नाविक कमलनाथ आज घर वापस लौट रहा था। बंदरगाह पर रुके जहाज में चढ़ने और अपनी-अपनी निर्धारित सीट पर बैठने में अभी कुछ समय की देर थी। कुछ औपचारिकताओं का निर्वाह अभी बाक़ी था। यात्रियों और जहाज-कर्मचारियों की चहल-पहल के बीच गुमसुम खड़ा कमलनाथ अपने आपको बिल्कुल अकेला अनुभव कर रहा था। भीड़ में भी बिल्कुल अकेला। वह घर जा रहा था, परंतु इस जाने और पहले के जाने में बहुत अंतर था। आज उसके मन में थोड़ा-सा भी उत्साह, थोड़ी-सी भी उमंग नहीं थी। वह पूरी तरह निष्प्राण पुतला सा लग रहा था। बार-बार उसका मन जापान में हुई दुर्घटना का स्मरण कर काँप उठता था जिसने उसके संपूर्ण जीवन को अप्रत्याशित रूप से बदल दिया। उस दुर्घटना का स्मरण आते ही उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया, उसके रोंगटे खड़े हो गए। उसे लगा जैसे उसके पैरों के निकट ही एक भयंकर कर्णभेदी विस्फोट हुआ है। वह पसीने से लथपथ हो गया। अपने जहाज पर काम करते-करते ऐसे ही विनाशकारी, कर्णभेदी विस्फोट की आवाज़ सुनकर वह सुन्न-सा हो गया था। उसी आवाज़ के साथ जहाज के पूरे इंजिन रूम में धू-धू करती हुई आग लग गई थी। उसने आग को बुझाने के भरसक प्रयास किए थे, परंतु निष्फल चेष्टाओं के बाद लपलपाती हुई आग की लपटों से अपने आप को बचाने के लिए जब तक वह बड़ी कठिनाई से एक सीढ़ी पर चढ़ के बाहर निकला तब तक उसने अपने आप को प्रायः संज्ञाहीन पाया था। दूर से क्रमशः निकट आती हुई दमकल गाड़ियों के सायरन की आवाजें वह अन्यमनस्क भाव से सुन पा रहा था। ‘फ़ायर होज’ से बरसते पानी का धुंधला-सा अहसास भी उसे हो रहा था, परंतु खुद अपने विषय में वह कुछ भी सोच नहीं सकता था। अग्निकांड पर काबू पाते पाते लगभग एक घंटा बीत गया, किंतु उसे ध्यान ही नहीं रहा कि वह समय कैसे बीता। वह कुछ भी सोचने या करने की मनःस्थिति में नहीं था, परंतु अचानक अपने हाथों में हथकड़ी पड़ते देखकर वह एकदम चौंक उठा था। संयोगपूर्ण मानव हत्या के अभियोग में उसे गिरफ्तार किया गया था। इस अग्निकाण्ड में दस जापानी कारीगर, जो इंजिन रूम में उस समय काम कर रहे थे, मृत्यु के शिकार हो गए हैं। इस बात को सुनकर ही उसके पैरों तले की ज़मीन खिसक गई, वह बेसुध हो गया था। भला उसे कैसे विश्वास हो सकता था कि इस अप्रत्याशित अग्निकांड की वजह से दस मनुष्यों के प्राण गए होंगे? वह अपने दुर्भाग्य पर रोता रहा। जापानी पुलिस की तीखी जाँच-पड़ताल के समय भी वह केवल अपने भाग्य को ही कोसता रहा था। उसकी अंतरात्मा भी उसे प्रताड़ित कर रही थी।

