वापसी

सुनीता पाण्डेय

-“पिताजी यह मांस नही खाऊँगा मैं।”

-“क्यों बेटा?”

-“अच्छा नहीं लगता, मन ऊब गया इसे खाते-खाते।”

-“बेटा यहाँ तो यही है, इस समय पेड़ों पर भी कुछ नहीं, अभी तो यही खा लो।”

-“नहीं पिता जी, मैं फल नहीं माँग रहा, लेकिन पिताजी, मांस को बहुत खींचना पड़ता है, जल्दी कटता ही नहीं। यह मांस अगर थोड़ा मुलायम हो जाता तो ज्यादा चबाना न पड़ता, क्या ऐसा होना सम्भव नहीं?”

पिता मौन, माँ का स्वर “आप उसकी बात समझते क्यों नही?”

-“क्या समझूँ शिला?”

-“पुत्र भस्मा को आग की तलाश है।”

-“कहाँ है आग? खाक थी, अब वह भी नहीं रही।”

***

-“माँ मैं खेलने जा रहा हूँ।”

-“जाओ, पर दूर मत जाना।”

-“नहीं पुत्र जाओ, जहाँ मर्जी जाओ। शिला! क्यों रोकती हो उसे? किस बात का भय?”

-“जंगली जानवर।”

-“इन्हीं जानवरों के साथ रहना है, फिर डर कैसा?”

-“आप निर्दयी हो गये हैं बिल्कुल, न तो पुत्र की सुरक्षा की फिक्र है आपको, न सुविधा की। उससे कच्चा मांस खाया नहीं जा रहा और आप मौन हैं। मैंने माना कि कुछ बचा नहीं अब, भस्म हो चुका है सब कुछ, पर ऐसे निराश होकर बैठने से कैसे चलेगा? पुत्र ने कुछ नहीं देखा है, पर हमने तो देखा है, हम फिर मेहनत करेंगे, आगे बढ़ेंगे और इस बार प्रगति का इतिहास हम बनायेंगे, आदि पुरुष कहलायेंगे हम। जाइये, अग्नि का अन्वेषण करिए…..”

भस्मा के पिता अस्थिकुमार विचलित हो उठते हैं शिला की उत्साहित बातें सुन, उसके मुख पर हाथ रखते हुए कह उठते हैं- “नहीं शिला, नहीं, ऐसा विचार मत ला मन में।”।

-“क्यों स्वामी?”

“मूर्ख स्त्री! तू फिर सभ्यता को ललक रही है, तेरी आँखों में अभी भी प्रगति का स्वप्न तरंगायित हो रहा है? नादान! भूल गई तू सभ्यता का पर्यवसान? अभी एक दशक भी तो नहीं बीता! तुझे याद नहीं, सभ्यता कहाँ से शुरू हुई थी? इसी आग से। जिस दिन आग की खोज कर पाया था मनुष्य, नाच उठा था खुशी से। वैसे ही, जैसे यदि भस्मा को अभी कच्चे मांस की जगह भुना मांस खाने को मिले, तो कितना आनन्दित होगा वह?”

-“तो इसमें दोश क्या है?”

“पगली! तुझे याद है वह आग, जिसमें मनुष्य भुन रहे थे, चीख रहे थे, अधिक चीख भी नहीं पाये थे। अच्छा हुआ भुन कर ही नहीं रह गये थे, भस्मीभूत हो गये थे, नहीं तो उन्हें खाने वाला भी कोई न बचा था।”

“स्वामी मत दोहराइए उस काले इतिहास को, मत दोहराइए”

 “नहीं, मैं दोहरा नहीं रहा, मैं तो तुझे याद दिला रहा हूँ कि कैसे, आग की यात्रा आग से ही खत्म हुई। बोलो! करूँ आग का अन्वेषण? है तुम्हारे मन में अभी भी प्रगति की ललक? बोलो शिला ! बोलो!” अस्थि कुमार उत्तेजित हो शिला के दोनों कंधे पकड़ झँझोड़ने लगते हैं और वह मूर्च्छित हो गिर पड़ती है। अस्थि कुमार एक लम्बा निःश्वास लेते हैं, आग की कल्पना मात्र से कम्पित शरीर को संयत करने में थोड़ा समय लगता है।

***

               कई वर्ष से दोनों रह रहे हैं उस वन में पुत्र भस्मा के साथ। हाँ, भस्मा ने वह सब कुछ नहीं देखा जो उन्होंने देखा है…………….

