गणेश भगवान

नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

आस्था,आराध्य में परिणत होकर हमारा सौभाग्य हो जाती है और यह तब होता है जब पत्थर या मिट्टी में उसकी प्रतिष्ठा हो। हम इस प्रतिष्ठित मिट्टी को मूर्ति कहते हैं लेकिन यह सजीव होती है क्योंकि इसमें हमारी आत्मप्रतिष्ठा होती है और जब इस मूर्ति का विसर्जन होता है तो प्राण लौट आते हैं। तब हम क्या निर्जीव होकर मंगलमूर्ति की सात दिनों तक आरती उतारते हैं? नहीं। प्रतिबिंब तो प्राणों के भी होते हैं। जब गौरीनंदन की हम आरती उतारते हैं तो हमारी आस्था जो उनमें प्राण बनकर प्रतिष्ठित है वह हमारी प्रार्थना में, आराधना में झलकने लगती है और वही गणपति बप्पा मोरया की टेर लगाती है, वही गुंजित होती है, “एकदंताय वक्रतुंडाय गौरी तनयाय धीमहि”

इस आराधना में उनके मुख्यत : उन बत्तीस स्वरूपों का आराधन किया जाता है जो मुद्गल तथा गणेश पुराण में हैं।

भगवान गणेश के स्वरूपों की जानकारी १२०० ईसा पूर्व से मिलती है और उनकी असंख्य प्रतिमाएं न केवल भारत अपितु पूरे दक्षिण एशिया में पिछले लगभग दो हज़ार वर्षों से विद्यमान हैं। विद्वान मानते हैं कि जैन और बौद्ध परंपरा में भी उनकी उपस्थिति है तथा वेदों में तो वे उपस्थित हैं ही।

गणेश भगवान के शिल्प, पत्थर, टेराकोटा, हाथीदांत से लेकर अनेक धातुओं में निर्मित किए गए और कोई ऐसी चित्र शैली नहीं जिसमें उन्हें उरेहा न गया हो।

मिट्टी में तो वे प्रत्येक वर्ष प्रत्यक्ष होते हैं लेकिन पाषाण में उनके प्रत्यक्ष होने की सदियों पुरानी परंपरा है जिसमें उनकी शाश्वत उपस्थिति है।

सारे भगवानों में हम बप्पा के सर्वाधिक निकट हैं।  इसलिए उनसे बहुत स्वतंत्रता भी लेते हैं।वे डॉक्टर भी बन जाते हैं और दोपहिया वाहन पर भी सवार हो जाते हैं।

भगवान गणेश नेह के देव हैं। वे इसीलिए प्रणम्य हैं क्योंकि वे देवत्व के विराट दंभ को दूर्वा से तोड़ते हैं, मूषक की सामर्थ्य सिद्ध करते हैं और गज के रूप से एकाकार हो प्राणी और मनुष्य के बीच, प्राण और प्राण के बीच भेद नहीं रहने देते।

यहां बप्पा के कुछ दुर्लभ शिल्पों और अंकनों की छवियां प्रस्तुत हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »