
इस विशेषांक में अनीता वर्मा (संपादकीय); डॉ॰ जयशंकर यादव- कर्नाटक; अमित गुप्ता- नई दिल्ली; लीला तिवानी- नई दिल्ली; कात्यायनी; मोनाशी चटर्जी- कनाडा; डॉ अर्जुन गुप्ता ‘गुंजन’- उत्तर प्रदेश; डॉ सुनीता शर्मा- न्यूजीलैण्ड; संगीता चौबे पंखुड़ी- कुवैत; निशा भार्गव- दिल्ली; राकेश मिश्र- कनाडा; कल्पना लालजी- मॉरीशस; मनोज श्रीवास्तव ‘अनाम’- नई दिल्ली; पी.यादव ‘ओज’- उड़ीसा; उषा बंसल; स्वरांगी साने- महाराष्ट्र; डॉ महादेव एस कोलूर, कर्नाटक; प्रीति अग्रवाल ‘अनुजा’- कनाडा; सांद्रा लुटावन- सूरीनाम; नर्मदा कुमारी, कर्नाटक की रचनाएँ संकलित हैं।
संपादकीय

अनीता वर्मा
हर व्यक्ति के भीतर संभावनाओं का असीम संसार होता है। अपनी शक्तियों को पहचानने और तराशने के लिए उसे ना केवल स्वयं उपक्रम करना पड़ता है बल्कि स्वयं के अस्तित्व को समझना होता है। कई बार तो ऐसा होता है कि उसे अपनी शक्तियों का पता ही नहीं होता और उस समय उसे किसी ऐसे व्यक्ति का मार्गदर्शन प्राप्त होता है जो उसके भीतर छिपी संभावनाओं से उसका परिचय करवाता है और उस दिन से वो अपने आप से जुड़ना शुरू करता है। उसके बाद उत्कर्ष की दूसरी स्थिति तब आती है जब गुरु उसे समाज, मानवीयता व सद्भाव से जोड़कर जीना सिखाता है। धीरे-धीरे वह स्वयं को आनंद की अनुभूति के उस पड़ाव तक ले जाता है जहां वह सही अर्थों में मानवता की श्रेणी में पहुँच जाता है। असीम संभावनाओं के द्वार खुलते चले जाते हैं और फिर व्यक्ति भीतर से जगमगाने लगता है।
विकास की इस यात्रा में मार्गदर्शन करने वाला व्यक्ति ही गुरु की भूमिका में रहता है। वास्तव में गुरू आपकी शक्ति बनकर आपको अपनी जीवन यात्रा को सही दिशा में ले जाने के लिए प्रेरित करता है। गुरू वह आत्मिक बल है जो ऊर्जा के तत्व को सही दिशा में निर्देशित करता है। भगवान राम गुरू वशिष्ट से ,श्री कृष्ण गुरू सांदिपनि से ज्ञान प्राप्त करते हैं तो ब्रह्माजी के मानस पुत्र भगवान शिव से ज्ञान प्राप्त करके उत्कर्ष की ओर अग्रसर होते हैं। गुरू एक धर्म है, प्रकाश है और मुक्ति की राह है।
चौमासा यानि कि बरसात के चार महीने साधना के माह होते हैं। आज व्यास पूर्णिमा पर हम इस आत्मिक संबंध को समझने और जानने के लिए ये विशेषांक निकाल रहे हैं। आप सब की रचनाओं के माध्यम से सभी को ना केवल आत्मिक बल मिलेगा बल्कि हम गुरु शिष्य परंपरा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को भी याद करेंगे।

डॉ॰ जयशंकर यादव, कर्नाटक
तस्मै श्री गुरवे नमः
जीवन का सच्चा पथ जहाँ से शुरू होता है उस राह को दिखाने वाला गुरु होता है। बिनु गुरु होइ न ज्ञान। पुण्य भूमि भारत में सनातन से सैकड़ों आध्यात्मिक, अकादमिक एवं परंपरागत पर्व और उत्सव मनाए जाते हैं। गुरु को सम्मान देने एवं अनंत कृतज्ञता प्रकट करने के लिए श्रावण मास में ‘गुरु पूर्णिमा’ मनाई जाती है जिसे ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। वर्ष 2025 में 10 जुलाई को मनाई जाने वाली गुरु पूर्णिमा को ‘गुरु आदित्य योग’ भी बन रहा है। गुरु पूर्णिमा में आध्यात्मिक गहराई निहित है और शिक्षक दिवस शिक्षकों को समेटे व्यापक उत्सव है। गुरु पूर्णिमा का वैश्विक रूप भी सहज ही दृष्टिगोचर होता है। आइये, हम सजग दृष्टि के साथ गुरु-साधक बनें और गुरु के चरितामृत व वचनामृत से जीवन सफल करें।
गुरु का स्थान सर्वोपरि माना गया है। गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी “ बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा, रूपी प्रथम चौपाई से ‘मानस, की शुरुआत की। श्री गुरु पद नख मनि गन जोती, की बात की। भगवद्गीता में भी कहा गया है कि “ गुरु को श्रद्धा से प्रणाम करके व विनम्रता से प्रश्न पूछकर और सेवा करके ज्ञान प्राप्त करना चाहिए’। ‘गुरु सुश्रुषा फलम ज्ञानम’ अर्थात गुरु सेवा का फल ज्ञान है। गुरु ज्ञान की अनोखी दुनिया दिखाते हैं एवं आत्मपथ का पथिक बनाते हैं तथा सार्वकालिक, सार्वलौकिक एवं सर्वसमावेशक तत्वज्ञान की अनुभूति का वारिस बनाते हैं। दुर्लभ: चित्त विश्रांति अर्थात चित्त की परम शांति गुरु के बिना दुर्लभ है। सतगुरु शिष्य के ज्ञान चक्षु खोलकर सत्य से साक्षात्कार कराते हैं ताकि वह जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो सके। गुरु ऋण से उऋण होना असंभाव्य है। अतएव हमें गुरु के साथ कभी भी कपट नहीं करना चाहिए। कहा गया है कि –‘गुरु से कपट, मित्र से चोरी। या होवे अंधा या होवे कोढ़ी।।
गुरु वह झरोखा है जहां से ईश्वर झाँका जा सकता है। भरोसा और आशीर्वाद दिखाई नहीं देते किन्तु असंभव को भी संभव बनाते हैं। गुरु आत्मा को भोजन देते हैं। गुरु के प्रसन्न होने पर सभी देवता प्रसन्न होते हैं। अखंड मंडलाकार ,निराकार या साकार रूप में ज्ञान- ध्यान ,धरम -करम आदि गुरु की अमूल्य देन हैं। गुरु गुन लिखा न जाय। अतएव ‘तस्मै श्री गुरवे नमः। नित्य वंदन एवं गुरु पूर्णिमा पर नमामि नमामि।

