स्वतंत्रता संग्राम की याद में

रामा तक्षक



यह तीर्थ महातीर्थों का है,
मत कहो इसे कालापानी,
तुम सुनो यहाँ की धरती के
कण-कण से गाथा बलिदानी।
         – गणेश दामोदर सावरकर

कालापानी : तीर्थ स्थल
मेरा अंडमान निकोबार जाने का मन बहुत समय से था। कालापानी की पहले से सुनी कहानियाँ, सेलूलर जेल का भ्रमण करने पर, वहाँ के संग्रहालय में लिखी जानकारी को पढ़कर, शब्दों में लिखी फिल्म को देखकर, अब मस्तिष्क की नसों की दीवारों से कभी विदा नहीं होंगी। हमने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर, उसके बाद जलियाँवाला बाग काण्ड में, निर्दोषों पर निर्ममता पूर्वक गोलीबारी और काकोरी काण्ड जैसी बहुत सी दानवीय अत्याचार की घटनाओं को बहुत बार सुना है। आज की पीढ़ी के लिए, बलिदानों के ये सब स्थल, तीर्थ हैं। सावरकर की उपरोक्त पंक्तियाँ पोर्ट ब्लेयर स्थित सेलूलर जेल की दीवार पर लखी टंगी हैं।
इतिहास में हम थोड़ा सा पीछे चलते हैं। ब्रिटेन और पुर्तगाल के बीच 9 मई 1386 हुई विंडसर संधि को
अप्रतिम ऐतिहासिक संधि माना जाता है। अक्टूबर 1943 में विंस्टन चर्चिल ने अपने भाषण में कहा था कि मित्रता की ऐसी संधि का मानवीय इतिहास में, विंडसर संधि का जैसा कोई उदाहरण नहीं है। इस सन्धि के तहत अंग्रेज और पुर्तगाल, एक दूसरे से बिन टकराव, दोनों एक दूसरे के उपनिवेशों में, अबाधित व्यापार कर सकते थे।
इसी तरह पुर्तगाल और स्पेन ने 1494 में तोर्देसिलास की सन्धि के तहत, दुनिया में इन दोनों देशों के साम्राज्य विस्तार के लिए दुनिया को बाँट लिया था। मोटे तौर पर पुर्तगाली अपनी सामुद्रिक शक्ति के साथ पूर्व यानि भारत की ओर बढ़ गये और स्पेन पश्चिम यानि दक्षिण अमेरिका महाद्वीप की ओर। पन्द्रहवीं शताब्दी का यह निर्णय आज भी अपने प्रभाव को बनाये हुए है।
इन सन्धियों ने यानि यूरोपीय शक्तियों की समझ ने संसार में अपना साम्राज्य स्थापित किया। यूंँ कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगी कि इन संधियों ने संसार में, औपनिवेशिक नागरिकों को अमानवीय यातनाएँ दी, संसार को दोहा और प्राकृतिक संसाधनों को निर्ममता से निचोड़ा।
आज सही व परिपक्व समय है। सोलहवीं से बीसवीं सदी में डच, फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों, स्पेनिश, जर्मन और अंग्रेजों ने इस धरती पर बेहद जुल्म ढ़हाये हैं। उनके जुल्मों की एक एक बात को इन राष्ट्रवादी ताकतों के नाक और आँख के नीचे हर रोज रखा जाना चाहिए। ताकि एकदिन तानाशाही इस धरती से विदा हो सके।
अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना 31 दिसम्बर 1600 में हुई थी। इस कम्पनी ने पहली बार भारत की धरती पर, सूरत बंदरगाह पर अगस्त 1608 में आगमन का ऐलान किया था। ईस्ट इंडिया कम्पनी को ब्रिटिश राज का पूर्ण संरक्षण मिला। ब्रिटिश राज ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को सेना रखने की अनुमति दे दी थी। अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी को ब्रिटिश राज द्वारा सेना रखने की अनुमति ने व्यापार के खाली दीये में तेल और जलती बाती को मशाल का स्वरूप दिया। अंग्रेजों ने मुगलों और रजवाड़ों में फूट डालकर उनकी एक एक कर, गर्दनें हथिया ली।
