
वाह! द्वारका एक्सप्रेस वे
डॉ. अशोक बत्रा, गुरुग्राम
वाह द्वारका एक्सप्रेस मार्ग!
तेरा भी जवाब नहीं!!
तू फैशनपरी-सा है! कुछ भी पहने, कहीं भी पहने! अंटशंट! मैं अपनी शादी में न जाऊँ जैसी स्वच्छन्दता!
या फिर इस पर काम करने वाले कुछ लोग इतने भैंसबुद्धि हैं कि कहीं भी जुगाली करें और जहाँ चाहे गोबर कर दें!
आपको लग रहा होगा, मैं बिना बात हवा में लाठी घुमा रहा हूँ। कसूर मेरा ही है। मैं अंग्रेजी से ही मतलब रखता तो यों सनक में न आता! कोसता हूँ अपनी उस आँख को जो हिंदी को भी ध्यान से पढ़ती है–अपना समझ कर! मैं भी उसे गई-गुजरी मानकर यतीमखाने में छोड़ आता, और उसकी शक्ल भी न देखता तो चैन से जी पाता!
आप ही देखिए! यह गुरुग्राम का द्वारका एक्सप्रेस मार्ग हाल में ही बना है। अभी नई नवेली दुल्हन की तरह सजा है। पर इस पर लगे हिंदी के नामपट्ट देखो! लगता है, लंदन से बनकर आए हैं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने अँधेर नगरी में लिखा था न — मानहु राजा रहत बिदेसा। सचमुच यहाँ की सड़कों का राजा तो विदेश में ही बसा है। वही छूट दे रहा है– लिखो, जैसे भी लिखो। यह हिंदी गरीब की जोरू है, इसे चाहे जैसे भी छेड़ो। कहीं से विरूप कर डालो, विद्रूप कर दो। और तुम गोरे क्यों करते हो, इन्हीं हिंदी वालों से करवाओ। हमने इनकी हिंदी को इन्हीं की नज़रों में इतना गिरा दिया है कि ये अब खुद अपनी माँ बोली का हुलिया बिगाड़ देंगे। इन्हें अपनी हिंदी को गरिमामय बनाने न दो। इनके दिमाग़ में भर दो कि भाषा का व्याकरण सीखने की कोई जरूरत नहीं। कैसे भी बोलो, कुछ भी बोलो! शुक्र है, गणित इनके हाथ नहीं चढ़ा। वरना कहते — क्या फर्क पड़ता है, 3+3 लिखो या 3×3.
द्वारका एक्सप्रेस वे के नामपट्ट कोई हिंदी का जानकार बनवाता तो यह जरूर ध्यान रखता कि हिंदी में लघुनामों की अंग्रेजी जैसी परम्परा नहीं है। परम्परा छोड़ो, ये लघुनाम अंग्रेजी की तर्ज पर लिखे ही नहीं जा सकते। अगर ऐसा सम्भव होता तो हम देश के प्रथम प्रधानमंत्री को ज.ला.नेहरू कहते, कवि केशवलाल को के.ला. कहते, बिहारीलाल को बि.ला.कहते, माखनलाल चतुर्वेदी को मा.ला. कहते। फिर माकपा की तरह उन्हें जला, केला, बिला और माला कहते।
हिंदी का नौसिखिया से नौसिखिया विद्वान भी यह रहस्य जानता है। फिर भी कोई इसे लिख और लिखवा रहा है तो जरूर उसके पीछे कोई षड्यंत्र बुद्धि है, या खतरनाक लापरवाही है या गड्ढे में फेंक देने वाली विद्रूप मानसिकता — वही मानसिकता जिसने गुड़गाँव की नई-नई सड़कों के बीच-बीच में ऐसे खतरनाक गड्ढे देखकर भी चुप्पी साध ली है कि मरते हैं तो मरने दो, मुझे क्या?
जिसने भी ये नामपट्ट बनवाए हैं, मैं उनसे कहता हूँ कि इनका उच्चारण करके दिखाओ– ईंगाँअँ हवाई अड्डा। बोलो, लोग कैसे बोलेंगे ? यह लोगों की जुबान पर कैसे चढ़ेगा? अगर नहीं चढ़ सकता, तो लिखते क्यों हो? क्या अपनी मज़ाक उड़वाने के लिए?
लिखवाने वाला (कम्बख्त) यह भी नहीं जानता कि हिन्दी के वर्ण शुद्धतम और साक्षात ध्वनि – रूप हैं। इसका एक- एक वर्ण अर्थ बदलने की क्षमता रखता है। अंग्रेजी की वर्णमाला के वर्ण नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छिपी रहे वाली तबियत के हैं। उसमें ab का कोई अर्थ नहीं है, किंतु हिन्दी में अ ब पास-पास आ जाएँ तो अब यानी अर्थवान हो जाते हैं। इसीलिए हम अमिताभ बच्चन हों या अभिषेक बच्चन, दोनों को अब नहीं कहते। काशी नाथ सिंह को का. ना. सिंह या कानासिंह नहीं कहते। बताइए, छोटा लिखने के चक़्कर में काना कौन बनना चाहेगा?