अमित गुप्ता, नई दिल्ली
गुरु पूर्णिमा: भारतीय धरती से विश्व पटल तक
भारत में गुरु पूर्णिमा का पर्व आदर, श्रद्धा और कृतज्ञता का प्रतीक रहा है। वेदों में गुरु को सर्वश्रेष्ठ ज्ञानवर्द्धक कहा गया है और यह दिवस शिष्यों के हृदय में उसी ज्ञानप्राप्ति का दीप प्रज्वलित करता है। हालाँकि हम सभी कहीं—कहीं पर भी हों, गुरु की महिमा उस पार भी उतनी ही प्रकाशमान रहती है।
देश में रहते हुए मैंने महसूस किया है कि इस पर्व का प्रभाव केवल भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं रहा। जब हम भारत से बाहर बसे अपने बंधुओं—जो अफ्रीका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा या मध्य पूर्व में फैले हैं—के डिजिटल उत्सवों में शामिल होते हैं, तब पता चलता है कि गुरु पूर्णिमा का संस्कार कैसे विश्वपटल पर भारतीय आत्मा को जोड़ता है।
कुछ प्रवासी भारतीय सामाजिक मंचों पर सुबह-उठते ही बचपन के गुरु को नमन करते हुए तस्वीरें शेयर करते हैं। कुछ दूरदराज के छात्र ऑनलाइन संवाद में ‘गुरु धन्यवाद’ कहते हुए दिखते हैं। वहीं वरिष्ठ नागरिक अपने-अपने समूहों में स्थानीय मंदिर या सांस्कृतिक केंद्र में पंजाबी, बंगाली या गुजराती परंपरा में गुरु वंदना कराते हैं। इन अनुभवों से यह स्पष्ट होता है कि हम भारत से दूर होने पर भी अपने गुरुओं के प्रति निष्ठा और सम्मान नहीं भूलते।
डिजिटल युग ने गुरु–शिष्य संबंध को और सुदृढ़ किया है। भारत के साधु, योगाचार्य, साहित्यकार और अकादमिक अब वेबिनार, लाइवस्ट्रीम और पॉडकास्ट के माध्यम से विश्वभर के शिष्यों से जुड़ते हैं। गुरु पूर्णिमा के दिन आयोजित व्याख्यानों में भारत से लेकर प्रवासी नारियों और पुरुषों तक सभी ऑनलाइन जुड़कर गुरु को प्रश्न पूछते हैं, सीख साझा करते हैं और धन्यवाद अर्पित करते हैं।
भारत में बसने वाले हम भी इस अवसर पर अपने घरों में पूजा-अर्चना कर, वृक्षाराधना कर या परिवार के सीनियर मेंटर्स के साथ विचार-विमर्श कर इस पर्व को मनाते हैं। इन छोटे समारोहों में हम अपने भारतीय बंधुओं के अनुभवों की कहानियाँ सुनते हैं और योजना बनाते हैं कि अगली बार कैसे सहयोग, संरक्षकत्व (mentorship) या सांस्कृतिक आदान-प्रदान को आगे बढ़ाएँगे।
कॉर्पोरेट और शैक्षणिक क्षेत्रों में भी गुरु पूर्णिमा का महत्व कम नहीं रहा। भारत में काम करने वाले वरिष्ठ विशेषज्ञ, प्रोफेसर और उद्योगपतियों के मार्गदर्शन ने विदेशों में स्थित भारतीय स्टार्टअप्स और शोधकर्ताओं को नई दिशा दी। कई बार वे भारतीय शोध-पत्र या व्यापार मॉडल विदेशों में पहुंचाने में शिष्य की सहायता करते हैं और गुरु दिवस पर जन्मदिन जैसा उत्सव मनाया जाता है।
युवा पीढ़ी के लिए यह पर्व दोहरे मायने रखता है। एक तरफ वे घर में बैठकर परंपरागत मंत्रोच्चारण या ध्यान के अभ्यास से जुड़ते हैं, दूसरी ओर डिजिटल गुरुओं—ऑनलाइन कोच, भाषा शिक्षक या कोडिंग विशेषज्ञ—के साथ भी उनकी आत्मीयता बनी रहती है। इस तरह गुरु पूर्णिमा पर हमारी संस्कृति और तकनीक का अनूठा संगम दिखता है।
गुरु पूर्णिमा हमें याद दिलाता है कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। चाहे हम भारत के गाँव में हों या दुनिया के किसी कोने में बसे हों, गुरु का आशीर्वाद हमारे साथ चलता है। इस पर्व पर आइए हम अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें—उन सभी गुरुओं के प्रति, जिन्होंने जीवन की राह दिखाई, ज्ञान का बीज बोया और हमें आत्मविश्वासी बनाया।
इस पर्व का सार यही है: सीमा मात्र नक्शे पर होती है, पर ज्ञान के पंखों से हम विश्व के किसी भी कोने में उड़ान भर सकते हैं। गुरु पूर्णिमा पर अपने-अपने गुरुओं को प्रणाम करें और इस भारतीय परंपरा को विश्वभर में जीवंत रखें।

लीला तिवानी, नई दिल्ली
1.
गुरु
गुरु है,
एक ऐसा स्रोत,
जो ज्ञान का प्रकाश भी देता है और प्रेरणा भी,
जो मार्ग भी दिखाता है और मंजिल पर भी पहुंचाता है।
गुरु वह,
जिसमें गरिमा है,
जो मनुष्य को भविष्य की चिंता से निकालकर,
वर्तमान में खड़े रहने की शिक्षा दे।
गुरु वह है
जो हमें सदबुद्धि दे,
हमें संसार में जीना सिखाए,
सामाजिक बाधाओं को सहजता से पार करने की कला सिखाए,
गूढ़-से-गूढ़ बातों को इस तरह समझाए,
कि वह बात हृदय में उतर जाए,
वही सच्चा गुरु है, वही आचार्य है,
जिसके सान्निध्य में जाने से,
जीवन की दिशा व दशा दोनों बदल जाएं।
स्वरचित और मौलिक
लीला तिवानी
नई दिल्ली
2.
गुरु-अष्टक
गुरु ब्रह्मा विष्णु गुरु, गुरु शंकर अवतार।
गुरु मिलाएं ईश से, मन से हटाके विकार॥
सच्चे गुरु की सीख से, अपना जन्म सुधार।
चौरासी के फेर से,पा ले तू छुटकार॥
गुरु सूरज का तेज है, गुरु सद्गुण की खान।
उनके सद्-उपदेश से, ले निज को पहचान॥
हाथ पकड़कर सद्गुरु, कर देते उद्धार।
अपने दीपक आप बनो, सिखा लगाते पार॥
गुरु जीवन हैं, जान हैं, गुरु ही प्राणाधार।
सत्पथ दिखलाते गुरु , देकर ज्ञान का सार॥
सच्चा गुरु कैसे मिले, जान सके तो जान।
छोड़ना होगा अहं को, मान सके तो मान॥
गुरु शरण में बैठ के, ज्ञान का भोजन खा।
छप्पन भोग को छोड़ के, गुरु कृपा को पा॥
भग्वत् प्रेम निखार के, गुरु करते उपकार।
प्रभु से मिलने का तभी, सपना हो साकार॥
3.
“वो गुरु की सीख”
मैं 1966 में राजस्थान यूनिवर्सिटी से प्राइवेटली हिंदी में एम.ए. कर रही थी। मैं एक स्कूल की प्रिंसिपल थी और स्कूल के बाद वहाँ से सीधी साइकिल पर यूनिवर्सिटी में क्लास अटेंड करने जाती थी। हमारे एक प्रोफेसर श्री सरनाम सिंह अरुण जी ने कहा था कि-
“रचना ऐसी सकारात्मक लिखनी चाहिए, जिससे पढ़ने वाले को प्रसन्नता भी मिले, संदेश और प्रेरणा भी। समाज की वास्तविक स्थिति को भी अवश्य लिखना चाहिए लेकिन अंत सकारात्मक होना चाहिए, क्योंकि रात के घुप्प अंधेरे के बाद सुनहरी सुबह भी आती है।”
तब से अब तक हमारी बराबर यही कोशिश रहती है कोई भी रचना लिखें सकारात्मक ही लिखें। ऐसे गुरु को कोटि-कोटि नमन।