आज स्वतंत्रता दिवस के इस अवसर पर, हजारों ही नहीं कई लाखों स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को याद कर, आज की युवा पीढ़ी को स्वतंत्रता के पोषण के सबक के साथ, आजाद जीवन की ज्वाला को दायित्व के साथ, हाथ में थामे रहने का उत्सव है।
आइये इस महोत्सव पर, अंग्रेजों की केवल अण्डमान में बनाई सेलूलर जेल भर में घटी अमानवीय कृत्यों और घिनोनी करतूतों की बात भी करते हैं। इस मशाल को स्वतंत्रता सेनानियों ने अमानवीय अत्याचारों को सहते हुए भी बुझने न दिया था।
सेलूलर जेल में, भारतीय गृह विभाग के रिकॉर्ड पर आधारित एक पट्ट पर लिखा है :
काला पानी यानी अंडमान, बंदी उपनिवेश के लिए देश निकाला देने का पर्याय था कालापानी। काला संस्कृत शब्द ‘काल’ से बना है जिसका अर्थ होता है समय अथवा मृत्यु अर्थात काला पानी शब्द का अर्थ मृत्यु के स्थान से है जहाँ से कोई वापस नहीं आता। देश निकाला के लिए, कालापानी का अर्थ बाकी बचे हुए जीवन के लिए कठोर और अमानवीय यातनाएँ सहना था।
सेलूलर जेल, एक बेजोड़ तिमंजिला इमारत है। यह इमारत, साइकल पहिए की तिलिनुमा, मध्य में बनी निगरानी मीनार से देखने पर, सूरज की किरणों से सात खण्डों का फैलाव दिखाई पड़ता है। इस इमारत में, साढ़े तेरह फुट लम्बी व साढ़े सात फुट लम्बी 693 कोठरियाँ हैं। एक कोठरी में केवल एक रोशनदान है। इस इमारत में एक ही केन्द्रीय मीनार है। जहाँ से इन सातों खण्डों पर एक सिपाही निगरानी रख सकता है।
काला पानी यानी स्वतंत्रता सेनानियों की अनकही, अनगिनत यातनाओं और तकलीफों का सामना करने के लिए जीवन नर्क में भेजना जो मौत की सजा से भी बदतर था। अपनों से दूर भेजने का अर्थ होता है वह यात्रा जो मृत्यु की घड़ी तक ले जाती हो। बंदी को हमेशा के लिए, उसके समाज से दूर ले जाया जाता है। उसे, ऐसे स्थान पर, भेज दिया जाता है; जहां लोग रहते हैं पर सब ऐसे ही लोग हैं। यह एक अदृश्य लोक है। जहाँ अति विस्मयकारी तत्व हैं। इस जहां के बारे में बंदी कुछ नहीं जानता है। जहां से वह कभी वापस नहीं आ सकता है।
अंग्रेजों ने भारतीय क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों को इस कठोर सजा के लिए काला पानी में, परित्याग कर दिया गया था। किंतु इसके बदले  भारतीय क्रांतिकारियों ने इस दीप समूह को स्वर्ग बना दिया। वास्तव में यह द्वीप समूह हमारे संविधान व सत्ता संघर्ष की एक महान गाथा का प्रतिनिधित्व करता दीप है। भारतीय स्वतंत्रता के दीप की लौ, कोठरियों की ईंट और पत्थरों में, काल के साये में, जल रही है। अतीत का भयानक कहा जाने वाला यह काला पानी आज एक तीर्थ स्थल है।
