पुण्य अर्जन

– डॉ. सच्चिदानंद जोशी

तिरुपति किसी ऑफिशियल काम से गए थे। सोचा कि यदि संभव हो तो भगवान वेंकटेश्वर जी के भी दर्शन इसी यात्रा में हो जाएं तो कितना अच्छा हो। मन में सोचा ही था और कुछ संयोग ऐसा बना कि संभव हो भी गया। दो दिन ऑफिशियल काम के बाद तीसरे दिन सुबह का स्लॉट मिला दर्शन के लिए वो भी प्रोटोकॉल के माध्यम से।

दर्शन के पहले दिन रात को खाना खाने के बाद लिफ्ट से ऊपर अपने कमरे में जा रहे थे तो साथ में एक परिवार भी था। एक बुजुर्ग मां जो स्टिक के सहारे चल रही थी, साथ में थे माध्यम वय के पति पत्नी और एक बिटिया।

मुस्कुराहट के आदान प्रदान के बाद माता जी ने पूछा, “यू डिड दर्शन टुडे?”

“टुमारो मॉर्निंग” मैंने उत्तर दिया।

“कितना बजे आठ बजे या दस बजे”

“सेवन ए एम स्लॉट! वी हैव टू रीच एट सिक्स”, श्रीमती जी ने उन्हें पूरक जानकारी उपलब्ध कराई।

“हाऊ मच टिकट? टेन थाउजेंड ऑर मोर?”, माता जी की उत्सुकता बढ़ी।

“थ्रू प्रोटोकॉल”, मैने संक्षिप्त उत्तर दिया ताकि संभाषण वहीं रुक जाए।

“व्हेरी लक्की, व्हेरी लक्की”, माता जी ने आंखे नचाते हुए कहा। उनके साथ में जो मध्यम वयीन महिला थी वो उन माता जी की बेटी थी शायद। उसे अपनी मां का व्यवहार पसंद नहीं आया। उसने लगभग डपटते हुए मां से कहा, “अम्मा इनफ़ इज़ इनफ”

फिर हमारी ओर मुखातिब होकर बोली, “रियली सारी, शी इज वेरी इगर टू डू दर्शन। वी आर ट्राईंग वेरी हार्ड बिकॉज शी कुड नॉट गेट दर्शन लास्ट टाइम।”

तब तक हमारी मंजिल आ गई। लिफ्ट से निकलते हुए सामान्य अभिवादन के उत्तर में माताजी ने एक बार फिर “व्हेरी लक्की” कहा और लिफ्ट बंद हो गई।

हम कमरे में जाकर उस बात की चर्चा किए बगैर सो गए क्योंकि सुबह जल्दी उठ कर नहाना था और साढ़े पांच बजे निकल जाना था।

तिरुमला की पहाड़ी पर जाकर प्रोटोकॉल की पर्ची के बावजूद एक कक्ष से दूसरे और दूसरे से तीसरे में जाते हुए अच्छा खासा समय लगा। जाते समय दर्शन के प्रत्याशी लोगों की भीड़ और लंबी लाइनों को देखते हुए लिफ्ट वाली माता जी के “व्हेरी लक्की” शब्द कानों में गूंज रहे थे। जब हम भगवान वेंकटेश्वर जी के दर्शन कर रहे थे तब जो लोग दर्शन करके लौट रहे थे, उन लोगों के अश्रुपूरित नेत्रों को देख कर भी लिफ्ट वाली माताजी बार बार याद आ रही थी। “गोविंदा गोविंदा” का जयघोष बाहर और मन के अंदर एक ही तीव्रता से गूंजता अनुभव हो रहा था। वह अनुभव वर्णनातीत है।

मंदिर प्रांगण में बैठ कर दर्शन के पूरे अनुभव को मन में दोहराते हुए ध्यानस्थ होने की चेष्टा में ही थे कि उसी समय नज़रे उस अधेड़ महिला पर टिक गई जो हरी साड़ी पहने मंदिर का प्रांगण साफ कर रही थी। तिरुपति मंदिर का प्रबंधन विश्व विख्यात है। लाखों दर्शनार्थियों के प्रतिदिन आने के बावजूद वहां की साफ सफाई और अन्य व्यवस्थाएं चाक चौबंद रहती हैं। मंदिर परिसर में और मंदिर प्रांगण में सबके काम और वेशभूषा निर्धारित है। हरी साड़ी वाली महिलाएं साफ सफाई करती है और नारंगी साड़ी वाली महिलाएं अंदर की व्यवस्था जैसे ठीक से लाइन लगवाना, लोगों को क्रम से भेजना आदि का काम करती हैं। ऐसे ही व्यवस्था में काम कर रहे पुरुषों की शर्ट का भी रंग जामुनी और सफेद है। कुछ के पास प्रसाद की व्यवस्था है तो कुछ के पास सुरक्षा और समय पालन करवाने की व्यवस्था है। उस हरी साड़ी वाली अधेड़ महिला को देख रात में मिली लिफ्ट वाली माताजी और उनकी प्रतिक्रिया “व्हेरी लक्की” याद आ गई।