कात्यायनी
गुरु की आवश्यकता क्यों
अज्ञान्तिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः
हम अपने ब्लॉग पर अपने योग गुरु हिमालयन योग परम्परा के स्वामी वेदभारती जी की पुस्तक “Meditation and it’s practices” का हिन्दी अनुवाद – जो स्वयं स्वामी जी ने हम पर कृपा करके हमसे कराया था – की श्रृंखला पोस्ट कर रहे थे। लोग पढ़ते और कई बार कुछ विचित्र किन्तु तर्कसंगत प्रश्न भी पूछ बैठते। इसी क्रम में एक मित्र ने पूछा “पूर्णिमा जी, गुरु मन्त्र क्या होता है और इसकी क्या आवश्यकता होती ही… हम तो इन साधु सन्यासियों में बिल्कुल विश्वास नहीं करते…” उनका प्रश्न और उनका विचार एकदम तर्कसंगत था। लेकिन “साधु सन्यासियों” और “गुरु” में वास्तव में बहुत अन्तर होता है – ऐसी हमारी मान्यता है।
कल आषाढ़ पूर्णिमा जिसे गुरु पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। आज मध्य रात्रि में 1:48 पर इन्द्र योग, वणिज करण और मेष लग्न में पूर्णिमा तिथि का आगमन होगा जो कल अर्द्ध रात्रि दो बजकर 7 मिनट तक रहेगी। इस अवसर पर सभी गुरुजनों को नमन करते हुए गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं।
हम सभी को जीवन में आगे बढ़ने के लिए किसी न किसी के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है – यदि ऐसा न होता तो क्यों भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बनकर उन्हें गीता का उपदेश देते। चाहे व्यावहारिक जीवन हो, व्यवसाय हो, धर्म का मार्ग हो या अध्यात्म का – गुरु की आवश्यकता पग पग पर अनुभव होती है। कहते है माँ सन्तान की सर्वप्रथम गुरु होती है। जो सत्य भी है। माँ के गर्भ में पलते हुए ही शिशु को माता के संस्कारों, भावनाओं और व्यवहार के माध्यम से बहुत से संस्कारों का, भावनाओं का ज्ञान होता जाता है और गर्भ से बाहर आकर जब वह व्यवहार करता है तो उसमें उसकी माता के लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं। और यदि माता के गर्भ के दौरान पिता का भी अधिक साहचर्य प्राप्त होता है तब तो सोने पे सुहागा वाली स्थिति हो जाती है – माता पिता दोनों के व्यवहार, ज्ञान, भावनाओं और संस्कारों का लाभ शिशु को गर्भ में ही हो जाता है । अभिमन्यु की कथा किम्वदन्ती मात्र अथवा कोरी कल्पना भर नहीं है। अब तो विज्ञान ने भी इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है। इसीलिए माता पिता और सगे सम्बन्धियों को महिला की गर्भावस्था के समय में उचित नैतिकतापूर्ण तथा हर्षोल्लासपूर्ण व्यवहार करने तथा वैसा ही वातावरण बनाए रखने की सलाह दी जाती है।
इस प्रकार माता सबसे प्रथम गुरु होती है और उसके बाद पिता तथा बाद में परिवार के अन्य सदस्य बालक के गुरु की भूमिका में आते हैं। बालक का चरित्र तथा मान्यताओं का निर्माण वास्तव में गर्भ से ही आरम्भ हो जाता है। ये तो शिक्षा का एक पक्ष हुआ – जो जीवित रहने के लिए, समाज में विचरण करने के लिए, सामाजिक धार्मिक व्यवहार और व्यवसाय की दिशा प्रकाशित करता है।
शिक्षा का दूसरा और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष है व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास। इस प्रक्रिया में निश्चित रूप से एक योग्य और अनुभवी गुरु की आवश्यकता होती है। हम कह सकते हैं कि अपने गुरु हम स्वयं हैं – हमारी अन्तरात्मा – उसे हमारे विषय में सब कुछ ज्ञात है इसलिए वही हमारी सबसे उपयुक्त मार्गदर्शक हो सकती है। बिल्कुल हो सकती है, किन्तु इसके लिए आत्मा को इस योग्य बनाने की आवश्यकता होती है। और जब वह इस योग्य हो जाती है तो वही परमात्मा कहलाती है। और जिस दिन परमात्मा के साथ – हमारी अपनी आत्मा के साथ हमारा साक्षात्कार हो गया वही स्थिति परम ज्ञान की, समाधि की, मोक्ष की, निर्वाण की स्थिति कहलाती है। किन्तु आत्मा को इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है। इस यात्रा में सफलता प्राप्त करने के लिए निश्चित रूप से एक योग्य गुरु की आवश्यकता होती है।
अभी हमारी आत्मा हमारे शरीर के साथ लिप्त है समस्त प्रकार की सांसारिक गतिविधियों में। इस सबसे निर्लिप्त कैसे हुआ जाए कि लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग सरल हो जाए ? कैसे मात्र द्रष्टा बनकर समस्त कर्म किये जाएँ ? यही कार्य तो कठिन है। जब तक हमारी अन्तरात्मा स्वयं इस दिशा में जागृत नहीं होगी तब तक वह हमारा मार्गदर्शन भी कैसे कर सकेगी ? और यहीं आवश्यकता अनुभव होती है ध्यान के अभ्यास की। ध्यान का अभ्यास भी बड़ा कठिन कार्य है। क्योंकि अश्व की गति से भी अधिक चंचल मन कभी स्थिर हो ही नहीं पाता। इसके लिए या तो कोई बाह्य वास्तु ग्रहण की जाए – जैसे किसी अपने इष्ट देवता के चित्र को स्थिर भाव से निहारते रहे। लेकिन इससे अपने भीतर कैसे उतरा जाएगा ? यह तो बाह्य क्रिया हो गई। इसी कारण से मन्त्र का सुझाव ध्यान के साधकों को दिया जाता है। इसी मन्त्र को प्रदान करने के लिए एक अनुभवी और योग्य गुरु की आवश्यकता होती है – जो हमारी चित्तवृत्ति और अध्यात्म मार्ग में प्रवृत्त होने की हमारी इच्छाशक्ति को ध्यान में रखते हुए हमें अनुकूल मन्त्र का ज्ञान करा सके – हमारा सारथि बनकर हमें उचित मार्ग पर अग्रसर कर सके।
यहाँ यह भी समझ लेना आवश्यक है कि गुरु के द्वारा मन्त्र प्रदान किया जाना कोई धार्मिक अथवा सामाजिक क्रिया या आयोजन नहीं होता, और न ही किसी प्रकार का कोई बाह्य आडम्बर होता है। अतः योग्य गुरु का चयन भी स्वयं ही सावधानीपूर्वक करना होता है – जिसमें किसी भी प्रकार का कोई लालच आदि न हो। यों आजकल तो गुरुओं की बाढ़ सी आई हुई है जो अपने आपको “स्प्रिचुअल गुरु” कहलाने में बहुत गर्व का अनुभव करते हैं। ऐसे गुरुओं से बचने की आवश्यकता है। क्योंकि वास्तव में जो गुरु होगा उसका उद्देश्य कभी भी अपना प्रचार प्रसार नहीं होगा। प्रचार प्रसार की आवश्यकता धर्म के लिए हो सकती है, किन्तु अध्यात्म के लिए नहीं – क्योंकि अध्यात्म की यात्रा तो होती ही अपने भीतर से आरम्भ है…
अस्तु, योग्य गुरुओं के मार्गदर्शन में हम सभी एक ऐसे मार्ग पर अग्रसर हों जो स्वयं के साथ साथ परिवार, समाज, देश और विश्व को भी उन्नति के प्रकाश से प्रकाशित करे – इसी कामना के साथ एक बार पुनः सभी गुरुजनों को नमन करते हुए गुरु पूर्णिमा की सभी को हार्दिक मंगलकामनाएं…

मानोशी चटर्जी, कनाडा
माँ तुम प्रथम गुरु
माँ तुम प्रथम बनी गुरु मेरी
तुम बिन जीवन ही क्या होता
सूखा मरुथल, रात घनेरी ॥
प्रथम निवाला हाथ तुम्हारे,
पहली निंदिया छांव तुम्हारे,
पहला पग भी उंगली थामे
चला भूमि पर उसी सहारे,
बिन माँ के है सब जग सूना
जैसे गुरु बिन राह अंधेरी ॥
जिह्वा पर भी प्रथम मंत्र का
उच्चारण तो माँ ही होता,
शिशु हो, युवा, वृद्ध हो चाहे
दुख में मां की सिसकी रोता,
द्वार बंद हो जाएँ सारे
माँ के द्वार न होती देरी ॥
माँ की पूजा विधि विधान क्या
फूल न चंदन, मंत्र सरल सा
प्रेम-पुष्प अंजलि मेँ भर कर
गुरु के चरणों अर्पित कर जा
आशीषोँ की वर्षा ऐसी
बजे गगन मेँ मँगल-भेरी ॥

डॉ अर्जुन गुप्ता ‘गुंजन’, उत्तर प्रदेश
गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई
गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई, जौ बिरंचि संकर सम होई” का मतलब है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह ब्रह्मा या शंकर जैसा ही क्यों न हो, गुरु की कृपा के बिना भवसागर पार नहीं कर सकता। यह चौपाई गुरु के महत्व को दर्शाती है। गुरु, शिष्य के लिए मार्गदर्शक, पथप्रदर्शक और उद्धारकर्ता होता है। गुरु ही शिष्य को सही ज्ञान और दिशा प्रदान करके भवसागर से पार ले जा सकता है।
गुरु पूर्णिमा भारत में अपने आध्यात्मिक और अकादमिक गुरुओं के सम्मान में, उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान प्रकट करने के लिए मनाया जाने वाला पर्व है।
हमारे जीवन के निर्माण में गुरुओं की अहम भूमिका होती है। जिन गुरुओं ने हमें गढ़ने में अपना योगदान दिया है, उनके प्रति हमें कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए। आषाढ़ माह की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास के जन्म दिन के रूप में मनाया जाता है। उन्हें वेद व्यास भी कहा जाता है। इसलिए गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू सनातन धर्म के अनुसार इस तिथि को परमपिता परमेश्वर शिव ने दक्षिणामूर्ति का रूप धारण करके ब्रह्मा के चार मानसपुत्रों को वेद का ज्ञान दिया था।
गुरु जीवनमूल्यों के संवर्धक तथा संवाहक होते हैं। जीवन में अनेक प्रकार की अज्ञानताओं, अंधविश्वासों तथा पाखंडों के अँधियारे से बहार निकलने का कार्य गुरु ही करता है। हमारे धर्मग्रंथों, धर्मशास्त्रों तथा साहित्य में गुरु से सम्बंधित अनेक सन्देश, जानकारी उपलब्ध हैं। गुरु की सत्ता की स्वीकार्यता तथा महत्ता का विशद वर्णन मिलता है। गुरु को साक्षात् परमब्रह्म माना गया हैं –
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
संत कबीर ने गुरु को गोविन्द से श्रेष्ठ माना हैं –
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय।।
एक गुरु अपने शिष्य के अंदर के सभी दुर्गुणों (खोंट) को बाहर करता है। इसे महान संत कबीर ने इस प्रकार समझाया है –
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
प्राचीनकाल से ही हमारे देश में गुरु-शिष्य की परंपरा रही है। भगवान शिव के बाद गुरु दत्तात्रेय को सबसे बड़ा गुरु माना जाता है। देवताओं के प्रथम गुरु अंगिरा ऋषि थे। उसके बाद अंगिरा के पुत्र वृहस्पति गुरु बने। फिर वृहस्पति के पुत्र भारद्वाज गुरु बने थे। सभी असुरों के गुरु शुक्राचार्य थे। राजा दशरथ के दरबार में गुरु वशिष्ठ से भला कौन परिचित नहीं है, जिनकी सलाह के बगैर दरबार का कोई भी कार्य सम्पादित नहीं होता था।
महाभारत काल में गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य, कौरव और पांडवों के गुरु थे। परशुरामजी कर्ण के गुरु थे। इसी तरह किसी ना किसी योद्धा का कोई ना कोई गुरु होता था। नवनाथों के महान गुरु गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे, जिन्हें 84 सिद्धों का गुरु माना जाता है।चाणक्य के गुरु उनके पिता चणक थे। महान सम्राट चंद्रगुप्त के गुरु आचार्य चाणक्य थे। अनादिकाल से ही गुरु ने शिष्य का हर क्षेत्र में समग्रता से मार्गदर्शन किया है।
आज गुरु के नाम पर अनेक छद्मवेशी, पाखंडी गुरुघंटाल अपना कारोबार कर रहे हैं, गोरखधंधा कर रहे हैं तथा समाज का दोहन कर रहे हैं। ऐसे नकली गुरुओं ने समानांतर सत्ता स्थापित कर ली है। इनमें से अधिकांश कारागार में बंद हैं तथा कुछ भगोड़े घोषित किए जा चुके हैं। ऐसे गुरुओं से सावधान रहने की जरुरत है।
भारतीय सनातन परंपरा में यह दिन गुरु को प्रणाम करके, उनसे आशीर्वाद लेने और उनके उपदेशों को स्मरण करने का दिन होता है। पूर्णिमा की चाँदनी गुरुओं के आशीर्वाद और शिक्षाओं को बढ़ाती है, जिससे आध्यात्मिक ज्ञान, ध्यान और आत्म-चिंतन के लिए एक आदर्श वातावरण बनता है। तकनीक के इस युग में जहां इंटरनेट और मोबाइल ने सूचनाओं की भरमार कर दी है, वहाँ सही और गलत की पहचान कराने वाला मार्गदर्शक केवल एक गुरु ही हो सकता है। गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं है, यह कृतज्ञता का प्रतीक है। यह हमें याद दिलाता है कि जीवन में सफलता केवल किताबों के ज्ञान से नहीं, बल्कि एक सच्चे गुरु के मार्गदर्शन से ही मिलती है। हमें चाहिए कि हम अपने गुरुओं का सम्मान करें, उनके दिखाए मार्ग पर चलें और ज्ञान को जीवन में उतारें। तभी यह पर्व वास्तव में सार्थक होगा।