इस सेलूलर जेल को शहीद स्मृति राष्ट्रीय स्मारक के रूप प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई द्वारा 11 फरवरी 1979 को इस संग्रहालय का उद्घाटन किया गया था।
जेल में टंगे एक पट्ट पर लिखा है:
इस जेल में, 693 कोठरियों को विशेष रूप से स्वतंत्रता सेनानियों के एकांत कारावास के लिए बनाया गया था। स्वतंत्रता सेनानियों ने सेल्यूलर जेल में, जेल अधिकारियों के खिलाफ काफी विद्रोह किया। आखिरकार, अंग्रेज सरकार ने जेल को बंद करने का फैसला लिया और सभी राजनीतिक बंदियों को जनवरी 1938 तक रिहा कर, संबंधित राज्यों में वापस भेज दिया गया।
अंडमान में, बंदी उपनिवेश की स्थापना, वास्तव में 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के देशभक्तों को जिला वतन करने के लिए स्थापित किया गया था। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 200 स्वतंत्रता सेनानियों के पहले जत्थे के अंडमान तथा निकोबार दीपों में, 10 मार्च 1858 की आगमन के साथ, बंदी उपनिवेश की शुरुआत हुई। सभी लंबी अवधि और आजीवन कारावास की सजा पाए देश भक्तों; जो किसी कारणवश बर्मा और भारत में मृत्यु दण्ड से बच गए थे। उन्हें अंडमान के बंदी उपनिवेश में भेज दिया गया।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात वहाबी विद्रोह, मणिपुर विद्रोह आदि से जुड़े स्वतंत्रता सेनानी सेनानियों और अन्य देशभक्तों को अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध आवाज उठाने के जुर्म में, अंडमान के बंदी उपनिवेश भेजा गया।


बंदी उपनिवेश में जीवन
इस संग्रहालय के एक अन्य पट्ट पर लिखा है कि बंदी उपनिवेश के प्रारंभिक दिनों में, स्वतंत्रता सेनानियों का जीवन अत्यंत कष्टदायक था। उन्हें बिना किसी मूलभूत सुविधाओं के अंडमान भेज दिया गया था। बंदी उपनिवेश की मूलभूत आवश्यक सामग्री, स्वतंत्रता सेनानियों के पहुंचने के 10 दिनों के बाद, प्राप्त हुई थी। उन दिनों, इन देशभक्तों को अस्थाई रूप से बने पत्थर की चट्टान और चटाइयों से बनी बैठकों में रखा जाता था।
बंदी उपनिवेश के पहले अधीक्षक डॉक्टर जे पी वाकर ने बंदियों से निपटने के लिए अत्यंत क्रूर तरीके अपनाए। जेल नियमों के उल्लंघन करने वालों के लिए विभिन्न तरीके अपनाए गए। जैसे काल कोठरी लॉकअप, बेंत से पीटना आदि कुछ अन्य प्रकार की सजा, जिसे ‘चैन गैंग’ कहा जाता था; शुरू किया गया। जिसमें बंदियों को दिन में काम के समय तथा रात में एक ही जंजीर के साथ बांधकर, रखा जाता था। इन सभी तरीकों को प्रभावशाली बनाने के लिए 1864 से 1867 में, वाइपर द्वीप में एक जेल का निर्माण किया गया।
अंडमान में बंदियों को कठिन से कठिन कार्य में लगाया जाता था। उन्हें खराब मौसम में 9 घंटे तक काम करना होता था। भोजन, आश्रय और कपड़ों के प्रबंध पर्याप्त नहीं हुआ करते थे। 1874 के अंडमान के तथा निकोबार मैनुअल के अनुसार, बंदियों को काले पानी भेजने का अर्थ होता था; बंदी को कड़ी मेहनत के साथ अनुशासन में रखना और उतना ही भोजन उपलब्ध कराना, जितना बंदी को जीवित रखने के लिए आवश्यक हो।
