
बाल और वयस्क शिक्षार्थियों के भाषा-अधिग्रहण की प्रक्रिया
डा० सुरेन्द्र गंभीर
यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्वेनिया
surengambhir@gmail.com
बाल्यकालीन प्राकृतिक विधि
बच्चे पलते-पलते खेलते-खेलते एक या एक से भी अधिक भाषाएं अनायास कैसे सीख लेते हैं? इस प्रश्न का उत्तर हर सामाजिक प्राणी के अनुभव में तो निहित है ही, पर ‘कैसे सीख लेते हैं‘ इसका उत्तर विज्ञान के पास है। हर शिशु के मस्तिष्क के बाएं भाग में प्रकृति-दत्त एक ऐसी तंत्रिका है जो 12-13 वर्ष की आयु तक सक्रिय रहती है। इस कालावधि में यही तंत्रिका भाषा-अधिग्रहण के लिए महत्वपूर्ण होती है। इस सारी प्रक्रिया में बच्चा पहले वर्ष में भाषा सुनता है और दूसरे वर्ष में कुछ कुछ बोलना शुरू करता है। इस प्राकृतिक विधि में सचेत मन का प्रयोग नहीं होता क्योंकि बच्चे को यह सोचना नहीं पड़ता कि अमुक शब्द पुंल्लिंग है या स्त्रीलिंग, क्रिया सकर्मक है या अकर्मक, या फिर क्रिया की संगति वाक्य के किस अवयव के साथ होगी? वास्तव में शैशव अवस्था में ऐसी विशलेषणात्मक सोच की सुविधा ही कहां होती है?
आसपास के लोग बच्चों के साथ विभिन्न संदर्भों में बाल-सुलभ विविध विचारोक्तियों का प्रयोग करते हैं। बच्चा तो दूसरों की वाणी सुनते-सुनते भाषा को इस तरह से सीख लेता है जैसे पुराने किस्म का कोई ब्लाटिंग पेपर स्याही सोख लेता था। उसका अवचेतन मन सक्रिय होता है और वह बाल-सुलभ संवाद के सार्थक संदर्भों में किसी भी विचारोक्ति को अनायास आत्मासात् कर लेता है। बच्चे के हाथ से यदि गेंद गिर गया तो उसके मुख से निकलता है – गिग्या (=गिर गया)। उसको यह सोचने की आवश्यकता नहीं कि गिरना मूल धातु है और जाना लगाने से वह एक संयुक्त क्रिया बनती है, या गिग्या या गिर गया भूतकालिक रूप है। उसके लिए गिग्या (गिर गया) एक संपूर्ण विचारोक्ति है। इस प्रकार अधिगृहीत भाषा का व्याकरण उसके अवचेतन में धीरे धीरे स्वतः ही विकसित होता जाता है। इसी व्याकरण के आधार पर वह बाद में उसी प्रकार के नए नए वाक्य बना लेता है। वह पहले भाषा सीख सीखता है और फिर उसका मस्तिष्क उस अधिगृहीत भाषा से व्याकरण के नियमों का निर्माण करता है। इस प्रकार हंसी-खेल में बच्चे की पहली भाषा की आधारभूत नींव पांच वर्ष तक तैयार हो जाती है। यदि हम किसी दस बारह साल के बच्चे से यह पूछें कि तुमने अपनी भाषा कैसे सीखी तो उसका उत्तर कुछ इस प्रकार ही होगा कि ‘पता नहीं, अपने आप ही आ गई’।
बाल्यकालीन मस्तिष्क तो प्रकृति का वरदान है। प्रकृति ने हमारे जीवन के निमित्त हमारे शरीर-यंत्र की सूक्ष्म से सूक्ष्म क्रियाओं को कैसे संजोया और हमारी आवश्यकताओं को एक उदारमना की भांति ध्यान में रखते हुए विविध प्रकार के खाद्यान्न, फल, जड़ी-बूटियां, आक्सीजन आदि जैसे प्रदान किए, उसी प्रकार हमारी संप्रेषणात्मक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए हमारे बाल्यकालीन मस्तिष्क में उस अद्भुत शक्ति का संचार किया जिसके कारण मानव पशु-जीवन से ऊपर उठ कर ज्ञान-विज्ञान आदि की रहस्यात्मक गुत्थियों के बारे में एक दूसरे के साथ विचार-विमर्श कर सकता है। यह सब प्रकृति की योजना है। इसलिए बचपन के पहले कुछ वर्षों में भाषा-अधिग्रहण एक स्व-चालित प्राकृतिक प्रक्रिया है।