यह सब कुछ छह महीने पहले हुआ था।

जापान के सासेबो बंदरगाह पर भारतीय जहाज ‘बलजक’ में हुए इस भयंकर अग्निकांड का पहला मुकदमा सासेबो की अदालत में ही हुआ था। कमलनाथ अपने अधीनस्थ कर्मचारी सुरेश के साथ अभियुक्त के रूप में पेश हुआ था। घर से इतनी दूर विदेश की एक अदालत में उसके भाग्य का फैसला होने वाला था! इससे पूर्व उसने अदालत का दृश्य केवल हिंदी फिल्मों में ही देखा था। उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि वह जीवन में कभी असली अदालत देखेगा—और वह भी खुद अभियुक्त की कुर्सी पर बैठकर। अदालत में तीन न्यायाधीशों के, जिनमें से मध्य में बैठने वाले बुजुर्गं मुख्य न्यायाधीश थे, बायीं ओर दो वकील, दाईं ओर दो सरकारी वकील बैठे थे और ठीक न्यायाधीशों के सामने उसके और सुरेश के बैठने का प्रबंध था। दोनों अभियुक्तों के पीछे दर्शकों तथा संवाददाताओं की कुर्सियाँ थीं। न्यायाधीशों का काला गाउन बिल्कुल वैसा ही था जैसा उसने प्रायः फिल्मों में देखा था, परंतु वैसी ज़ोर-शोर वाली बहसें नहीं थीं। फिल्मों में तो प्रभावशाली भाषण कला तथा नाटकीय शैली की आवश्यकता होती है, पर यहाँ अदालत की संपूर्ण कार्यवाही अत्यंत शांति से चलती रही— यह फिल्मी दुनिया जो नहीं थी। उल्लेखनीय बात केवल यह थी कि चूंकि कमलनाथ और सुरेश दोनों को जापानी भाषा नहीं आती थी, इसलिए दोनों अभियुक्तों के लिए एक दुभाषिए को रखा गया था जो उनके पास बैठकर जापानी से हिंदी में तथा हिंदी से जापानी में अनुवाद करता जाता था।

जापान के क्यूशू द्वीप के पश्चिमी तट पर स्थित सासेबो नगर जलपोत उद्योग का एक मुख्य केंद्र है। अतः यहाँ बहुत सारे विदेशी जहाज भी आते रहते हैं, इसलिए सासेबो की अदालत के मुकदमों में विदेशी अभियोगी-अभियुक्तों का होना कोई असाधारण-सी बात नहीं। वस्तुतः अंग्रेज़ी के दुभाषिए तो यहाँ कई बार नियुक्त हो चुके थे परंतु इस अदालत के इतिहास में किन्हीं भारतीयों को लेकर मुकदमा होना पहली घटना थी, विशेषकर हिंदी के लिए दुभाषिए की नियुक्ति अपने आप में एक उल्लेखनीय घटना सिद्ध हो रही थी। इस भाषा-समस्या के कारण अदालत की कार्यवाही में दुगुना समय लग रहा था और कमलनाथ जानता था कि अदालत गया था। बैठे अधिकांश दर्शकों को इससे बोरियत भी हो रही थी। पर उस समय उसका ध्यान इस ओर नहीं गया था।

अदालत में कमलनाथ और सुरेश पर आरोप लगाते हुए पूरी दुर्घटना का विवरण प्रस्तुत करके सरकारी वकील ने कहा था कि भारतीय समुद्री जहाज ‘बलज़क’ (45,000 टन) ने विशाखापट्टनम बंदरगाह से रवाना होने के बाद सिंगापुर, हांगकांग होते हुए जापान की विशालतम बंदरगाह योकोहामा को अपना गंतव्य बनाया था, परंतु यात्रा के दौरान ही यह योजना बनाई गई कि योकोहामा पहुँचने से पूर्व सासेबो बंदरगाह पर जहाज की मशीनों की मरम्मत और रंग-रोगन का लेप आदि करा लिया जाए, इससे जहाज-कर्मचारियों को विश्राम भी मिल जायेगा। जहाज संबंधी सारा काम सासेबो की ही एक जानी-मानी जापानी कंपनी को सौंप दिया गया, लेकिन जहाज की पुरानी मशीनों, जो खराब हो चुकी थीं, को हटाने का काम खुद ‘बलजक’ के कर्मचारियों को करना था। अतः जहाज के चीफ़ इंजीनियर वसंत मेहता ने इंजिन रूम में लगे पुराने जनरल सर्विस पंप को निकालने का आदेश थर्ड इंजीनियर कमलनाथ और असिस्टेंट पंप मैन सुरेश को दिया था। इस मशीन को फर्म के साथ जोड़ने वाले छह बोल्ट-नट थे जिन्हें सामान्यतः स्पैनर से ढीला करके मशीन को हटाया जा सकता था परंतु ‘बलज़क’ की यह मशीन बहुत पुरानी होने के कारण उन बोल्ट-नटों में जंग लगा हुआ था।