परन्तु विदेशियों का हुक्का भरने वाले, भाषा के सर्वोच्च आसनों को लज्जित करने वाले हमारे ये लज्जाप्रूफ मित्र यह सोचते हैं कि हिन्दी की बर्बादी पर कुछ सोचना समय नष्ट करना है। तभी तो उन्होंने हिंदी व्याकरण को सब्ज़ीमंडी में घूमते आवारा पशुओं की तरह खुला छोड़ दिया । यह आवारा जानवर है। इससे बचो बस! यह कहीं बैठे, कहीं मुड़े, कैसे भी उकडू बैठ जाए, इस पर ध्यान न दो। यह कोई अंग्रेजी या फ्रेंच का मसला थोड़ी है जिसकी नज़ाकत बरकरार रखने के लिए किसी फ्रेंचकट विद्वान को लाखों क्या करोड़ों दिए जाएँगे। और हिन्दी के विद्वानों पर कौड़ी भी खर्च करना अमृत धन को नाले में बहाना है।
ये द्वारका एक्सप्रेस वे के सरगना इतना ही कर लेते कि इंदिरा के लिए सब जगह इं ही लिख देते। नहीं, कहीं इं, कहीं ईं तो कहीं इ। गाँधी का लघु रूप भी कहीं गाँ, कहीं गां, तो कहीं गा। अंतरराष्ट्रीय तो शुक्र है, लिखा ही नहीं। नहीं तो अंतर्राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय का जिन्न बाहर निकल आता।
अंतरराष्ट्रीय को कहीं अ लिखा है, कहीं अं तो कहीं अँ। कोई आपत्ति भी नहीं उठाता। सब जानते हैं कि हिन्दी बनाना स्टेट है। कुछ भी बोलो, लिखो! वह केवल खाया जाने के लिए बना है। केले में हड्डी तो होती नहीं। वह हाथ लगाते ही पिघल जाता है।
जरा ध्यान से देखें। इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा की कितनी वर्तनियाँ हैं, कितने रूप हैं! कोई रूप टिकता ही नहीं। मज़े की बात यह है कि किसी को दिखता नहीं। और जिसे दिखता है, उसे चुभता नहीं। वे संन्यासी हो गए हैं — सुख दुख से परे, मान -अपमान से परे! या धोबी के गधे, जिसे चाहो लात मारो, चाहे डंडा, उसे धोबी का भार उठाना है।
द्वारका एक्सप्रेस वे पर, जिसे बनाने में हज़ारों करोड़ रुपये लगे, वहाँ अड्डा भी लिखा है, अड् डा भी, और अडड्ा भी। मज़े की बात — यह अडड्ा होकर भी नहीं हो सकता। फिर भी हम देखते नहीं। कैसे हैं हम?
माना कि हिन्दी में दोनों रूप मान्य हैं — हिंदी और हिन्दी। परन्तु इतना तो विवेक रखें कि एक लेख में एक ही वर्तनी रहे। यह नहीं कि कहीं हिन्दी, कहीं हिंदी। इससे चेतना बँटती है, विश्वास को धक्का लगता है।
परन्तु प्रश्न यह है कि यह जटिल काम करे कौन! हमारे मन का राजा तो बिदेस में है। तन इंडिया में मन लंदन में। जब वह चाहेगा तो हम मानक बनेंगे। वरना छोड़ दो छुट्टे सांड की तरह इसे। विदेशी मानसिकता ने ही यह नेरेटिव सेट किया है पिछले चार दशकों से — भाषा मत पढ़ाओ, व्याकरण मत पढ़ाओ! क्या फर्क पड़ता है, अगर कोई हिंदी को हीन्दी लिख दे। है तो हिंदी ही। वह विदेशी जानता है कि जब यह सर्वसुंदरी हिंदी अपनी व्याकरण- सम्मत मस्त मानक साड़ी में सजधज कर निकलेगी तो ट्रम्प भी हिंडी नहीं हिन्दी बोलने के लिए कोचिंग लेंगे। पर वो ऐसा करेंगे क्यों??
बस एक ही संभावना है! हो सकता है,
कभी हमारी गोरी संतानों को लज्जा आए, शर्म आए। नहीं, लज्जा नहीं, कोई मिस ब्रिटेनिका उसे शेम शेम कहे कि चल दुष्ट! भाग मेरे यहाँ से। जो अपनी माँ का नहीं हुआ, वह मेरा कैसे होगा!!