सफाई कर रही अधेड़ महिला पास आई और उसने नीचे गिरा प्रसाद का कण मेरे हाथ में दिया और इशारा किया कि इसे नीचे मत गिराओ। मैंने वो गिराया तो नहीं था फिर भी उसे शुभ मान कर रख लिया। मेरे मन में विचार आया कि जिस वेंकटेश्वर भगवान के दर्शन के लिए लाखों करोड़ों लोग तरसते हैं और न जाने कितने व्रत उपास करते हैं यहां तक पहुंचने के लिए, वो तो इस अम्मा को अनायास ही प्रायः रोज हो जाते होंगे। लोगों का बड़े जतन से सायास कमाया पुण्य इस माता को तो अनायास ही मिल रहा है।

मैंने उस अम्मा से कहा “अम्मा यू वेरी लक्की” और भगवान के शिखर की ओर इशारा कर उसे समझना चाहा कि आप तो भाग्यशाली है जो रोज भगवान के दर्शन करती हैं।

उस अम्मा ने अश्रुपूरित नेत्रों से शिखर की ओर देखा और एक बार “गोविंदा गोविंदा” कहा। फिर मेरे कंधे पर हाथ रखा और तेलुगु में कुछ कहा। मुझे उसका कहा समझ में नहीं आया लेकिन उसकी मुस्कुराहट से इतना पता चल गया कि उसने कुछ अच्छा ही कहा होगा।

उसके जाने के बाद मेरे सहयोगी ने जो तेलुगु जानते थे ने बताया कि वो अम्मा कह रही थी, “मुझे रोज गोविंदा के मंदिर में सेवा करने का अवसर मिलता है, मुझसे बड़ा भाग्यवान इस दुनिया में और कौन होगा।”

वो अम्मा चली गईं। हम भी प्रसाद लेकर अपने गंतव्य की ओर बढ़े। जिन सज्जन के माध्यम से हमें प्रोटोकॉल दर्शन नसीब हुए थे वे कह रहे थे “सर यू आर लक्की। इट वाज वेरी डिफिकल्ट। बट आय एम हैप्पी। आपको तो बहुत पुण्य मिलेगा।”

मैं कुछ कहता इससे पहले श्रीमती जी ने उन्हें प्रमाणपत्र दे दिया, “पुण्य तो आपको मिलेगा सर क्योंकि आपने हमारे दर्शन कराए।”

इस अत्यंत सुखद वार्तालाप के बीच मेरी नजरों के सामने लिफ्ट में मिली माता जी का चेहरा आ रहा था और मन में प्रश्न भी उठ रहा था कि क्या उन्हें सुबह का स्लॉट मिल गया होगा दर्शन के लिए।

व्यक्ति भावुक होता है और ईश्वर की आराधना में भाव का ही महत्व है। श्रीमती जी प्रसन्न थी कि इतने अच्छे दर्शन हो गए। प्रसन्न मैं भी था लेकिन उतनी मुखरता से अपनी प्रसन्नता व्यक्त नहीं कर पा रहा था। मुझे शांत शांत सा देख श्रीमती जी को चिंता हुई, बोली “क्या आप आज के दर्शन से खुश नहीं है।”

“नहीं, मैं भी बहुत खुश हूं।” मैंने सचेत होकर कहा।” बस सोच रहा हूं कि किसके हिस्से में पुण्य ज्यादा आयेगा, हमारे या उस लिफ्ट वाली माताजी के या मंदिर में झाड़ू लगाती अम्मा के। साथ ही यह भी सवाल उठ रहा है कि भगवान को तो यह मालूम पड़ ही गया होगा कि हम नियमित लाईन से नहीं प्रोटोकॉल की लाईन से आए हैं, तो कही वो हमें आशीष देने में कोई कमी न कर दें।”

श्रीमती जी ने मेरा चेहरा देखा और बोली, “अब जल्दी कही जाकर नाश्ता कर लेते हैं। सुबह से कुछ खाया नहीं है।”

“हां वही ठीक रहेगा।”, मैंने कहा और सारथी को होटल की तरफ गाड़ी ले चलने को कहा।

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(चित्र इंटरनेट से साभार)

 

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