पहला और दूसरा बोल्ट-नट तो मुश्किल से खुल गए किंतु तीसरा बोल्ट-नट इतना सख्त हो चुका था कि अनेक कोशिशों पर भी नहीं खुल पा रहा था। शेष तीनों बोल्ट-नटों का भी यही हाल था। मशीन को उसी दिन हटाने का कड़ा आदेश चीफ़ इंजीनियर ने दिया हुआ था परंतु स्पैनर से बोल्ट-नटों के न खुलने से समस्या उत्पन्न हो रही थी। तब कमलनाथ ने सुरेश से कोई समाधान ढूँढने को कहा। सुरेश का सुझाव था कि गैसकटर से पिघलाकर बोल्ट-नटों को खोला जाये, परंतु न तो कमलनाथ और न ही सुरेश के पास गैसकटर था। सुरेश ने बताया कि उसने जहाज पर जापानी कर्मचारियों को गैसकटर का प्रयोग करते देखा था इसलिए वह उनसे उसे उधार ले सकेगा। हालाँकि कमलनाथ को मालूम नहीं था कि सुरेश को गैसकटर का प्रयोग करना आता है या नहीं, उसे सुरेश का सुझाव तर्क सम्मत लगा। अतः उसने अपनी सहमति दे दी। सुरेश जापानी कंपनी के कर्मचारियों से संकेतात्मक भाषा का सहारा लेकर दो गैसकटर ले आया और बोल्ट-नटों को पिघलाकर खोलने का काम वे दोनों ही करने लगे। तीसरा बोल्ट-नट जल्दी ही खुल गया लेकिन चौथे वाला इतना सख्त था कि गैसकटर के प्रयोग के बावजूद पिघलता ही नहीं था। दोनों ही गैसकटर की लौ को बहुत तेज़ करने लगे जिसके फलस्वरूप बिल्कुल लाल-लाल ज्वलंत लोहे के टुकड़े जनरल सर्विस पंप के नीचे वाले फ़र्श पर एक के बाद करके गिरने लगे।

उस फ़र्श पर कई दिन से इंजिन रूम में हो रही मरम्मत की वजह से बहुत अधिक मात्रा में बिल्ज (गंदा तेल) फैला हुआ था और वह ज्वलनशील था। अभियुक्तों द्वारा गैसकटर के प्रयोग के लगभग पंद्रह मिनट बाद वही ज्वलनशील बिल्ज धीरे-धीरे गर्म होकर प्रज्वलन ताप तक पहुँच गया। तब एक भयंकर विस्फोट के साथ पूरे इंजिन रूम में आग लग गई। उस समय इंजिन रूम के दूसरी ओर बारह जापानी कर्मचारी काम कर रहे थे। उनमें से दो तो मुश्किल से भागकर बाहर निकलकर बच गए। शेष दस आदमी बाहर निकलने का रास्ता न पाकर विषाक्त कार्बन मोनोक्साइड के कारण मर गए। इसलिए दोनों अभियुक्तों का कर्तव्य था कि गैसकटर का प्रयोग करने के पहले जनरल सर्विस पंप के नीचे के बिल्ज को जाँच कर लेते। ऐसा नहीं किया गया अतः इस पूरी दुर्घटना के लिए अभियुक्त ही जिम्मेदार है। मृत्यु के शिकार बने सभी जापानी कर्मचारी तीस-चालीस वर्ष की आयु के थे और वे सब अपने अपने परिवार की रोजी-रोटी के मुख्य आधार थे। उन परिवारों के अपार दु:ख तथा जीवन की भावी चिंताओं को देखते हुए अभियुक्तों का अपराध छोटा नहीं है— यद्यपि यह अपराध जानबूझकर नहीं किया गया था। अतः दोनों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए। सरकारी वकील के इस बयान को सुनकर कमलनाथ पर वज्रपात सा हो गया था। उसकी गलती से ही दस व्यक्तियों की मृत्यु! उसे मालूम न था इंजिन रूम में आग लगने से पूर्व बारह जापानी कर्मचारी काम कर रहे थे। उसने अपने दुर्भाग्य को बार-बार कोसा था।