डॉ सुनीता शर्मा, न्यूजीलैण्ड
गुरु पूर्णिमा — नमन
धैर्य की लय, स्नेह का स्वर —
माँ… तुम्हीं से सीखा मैंने
जीवन का पहला गीत।
तुम्हारी धड़कनों की कोर में
गूँथ दिए थे तुमने
मेरे होने के सारे रहस्य…
पिता…
तुम्हारी छाँव की मिट्टी से
उगी मेरी हिम्मत की बेल,
तुम्हारे विश्वास की धूप में
खिले मेरे मन के फूल।
फिर उन्हीं बीजों से
गुरुओं के चरणों में
जागा मुझमें एक और प्रकाश —
एक ऐसा आलोक
जो शब्दों से नहीं,
दृष्टि से बोलता था।
नमन उन सबको —
जिन्होंने मेरी आत्मा में
ज्ञान की अलख जगाई,
मुझसे पूछे सवाल —
क्यों, क्या, कैसे?
मुझे दिखाया
मौन का उत्तर भी।
माँ–पिता…
तुमने ही तो पहुँचाया मुझे
उन गुरुओं तक —
जिनकी लौ में
मैंने खुद को
हर बार नया पाया।
नमन… नमन… बारम्बार नमन
उन सभी को —
जिन्होंने मुझे
मुझ तक पहुँचाया…
…और वहीं से मोड़ दिया
ज्ञान के दीपक की ओर,
प्रकाश की चौखट पर खड़ा कर दिया,
जिज्ञासा की अग्नि जला दी भीतर —
कि मैं रुक न सकूँ,
टूट न सकूँ…
बस चलता रहूँ
हर अंधकार में दीप ढूँढ़ता,
हर मौन में अर्थ सुनता,
हर राह में खुद को ही
नया गढ़ता हुआ।
यह यात्रा अब रुकती नहीं —
क्योंकि उन्होंने ही
मुझे अनंत की ओर धकेल दिया…
ज्ञान से श्रद्धा की ओर,
श्रद्धा से अनंत तक..।

संगीता चौबे पंखुड़ी, कुवैत
गुरु की महिमा अपरम्पार
“गुरु-शिष्य की परम्परा सदियों से चली आ रही है। इस शुद्ध परम्परा का पालन करने वाला ही सच्चा गुरु और शिष्य कहलाएगा तब ही जीवन सार्थक हो सकता है। गुरु को अपने मर्यादा का पालन करते रहना चाहिए और शिष्य यदि गुरु के प्रति समर्पित होकर शिक्षा लेता है तो वह जीवन में एक महान लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।”
प्राचीन काल में गुरु शिष्य का जो पावन संबंध था, वैसा ही संबंध आज भी बना रह सकता है, यदि शिक्षक सच्चे मन से अपने छात्र के हृदय में स्नेह और प्रेम से नैतिक मूल्य स्थापित करता है।
उपरोक्त मेरे हृदय के उद्गार हैं, जो कि मैंने अपने जीवन में स्वयं अनुभव किए हैं।
कुछ वर्षों पूर्व मैं एक विद्यालय में प्रधानाचार्या पद पर नियुक्त हुई थी। मेरी नियुक्ति नई थी। उस वर्ष त्रय मासिक परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ। सब विद्यार्थियों के अभिभावक गण उपस्थित थे। मैं स्वयं प्रत्येक कक्षा में जाकर अवलोकन कर रही थी।
7 वीं कक्षा में हमारे विद्यालय के संचालक महोदय भी उपस्थित थे। उनका पुत्र उसी कक्षा में था, जो मुझे पहले ज्ञात नहीं था। उसका परीक्षा परिणाम संचालक जी के हाथ में था और वह 3 विषयों में अनुत्तीर्ण था।
वह विद्यार्थी बहुत सहमा सा था व फफक फफक कर रो रहा था और संचालक जी शर्म से डूबे थे और क्रोधित प्रतीत हो रहे थे।
मैंने संचालक जी को कक्षा के बाहर बुला कर तसल्ली दी और अनुरोध किया कि घर जाकर बेटे को डांटे – फटकारे नहीं और आश्वासन दिया कि उनके बेटे को पढ़ाई के लिए मैं प्रेरित करूंगी। भगवान ने चाहा तो सब ठीक हो जाएगा। विद्यालय की छुट्टी होने पर मैंने उस विद्यार्थी को अपने ऑफिस कक्ष में बुलाया और उसे सांत्वना दी।
उसे बिना डांट लगाए मैंने केवल एक प्रश्न पूछा – “जीवन में कुछ बेहतर बन कर माता पिता का नाम रोशन करना चाहते हो?”
उसने हामी भरी। मैंने उसे प्रेम पूर्वक सीख दी कि देखो —
“तुम्हारे पिता कम पढ़े लिखे हो कर भी यह विद्यालय को खोल कर विद्या का दान कर रहे हैं, तो क्या तुम स्वयं के भविष्य के लिए विद्या अध्ययन नहीं कर सकते हो। आज सबके सामने तुम्हारे पिताजी का सिर शर्म से झुका था, क्या तुम्हें यह देख कर अच्छा लगा?”
उसने ना में सिर हिलाया।
मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फिरा कर उसे समझाया कि जीवन में सदैव ऐसे कार्य करो, जिससे तुम्हारे पिता का सिर गर्व से ऊंचा उठे। मन लगा कर खूब अध्ययन करो और जीवन में स्वयं एवम् माता पिता का नाम रोशन करो, ताकि तुम्हारे पिता सबके सामने सिर उठा कर गौरव अनुभव करें ।
मेरी इस सीख का उसके हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा और अगले दिन से ही वह मन लगा कर अध्ययन करने लगा। कहने की बात नहीं है, उस वर्ष वह वार्षिक परीक्षा न केवल सभी विषयों में उत्तीर्ण हुआ, बल्कि सम्पूर्ण कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न था। उसने मेरे पैर छू कर आशीर्वाद लिए। आगामी सभी परीक्षाओं में भी वह प्रथम आने लगा
मेरी सीख से उसका भविष्य बन गया। मेरा अध्यापन जीवन सार्थक हुआ।
सच ही कहा है – “गुरु की महिमा अपरम्पार है।”

निशा भार्गव, दिल्ली
गुरु
गुरु की महिमा होती है विशिष्ट
गुरु होते हैं संस्कारी और शिष्ट
शिष्यों का दूर करते हैं अंधकार
करते हैं उनका बेड़ा पार।
जीवन तराशते हैं, निखारते हैं,
संवारते हैं और शिष्यों को सराहते हैं
चाहते हैं शिष्य बढ़े उनसे भी आगे
कभी न टूटे स्नेह प्यार के धागे।
शिष्य को मांजने का, चमकाने का करते हैं प्रयत्न
उनमें नव ऊर्जा करते हैं उत्पन्न
गुरु प्रेरणा स्त्रोत हैं, रक्षा कवच हैं
यह जीवन का बहुत बड़ा सच हैं
गुरू पथप्रदर्शक की भूमिका निभाते हैं
उन्हें अपने शिष्य बहुत भाते हैं।
पहले गुरु दक्षिणा का था रिवाज
गुरु के लिए शिष्य करता था हर प्रयास
याद आता है गुरुदक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा
जो अन्तरसंबंधों का प्रतीक है अनूठा।
कुछ गुरु हो गए हैं गुरु घंटाल
रहना चाहते हैं सदा मालामाल
गुरुदक्षिणा की जगह हड़पने का हो गया है चलन
बिगड़ते लक्षणों से खट्टा हो गया है मन।
कुछ गुरु नहीं हैं पहले सरीखे
पर शिष्य भी हैं उच्श्रंखल और तीखे
बिगड़ते अनुशासन को कैसे करें आंख से ओझल
संस्कारों से सींचकर मधुर बनाना है कल
गुरु शिष्य संबंध एक रिश्ता है अनूठा
जहाँ से विद्या का अंकुर है फूटा।