“उन्होनें देखा है एक पूरा चक्र, हाँ सचमुच चक्र! शिला जब छोटी थी तो उसकी दादी उसके लिए कपड़े में गुदड़ी भरकर उसकी गुड़िया बना दिया करती थी, और बताती थी कि जब वे छोटी थीं तो वे भी वैसे ही खिलौनों से खेला करती थीं। हालाँकि शिला के पास चाभी वाले दूसरे खिलौने भी थे, पर दादी के बनाये खिलौने अधिक प्रिय लगते उसे। थोड़ी बड़ी हुई तो पढ़ाई लिखाई में उलझना पड़ा उसे। जब वह कैल्कुलेटर से बड़े-बड़े हिसाब मिनटों में निकाल लेती तो दादा जी आश्चर्य से देखते रह जाते और फिर बताते कि कैसे वे गुणा-भाग करके उस हिसाब को घंटों में निकाल पाते थे। जब वह और बड़ी हुई तो उसने देखा कि चारों और सुविधा ही सुविधा है। अब दादा-दादी की बातें उसे इतिहास में पढे़ आदिकालीन अजूबों-सी लगतीं। अब तो हर काम मशीन से होता था, चारों तरफ मशीन ही मशीन। कुछ दिनों बाद जब दादा-दादी नहीं रहे तो उसे एहसास हुआ कि इन मशीनों के बीच कहीं किसी के भी दादा-दादी नजर नहीं आ रहे। कुछ दिन तक उनकी गोद, उनकी थपकी, किसी शुभ कार्य के पूर्व किये गये उनके टोटकों की याद कचोटती रही, फिर धीरे-धीरे वह समायोजित हो गई इस व्यवस्था में।”

वयस्क हुई वह। विवाह हुआ, और कुछ दिनों बाद माँ बनने की जरूरत महसूस हुई। उसके पति कुरूप थे, वह नहीं चाहती थी कि उसकी सन्तान भी पिता की तरह कुरूप हो, इसलिए उसने जब अत्याधुनिक ढंग के क्लीनिकों में पता किया तो उसे निदान मिल गया। चिकित्सकों ने उससे उसकी भावी सन्तान का कल्पना चित्र माँगा, तो उसने एक सुन्दर शिशु की तस्वीर दिखा दी, जिसकी बड़ी-बड़ी आँखे, गोरा रंग और सुन्दर घुँघराले बाल थे। कुछ शुल्क जमा किया, एक छोटी सी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा और कुछ ही दिनों बाद उसे बता दिया गया कि वह माँ बनने वाली है। पर अचरज की बात, उसकी दिनचर्या और सुखों में कोई बाधा न आई, क्योंकि न तो अपनी माँ की तरह उसका शरीर ही बेडौल हुआ और न दुनिया भर की परेशानी ही! हाँ! डसकी सन्तान उसके गर्भ में नही, मशीन में विकसित हो रही थी।

               तरक्की, बस तरक्की ही तरक्की, विज्ञान की तरक्की। बचपन में उसे दूसरे देश करीब जैसे लगते थे, पर अब तो सारे नक्षत्र भी करीब हो गये थे। कोई मित्र मंगल पर रहता था तो कोई चाँद पर, कोई धरती पर रहता था, तो कोई समुद्र में। पर यह तरक्की कहाँ तक जाती आखिर? और इसीलिए जब एक दिन अचानक श्रवण-शक्ति को खत्म कर देने वाले धमाकों की आवाज सुनाई देने लगी तो वह समझ गई कि अब वापसी है।

               यह अत्याधुनिक किस्म के शस्त्रास्त्रों का धमाका था, हाँ! युद्ध छिड़ गया था विश्व में। कोई भी देश किसी से कम न था, सबके पास नये से नये, शक्तिशाली से शक्तिशाली हथियार थे, तो कोई किसी से पीछे क्यों रहता? और लगता था, यह दुनिया भड़भूजे का भाड़ हो, लपटें ही लपटें, सब ओर लपटें। वह तो पति के साथ एक नये उपग्रह की खोज में निकली थी, इसलिए उसने यह सब कुछ काफी ऊपर से देखा और सुना था। उपग्रह तो न खोज सकी वह, पर जब नीचे उतरी तो उसने पाया कि वे दोनों ही बचे हैं इस पृथ्वी पर। पुत्र को नहीं ले गये थे वे, इसलिए वह भी भस्म हो गया था।

               क्या करें वे? ऐसा दण्ड? अब इस पृथ्वी पर एकाकी क्या करें वे दोनों? काश! न गये होते।

               इस भयावह त्रासदी ने अस्थि कुमार की संवेदना ही समाप्त कर दी, पर शिला की जीवित संवेदना उसे तिल-तिल जलाती थी।

               शिला फिर गर्भवती हुई, इस बार उसका शरीर बेडौल हुआ, अनेकों परेशानियाँ झेलीं उसने और फिर एक पुत्र को जन्म दिया। चूँकि यह मशीन में नहीं, उसके पेट मे पला था, शायद इसलिये इस बार उसकी ममता में ताप अधिक था, पर ममता ही ममता थी, और कुछ भी नहीं, पिता की तरफ से वह भी नहीं। उसने पुत्र को किसी तरह पाल कर बड़ा किया, पर जब तक शुष्क स्तनों पर ही निर्भर था, तब तक तो ठीक था, लेकिन इसके बाद भोजन की तलाश में बहुत भटकना पड़ता था। कभी मांस, कभी पत्तियाँ, कभी-कभार एकाध फलदार वृ़क्ष मिल जाते थे, कभी वह भी नहीं, वृक्ष भी कहाँ थे? एकाध बेशर्म स्वभाव वाले वृक्ष ही उग पाते थे, नहीं तो बारूद की भस्म में उग ही क्या सकता है? पुत्र को उसने पूरी ममता देने की कोशिश की थी, पर पुत्र की ओर से उसे कोई भाव न मिल पाता था, उसकी दृष्टि में कोई तरलता न थी। शिला चाहती उससे सम्मान, प्यार और मातृत्व की संतुष्टि, पर वह मात्र एक पुरुष था। पुत्र से कुछ ही छोटी उनकी एक पुत्री भी थी, वह बड़ी हुई तो पता चला कि वह भी मात्र एक औरत है।

