अक्षरों की जो ज्योति हिंदी साहित्य के परिदृश्य को बीते कई दशकों से आलोकित कर रही है, उस ज्योति का नाम है — रामदरश मिश्र।

“मिला क्या न मुझको ए दुनिया तुम्हारी,

मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे।”

आज देश ने भी उन्हें अपनी मोहब्बत, अपना मान ‘पद्मश्री’ के रूप में अर्पित किया।

हम सौभाग्यशाली हैं कि इस ऐतिहासिक क्षण के साक्षी बने। डॉ. मिश्र जी के द्वारका, दिल्ली स्थित आवास पर आयोजित पद्मश्री अलंकरण समारोह में उपस्थित होकर हमने एक युग को सजीव होता हुआ देखा। वो युग जो न किसी जल्दबाज़ी में रहा, न किसी होड़ में, बल्कि जो जीवन को समझता गया,

“बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,

खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।”

सधी हुई कलम से निकली डॉ. मिश्र की 80 से अधिक कृतियां लोक-जीवन की गाथाएं हैं। उनका संपूर्ण साहित्य एक समग्र जीवन-दर्शन है जो गांव से शहर तक और संवेदना से सृजन तक फैला है।

यह हिंदी साहित्य की लोक-संवेदना का उत्सव है, सृजनशीलता की शतवर्षीय साधना का अभिनंदन है।

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