राकेश मिश्र, कनाडा
मेरे हाई स्कूल ‘सरोजिनी नगर बाल विद्यालय नंबर ३’ की स्मृतियाँ
इन संस्मरणों में उन शिक्षकों के साथ बिताए गए क्षणों को संजोया गया है, जिन्होंने न केवल शिक्षा दी, बल्कि जीवन के मूल्य भी सिखाए। कुछ अनुभव हास्य से भरपूर हैं, कुछ अनुशासन से, और कुछ आत्ममंथन से — लेकिन हर एक अनुभव ने मुझे समृद्ध किया है। यह एक विनम्र प्रयास है उन सभी शिक्षकों को श्रद्धांजलि देने का, जिन्होंने मेरे व्यक्तित्व को आकार दिया।
१: आर. पी. सिंह जी और पहला सामना
आर. पी. सिंह जी सामाजिक ज्ञान और इतिहास पढ़ाते थे छोटी कक्षाओं में, और वरिष्ठ कक्षाओं में मैकेनिकल ड्रॉइंग। वे पहले अध्यापक थे जिनसे मेरा स्कूल में सामना हुआ — और पहले ही दिन उन्होंने मुझसे होमवर्क माँग लिया। मैंने लेट एडमिशन का हवाला दिया, लेकिन उनका अनुशासन इससे प्रभावित नहीं हुआ — और मुझे सजा मिली।
शुरुआत में वे बहुत सख़्त लगे, लेकिन समय के साथ उनका व्यवहार समझ में आया और उनके विषय में अंक भी अच्छे आए। उनकी हिंदी में भोजपुरी की मिठास भी झलकती थी, जो कभी-कभी मुस्कान ला देती थी।
२: वी. पी. गुप्ता जी और उनकी छड़ी
वी. पी. गुप्ता जी जीवविज्ञान पढ़ाते थे। कक्षा ६ और ७ में उनसे पढ़ने का अवसर मिला। वे सहज स्वभाव के थे, लेकिन अनुशासन में कभी-कभी अपनी विशेष छड़ी का सहारा लेते थे। उनकी छड़ी एक ओर से गोल थी — लगभग टेबल टेनिस की गेंद जैसी — और जब वह सिर पर हल्के से पड़ती, तो उसकी अनुभूति देर तक बनी रहती।
उनकी पढ़ाई की शैली सरल थी, और उनके पढ़ाए विषय आज भी स्मृति में हैं।
३: गुलाब चंद जैन जी और संस्कृत की कक्षा
संस्कृत हमें गुलाब चंद जैन जी ने पढ़ाई। उनकी कक्षा हमेशा जीवंत और रोचक होती थी। होमवर्क न करने या शरारत करने पर वे सजा ज़रूर देते थे, लेकिन उससे पहले पूरे परिवार का परिचय लेना नहीं भूलते थे।
अगर उन्हें पता चल जाता कि छात्र के पिताजी कोई वरिष्ठ अधिकारी हैं, तो सजा की मात्रा में भी ‘सम्मानजनक वृद्धि’ हो जाती थी। हालाँकि जब सजा किसी और को मिलती, तो कक्षा में मनोरंजन का माहौल बन जाता। यह उन रोचक कक्षाओं और उन सभी साथियों को समर्पित है जो गुरुजी की ‘विशेष कृपा’ के पात्र बने।
४: चमन लाल गुप्ता जी और दुखद सूचनाएँ
चमन लाल गुप्ता जी भी संस्कृत पढ़ाते थे। आठवीं में फेल होने के कारण दो साल तक उनसे पढ़ने का अवसर मिला। होमवर्क न करने पर वे 10 उठक-बैठक की सजा देते थे, जिसे हम बिना किसी संकोच के पूरा कर लेते थे।
गुप्ता जी स्कूल में दुखद समाचारों के ‘आधिकारिक प्रवक्ता’ भी थे। जब भी किसी शिक्षक के परिवार में कोई दुर्घटना होती, वही पूरे स्कूल को सूचित करते — और हम बच्चे, अपनी मासूम समझ में, जल्दी छुट्टी की ख़ुशी मनाते।
तब यह समझ नहीं थी कि इन घटनाओं का किसी परिवार पर क्या प्रभाव पड़ता है। यह लेख उस बचपने की मासूम स्वार्थपरता और गुरुजी की संवेदनशीलता को समर्पित है ।
५: ओ. पी. नोटियाल जी और ८वीं ‘बी’ की चुनौती
ओ. पी. नोटियाल जी हिंदी पढ़ाते थे और शायद यह उनकी पहली पोस्टिंग थी। उन्हें ८वीं ‘बी’ की क्लास मिली — जो लफ़ंगों की एक प्रतिष्ठित जमात थी।
प्रहलाद, धर्मेंद्र, बिजय गौड़, हावड़ा — और न जाने कितने ऐसे छात्र जो सुबह की हाज़िरी के बाद दोपहर में ही दर्शन देते थे। इस क्लास को पढ़ाना किसी युद्ध से कम नहीं था।
ज्यादातर छात्र फेल हो गए और इस तरह मुझे ८वीं दो बार पढ़ने का सौभाग्य मिला। नौवीं और दसवीं में भी उन्होंने पढ़ाया और अक्सर याद दिलाते रहते कि “८वीं में क्या हुआ था?”
उनकी हिंदी में पहाड़ी लहजा था, जिसे सुनकर बच्चे मुस्कुरा उठते थे। लेकिन वे एक अच्छे शिक्षक और एक सच्चे मार्गदर्शक थे — जिनकी मेहनत आज भी याद आती है।
६: मेवा लाल जी और ड्रॉइंग की सीख
हमारे समय में सरकारी स्कूलों में आर्ट्स पर ज़्यादा ज़ोर नहीं होता था, लेकिन फिर भी हर स्कूल में एक ड्रॉइंग अध्यापक ज़रूर होते थे।
मेवा लाल जी — फ्रेंच दाढ़ी, सलीके से पहना सूट या फिट पैंट-शर्ट — हमेशा एक सजीले कलाकार की तरह दिखते थे। वे हमें ड्रॉइंग सिखाने की पूरी कोशिश करते थे, लेकिन मेरा उनसे रिश्ता थोड़ा संघर्षपूर्ण था — खासकर उस बड़े से ड्रॉइंग फ़ोल्डर को लेकर, जो बस्ते में फिट ही नहीं होता था।
मैं अक्सर उसे लाने से कतराता, लेकिन दुर्भाग्यवश गुरुजी मेरी ही बस में चढ़ते थे और पूछ बैठते, “आज ड्रॉइंग है, फ़ोल्डर कहाँ है?”
क्लास में जब मैं मुड़ी-तुड़ी शीट दिखाता, तो उनका पारा और चढ़ जाता।
कभी-कभी उन्होंने मुझे समझाया कि कैसे पूरे कैनवस को रंगने के बाद चित्र बनाना चाहिए — और वो बात मेरे मन में बस गई।
सालों बाद, जब मेरी बेटी चौथी कक्षा में ड्रॉइंग कर रही थी, तो वही सीख मैंने उसे दी। गुरुजी की वह बात आज भी हमारे घर की दीवारों पर टंगी पेंटिंग्स में ज़िंदा है।
७: ए. डी. शर्मा जी का अनुशासन
सन 1981 में जब मैं स्कूल नंबर ३ पहुँचा, तो श्री ए. डी. शर्मा जी का नाम ही अनुशासन का पर्याय था। सफ़ेद पैंट-शर्ट, बिना बालों वाला चेहरा (सिर्फ़ भौंहें थीं), और एक प्रभावशाली तोंद — वे किसी हिंदी फ़िल्म के खलनायक जैसे लगते थे।
सुबह की प्रार्थना सभा में वे जिस अंदाज़ में छात्रों को संबोधित करते थे, वह हमें प्रोत्साहित कम और आतंकित ज़्यादा करता था।
आठ वर्षों में उनसे लगभग १५-१६ बार सजा मिली — कभी अकेले, कभी पूरी कक्षा के साथ। ऐसा कोई साल नहीं गया जब उनसे डाँट या सजा न मिली हो।
मेरा अनुभव उनके साथ एक भयभीत छात्र का रहा, लेकिन आज समझ आता है कि उनका अनुशासन भी एक तरह की शिक्षा थी।
८: लाइब्रेरी का पहला अनुभव
हाई स्कूल में पहली बार टाइम टेबल देखा तो लगा — ये क्या नई मुसीबत है! प्राइमरी में तो एक ही अध्यापक होते थे, यहाँ पाँच-छह अलग-अलग विषय और अध्यापक।
लाइब्रेरी पीरियड देखकर उत्सुकता हुई कि वहाँ क्या होता होगा? आठवें पीरियड में जब पहली बार पहुँचे, तो गुरुजी ने हमें बड़ी टेबलों के दोनों ओर बैठाया और वादा किया कि शांति से बैठने पर एक कहानी सुनाएँगे।
कहानी किसी राजकुमार, जंगल और काठ के घोड़े की थी — अब पूरी याद नहीं, लेकिन उनका सुनाने का अंदाज़ ऐसा था कि ३० मिनट कब बीत गए, पता ही नहीं चला।
उन्होंने वादा किया कि अगली बार कहानी पूरी करेंगे — और इस तरह लाइब्रेरी का पीरियड हमारे लिए कहानी सुनने का उत्सव बन गया।
मथुरादत्त जोशी जी की कथा-वाचन शैली ऐसी थी जैसे कोई कलाकार एकांकी नाटक प्रस्तुत कर रहा हो। गुरुजी को धन्यवाद, जिन्होंने हमें किताबों से प्रेम करना सिखाया।
९: पी. सी. वार्षणेय जी और गणित
पी. सी. वार्षणेय जी से मैंने कक्षा ८, ९ और १० में गणित पढ़ा। वे बेहद मेहनती शिक्षक थे, लेकिन छात्रों पर ज़बरदस्ती का कोई दबाव नहीं डालते थे।
जो पढ़ना चाहता था, वह पढ़ता था — और जो नहीं पढ़ता था, उसे भी पूरी स्वतंत्रता थी।
कभी-कभी लगता है, काश गुरुजी थोड़ा और सख़्ती दिखाते, तो हम जैसे कुछ और मेहनत कर लेते।
आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो उनकी कर्मठता और धैर्य के लिए मन में गहरी श्रद्धा है।
१०: दिवाकर शर्मा जी और कविता की समझ
हिंदी के कई अच्छे अध्यापकों से पढ़ने का सौभाग्य मिला, लेकिन दिवाकर शर्मा जी का अंदाज़ सबसे अलग था।
वे पढ़ाते समय संवाद स्थापित करते थे — कविता हो या कहानी, लेखक की भावना और सामाजिक संदर्भ दोनों पर चर्चा करते थे।
उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि छात्र अर्थशास्त्र, गणित या अंग्रेज़ी पर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं — वे निश्चिंत भाव से साहित्य का दीप जलाते रहते थे।
एक बार मैंने कहा कि मुझे हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ ज़्यादा पसंद हैं, तो उन्होंने पूरी कक्षा उसी पर केंद्रित कर दी।
उन्होंने समझाया कि कविता का कोई एक अर्थ नहीं होता — वह पाठक की मनोदशा और संवेदना पर निर्भर करता है।
उन्होंने कहा, “कभी यह भी सोचो कि कवि क्या नहीं कह रहा है।”
उनकी यह बात आज भी मेरे भीतर कविता के प्रति जिज्ञासा और संवेदना को जीवित रखती है।
भाषा को समृद्ध करने वाले और मेरे भीतर कविता का बीज बोने वाले गुरुजी को सादर नमन।
११: आर. के. शर्मा जी और अर्थशास्त्र
आर. के. शर्मा जी अक्सर छोटे से गलाबंद कोट या सदरी में दिखते थे — जो आजकल ‘मोदी जैकेट’ के नाम से जानी जाती है।
गर्मियों में वे खादी के कुर्ता-पायजामे में नज़र आते थे। वे कुछ-कुछ आर. के. लक्ष्मण के व्यंग्य चित्रों जैसे लगते थे — सरल, सौम्य और व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ।
वे मेरे ११वीं के अर्थशास्त्र के अध्यापक थे, लेकिन उनकी कक्षा में सामाजिक ज्ञान भी सहज रूप से मिलता था।
उनका सेंस ऑफ ह्यूमर ग़ज़ब का था, और वे कभी विचलित नहीं होते थे।
उनसे केवल एक वर्ष पढ़ा, लेकिन उनका प्रभाव आज भी मन में बना हुआ है।
दुर्भाग्यवश, उनसे दोबारा मिलना नहीं हो सका — और अब वह संभव भी नहीं।
गुरुजी को सादर नमन और विनम्र श्रद्धांजलि।
१२: ओ. पी. माहेश्वरी जी और विज्ञान
“अबे ओ!” — यह संबोधन रसायन और भौतिकी की कक्षा में रोज़ सुनाई देता था।
गुरुजी की कक्षा का ढाँचा सीधा था: एक छात्र खड़ा होकर NCERT की किताब पढ़े, और बाकी छात्र सुनें।
होमवर्क वही होता जो पाठ के अंत में दिए गए प्रश्न होते।
कभी-कभी लगता था कि गुरुजी ने मान लिया था कि हिंदी माध्यम के मध्यमवर्गीय छात्र बस क्लर्क या मज़दूर ही बनेंगे — इसलिए उन्होंने प्रयास करना छोड़ दिया था।
मेरे पास स्कूल नंबर ३ की कई मधुर यादें हैं, लेकिन ओ. पी. माहेश्वरी जी की कक्षा उनमें शामिल नहीं है।
गुरुजी को सादर प्रणाम — और उनपर मेरा सविनय अभियोग ।
१३ : यशपाल सिंह जी और अकाउंटिंग
यशपाल सिंह जी बेहद व्यावहारिक शिक्षक थे — अकाउंटिंग और हास्य का अद्भुत संतुलन उनके पास था।
११वीं में तरुण और देवेंद्र पाल सिंह उनके ग़ुस्से का शिकार बने — उन्होंने एक ऐसा प्रश्न पूछा जिसका कोई उत्तर सही नहीं था।
दोनों ने बारी-बारी से ग़लत उत्तर दिए और फिर जो हुआ, वह पूरी कक्षा के लिए मनोरंजन का विषय बन गया।
हालाँकि, गुरुजी सामान्यतः मारपीट में विश्वास नहीं रखते थे — यह एक अपवाद था, लेकिन यादगार रहा।
१२वीं में उन्होंने हमें कॉमर्स पढ़ाई।
एक बार कम्युनिकेशन पढ़ाते हुए बोले, “आँखों-आँखों में जो बात हो जाती है, वो भी कम्युनिकेशन ही है।”
गुरुजी ने मुझे अकाउंटिंग का क ख ग सिखाया — और उनकी बताई अकाउंटिंग इक्वेशन आज भी काम आती है।
आप चिरायु रहें यशपाल सिंह जी — आपने मुझ पर बहुत उपकार किया है।
१४ :एम. एल. भंबानी जी को श्रद्धांजलि
कर्तव्यनिष्ठ, कर्मठ, प्रेरणास्रोत — ऐसे सभी विशेषण भी श्री एम. एल. भंबानी जी के लिए कम पड़ते हैं।
वे शायद ही कभी छुट्टी लेते थे। चाक और डस्ट से एलर्जी होने के बावजूद, वे छींकते-खाँसते पढ़ाते रहते थे।
उनमें पढ़ाने का ऐसा जुनून था कि पाठ्यपुस्तक समाप्त होने के बाद अपने नोट्स से पढ़ाते थे।
उनके बनाए एक प्रश्न में पूरा अध्याय समाहित होता था — और जब हम उसे हल कर लेते, तो वे गर्व से बताते कि यह बी.कॉम का प्रश्न था।
पार्टनरशिप, कंपनी अकाउंट्स, फंड फ्लो, जॉइंट वेंचर, रेशियो एनालिसिस — सब कुछ उन्होंने इतनी स्पष्टता से पढ़ाया कि आगे कभी कठिनाई नहीं हुई।
एक बार जब छात्रों ने कहा कि आज पढ़ने का मन नहीं है, तो वे मान गए — लेकिन १० मिनट बाद ही हमें घुमा-फिराकर पढ़ाने लगे।
शायद उन्हें एक ही काम आता था — पढ़ाना।
गुरुजी को धन्यवाद, जिन्होंने हम पर विश्वास किया और हमें सफल बनाने के लिए निरंतर प्रयास किया।
मेरे सबसे प्रिय शिक्षक को सादर प्रणाम।
इन सभी संस्मरणों को साझा करते हुए मन भावुक हो जाता है।
मैं उन सभी शिक्षकों का हृदय से आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने मेरे जीवन को दिशा दी। यह संग्रह उनके प्रति मेरी श्रद्धा और कृतज्ञता का प्रतीक है।