स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं की अनुपस्थिति, अ-पर्याप्त भोजन और अस्वस्थ वातावरण के कारण बंदी विभिन्न बीमारियों जैसे मलेरिया पेचिश और निमोनिया आदि से दम तोड़ने लगे थे। इस कष्टदायक स्थिति से छुटकारा पाने के लिए, कुछ बंदियों ने उपनिवेश छोड़कर भागने का प्रयत्न किया। लेकिन वे पकड़े गए। उन सबके साथ बहुत क्रूर व्यवहार किया गया। आरंभ के दो महीनों में 228 बंदी उपनिवेश से भाग निकले थे। उनमें से 88 बंदी पकड़े गए थे। इन बंदियों में से एक को माफी दे दी गई। एक पर मुकदमा नहीं चलाया गया। अन्य 140 पकड़े नहीं जा सके। पकड़े गए 86 बंदियों को एक ही दिन फांसी पर लटका दिया गया था।
बंदी उपनिवेश में, बंदियों के समूह पर, आदिवासियों द्वारा हमेशा आक्रमण होता रहता था। इसके कारण बहुत संख्या में बंदी मारे जाते रहे। बाद में योजनाबद्ध ढंग से ग्रेट अंडमानियों ने अंबर्डीन बंदी बस्ती पर, 17 मई 1859 को आक्रमण किया। इस युद्ध को ‘अबर्डीन का युद्ध’ कहा गया। उन दिनों बंदी उपनिवेश में ऐसे कैदी भी थे जो अंग्रेजों के सख्त खिलाफ थे। उनमें से एक बंदी शेर अली ने लॉर्ड मेयो की 8 फरवरी 1872 को हत्या कर दी थी। लॉर्ड मेयो उस समय भारत के वायसराय की हैसियत से अंडमान के सरकारी दौरे पर थे।


सेलूलर जेल में अत्याचार
कैदियों की कोठरियों को सुबह छ: बजे खोला जाता था। उन्हें नहाने नहीं दिया जाता था। मामूली नाश्ता देकर कोल्हू से पच्चीस सेर ( एक सेर = 933 ग्राम) तेल निकालने का काम और पन्द्रह सेर रामबास कूटने का काम दिया जाता था।
बंदियों को शाम को पाँच बजे कोठरियों में बंद कर दिया जाता था। कैदियों के लैट्रिन व बाथरूम के लिए कोठरी में, एक टिन का डिब्बा रख दिया जाता था। मच्छरों से बचाव का कोई साधन नहीं था। जेलर बहुत ही निर्दयी और अत्याचारी प्रवृत्ति का था।
जेलर ने कुछ क्रिमिनल कैदियों को पाल रखा था। अगर कोई बंदी जेलर की बात नहीं मानता था तो उस बंदी को एक कोठरी में, इन क्रिमिनल कैदियों को सौंप दिया जाता। ये अपराधी बंदी,  उस कैदी को डण्डों से मार मार कर प्राण ले लेते थे।
एक पट्ट पर लिखा है कि सेलूलर जेल में राजनैतिक बंदियों को जो काम दिये जाते थे वे अत्याचारों का ही एक रूप हुआ करते थे। राजनैतिक बंदियों को रोजाना 30 पौंड नारियल का तेल या 10 पौंड सरसों का तेल निकालना होता था। जो किसी की भी क्षमता से परे था। परंतु जो बंदी निश्चित समय सीमा में काम पूरा नहीं कर पाते थे, उन्हें लोहे के तिकोने फ्रेम पर लटका कर, बेंत से पीटा जाता था। टाट की बोरी के कपड़े पहनने को दिये जाते थे। उन्हें बेड़ियों में जकड़ा जाता और असंतुलित भोजन दिया जाता था। उन्हें एक सप्ताह की हथकड़ी से लेकर, छः माह तक की काल कोठरी तक की सजा दी जाती।
