(मूल भाषा रूसी से अनुवाद – प्रगति टिपणीस)
अख़रोट- लियोनिद निकोलायेविच आंद्रेयेव
एक समय की बात है। हरे-भरे एक जंगल में एक बहुत सुंदर गिलहरी रहती थी जिसे हर कोई बहुत पसंद करता था। गर्मियों में गिलहरी के बाल सुनहरे-लाल होते थे। सर्दियों के आते ही, चारों तरफ़ बर्फ़ और सफ़ेदी के छाते ही वह भी सफ़ेद कोट पहन लेती थी। वह हमेशा ही बड़ी फ़ैशनपरस्त और सुंदर लगती थी! और उस गिलहरी के दाँत सफ़ेद, धारदार और मज़बूत थे जो सरौते की तरह मेवा तोड़ सकते थे। लेकिन अफ़सोस कि गिलहरी समझदार थी – जी हाँ, समझदार! उसकी समझदारी का बहुत बुरा हश्र हुआ, जंगल में आज तक सब उस दुखद कहानी को याद करके रोते हैं।
एक बार जंगल के ऊपर से उड़ते हुए सफ़ेद पंखों वाले एक देवदूत को अपनी पैनी आँखों से वह गिलहरी दिखाई दे गई, उसे वह बहुत ही पसंद आई। उसका मन उसे कोई सुन्दर उपहार देने को ललक उठा। वह उड़ते हुए जन्नत के बग़ीचों में पहुँचा और वहाँ से एक सुनहरा अख़रोट तोड़ लाया, बिलकुल वैसा जैसा लोग क्रिसमस ट्री पर सजाते हैं। उसे लेकर वह उस गिलहरी – प्यारी छोटी सफ़ेद गिलहरी के पास आया।
“प्यारी श्वेत गिलहरी, यह अखरोट तुम्हारे लिए है, इसे मैं स्वर्ग के उपवन से तुम्हारे लिए लाया हूँ। लो, इसे खा लो,” देवदूत ने कहा।
गिलहरी ने विनम्रता से उत्तर दिया – “आपका बहुत आभार” – और आगे बोली – “मैं इसे बाद में, आपके उड़ जाने पर खाऊँगी।”
देवदूत उस पर भरोसा करके उड़ गया। लेकिन गिलहरी सोच में पड़ गई और उसके मन में अलग-अलग ख़याल आने लगे – “ठीक है, मैं अभी यह अखरोट खा लूँगी लेकिन फिर क्या? इससे अच्छा तो यह होगा कि मैं इस अखरोट को कहीं छिपा दूँ और जब कभी भी ज़िन्दगी में ऐसा मुश्किल वक़्त आए कि मेरे पास खाने के लिए कुछ न हो तब मैं इसे निकालकर खा लूँ। हरेक को हमेशा अक़लमंदी से काम लेना चाहिए, उसे फ़िज़ूलख़र्ची से बचना चाहिए और किफ़ायती होना चाहिए।”
कितने ही साल और सर्दियाँ बीत गईं, और कितनी ही बार गिलहरी के मन में उस सुनहरे अखरोट को खाने का लालच आया, वह भूख से तड़पी भी, लेकिन उसने वह अखरोट नहीं खाया। जी, हाँ, नहीं खाया उसने! लेकिन फिर गिलहरी की ज़िन्दगी में काले दिन आए: वह बूढ़ी हो गई, उसके पैर गठिया से टेढ़े हो गए, उसका सिर कमज़ोरी से काँपने लगा, और उसके सफ़ेद कोट का फ़र जगह-जगह से निकल गया था, कोट तार-तार हो गया था, वह भद्दा, बहुत भद्दा दीखने लगा था। वह कोट अब गिलहरी को पर्याप्त गर्माहट भी नहीं दे पाता था।
इन हालात में एक बार जब गिलहरी भूख से बहुत परेशान हुई तो उसने सोचा कि चलो, अब मैं अखरोट खा लेती हूँ। उसने सूखी पत्तियों के नीचे से अपना ख़ज़ाना निकाला, उसे अपने पंजों में लिया और ख़ूब निहारा। उसे देख कर उसके मन में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। फिर उसने अखरोट अपने मुँह में डाला। मुँह में डाल तो लिया लेकिन वह उसे तोड़ न पाई : गिलहरी के दाँत जो नहीं थे – जी, हाँ उसके दाँत गिर गए थे!