***

               शिला का उदास, निराश, और कम्पित स्वर, “स्वामी एक बहुत गम्भीर बात कहना चाहती हूँ, पर कह नहीं पा रही”

“कहो, निस्संकोच कहो”

“स्वामी……..”

“क्या बात है शिला?”

“स्वामी! भस्मा मेरा पुत्र है न? मैं उसकी माँ हूँ?”

“कह सकती हो ऐसा।”

“पर उसने……..”

“क्या उसने?”

“कल उसने मेरे साथ…….”

“समझ गया मैं, देखा था मैंने।”

“देखा था आपने?”

“हाँ! देखा था।”

“कैसे देख सके आप? मैं तो स्त्री हूँ,” अशक्त हो चुकी हूँ, पर आप? आप में तो बाहुबल है, पौरुष है। धिक्कार है आपके पौरुष को…….।” शिला का करुण क्रन्दन…..

“नादान शिला! तू अभी भी वही रह गई, सभ्य समाज की नारी। अरे! भूल जा वह सभ्य जगत और उसके संस्कार, बीते जन्म की तरह”

“भूल! जाऊँ?”

“हाँ! भूल जा! अब यहाँ न कोई पुत्र है, न माता, न कोई पुत्री है न पिता। अब सिर्फ दो ही जातियाँ है स्त्री और पुरुष, एक ही सम्बन्ध है उनका। भस्मा नर है और तुम मादा बस!”

“स्वामी ऽ ऽ ऽ” चीख पड़ती है शिला।

“विचलित न होओ, तुम्हारा दुर्भाग्य है कि तुम्हें अपने पुराने संस्कार भूले नहीं अब तक, और मेरा सौभाग्य है, मुझे याद नहीं अब कुछ।”

“नहीं-नहीं स्वामी, हम उन्हें ऐसा नहीं करने देंगे, वे जानवर नहीं मनुष्य हैं, मैं उन्हें संस्कार दूँगी, मैं उन्हें सब कुछ समझाऊँगी, मनुष्य बनाऊँगी।”

“नहीं, ऐसा मत करना, तुम उन्हें ऊपर से मनुष्य बना दोगी, पर उनका अंतर? बदल सकोगी उसे? नहीं, उनका अंतर पशु है, पशु ही रहेगा, उसे संस्कार न दे सकोगी तुम! और तब वही दोगला हो जायेगा, बाहर से मनुष्य, भीतर से पशु, जो अँधेरे में शिकार पकड़ेगा और पाते ही चीथ डालेगा उसे। तुम मत दो उन्हें संस्कार, रहने दो उन्हें जानवर, भीतर से भी बाहर से भी, ये खुलेआम शिकार करेंगे।”

“नहीं स्वामी! आप बहुत टूट चुके हैं और निराशावादी हो गये हैं इसीलिए। मुझमें शक्ति है अभी भी, मैं उन्हें पशु नहीं बनने दूँगी, उन्हें मनुष्य बनाऊँगी।”, शिला का दृढ़ स्वर।

“तुम्हारी इच्छा। पर इतना जान लो कि पिछले लाखों वर्शों में जो मनुष्य न बन सका, बल्कि मनुष्य बनने के चक्कर में जो और गिरता चला गया उसे संस्कार दे सकोगी तुम? फिर भी यदि नहीं मानती तो जाओ……।”

***

               खुले आसमान के नीचे भस्मा और पुत्री भस्मी, पूर्णतः नग्न और एक दूसरे से परस्पर आबद्ध……..। क्या देख रही है वह? शिला सहन न कर सकी यह, और दोनों को एक झटके से अलग कर दिया। दोनों ने लाल-लाल आँखों से उसे वैसे ही देखा, जैसे कोई हिंस्र पशु ऐसी अवस्था में विघ्न पड़ने पर देखता है। एक तीखी दृश्टि उस पर डाल वे फिर आबद्ध…………।

शिला मूर्च्छित।

***

 “क्या हुआ शिला?”

“कुछ नहीं स्वामी”

“मूर्च्छित क्यों हो गई थी?”

“कुछ नहीं स्वामी, हम पशु हो गये हैं।”

“हम पशु पहले ही थे, अब तो बस परदा हट गया है।”

“हाँ स्वामी, आप सच कहते हैं।”

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One thought on “वापसी – (कहानी)”
  1. Heart touching 100%true.
    Journey of INSHAN from animals to animals .
    Vikash ki bhet chadhta SANSKAR.
    Zero to infinite then again Zero. Gita ka sar.

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