
शांतिनिकेतन में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

डॉ. वरुण कुमार
हिंदी आलोचना के शिखर पुरुषों में पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी आते हैं। आज १९ अगस्त को उनकी जन्म तिथि है। यों वे आजीवन अध्ययन-लेखनरत रहे, लेकिन उनकी रचनात्मक सक्रियता का प्रमुख स्थल था शांतिनिकेतन। वे वहाँ कैसे पहुंचे इसकी एक रोचक कहानी है –
द्विवेदी जी उन दिनों आर्ट्स कॉलेज में पढ़ रहे थे। उनके अध्यापक रहे थे पंडित बलदेव उपाध्याय, जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर थे। वहीं दर्शन विभाग के अध्यक्ष थे डॉ० फणिभूषण अधिकारी। वे रवीन्द्रनाथ के स्नेही मित्र थे। उनकी बेटी आशा अधिकारी विश्व भारती में आचार्य थीं। प्रोफेसर अधिकारी अक्सर शांतिनिकेतन अपनी बेटी के पास चले जाया करते थे। रवीन्द्रनाथ ने उनसे शांतिनिकेतन में मुलाकात के दौरान ऐसे शिक्षक की आवश्यकता प्रकट की जो संस्कृत जानता हो। जो बंगालियों को शुद्ध उच्चारण के साथ संस्कृत पढ़ा सके। उन्हें काशी के किसी पंडित को इस कार्य के लिए नियुक्त करने की इच्छा था। फणिभूषण जी ने काशी लौटे तो बलदेव उपाध्याय जी से संपर्क किया। उपाध्याय जी की नजर में हजारी प्रसाद से अच्छा कोई सुयोग्य शिष्य नहीं था। उन्हें स्पष्ट कर दिया गया था कि वेतन ज्यादा नहीं मिलेगा। पैसा कम है लेकिन स्वाध्याय और बड़े विद्वानों की संगति का लाभ मिलेगा। हजारी प्रसाद ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और वे इस तरह विश्वभारती आ गए। उन्हें यहाँ हिंदी-संस्कृत दोनों का अध्यापक नियुक्त किया गया। यह अच्छा हुआ कि मूलतः संस्कृत का विद्वान हिंदी का आचार्य बना। हमारे साहित्य की परम्परा संस्कृत पालि, प्राकृत, अपभ्रंश से निकलती है लेकिन आज हिंदी विभागों में पालि, प्राकृत, अपभ्रंश तो छोड़िए, संस्कृत ज्ञान का भी अकाल है। परम्परा का बोध जो रचना और आलोचना में होना चाहिए उसका अभाव इसका एक बड़ा कारण है। स्वयं द्विवेदी जी का दावा था कि इतिहास को अस्वीकार कर आधुनिक नहीं हुआ जा सकता। द्विवेदी जी संस्कृत के आचार्य का आना कैसी अद्भुत सुंदर संयोग की बात लगती है।
द्विवेदी जी ने ८ नवम्बर १९३० से शांति निकेतन में हिन्दी का अध्यापन प्रारम्भ किया। ७ को आए थे और अगले ही दिन से पढ़ाना शुरू कर दिया। इस दिन यानी ७ नवम्बर को द्विवेदी जी अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दिन मानते थे। उनके अनुसार उन्होंने उसी दिन अपना द्विजत्व प्राप्त किया। अपनी द्विजत्व प्राप्ति के इस दिन को वे हर साल बड़ी निष्ठा से मनाते भी थे। शांतिनिकेतन आकर रवीन्द्रनाथ से मिलने गए। तो रवीन्द्रनाथ ने उन्हें आओ पंडित कहकर संबोधित किया। तब उनकी उमर २३ साल थी। उनका यह संबोधन पंडितजी प्रसिद्ध हो गया। सभी उन्हें पंडित जी कहते थे। नामवर जी भी उन्हें पंडितजी कहकर ही संबोधित करते थे।
द्विवेदी जी शांतिनिकेतन में २० साल रहे, सन १९५० तक। तेईस साल से तेंतालीस साल का अपना युवावस्था का स्वर्णिम काल उन्होंने शांतिनिकेतन को दिया। यहाँ गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर तथा आचार्य क्षितिमोहन सेन के प्रभाव से साहित्य का गहन अध्ययन किया तथा अपना स्वतंत्र लेखन भी व्यवस्थित रूप से आरंभ किया।
शांतिनिकेतन में उनके कार्यकाल के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं –
* १९४० में हिंदी भवन की स्थापना
* १९४० में अभिनव भारती ग्रंथमाला का संपादन आरंभ किया जो १९४६ तक चला।
* विश्वभारती पत्रिका का संपादन, १९४१-४७
* हिंदी भवन, विश्वभारती, के संचालक १९४५-५०।
रचनाएँ –
१९३६ : सूर साहित्य
१९४० : हिन्दी साहित्य की भूमिका
१९४२ : कबीर
१९४६ : बाणभट्ट की आत्मकथा
१९४९ : आधुनिक हिन्दी साहित्य पर विचार
१९४९ : साहित्य का मर्म
१९५० : नाथ संप्रदाय
१९५० : अशोक के फूल
१९५१ : कल्पलता
आज उनकी स्मृति को नमन🙏