नीचता अब नीति है, ऊंचाई अब गिरावट से नापी जाती है

– डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त

सुबह का वक्त था, मगर मोहल्ले में अंधेरा छाया हुआ था। अंधेरा बिजली का नहीं, सोच का था। नीच लोगों की बैठक रातभर चली थी—अखबारों में उसे ‘रात्रिकालीन विचार गोष्ठी’ कहा गया। वही गोष्ठी, जिसमें तय हुआ कि अब ईमानदार को ‘भ्रष्ट’ कहा जाएगा और भ्रष्ट को ‘ईमानदार’। सबने ताली बजाई, जैसे गधे घास देखकर हिनहिनाते हैं। मोहल्ले का बूढ़ा वर्मा जी उस सुबह अपने दरवाजे पर बैठा चाय पी रहा था, बोला—”अब तो नीचों का दौर है बेटा, हम तो बस पोस्टर बनकर दीवारों पर टंगे हैं।” सामने से नेताजी निकले, कुर्ता इतना सफेद कि उनकी नीयत पर शेरवानी शर्मिंदा हो जाए। बोले, “चिंता न करो वर्मा जी, अब हर घर में नीचता की रौशनी पहुंचाई जाएगी।” वर्मा जी चाय गिरा बैठे—कहीं ये योजना सचमुच ‘नल-नीच योजना’ न हो जाए!

गली के नुक्कड़ पर लड़कों का झुंड खड़ा था। ‘सिस्टम को गाली देना’ इनका रोज़ का व्रत था। “अबे साले, वो जो वॉर्ड का ठेकेदार है, कल उसका इंटरव्यू टीवी पे आया। बोल रहा था—‘हम समाज सेवा करते हैं।’ और अगले ही दिन उसने मोहल्ले का पार्क बेच दिया।” किसी ने पूछा, “तूने क्या किया?” जवाब मिला, “मैंने भी कुछ नहीं किया, मैं भी समाज सेवा कर रहा हूँ।” हँसी गूंजी, लेकिन दर्द छुपा हुआ था—उस मोहल्ले में बच्चे अब मैदान में नहीं, मोबाइल में गिरते थे। नीचता वहाँ ‘रिवाज’ बन चुकी थी। लोग कहते थे—‘बेटा कुछ भी बनो, पर नेता बनना मत भूलना।’

एक स्कूल था, जहाँ अध्यापक कम और ‘शिक्षा ठेकेदार’ ज़्यादा थे। वहाँ बच्चों को पढ़ाया जाता था—“इंटिग्रिटी इज़ ए मिथ, हॉनेस्टी इज़ फॉर लूजर्स” हर सप्ताह भाषण प्रतियोगिता होती थी—विषय होता, “मैं कैसे एक भ्रष्ट अफसर बनूं।” माँ-बाप ताली बजाते थे, और स्कूल का मालिक कहता, “हमने टैलेंट को सही दिशा दी है।” एक बच्चा मंच से बोला—“मैं बड़ा होकर रिश्वत लूंगा, पर स्टाइल से।” सब हँसे, पर उसकी माँ रो पड़ी। वो जानती थी, घर में दो वक्त की रोटी नहीं, पर बेटे को नीचता का आईना दिखा दिया गया है। हाँ, उस आईने में चेहरे नहीं, केवल नोटों के रंग दिखते थे।

एक अस्पताल था, जहाँ डॉक्टर नहीं, ‘दवा डीलर’ बैठते थे। गरीब मरीज़ ऑपरेशन टेबल पर था, डॉक्टर बोला—“सर्जरी तभी होगी, जब एडवांस आएगा।” नर्स बोली, “साहब के पास फाइल है, कागज कम, कमीशन ज़्यादा है।” बाहर खड़ा उसका बेटा रो रहा था, बोला—“पापा को बचा लो, मैं अपनी साइकल दे दूंगा।” डॉक्टर मुस्कराया, बोला—“हम इमोशन्स नहीं, इनवॉइस पढ़ते हैं।” फिर पीछे से आवाज़ आई—“साहब, अगले महीने मेडिकल अवार्ड मिलने वाला है।” और मरीज़ की सांसे रुक गईं। सब बोले—“डॉक्टर साहब महान हैं, उन्होंने मृत्यु में भी व्यवसाय खोज लिया।”

शहर का एक पुल गिर गया। अखबार ने लिखा—‘ईश्वर की इच्छा थी।’ मुख्यमंत्री बोले—“इसमें नीचता नहीं, नियति का खेल है।” मगर मोहल्ले का लड़का जो हर रोज़ उस पुल से स्कूल जाता था, अब स्कूल नहीं गया—वो मलबे में दब गया था। पिता बोला—“हम तो बस यही चाहते थे कि बच्चा पढ़-लिख जाए।” ठेकेदार को क्लीन चिट मिल गई—वो अब नई योजना में व्यस्त था, “गड्ढों में विकास”। उसके फ्लैट की बालकनी से गिरा हुआ पुल साफ़ दिखाई देता था। उसने पत्नी से कहा—“देखो जानू, ये सब ‘ऑपर्च्युनिटी इन डिसास्टर’ है।” पत्नी मुस्कराई—“तुम्हारी नीचता पर तो हॉलीवुड फिल्म बन सकती है।”

बूढ़ा बंसी काका नगरपालिका के पास धरने पर बैठा था। हाथ में पोस्टर था—“गटर बंद है, जिंदगी सड़ रही है।” मगर सामने से आया अफसर बोला—“आप विरोध कर रहे हैं, ये तो देशद्रोह है।” बंसी काका बोले—“हम तो बस सफाई चाहते हैं।” अफसर बोला—“सफाई तो हम फाइलों में कर चुके हैं।” फिर मोबाइल में सेल्फी ली और हैशटैग लिखा—#PublicWithCleanIndia. दूसरी तरफ नाली से निकलकर बच्चा खाँस रहा था—वो बच्चा जो कभी डॉक्टर बनना चाहता था, अब गटर में ‘हाथों से ज्ञान’ ले रहा था।

एक परिवार, जो हर शाम रामायण पढ़ता था, अब टीवी बंद कर चुका था। कारण? उनका बेटा, जो प्रशासनिक अफसर बन चुका था, अब ‘तस्करों का रक्षक’ बन गया था। माँ ने पूछा—“बेटा, क्या यही पढ़ाया था हमने?” बेटा बोला—“माँ, जमाना बदल गया है, अब नीति नहीं, नीचता से काम चलता है।” पिता खाँसते हुए बोले—“हमने तो सोचा था बेटा ‘राम’ बनेगा, ये तो ‘रावण का पीए’ बन गया।” माँ की आँखों से आँसू गिरते गए—रामायण का पन्ना भीग गया। उस दिन उस घर की लक्ष्मी ने दीपक नहीं जलाया—क्योंकि सच जल चुका था।

शहर में एक मूर्ति लगाई गई—‘आधुनिक भारत के निर्माता।’ लोग फूल चढ़ाने आए। मूर्ति नीच व्यक्ति की थी, जिसने घोटाले से साम्राज्य खड़ा किया था। किसी ने कहा—“देखो, कितना सफल आदमी है।” वर्मा जी पास खड़े थे, बोले—“अब सफलता की परिभाषा नीचता हो गई है।” फिर बच्चों ने नारा लगाया—“नीच बनो, देश चलाओ।” सबने ताली बजाई। आकाश से एक आँसू गिरा—शायद भगवान भी रो पड़े थे। उस दिन सूरज जल्दी ढल गया था, क्योंकि उसे इस अंधकार से डर लगने लगा था।

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