कल्पना लालजी, मॉरीशस
गुरू वंदना
गुरुजनों के ज्ञान को , हम सदा दें सम्मान ।
दुख संताप वे हर लें, ऐसे हैं इंसान ।।
लालच जो दौलत का हमको, तो विद्या धन एकत्र करें।
चोर न चोरी कर सके , चाहे हम सर्वत्र भरें।।
विद्या और कल्याण की दौलत, लूट सके तो लूट ।
कोई न जाने किस पल बंदे , प्राण जाएंगे छूट ।।
गुरुजन बांटें जग में खुशियाँ , वे निस्सवार्थी इंसान।
मंदिर मस्जिद हम क्यों भागें, वे ही सच्चे भगवान।।
विद्यार्जन का रास्ता ,कठिन बहुत है होता।
संकटों से सामना,और चलना कांटों पर होता।।
कर्म सदा करते रहें , फल की चिंता त्याग कर ।
बस मीठा ही पायेगें , गुरु का उपदेश मान कर।।
गुरुवाणी को ही सम्मान दें , मान दें हर बार ।
कर के दृढ़ संकल्प यूं , खुद को करें तैयार।।
खोज-खोज मानव थका , पर न मिले भगवान ।
भीतर पाएगा प्रभु को, गुरु ही देंगे भान ।।
मान औ सम्मान जग में , ग़र तुझको है पाना ।
चोला झूठ का त्याग बस , गुरू को ही अपनाना ।।
स्वर्ग औ नरक की नगरी , जाने कहाँ पर होगी ।
इसके चक्कर में न पड़, सबने यहीं है भोगी ।।

