
सुनीता पाण्डेय
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हम ‘केवल श्रद्धा’ नहीं
हमें नहीं बहना
‘विश्वास-रजत-नग-पग-तल’ में
हमें बहना है तुम्हारे साथ
या तुम्हारे समानान्तर.
हम जीती जागती
हाड़ मांस की
औरतें हैं
औरतें नहीं
इंसान।
हमें नहीं चाहिए
महानता का ताज
हमें भी सहज हो जीने दो
होने दो हम से भी कुछ गलतियाँ
नादानियाँ
जैसे हो जाती हैं तुमसे
जाने-अनजाने
तुम तो नहीं कहलाते
चरित्रहीन, पतित…
हमें भी मत दो ये नाम.
हमें भी ठठाकर हँसने दो
कभी चौराहे
कभी ट्रेन
तो कभी चाय की टपरी पर
मत तय करो हमारे कपड़ों की नाप
हमें भी गरमी लगती है।
हमें श्रद्धा मत पुकारो
हमें अनीता, सुनीता या विनीता
रहने दो
हम भी जीती जागती
हाड़ मांस की औरतें हैं
औरतें नहीं
इन्सान।
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Real equality is really required from both sides.