उस मूलभूत आधार को और अधिक विकासित करने के लिए फिर औपचारिक शिक्षा का द्वार खुलता है। अब स्थूल वस्तुओं से ऊपर उठ कर नए विचारों और अवधारणाओं को अभिव्यक्त करने वाले नए शब्द सीखने का समय होता है। इस प्रकार जीवन के आगामी वर्षों में नई अवधारणाओं को अभिव्यक्त करने वाली नई से नई शब्दावली आवश्यकतानुसार धीरे धीरे विकसित होती जाती है।
प्रवासी भारत–वंशी बच्चों का भाषा–अधिग्रहण
भारत से बाहर रह रहे प्रवासी भारतीयों के बच्चों का भाषा-अधिग्रहण भी मातृभाषी बच्चों जैसा हो सकता है। जिस देश में वे बच्चे रहते हैं उस देश के संपूर्ण वातावरण में कौनसी भाषाएं प्रयुक्त होती हैं वे भाषाएं प्रवासी बच्चे विद्यालय और बाहरी समाज के वातावरण से अनायास सीख लेते हैं। घर में यदि हिन्दी बोली जाती है तो उसे भी अनायास सीख लेते हैं। एक से अधिक भाषाएं अनायास सीख लेना बच्चों के लिए श्रम-साध्य नहीं। यदि अपनी विरासती भाषा घर में सीखने का अवसर नहीं मिलता तो विरासती भाषा की विशिष्ट कक्षाओं में वे
सीखने आते हैं। भाषा-सीखने-सिखाने का वह वातावरण कितना प्राकृतिक-विधि से मिलता-जुलता है उसी के अनुपात में उनका भाषा-अधिग्रहण होता है। इसीलिए ऐसी कक्षाओं में भी विभिन्न खेलों की रचना की जाती है जिनके माध्यम से बच्चे हंसते-खेलते भाषा को आत्मसात् करते चलें। इसके पीछे जो मूल तथ्य ध्यान में रखने योग्य है वह है – अवचेतन मन से भाषा-अधिग्रहण की प्रक्रिया।
वयस्क शिक्षार्थियों की भाषा–अधिग्रहण–विधि
मस्तिष्क के तंत्रिका-विज्ञान के विद्वानों के शोध से यह स्पष्ट हुआ है कि 12-13 वर्ष की आयु के बाद मस्तिष्क के बाएं भाग में स्थित भाषा-अधिग्रहण वाली तंत्रिका धीरे धीरे कुंठित होने लगती है। परिणाम-स्वरूप वयस्क लोगों का भाषा सीखने का तरीका बालकों जैसा नहीं रह जाता। उनके लिए उपर्युक्त प्राकृतिक विधि के विपरीत औपचारिक संदर्भ में किसी नई भाषा में प्रवीणता प्राप्त करने की विधि का विधान है। प्रकृति के द्वारा दी गई बचपन की मस्तिष्कीय तंत्रिका का लाभ औपचारिक विधि वाले शिक्षार्थी अधिक मात्रा में नहीं उठा पाते। वयस्क लोगों के लिए भाषा सीखने का मार्ग प्रधानतः संज्ञानात्मक (cognitive) हो जाता है, जिसका अर्थ है कि उद्दिष्ट भाषा के हर अवयव के नियमों को अब केवल अवचेतन बुद्धि से नहीं अपितु प्रधानतः चेतन-बुद्धि से ही समझना होता है। ऐसा नहीं है कि अवचेतन मन पूरी तरह से निष्क्रिय हो जाता है। उसका योगदान आरंभिक अवस्थाओं में कम होता है परंतु ज्यों ज्यों उद्दिष्ट भाषा में प्रवीणता का स्तर बढ़ता जाता है त्यों त्यों अवचेतन मन की सक्रियता भी बढ़ती जाती है।
आरंभ में ध्वनियां, शब्द, शब्द-संयोजन के माध्यम से वाक्य-निर्माण की प्रक्रिया आरंभ होती है।
हिन्दी के संदर्भ में अल्प-प्राण और महाप्राण ध्वनियों के अंतर को सुन पाना और फिर बोल पाना कुछ शिक्षार्थी मातृभाषियों के लिए कठिन हो सकता है। हिन्दी के संदर्भ में तवर्ग और टवर्ग की ध्वनियां भी अनेक शिक्षार्थियों के लिए दुस्साध्य हो सकती हैं। हिन्दी में अमुक संज्ञा शब्द पुंल्लिंग है या स्त्रीलिंग – इसे व्याकरणिक तथ्य को हर नए संज्ञा-शब्द के लिए स्मृति-पटल पर अंकित करना पड़ता है। वाक्य-निर्माण की प्रक्रिया भी क्लिष्ट नियमों पर आधारित होती है। वे नियम सीखने पड़ते हैं और इस प्रकार यह सारी अधिग्रहण प्रक्रिया समय-साध्य और श्रम-साध्य बन जाती है। शिक्षण और प्रशिक्षण आदर्श स्थिति का होते हुए भी, वयस्क विदेशी शिक्षार्थियों का उद्दिष्ट भाषा में प्रवीणता का स्तर प्रायः उतना अच्छा नहीं हो पाता जितना बाल्यकालीन शिक्षार्थियों में संभव हो पाता है।