली तो कोई बात ही नहीं है। धेवती अपने घर में शिफ्ट हो रही है, सो उसे घर के दूसरे लोग मदद कर देंगे। “
वो मोहब्बत बाँटती थीं, और मोहब्बत ही बटोरती थीं। घृणा, स्वार्थ, लालच को आसपास फटकने भी नहीं देती थीं। पूरे टाइम स्वेटर बुनतीं। अपने लिए नहीं, अपने परिवार के लिए भी नहीं -भारत में गरीबों व जरूरतमंदों को भेजने के लिए। मैंने कभी उनके हाथ से ऊन-सलाइयाँ गिरती नहीं देखीं। जब मैं उनके घर मिलने गयी, तब भी मैं जितनी देर वहाँ बैठी, उनकी उँगलियाँ ऊन के धागों-सलाइयों पर फिसलती रहीं और जुबान-दिमाग मुझसे साहित्यिक चर्चा में मशगूल रहे। ऐसे जीवट वाली पिच्यासी वर्ष की कितनी महिलायें होती हैं! आँखों से बहुत अच्छी तरह दिखाई नहीं देता था, पर बुनने का अभ्यास और जरूरतमंदों की मदद का जज्बा इतना गहरा था कि उनको बुनाई देखने की जरूरत नहीं पड़ती थी। वह बिना देखे ही कुशलतापूर्वक ये काम कर लेती थीं।
22 अगस्त 2016 सोमवार को उनका आखिर फोन आया था मेरे पास। कहने लगीं, “मैं तुम्हें अपने साथ सभी जगह ले जाना चाहती हूँ। अपने सभी साहित्यिक मित्रों से मिलवाना चाहती हूँ…इस शुक्रवार को मेरे साथ चलोगी? समीना को जानती हो तुम ? मैं उससे मिलवाना चाहती हूँ तुम्हें।” मैंने कहा, “आंटी मैं ज्यादा कहीं जाती-आती नहीं इसलिए किसी को जानती भी नहीं। इस पर आंटी बोलीं, “एक बात बताऊँ बेटा…तुम किसी को जानो या न जानो लोग तुम्हें जानते हैं।” इसी तरह की मनभावन बातें कर, मेरे जैसे नौसिखिया का बड़ी उस्तादी से मनोबल बढ़ा देतीं।
दरअसल 26 अगस्त 2016 शुक्रवार को वे मुझे एक साहित्यिक कार्यक्रम में अपने साथ ले जाने वाली थीं। अपनी एक मुँहबोली बेटी से मिलवाने, जो कि एक पकिस्तानी हैं और यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया में प्रोफेसर होने के अलावा उर्दू अदब, शेरो-शायरी में खासी दखल रखती हैं। अफसोस, वह दिन कभी नहीं आया और एक दिन पहले ही 25 अगस्त 2016 बृहस्पतिवार को आंटी ने ये दुनिया छोड़ दी।
दिल में एक अफसोस रह गया कि मैं सोचती ही क्यों रह गयी, क्यों बीच के दो दिनों में मैंने उनको कोई कॉल नहीं की? उनकी मृत्यु के बाद मैंने उनकी, उस मुँहबोली बेटी को ढूँढ निकाला। उनसे कहा कि आंटी मुझे आप से मिलवाना चाहती थीं। अब क्योंकि वह नहीं है अतः हम दोनों आगे साथ-साथ काम करेंगे। दूसरी तरफ से अच्छी प्रतिक्रिया मिली, पर वो बात कहाँ जो सावित्री आंटी में थी! वे सिर्फ रिश्ते बनाना ही नहीं, मोहब्बत की पक्की डोर से उन्हें जोड़े रखना भी जानती थीं।
एक क्रिश्चियन परिवार में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता एक मिशनरी थे। पैदाइश के समय ही उनका नाम सावित्री रखा गया, जबकि उनके बाकी भाई-बहनों के नाम क्रिश्चियन नाम थे। वो उर्दू लिपि में लिखती थीं। उनका विवाह जो कि एक प्रेम विवाह था -हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अनेकता में धड़कती एकता की चलती-फिरती मिसाल थीं वो। गंगा-जमुनी तहजीब की सरिता उनकी बातों तक ही सीमित न रहकर, उनके समूचे व्यक्तित्व व सोच में बहती थी। ऐसी दिव्यात्मा के सम्मान में जितना कहा जाये कम होगा। किसी से कोई द्वेष नहीं, कोई शिकवा नहीं। सबके हित में सोचना और जितना बन सके बिना कहे-सुने कर देना। यही उनके जीवन मूल्य थे, जो उन्होंने आखिर साँस तक निभाये।
उनके इस दुनिया को अलविदा कहने के बाद, मेरे भीतर भी बहुत कुछ बदल गया। मैं आज भी अपने लंचब्रेक में टहलने जाती हूँ किंतु उनकी मृत्यु के बाद से अपना मोबाइल अपनी डेस्क पर ही छोड़कर जाती हूँ क्योंकि अब बारह बजे वह कॉल नहीं आती, और कोई नहीं पूछता, “कैसी हो?” वो दिल अब इस दुनिया में नहीं धड़कता जो मुझ पर आशीष बरसाते नहीं थकता था। वो जुबान हमेशा के लिए शांत पड़ गयी जो मुझसे कहते नहीं थकती थी, “भगवान तुम्हारी झोली चाँद-सितारों से भर दे…दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की करो…जहां भर में नाम कमाओ…।” अब ये शब्द कहीं खो गए हैं, पर ये दुआएँ मेरे साथ थीं और हमेशा रहेंगीं। मैं स्वर्गीय सावित्री आंटी की दुआओं का मान रखने में अपनी पूरी सामर्थ्य लगा दूँगी। ईश्वर मुझे इसकी क्षमता प्रदान करें और मेरी हर दिल अजीज आंटी की आत्मा को शांति !
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