दीवार में लगे लोहे के कड़े में, बंदियों के हाथ बाँध दिये जाते थे। इसे खड़ी हथकड़ी कहा जाता था। नियमानुसार आठ घण्टे लेकिन अधिकारियों की मनमानी से लम्बे समय तक भी बंदियों को खड़ी हथकड़ी में खड़े रहना पड़ता था। ये राजनैतिक बंदी, असह्य वातावरण से जूझते हुए और जेल अधिकारियों के अत्याचारों को झेलते हुए अपने संघर्ष को जारी रख रहे थे।
यह वह समय था बंदियों की नयी पीढ़ी अर्थात क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी या जिन्हें राजनैतिक बंदी कहा जाता था। उन्होंने ही सेलूलर जेल में कदम रखे थे। कुछ क्रांतिकारियों के नाम- विनायक दामोदर सावरकर, जयदेव कपूर, होतीलाल वर्मा, बटुकेश्वर दत्त, बाबू राम हरि, नानीगोपाल मुखोपाध्याय, सरदार गुरमुख सिंह, पंडित परमानंद, टी सच्चिदानन्द शिवम, टी चक्रवर्ती, डॉ गयाप्रसाद कटियार, बिश्वनाथ माथुर, बांगेश्वर राय और नंदगोपाल चौपड़ा आदि हैं। सभी के नाम लिखना सम्भव नहीं है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी सेलूलर जेल का दौरा किया था।

आजाद हिंद फौज और मेरा गाँव
सुभाषचंद्र बोस की याद करते हुए आजाद हिंद फौज मेः भर्ती हुए भाई सोहनराम की बात आँखों के सामने आ रही है। मेरा बचपन, गाँव की चौपाल में, सैनिकों की शोर्य कथाओं, गाथाओं को सुनकर बीता है। बचपन में मैं चौपाल की शिलांऔं पर बैठे लोगों  बात बड़ी ध्यान से सुनता था। उनके कहन में शौर्य और साहस की गाथाएँ थी। उनकी घटनाओं का वर्णन बड़ा रुचिकर होता था। चौपाल में बतियाते समय, यदि कोई फौजी वहाँ से आ निकलता तो चौपाल में बैठे हुए लोग, उस फौजी से पूछते कि ‘भाई फौजी’ छुट्टी कैजुअल आए हो कि एनुअल ? मूलतः यह प्रश्न भी पुराने फौजियों की तरफ से आता। कुछ उत्तर तो हमेशा ही कैजुअल के बने रहते।
मेरे गाँव के लोगों ने फौज में भर्ती होकर, देश की सीमाओं की चौकसी एवम् सुरक्षा सुरक्षा के लिए स्वतंत्रता से पहले के आंदोलन में भी और स्वतंत्रता के बाद भी बड़ी भूमिका निभाई है। स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी, गाँव की शायद एक सबसे पुरानी और जीवंत घटना है। यह घटना ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ के नारे से जुड़ी है। मेरे अपने परिवार से जुड़ी है।
‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ के नारे को सुनकर भाई सोहनराम, उम्र में मेरे पिता से भी बड़े थे,  लेकिन नाते में मेरे भाई लगते थे, सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज में जाने की जिद करने लगे थे। वे ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ की सुनकर  तुरंत ही आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने के लिए तैयार हो गये थे। वे अट्ठारह बरस के भी न थे।
भाई सोहन राम से गली में मिलना होता था। मेरा ‘राम-राम भाई साहब’ कहना होता और उनकी बोली में मिठास और चेहरे पर, क्षितिज सी फैली मुस्कान, बनी रहती थी। उनसे ‘राम-राम भाई’ का जवाब मिलता था।
