संस्थाएँ और उनका औचित्य

पिछले रविवार,सितंबर २८ को वैश्विक हिंदी परिवार की उत्तरी अमेरिका शाखा का उद्घाटन और रचनापाठ कार्यक्रम कैनेडा, अमेरिका और मैक्सिको के रचनाकारों के साथ संपन्न हुआ। इस शाखा के साथ ही यूरोप, जापान, थाईलैंड आदि शाखाओं के निर्माण की सूचना भी दी गई। ५ साल पहले बोया गया बीज अब एक बड़ा वृक्ष बन गया है जिसकी अनेक शाखाएँ पूरे विश्व को हिंदी की बाहों में समेटने के लिए तैयार हैं। इस प्रकार की महाद्वीपीय शाखायें आवश्यक हैं, इनके माध्यम से एक पूरा महाद्वीप संवाद-मंच पर साथ आता है और वैश्विक विस्तार में खोने से बच जाता है। हर देश और प्रदेश की संस्थाएँ और हिंदी प्रेमी इस शाखा के साथ जुड़ सकें, हमारा यही ध्येय है। कहने का मतलब यह है कि ग्लोबलाइज़ेशन के साथ-साथ लोकलाइज़ेशन की भी आवश्यकता है। 

वैश्विक विस्तार के महासागर के बीच स्थानीय द्वीपों का होना सागर के सौंदर्य को बढ़ाता है। इन द्वीपों पर यहाँ के लेखक अपनी रचनाओं के आदान-प्रदान से इस द्वीप को इतना सुगंधित कर सकें कि लहरों पर तैरती यह सुगंध हिंदी के महासागर को भी सुगंधित कर सके, यही उद्देश्य है। 

वैश्विक हिंदी परिवार की अनेक उपलब्धियों में, शाखाओं का खुलना भी एक बड़ी उपलब्धि बन कर जुड़ गया है। प्राय: प्रश्न यह भी आता है कि संस्थाओं का खुलना और उनके विस्तार की आवश्यकता क्या है? रचना करना एकान्त का काम है तब इन संस्थाओं की क्या आवश्यकता है और वह भी लेखकों की संस्था? नि:संदेह रचनात्मकता एकांतिकता माँगती है पर रचनात्मकता को कागज़ों तक पहुँचाने के लिए लेखक की अंतर्दृष्टि के साथ,पारस्परिक संवाद की आवश्यकता भी होती है। साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है अत: लेखक, समाज से घटना और विचार लेकर, उसे संवेदना और ज्ञान की लय में ढाल कर, शिल्प की तान पर गाते हुए पुन: समाज को लौटा देता है। इस समाज के बिना न साहित्य का गुज़ारा है और न साहित्यकार का। हिंदी साहित्यकारों को और विशेष रूप से प्रवासी साहित्यकारों को इस प्रकार की सामाजिक संगत और सत्संग की अत्यंत आवश्यकता होती है। उसमें अपनी भाषा में सुनने और सुनाने की प्यास होती है। संस्थायें उन्हें यह संगत भी देती हैं और उसकी प्यास भी मिटाती है। ये संस्थाएँ जिस ज़मीन और संस्कृति को वह छोड़ कर आता है, उसकी याद और सामूहिक समझ के साथ ही नई ज़मीन पर घर बसाने के साझे संघर्ष और स्थितियों की समझ बाँटने का स्थान उसे देती हैं।

हर ज़मीन की अपनी समस्याएँ और स्थितियाँ होती हैं, जैसे मॉरीशस की धरती की राजनैतिक और आर्थिक स्थिति  अमेरिका की नहीं होगी या मैक्सिको में ठीक कैनेडा जैसी समस्या नहीं होगी अत: जीवन की समस्याओं को कागज़ पर उतारने से पहले उन पर चर्चा या चिंता उस ज़मीन के संवेदनशील और विचारशील लोगों के साथ करना, व्यक्ति के अनुभव और लेखन को समृद्ध करता है। इसीलिए स्थानीय संस्थाओं और लेखकों को बढ़ावा देना, उन्हें सुनना और जानना आवश्यक है। 

प्राय: यह भी कहा जाता है कि इतनी संस्थाओं की आवश्यकता क्या है? या लोग जब एकाधिक संस्थाओं को बनता देखते हैं तो उन्हें हिंदी की एकता में दरार पड़ने की चिंता होती है। मेरा सोचना है कि एकता में दरार डाले बिना, परस्पर सम्मान बनाये रखते हुए एक ही प्रदेश या शहर में यदि एकाधिक संस्थाएँ होती हैं तो उसमें कोई बुरी बात नहीं। ट्रैफ़िक और दूरियों को ध्यान में रखते हुए अगर कुछ संस्थाएँ बनती हैं तो उसमें अधिक लोग भाग ले सकते हैं। समस्या यह नहीं होती कि कितनी संस्थाएँ हैं, समस्या तब होती है कि जब वे एक दूसरे की विरोधी बन कर, हिंदी की जगह अपने निजी एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए या किसी की अहंपूर्ति का साधन बनती हैं। मित्रो, हमें  याद रहना है कि हमें अपने अहम और वहम पीछे रख कर हिंदी का काम करना है। हमारी साधना हिंदी भाषा के प्रसार की है जिसके लिए हर रचनात्मक चिंगारी को हमें अपनी मशाल की रौशनी बना कर आगे बढ़ना है और हम आगे बढ़ रहे हैं।

मुझॆ पूरा विश्वास है कि वैश्विक हिंदी परिवार की ये शाखाएँ, स्थानीय संस्थाओं के साथ  मिलकर, उन्हें प्रोत्साहन देते हुए कार्य करेंगी और वैश्विक हिंदी परिवार के उद्देश्यों का पूरा मान रखेंगी।

नवमी और विजयदशमी के पावन पर्व आप सबके लिए मंगलमय हों। माँ दुर्गा के नवरूप हमारे नवरस से जुड़े हैं और ’रस’ जीवन और साहित्य की प्राण शक्ति है। “रसौ वै स:” रस ईश्वर ही है,  कह कर तैत्तरीय उपनिषद रस के जिस महत्व को प्रतिपादित करता है, वह हम सबके जीवन में ’सर्व मंगल मांगल्य’ के माध्यम से उतरता रहे!

हार्दिक शुभकामनाएँ…

शैलजा

अक्तूबर १, २०२५

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