मनोज श्रीवास्तव ‘अनाम’, दिल्ली
पूर्णिमा! स्वयमेव आनन्द है
पूर्ण चंद्र की आभा और समस्त कलाओं से विकसित सोम प्रकृति के समस्त रूपों में अपनी सजस्र धार प्रवाहित कर धरती से आकाश तक सब कुछ शीतल और आनन्दित करता रहता है। हमारी सांस्कृतिक परम्परा में त्रि-पूर्णिमा को विशेष महत्व दिया जाता है। शरद पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा और गुरु पूर्णिमा। सौभाग्य है, कि आज गुरु पूर्णिमा है। और मेरा मन और हृदय अपने उन अनेक गुरुजनों के प्रति कृतज्ञ है। जिन्होंने मुझ मूढ़ मति के ज्ञान चक्षु को अपनी दिव्यता से भासित कर सम्मान दिया है। संसार के तमाम सुख और सम्पदा के प्राप्त हो जाने के बाद भी जीवन में एक अभिलाषा निरंतर जगी होती है, वह है ज्ञान की अभिलाषा। कभी भी हम स्वयं को पूर्ण नहीं कह सकते, क्योंकि जिस दिन से यह दुराग्रह मन में बैठ जाता है, उसी दिन से हमारा क्षरण प्रारम्भ होता है। अतैव हमारी सामाजिक परंपरा में कहा जाता है, कि हमें जीवन पर्यन्त सीखते रहना चाहिए। हम कभी ज्ञान की सीमा को नहीं लांघ सकते। क्योंकि ज्ञान श्लाघ्य है।
अपने महान गुरुओं को याद करते हुए हमें याद आ जाते हैं, अपने वे गुरु ! जिन्हें हम आदि गुरु कह सकते हैं। गुरुओं का कार्य संसार में आने के वर्षों पश्चात आरम्भ होता है, किन्तु माँ हमारी आदि गुरु है, जिसकी शिक्षा हमारे संसार में आने से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती है। हम स्वस्थ और संस्कारवान हों, इसलिए वह अपना चिंतन स्वस्थ रखती है। हमारी पुष्टि के लिए वह वही खाद्य ग्रहण करती है, जो हमारे लिए हितकर हैं ना कि स्वयं के लिए। इस प्रकार जन्म के पश्चात से और जीवन पर्यन्त हमारे कल्याण एवं उन्नति के लिए मंगलकामनाएं करती है। स्त्री सदैव ही गुरु है, वह गुरु का वेश नहीं धारण करती, वह जन्मजात गुरु पद की अधिकारिणी है। वह माँ, बहन, पत्नी और मित्र रूप में सदा हितकारिणी होती है। हमारे साथ स्त्री के संबंध परिवर्तित होते हैं। पर मूल रूप में वह स्त्री ही होती है। और उसका कार्य सदा सर्वदा सृष्टि कल्याण के लिए प्रयासरत रहना होता है। पिता कभी कुछ कहते नहीं, जताते नहीं, पर उनके मुख का आह्लाद हमारी उन्नति का परचम होता है, तो हमारी अवनति उनके मुख मंडल पर विषाद बनकर उभर आती है।
आज सोशल मीडिया के दौर में ज्यादा कुछ करने की जहमत नहीं झेलनी पड़ती। इधर का उधर करके कर्तव्यों की इतिश्री मान लेना भी एक नई संस्कृति है। सुबह बिस्तर त्यागने से पूर्व शताधिक शुभकामनाएं और सुविचार आपके गुरु रूप में उपस्थित मिलते हैं। पर भला उनसे क्या हमारा मानस जगमगाता है ? अगर हमारे मन में उन विचारों से कोई अंकुर फूटता, तो प्रेषक की मन:स्थिति भी परिवर्तित होती। पर यहाँ तो दोहरी धारा प्रवाहमान है। खैर ! मैं तो यह सोचकर व्यथित हूँ, कि तमाम स्टीकर, इमोजी, संदेश और प्रणाम से पूजित होने के बावजूद हम शिक्षकों को आए दिन चाकू कौन घोंप रहा है ? कौन राजधानी समेत देश के अनेक हिस्सों में गुरु शिष्य परम्परा को लहूलुहान किए जा रहा है। कौन शिष्य है, जो गुरु पूर्णिमा को हमें महिमामंडित करने के बाद अगली परीक्षाओं के दौर तक भयातुर करता है? इक्कीसवीं सदी के विकसित भारत में भ्रष्टाचार और अनैतिकता में लिप्त गैर शैक्षणिक समाज मुझमें बेचारगी क्यों तलाशता है ? कि शायद हम अपने कर्तव्यों को ही जीवन का आधार मान बैठे हैं ! सिर्फ इसलिए। कि हमने नहीं सिखाया किसी को अनैतिक और अव्यावहारिक बातें, छल, कपट, द्वेष और भ्रष्ट आचरण का व्यवहार। पर समाज में यह सब भी है। तो कोई उसे सीखने-सिखाने वाली अवधारणा भी है। इसलिए हमारा एक और कर्तव्य है, कि हम अपने दायित्व में सत् के साथ असत की पहचान भी शामिल करें। जिससे भावी भविष्य विद्या और अविद्या की पहचान में सक्षम हो सके। साथ ही गुरु पद को निर्णायक मान प्राप्त हो। और आगामी गुरु पूर्णिमा पर हमने उसी भाव में याद किया जाए, जिस भाव में हमारे मन में अपने गुरुजनों की स्मृति है। तब शायद गुरु पूर्णिमा स्मरणीय होने के साथ आदरणीय भी होगी। और गुरु शिष्य सम्बन्ध की सनातन परम्परा पुनर्विकसित और पुष्पित पल्लवित हो सकेगी।

पी.यादव ‘ओज’, ओडिशा
हे गुरुदेव! मेरे खेवनहार
हे गुरुदेव! हे कृपासिंधु!
कैसे मैं गुणगान करूं?
साक्षात आप ज्ञानमूर्ति,
चरण आपके शीश धरूं।।
दैदीप्त ओजमय आप,मैं निरीह बाती।
आप प्रकाशपुंज,मैं अंधकार अर्धरात्रि।।
आपकी दिव्यता का,मैं क्या बखान करूं,
चरण में आपके,दीप बन मैं जलता रहूं।।
ज्ञान के सागर हैं आप,
मैं निरा-घोर अज्ञानी।
सौम्यता से परिपूर्ण आप,
मैं मलीन,दंभी,अहंकारी।।
रास्ते आपके ही बताएं,निश-दिन मैं चला।
ठोकरों से सीख-सीख,जिंदगी में आगे बढ़ा।।
राह की मशाल बन,संग-संग हो आप चले,
पाकर आपकी ही रोशनी,बढ़ा मैं आगे बढ़ा।।
भंवर में नाव फंसी जब-जब,
दिया आपने ही मुझे सहारा।
आप बनकर खेवनहार मेरा,
लगाया मेरी नाव को किनारा।।
धरती-गगन,फूल-उपवन,अग्नि-नीर धूलकण में,
दिशा-दिशा स्वरूप आपका,ऊषा स्वर्ण किरण में।
जल रहा है ज्योत आपका,पल-पल मेरे जीवन में,
अमावस-सा दुर्भाग्य मेरा,बदला सौभाग्य पूनम में।।
हे गुरुदेव!आप मेरे जीवनदाता,
आप ही मेरे भाग्य के निर्माता।
करूं-करूं,सदा मैं वंदना करूं,
जीवन मेरा,आज समर्पण करूं।।
उषा बंसल
गुरु पूर्णिमा (संस्मरण)
बात १९९० के दशक ही है। प्रेमचंद जी की कहानी व उपन्यासों में गरीबों के शोषण की कथा कहानी पढ़ते पढ़ते मन में यह धारणा बन गई कि अशिक्षा ही समस्त शोषण के लिया जिम्मेदार है। मन ही मन एक संकल्प ले लिया कि जहां तक संभव होगा सब को पढ़ने – लिखने के लिए प्रेरित करेंगे। इस तरह बच्चों , वयस्कों को पढ़ने लिखने के लिए प्रेरित करने के अनुभव भी अपने में अनूठे हैं। पर अब जो लिखने जा रही हूं वह कुछ अलग है।
सन १९९० के दशक में कुकिंग गैस बहुत कठिनाई से मिलती थी। गैस वाला जब ट्राली पर रख कर गैस देने आता तो उसे गैस वितरक से दी गई नोटबुक पर हस्ताक्षर करवाने होते थे। जिसमें तिथि भी लिखना होता था। उन दिनों जो गैस वाला गैस लेकर आता था उसका नाम अब याद नही है, कहता था मुझे लिखना नही आता आप ही मेरा नाम लिख दें। दूसरी बार जब उसने ऐसा कहा तो मैंने गैस का पैसा देने के साथ साथ एक कॉपी और पेंसिल भी उसे दी। उससे कहा कि आज हम आपको आपका नाम लिखना सिखाते हैं। मैंने कॉपी में उसका नाम लिखा और फिर उसको लिखना सिखाया। पूरे पृष्ठ पर हल्के हाथ से उसका नाम लिखा और उससे कहा कि अब इस पर अपना नाम की लिख कर प्रेक्टिस करना। यह कॉपी पेंसिल रख लीजिए।
वह चला गया।
मैं भी भूल गई। तीन चार महिने बाद वह आया तो गैस की नोटबुक लाकर मैंने कहा कि आपका नाम लिख देती हूं। उसने कहा कि वह अब स्वयं हस्ताक्षर कर सकता है। मुझे बहुत सुखद आश्चर्य हुआ, जब उसने बताया कि उसने सांध्य स्कूल में पढ़ना सीख लिया है। उसके बाद उसने गैस ट्राली का काम छोड़कर कोई और अच्छा काम कर लिया। जिस दिन उसने मुझसे यह कहा कि वह हस्ताक्षर कर सकता है उस दिन गुरु पूर्णिमा थी। उसकी आँखों की चमक ही मेरी गुरु दक्षिणा थी।