मैंने उन्हें आजाद हिंद फौज से वापस गाँव आने पर देखा था। उन्हें सदा बहुत व्यस्त ही देखा। वे ऊँट के कंजावे से सत्तर अस्सी किलो की गेहूं की बोरी अकेले ही उतार लेते उतारते थे। उनमें ताकत इतनी थी कि भरी बोरी को छाती के सामने से दोनों हाथों में पकड़ लेते। एक बार बोरी पर पकड़ बन जाये फिर चाहे कितने ही कदम लेने पड़ें, कितनी ही दूर बोरी को रखना पड़े। पकड़ में ढ़ीलापन बोरी के सही स्थान पर पहुँच कर ही आता था।
उनके चेहरे पर, कठिन काम करते समय भी, बोझ उठाते समय भी चमकते दाँत और मुस्कान में फैले होठों पर एक सरलता रची बसी रहती थी।
सोहनराम की माँ नहीं चाहती थी कि बेटा फौज में भर्ती हो। मेरे गाँव से अजरका रेलवे स्टेशन लगभग 16-17 किलोमीटर दूर है। वे भर्ती होने के लिए स्टेशन पैदल ही पहुँचे। उन्होंने घर छोड़ा तो उनकी माँ बहुत रोई थी।
उनका जन्म उनकी डिस्चार्ज बुक के अनुसार 1 -7 – 1923 को हुआ था।
वे 13 दिसम्बर 1940 को आजाद हिंद फौज की गोरिल्ला रेजीमेंट में भर्ती हुए। उनका आजाद हिंद फौज में आर्मी नं. 42272   था।
सोहनराम की डिस्चार्ज बुक में दर्ज तथ्यों के अनुसार 17 दिसम्बर 1941 से लेकर 5 फरवरी 1945 तक समुद्र पार, मलाया में जंगी फौज में रहे। वे पढ़े लिखे न थे। परन्तु, जैसा कि मैंने ऊपर लिखा। बलिष्ठ शरीर के धनी थे सोहनराम। वे अपने शारीरीक श्रम से, युद्ध के समय दुर्गम इलाकों में, पहाड़ियों में, सेना के बंकरों में सैनिकों को भोजन पहुँचाया करते थे।
वे जापानीज प्रिजनर ऑफ वॉर भी रहे। इस दौरान वे पाँच बरस तक  जापानियों की कैद में रहे। यह एक ऐसा समय था जब उनकी युद्धबंदी होने की सूचना के अभाव में, परिवार ने सोहनराम को मृत समझ लिया था।
उनका पाँच बरस तक कोई पता नहीं था। लेकिन पाँच बरस बाद जब सोहन राम घर पहुँचे तो घर परिवार गली और गांँव की खुशी का ठिकाना न था।
हालांकि उनकी वतन वापसी बहुत परेशानियों भरी थी। उन्हें समय पर भोजन नहीं मिला था। बारह तेरह दिन तक उन्होंने पेड़ों की छाल और मिट्टी खाकर गुजारे भी थे। इस दौरान उनकी तबीयत भी खराब रही।
उनका जीवित घर लौटना, गाँव में भी एक चर्चा का विषय बना रहा।
बहुत बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनको ताम्रपत्र भी दिया था। उनके देहांत से कुछ दिन पहले, मैं उनसे मिला था। उनका बिस्तर खुले में पेड़ के नीचे लगा था। साँस लेने में, देह में पीड़ा के बाद भी उनके चेहरे पर तेज तैर रहा था।
उन्होंने अपने सामने वाली खाट की ओर इशारा करते हुए मुझसे कहा “भाई बैठ जा। अब शरीर साथ नहीं देता।” उस बातचीत का संवाद संक्षिप्त ही था। उनका 18 सितंबर 1998 को  देहावसान हुआ। उनकी देह को तिरंगे में लपेटकर राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया। अलवर जिले की तहसील मुंडावर के पंचायत भवन में, स्वतंत्रता सेनानी सोहनराम के नाम से एक स्मारक भी बनाया हुआ है।