सफ़ेद जंगल के ऊपर से सफ़ेद पंखों वाला वही देवदूत फिर उड़ा और उसने देखा कि एक बड़े पेड़ के नीचे चीथड़ हो गए कोट में मरी हुई एक बूढ़ी गिलहरी पड़ी है जिसके पंजे में एक सुनहरा अखरोट था, जन्नत के बग़ीचे का अखरोट।
सीख: ज़िन्दगी में जैसे ही अखरोट मिले उसे फ़ौरन खा लेना चाहिए।
नमकहराम – लियोनिद निकोलायेविच आंद्रेयेव
एक अच्छा लड़का था – पेत्या। उसकी माँ और भी अच्छी थी। वह उसे हमेशा कुछ सिखाती रहती थी, जानकार बनाती रहती थी। वे एक बड़े घर में रहते थे जिसके अहाते में मुर्ग़ियाँ और कलहंस घूमा करते थे। मुर्ग़ियाँ उनके लिए अंडे देती थीं और कलहंस उनके खाने के काम आते थे। साथ ही वहाँ एक छोटा-सा बछड़ा भी रहता था, जिसे हर कोई प्यार करता था और वासिन्का पुकारता था। पेत्या के कटलेटों के लिए उस बछड़े को खिला-पीला कर बड़ा किया जा रहा था।
एक दिन माँ नई बातें सिखाने के लिए पेत्या को अहाते में ले गयी।
बोली: “देखो, बेटे पेत्या! यह कितना प्यारा बछड़ा है, इसे सहलाओ।” पेत्या ने उसे प्यार से सहलाया। बछड़ा बहुत ख़ुश हुआ और उसने थोड़े दूध की इच्छा जताई। और उसकी वह इच्छा पूरी भी कर दी गयी।
माँ बेटे की शिक्षा जारी रखते हुए बोली: “देखो, पेत्या। यह अभी दूध पी रहा है और बाद में हम इससे तुम्हारे लिए कबाब बनाएँगे, बशर्ते तुम अच्छा और आज्ञाकारी बच्चा बने रहोगे।”
अपने पैर घसीटते हुए पेत्या ने कहा:
“मुझे हमेशा कुछ नया सिखाते रहने और मेरी देखभाल करने के लिए मैं अपने माँ-बाप और सभी उस्तादों का शुक्रिया अदा करता हूँ। लेकिन प्यारी माँ, मैं यह जानना चाहूँगा कि कबाब बछड़े के किस हिस्से से बनाये जाते हैं?
माँ यह देखकर कि उसका बेटा कितना जिज्ञासु और होशियार है बहुत ख़ुश हुई। उसने बछड़े की ओर हाथ से इशारा किया और बोली:
– पेत्या, यह देखो और हमेशा याद रखना: पसली के नीचे वाले इस हिस्से से हम तुम्हारे लिए हड्डी वाले कबाब बनाएँगे। तुम्हें हड्डी वाले कबाबपसंद हैं न?
“मुझे वह सब बहुत पसंद है, प्यारी माँ, जो आप अपनी दयालुता के चलते मुझे देती हैं।”
और उस मूर्ख बछड़े के दिमाग़ में उनकी बाते सुनकर मूर्खता भरे ख़याल आने लगे: “हे भगवान, ये लोग ऐसी क्या बातें कर रहे हैं, मुझे इतना डर क्यों लग रहा है।”
माँ ने अपने पेत्या का माथा चूमा और कक्षा जारी रखी:
– और इस भाग से हम तुम्हारे लिए शामी कबाब बनाएँगे। और इसकी जीभ से – बछड़े, ज़रा अपनी जीभ तो दिखाना, हम वह पकवान बनाएँगे जिसे हम अदरक की चटनी से खाते हैं; और इसके भेजे और टांगों को उबाल कर हम उसकी जेली जमा लेंगे और इसकी…
पेत्या माँ को टोकते हुए बोला: “प्यारी माँ, मुझे पता है कि इसकी पूँछ से हम चाबुक बनाएँगे।”
माँ हँस पड़ी और होशियारी के लिए पेत्या की तारीफ़ करते-करते वे घर लौट आए और गाय के दूध वाली चाय पीने लगे। वहीं मूर्ख बछड़ा वासिन्का उनकी बातें सुनकर डर के मारे थरथरा रहा था और मूर्खों की तरह सोच रहा था: “हे भगवान, मुझे ऐसा क्यों लगता है कि ये लोग मुझे खाना चाहते हैं। यह बात कितनी डरावनी है! नहीं, इससे अच्छा होगा कि मैं जंगल भाग जाऊँ और अपनी जान बचा लूँ।”
लेकिन तभी उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कार उठी और अपनी दृढ़ आवाज़ में उससे बोली: “तुम कितने नमकहराम हो! वे लोग उस अच्छे लड़के पेत्या के लिए तुम्हारे कबाब बनाना चाहते हैं और तुम यहाँ से भाग जाना चाहते हो। यह तो बहुत ओछी बात है, कमीनापन है।”
लेकिन वासिन्का अपनी अंतरात्मा की बात न सुन सका। उसने खूँटे से रस्सी अलग की और जंगल भाग गया: मूर्ख को लगा था कि वह बच जाएगा। लेकिन जंगल में तो भेड़िये होते हैं, भेड़ियों ने तो उसे खा लिया। नमकहराम ख़ुद को बचाने चला था और भेड़ियों के बारे में भूल गया था!
बछड़ों के लिए सीख : नमकहरामो! भागना मत, भेड़िये तुम्हें हर हाल में खा लेंगे।
