वेदान्त दर्शन

आइए देखते हैं कि स्वामी विवेकानंद ने वेदान्त दर्शन के विषय में क्या लिखा है। उनके विचारों का सार “Selections from the Complete Works of Swami Vivekananda” (प्रकाशन : अद्वैत आश्रम) से निम्नलिखित है :

स्वामी विवेकानंद ने वेदान्त को “उत्तर मीमांसा” के अंतर्गत व्यापक रूप से विवेचित किया है। उनका मानना था कि वेदान्त दर्शन भारत के सभी सम्प्रदायों, धर्मों और जातियों का समन्वय है। उनके अनुसार, वेदान्त के अनेक प्रगतिशील रूप और परिभाषाएँ हैं, जो द्वैत से लेकर अद्वैत तक विस्तारित हैं।

वेदांत का दर्शन जैसा की आज के युग में कहा जाता है, भारत में स्थित सभी सम्प्रदाय , धर्म, जाति का समन्वय है, अतः मेरे विचार से वेदांत की कई प्रगतिशील परिभाषा एवं भाष्य हैं, द्वैत से आरंभ होकर अद्वैत तक | वेदांत का शाब्दिक अर्थ वेद का अंत होता है, वेद हिन्दुओं का धार्मिक वैचारिक ग्रन्थ है, पश्चिम में इसे कुछ काल पूर्व तक मात्र मन्त्र और कर्म ही बताया गया था  परन्तु अब वह भ्रान्ति दूर हो चुकी है अब वेदों को वेदांत तक मान लिया गया है, जितने भी भाष्यकार हुए वे वेदांत को ही मुख्य बतलाते हैं एवं वेदांत के मंत्रो को ही उधृत करते हैं, इस प्रक्रिया को श्रुति कहते है यथार्थ सुन कर, अतः वेदांत में जितने भी ग्रन्थ हैं वे लिखे हुए नही है बल्कि सुने हुए हैं, जैसे ईशा उपनिषद, यजुर्वेद के ४० वे मंडल का हिस्सा  है, अन्य उपनिषद स्वाधीन हैं किसी ब्रह्मण या क्रिया के लेखन नही हैं, पर कोई कारण नही की उन्हें अन्य भाग से स्वतंत्र न माना जाय | उपनिषद को अरण्यक भी कहा गया है मतलब जंगल बुक |

अतः वेदांत व्यवहार में हिन्दुओं का धार्मिक ग्रन्थ कहा जाता है, सब रुढ़िग्रस्त सिद्धांत ही इसकी नींव बताई जाती है, जैन, बुद्ध भी जब अपनी जरुरत हो तो वेदांत के मन्त्रों को उधृत करते हैं, अतः जितने भी संप्रदाय है सब वेद एवं वेदांत का सहारा लेते है | तत्वज्ञान की प्रत्येक कार्यशाला भारत में वेदों की निति से ही उपजी बताई जाती हैं, अंत में व्यास का नियम वेदांत के सिद्धांत के सम्भावों का उद्धरण है, जो पूर्वोत्तर सिद्धांत सांख्य एवं न्याय के प्रतिकूल है, अतः वेदांत सूत्र को व्यास सूत्र भी कहा जाने लगा, व्यास सूत्र को भी विभिन्न लोगों ने विभिन्न तरीके से परिभाषित किया, निष्कर्ष स्वरुप यह कहा जा सकता है कि तीन प्रकार के सिद्धांत परिलक्षित होते हैं, द्वेत, विशिष्ट अद्वैत और  तीसरा  अद्वैत। द्वैत एवं विशिष्ट अद्वैत ज्यादातर भारतियों को दर्शाता है, अद्वैत बहुत कम लोगों को | मैं अब तीनो समुदाय के अन्तर्निहित सिद्धांतों को बताने का प्रयत्न करूँगा। वेदांत दर्शन एक विशेष सोच सांख्य सोच के अंतर्गत ही चलते हैं, मामूली बातों को छोड़ दें तो सांख्य मनोविज्ञान न्याय एवं वैशैषिका विचार जैसा ही है |

विवेकानंद के शब्दों में:

“वेदान्त का अर्थ है ‘वेद का अंत’। वेद, हिन्दू धर्म के वैचारिक और धार्मिक ग्रंथ हैं। पहले वेदों को केवल कर्मकांड और मंत्रों तक सीमित माना जाता था, लेकिन समय के साथ यह भ्रांति दूर हो गई। अब वेदों को उनके अंतिम और गूढ़तम भाग अर्थात् उपनिषदों तक स्वीकार किया जाता है। उपनिषदों को ‘अरण्यक’ भी कहा जाता है, जिनका अर्थ ‘जंगल की पुस्तकें’ है।”

उनके अनुसार, वेदान्त केवल हिन्दू धर्म का धार्मिक ग्रंथ ही नहीं है, बल्कि यह संपूर्ण तत्वज्ञान और दर्शन की नींव है। विभिन्न सम्प्रदाय जैसे जैन और बौद्ध भी वेदान्त के सूत्रों को अपने संदर्भ में उद्धृत करते हैं। इसलिए, भारत में तत्वज्ञान के सभी महत्वपूर्ण विचारों और धाराओं की जड़ें वेद और वेदान्त में पाई जाती हैं।