आजाद हिंद फौज और नीदरलैंड्स
सुभाष चन्द्र बोस ने भारत की आजादी के लिए क्या नहीं किया ! उन दिनों लगभग पूरी दुनिया अंग्रेजों की गुलाम थी। सुभाष चन्द्र बोस के पास तत्कालीन अंग्रेजों के दुश्मनों जापान, इटली और जर्मनी से हाथ मिलाने के सिवा और कोई कोई चारा न था। जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि  इसी श्रंखला में आजाद हिन्द फौज के सैनिक 1942 में नीदरलैंड्स में भी रह कर गये हैं।
हमारी स्वतंत्रता की बहुत बड़ी कीमत, अनगिनत बलिदानों ने चुकाई है। मुझे यहाँ नीदरलैंड्स में आकर पता चला कि स्वतंत्रता की प्यास लिए, सुभाष चन्द्र बोस द्वारा स्थापित आजाद हिंद फौज के 2500 – 3000 सिपाही 1942 में रहकर गए हैं। For free India पुस्तक में इन सिपाहियों पर विस्तार से लिखा गया है। सिपाही की मृत्यु होने पर उनके दाह संस्कार के फोटो भी हैं।

ग्रेट ब्रिटेन के क्षमा याचना का समय
जर्मनी के चांसलर ने सितंबर 1951 में, दूसरे विश्वयुद्ध और यहूदियों पर ढ़ाये गये अत्याचारों के लिए सार्वजनिक रूप से क्षमा माँगी ली थी ताकि पुराने न पड़ने वाले घावों पर मरहम लगाया जा सके। इसी क्रम में डच सरकार ने और वहाँ के राजा ने पिछली सदियों में की गई बर्बरता व अमानवीय व्यवहार के लिए अफ्रीकी गुलामों के व्यापार, इण्डोनेशिया, सूरीनाम में दासप्रथा आदि अमानवीय कृत्यों के लिए क्षमा माँग चुके हैं।
आपको याद होगा कि अंग्रेजों के देखादेखी डच ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना हुई थी। यह आवश्यक है कि डच द्वारा गुलामों पर ढ़हाये गए, कारनामों के काले अध्याय से आज की पीढ़ी भी सीख ले। इसके लिए नीदरलैंड्स में इन डच काले कारनामों का संग्रहालय बनाया गया है।

कभी अपने साम्राज्य में सूरज न छुपने के कारण ही आज भी अंग्रेजों द्वारा ‘ग्रेट ब्रिटेन’ नाम को उपयोग में लिया जा रहा है। लेकिन इस सूरज न छुपने वाले साम्राज्य, अंग्रेजों की ऐतिहासिक निर्दोषों की बड़े पैमाने पर हत्याओं, दुर्दांत यातनाओं और घिनौनी करतूतों के लिए, ग्रेट ब्रिटेन के क्षमा याचना का समय कभी नहीं आयेगा; यदि उन्हें, उनके द्वारा किये को बार बार याद दिलाकर, उनसे माफी माँगने के लिए न कहा जायेगा।

अनगिनत सेनानियों के बलिदान को नमन
हमारे देश के बहुत से राजनैतिक बंदियों ने अपने जीवन के सुनहरे दिन, भारत की स्वतंत्रता के लिए, सेलूलर जेल में बिताये। आज की और आगे आने वाली पीढ़ियों को अपने बुजुर्गों के बलिदान को याद रखने और आजादी की कीमत समझने व स्वतंत्रता का पोषण करने का महत्वपूर्ण दायित्व है।
ऐसे अनेकों वीरों के लहु और शोणित को याद कर, आज उनके शौर्य को स्वर दे, उनके बलिदानों का स्मरण कर, हम नत मस्तक हैं। हम गर्वित हैं।
हमारे हाथ में, स्वतंत्रत जीवन की दीपशिखा, थमाने वाले अनगिनत सेनानियों के बलिदान को नमन !

जय हिन्द! जय भारत!


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