स्वरांगी साने, महाराष्ट्र
दक्षिणा
अंगूठा माँग लेते दक्षिणा में
तो तीर नहीं उठाना पड़ता
अपनों के सामने
बींध देते शोर करने वालों के मुँह
आपने हमें अर्जुन बना दिया
हम एकलव्य ही भले थे।

डॉ महादेव एस कोलूर, कर्नाटक
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वर
गुरुपूर्णिमा भारतीय संस्कृति का एक अत्यंत पवित्र और आध्यात्मिक पर्व है, जो गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए मनाया जाता है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक गहन भावनात्मक और सांस्कृतिक विचारधारा का प्रतीक है। इस पर्व के प्रति दृष्टिकोण में हमारे पूर्वजों, वर्तमान पीढ़ी और भारतीयों व विदेशियों के बीच एक स्पष्ट और मार्मिक अंतर देखा जा सकता है।
हमारे पूर्वजों ने गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान मानकर उसकी उपासना की। “गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः…” जैसे श्लोकों के माध्यम से वे गुरु को परमात्मा के रूप में पूजते थे। गुरुपूर्णिमा उनके लिए आत्मा के विकास का अवसर था — जब वे ज्ञान, अनुशासन, विनम्रता और भक्ति के साथ गुरु के चरणों में नतमस्तक होते थे।
आज की आधुनिक पीढ़ी, जो डिजिटल युग में पली-बढ़ी है, उसके लिए गुरु का स्थान कहीं-कहीं केवल औपचारिक हो गया है। शिक्षकों,गुरुजनों और मार्गदर्शकों के प्रति श्रद्धा की भावना अपेक्षाकृत कम हुई है। कुछ युवा अभी भी इस पर्व के महत्व को नहीं समझते हैं, परंतु अधिकतम लोगों के लिए यह केवल एक “कैलेंडर इवेंट” बन गया है, जिसमें सोशल मीडिया पर ‘गुरु को नमन’ कर देना ही पर्याप्त समझा जाता है।
भारतवासी गुरुपूर्णिमा को एक जीवंत परंपरा मानते हैं। आश्रमों, स्कूलों और आध्यात्मिक संस्थानों में इस दिन विशेष आयोजन होते हैं। गुरुओं को पुष्पांजलि अर्पित की जाती है और उनका आशीर्वाद लिया जाता है। यहां गुरु-शिष्य परंपरा आज भी गहराई से जुड़ी हुई है, यद्यपि उसकी स्वरूप में कुछ आधुनिक परिवर्तन अवश्य हुए हैं।
विदेशों में, विशेष रूप से पश्चिमी देशों में, “गुरु” की अवधारणा अपेक्षाकृत नई है। योग, ध्यान और भारतीय दर्शन को जानने के माध्यम से वहाँ के लोग अब गुरु की भूमिका को समझने लगे हैं। वे गुरुपूर्णिमा को आत्मबोध और आत्म-विकास का दिन मानते हैं, परंतु उनके लिए यह भावनात्मक कम और व्यक्तिगत विकास का प्रतीक अधिक है।
गुरुपूर्णिमा एक ऐसा पर्व है, जो पीढ़ियों और संस्कृतियों को जोड़ने का कार्य करता है। हमारे पूर्वजों ने इसे श्रद्धा, भक्ति और ज्ञान का पर्व बनाया, जबकि आज की पीढ़ी को इसकी आत्मा को फिर से पहचानने की आवश्यकता है। भारतीय इसे हृदय से जीते हैं, जबकि विदेशी इसकी आत्मा को आत्मसात करने की यात्रा पर हैं। यह अंतर न केवल सांस्कृतिक है, बल्कि भावनात्मक भी — जो हमें यह सोचने को प्रेरित करता है कि क्या हम अपने “गुरु तत्व” को वास्तव में पहचान पाए हैं?

प्रीति अग्रवाल ‘अनुजा’, कनाडा
चोका – गुरु पूर्णिमा
आषाढ़ मास
पूनो शुक्ल पक्ष की
गुरु पूर्णिमा
वेद व्यास जयंती
उत्सव आया
अमूल्य धरोहर
श्रद्धा सुमन
आओ करे अर्पण
महाभारत
औ’ श्रीमद्भगवत
रचनाकार
अठ्ठारह पुराण
वेदव्यास जी
सनातन धर्म के
गुरु महान
उनका आशीर्वाद
करके प्राप्त
मार्गदर्शन हेतु
कृतज्ञ होवें
पवित्र नदियों में
करके स्नान
पाकर शुभ लाभ
दान – पुण्य से
जीवन अंधकार
दूर हटाएं
आध्यात्मिक, शैक्षिक
गुरु प्रणाम
पाएं शुभ आशीष
करके गुणगान !

सांद्रा लुटावन, सूरीनाम (दक्षिण अमेरिका)
गुरु पूर्णिमा की रात
पूर्णिमा की रात चमक रही थी,
शिव ने हिमालय की ऊँचाइयों में आँखें बंद की,
गहरे ध्यान में डूब गए,
फिर उठकर एक किया आनंदमय नृत्य,
खिल उठी थी धरती, खिल उठा था आकाश,
तब जन्मा एक पहला गुरु,
जिसने बताया आंतरिकता का राज।
गुरु पूर्णिमा पर मैं लिखती हूँ,
अपने गुरुओं को वंदन करते हैं,
वो दीपक जो हमारे रास्तों को रोशनी देते हैं,
जो प्रेम और ज्ञान से जीवन को भर देते हैं।
इस रात की चाँदनी में विश्वास है,
कि गुरु की कृपा और उनकी सीख गहरी होती है,
मंत्रों की ध्वनि, ध्यान और आत्म चिंतन,
इस रात बन जाती है आत्मा की शुद्धि का समय।
गणेश जी भी इस दिन पूजे जाते हैं,
ज्ञान और बुद्धि के देवता,
हम जाप करते हैं, “ॐ बृं बृहस्पतये नमः”,
ताकि हृदय और मस्तिष्क में प्रकाश हो जाए।
ये रात हमें याद दिलाती है,
कि एक गुरु ही जीवन का असली साथी है,
जो अंधकार में रोशनी बन कर आता है,
जो आत्मा को सही राह दिखाता है।
गुरु पूर्णिमा की इस पवित्र रात पर,
आओ हम अपने गुरु को प्रणाम करें,
उनकी दया, उनका ज्ञान,
बन जाए हमारे जीवन की शान।

नर्मदा कुमारी, कर्नाटक
गुरु एक रूप अनेक
यहाँ-वहाँ अलग-अलग रूपों में नजर आए
गुरु एक रूप अनेक, एकाकी दर्पण में ना समाए
बचपन में माँ के प्यार और पिता की डॉट से समझाएं
तो जीवन के हर पड़ाव में वह शिक्षक बन राह दिखाए
जवानी में कभी जीवन की ठोकरें हमें सिखाएं
गुरु एक रूप अनेक, एकाकी दर्पण में ना समाए…
परिवार में रहकर जीवन के कड़वे सच सामने आए
कभी श्रम करता दिखता मजदूर भी जाने क्या समझा जाए
और कभी अपने से छोटा भी बड़ी-बड़ी बातें कह जाए
हर बार गुरु का ये कौन-सा प्रतिबिंब है जो
नया सबक सिखलाए
गुरु एक रूप अनेक, एकाकी दर्पण में ना समाए….
हर गलती एक नया रास्ता दिखाए
ये मन के भीतर कौन-सा गुरु है
जो हर गलत काम करने से पहले हमें रोक जाए
मन रूपी गुरु छाया बन सच्ची राह दिखाए
तो कभी समय रूपी गुरु स्वयं ही सब स्पष्ट कर जाए
ये तो तुम है प्यारे
कि तुम कौन-सी राह अपनाए
जीवन में चलना-चलाना, समझना-समझाना
सीखना सिखाना चलता रहेगा
गुरु किसी ना किसी रूप में तो दिखता रहेगा
गुरु एक रूप अनेक एकाकी दर्पण में ना समाए…..