ब्रह्मसूत्र भाष्य पर आधारित कुछ महत्वपूर्ण सूत्र :

स्वामी विवेकानंद और ब्रह्मसूत्र भाष्य से लिए गए वेदान्त के कुछ व्यवहारिक एवं जीवनोपयोगी सूत्र निम्नलिखित हैं:

ब्रह्मसूत्र और विवेकानंद के विचारों पर आधारित 20 महत्वपूर्ण सूत्र

1. “जन्माद्यस्य यतः” (ब्रह्मसूत्र 1.1.2) : इस जड़ और चेतन जगत का उपादान और निमित्त कारण ब्रह्म ही है।

2. “तदनन्यत्वम्” (ब्रह्मसूत्र 3.2.28) : परब्रह्म की दो प्रकृतियाँ—परा (चेतन) और अपरा (जड़)—उसकी ही शक्तियाँ हैं।

3. “विकल्पश्रयत्वात्” (ब्रह्मसूत्र 3.2.31) : परमात्मा इन शक्तियों से भिन्न भी है और उनका आधार भी।

4. “लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्” (ब्रह्मसूत्र 2.1.16) : सृष्टि और प्रलय का क्रम परमात्मा की लीलामात्र है।

5. “निर्गुणं निराकारं सगुणं साकारं च” (ब्रह्मसूत्र 3.2.11–26) : परमात्मा निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार दोनों रूपों में स्वाभाविक और सत्य है।

6. “परोक्षं परा प्रकृति जीवः” (ब्रह्मसूत्र 2.3.43) : चेतन जीव परमात्मा की परा प्रकृति है, और उसका अंश है।

7. “देहधारणम् औपचारिकम्” (ब्रह्मसूत्र 3.2.6) : जीव का जन्म और मृत्यु शरीर के संबंध से औपचारिक है।

8. “लोकान्तरगमनं च” (ब्रह्मसूत्र 4.2.9) : मृत्यु के बाद जीव का दूसरे लोक में जाना शरीर के अनुसार होता है।

9. “ज्ञानिनाम् मोक्षः” (ब्रह्मसूत्र 4.4.1) : ज्ञानी का शरीर से संबंध समाप्त होने पर वह परमात्मा को प्राप्त करता है।

10. “मोक्षः परमधामः” (ब्रह्मसूत्र 4.4.2) : यही उसकी सर्वप्रकार से बंधनरहित मुक्तावस्था है।

11. “संकल्पभोगः” (ब्रह्मसूत्र 4.4.8–12) : ब्रह्मलोक में जीव इच्छामात्र से भोग करता है।

12. “जीवकर्मफलानुकूलः ईश्वरः” (ब्रह्मसूत्र 2.3.33–41) : परमात्मा कर्मों का नियंता और व्यवस्थापक है।

13. “निष्काम ज्ञानिनाम् ब्रह्मसाक्षात्कारः” (ब्रह्मसूत्र 3.4.49) : निष्काम ज्ञानी इसी लोक में ब्रह्म प्राप्त करता है।

14. “ब्रह्मज्ञानम् सर्वाश्रमानुकूलम्” (ब्रह्मसूत्र 3.4.25) : ब्रह्मज्ञान सभी आश्रमों में संभव है।

15. “ब्रह्मलोकगमनम् पुनर्जन्मरहितम्” (ब्रह्मसूत्र 4.4.22) : ब्रह्मलोक जाने वाले जीव का पुनरागमन नहीं होता।

16. “संचितकर्मनाशः” (ब्रह्मसूत्र 4.1.13–14) : ज्ञानी के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं।

17. “प्रारब्धोपभोगे देहपातः” (ब्रह्मसूत्र 4.1.19) : प्रारब्ध कर्म भोगने के बाद ज्ञानी की देह समाप्त होती है।

18. “ब्रह्मविद्या कर्मसहचरी न” (ब्रह्मसूत्र 3.4.2–25) : ब्रह्मविद्या कभी कर्मों का अंग नहीं होती।

19. “ब्रह्मप्राप्तिहेतुः ब्रह्मविद्या” (ब्रह्मसूत्र 3.3.47) : ब्रह्म की प्राप्ति का एकमात्र साधन ब्रह्मविद्या है।

20. “जगत् अप्रकटं प्रलये” (ब्रह्मसूत्र 2.1.16) : यह जगत प्रलयकाल में भी अप्रकट रूप में अस्तित्व में रहता है।

महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष :

स्वामी विवेकानंद और ब्रह्मसूत्र के इन सूत्रों से यह स्पष्ट होता है कि वेदान्त केवल आध्यात्मिक दर्शन नहीं है, बल्कि यह जीवन और जगत के गूढ़ रहस्यों को उजागर करता है। यह प्रत्येक मनुष्य को ब्रह्म, जीव, और प्रकृति के मध्य संतुलन समझने की प्रेरणा देता है।

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संदर्भ स्रोत :

  1. Selections from the Complete Works of Swami Vivekananda (प्रकाशन : अद्वैत आश्रम)
  2. ब्रह्मसूत्र भाष्य (व्यास)

प्रस्तुति : डॉ. जयशंकर यादव, वैश्विक हिंदी परिवार

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