प्रवासी भारतीय होना भारतीय समाज की महत्वाकांक्षा भी है,सपना भी है,कैरियर भी है और सब कुछ मिल जाने के बाद नास्टेल्जिया का ड्रामा भी। लेकिन कभी कभी वह अपने आप को, अपने परिवेश को,अपने समाज को देखने की एक नई दृष्टि मिल जाना भी होता है। अपनी जन्मभूमि से दूर किसी पराई धरती पर खड़े होकर वे जब अपने आपको और अपने देश को देखते हैं तो वह देखना बिलकुल अलग होता है। भारतभूमि पर पैदा हुए किसी व्यक्ति के लिए यह घटना और भी मानीखेज हो जाती है कि हम अपनी सामाजिक परम्पराओं, रूढ़ियों और इतिहास की लंबी गुंजलकों में घिरे और किसी मुल्क के वासी के मुक़ाबले कतई अलग ढंग से खुद को देखने के आदी होते हैं। उस देखने में आत्मलोचन बहुत कम होता है। वह धुंधलके में घूरते रहने जैसा कुछ होता है। विदेशी क्षितिज से वह धुंधलका बहुत झीना दीखता है और उसके पार बसा अपना शेष बहुत साफ।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार सूर्यबाला जी के इस उपन्यास में अमेरिका –प्रवास में रह रहे वेणु और मेधा खुद को और अपने पीछे छूट गई जन्म भूमि को ऐसे ही देखते हैं। उन्हें अपनी मिट्टी की अबोली कसक प्रायः चुभती रहती है। वे अपने परिवार जनों और उनकी स्मृतियों को सहेजे जब स्वदेश प्रत्यावृत्त होते हैं तो उनकी परिकर परिधि में आए जन उनके रहन-सहन,आत्मविश्वास से प्रभावित होते हैं,किन्तु वेणु और मेधा के दुख ,उदासी और अकेलापन नेपथ्य में ही रहते हैं। नई पीढ़ी की आकांक्षाओं में सिर्फ और सिर्फ बहुत सारा धनोपार्जन ही है ताकि एक बेहतर जिंदगी जी सके जबकि अमेरिका गए अनेक प्रवासी भीतर ही भीतर कई संग्राम लड़ते हैं। कैरम की गोटियों को छिटका देने वाली गोटियाँ हैं, पर निर्मम चाहतें !
(प्रस्तुति – डॉ. जयशंकर यादव)
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