वैसे, उसके भाग्य में दु:ख ही अधिक लिखा हुआ था। कलकत्ते के एक मध्यवर्गीय बंगाली परिवार की वह इकलौती संतान था परंतु पाँच वर्ष की आयु तक पहुँचते पहुँचते अचानक उसके पिता का देहांत हो गया था। विधवा माँ को पुत्र के भरण-पोषण में अनेक कष्ट झेलने पड़े। कलकत्ते जैसे महानगर में भी एक मध्यवर्गीय असहाय स्त्री के लिए नौकरी मिलना बहुत कठिन था। अल्प वेतन वाली छोटी-सी नौकरी मुश्किल से पाने के बाद माँ ने जी-तोड़ मेहनत की थी। वैसे भी माँ शरीर से स्वस्थ नहीं थी, इसलिए इस अतिरिक्त कठोर परिश्रम के कारण वह प्रायः बीमार हो जाती थी। फिर भी उसकी प्रबल इच्छा थी कि कमलनाथ यूनिवर्सिटी पास करे। किंतु माँ की दिन-प्रतिदिन बढ़ती कठिनाइयों को कमलनाथ देख न सकता था। वह जल्दी ही खुद कमाकर माँ की परेशानियाँ दूर करना चाहता था। बचपन से ही उसे मशीनों में रुचि थी, इस लिए वह इंजीनियर बनना चाहता था। परंतु जीवन की इन कठोर वास्तविकताओं ने उसकी इच्छा को पूरा न होने दिया। उसने मैरिन इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश ले लिया नाविक बनने के इरादे से।

पर माँ के विरोध को देख वह दुविधा में पड़ गया था। माँ को छोड़कर दूर विदेशों में जाने का विचार अगर एक ओर उसे कष्ट पहुँचा रहा था तो दूसरी ओर उसके कौतुहल को बढ़ावा भी देता था। दुनिया देखने की इच्छा किसे नहीं होती? परंतु उसके लिए नाविक बनने के लिए सबसे बड़ा प्रेरक कारण तनख्वाह के अतिरिक्त अच्छा भत्ता मिलने की बात भी थी। माँ के सुख-आराम के लिए चिंतित कमलनाथ के लिए यह बड़ा आकर्षण था। मशीनों के प्रति आकर्षण और इंजीनियर न बन पाने की अधूरी साध ने भी उसे नाविक बनने के लिए प्रेरित किया था। अतः तीन साल मैरिन इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने के बाद जब नाविक बनकर पहली बार सागर-यात्रा पर निकला था तो माँ फूट-फूटकर रोई थी। बड़ी मुश्किल से उसने माँ को समझाया था कि वह हर साल दो बार छुट्टी लेकर कलकत्ता वापस आया करेगा और हर महीने तनख्वाह भेजा करेगा। फ़िफ़्थ (पंचम) इंजीनियर के पद से शुरू करके उसने थर्ड (तृतीय) इंजीनियर के पद पर उन्नति कर ली थी। काम अच्छी तरह सीख लिया था। जहाज की दुनिया बिल्कुल भारत का लघु रूप था – भिन्न-भिन्न प्रांतों की भाषा प्रायः सुनने का अवसर मिलता था लेकिन वह हिंदी या बंगला में बात करता था, पर अपने उच्च अधिकारियों के साथ अंग्रेज़ी में ही बोलता क्योंकि मशीन संबंधी पारिभाषिक शब्द अंग्रेज़ी में ही थे। उसे अपने उज्ज्वल भविष्य का विश्वास हो चला था। चीफ़ इंजीनियर बनने की उम्मीद होने लगी थी। माँ को हर सप्ताह पत्र लिखता था। माँ अपने एकाकीपन को सहन करते करते उसके कल्याण की कामना करती थी, पर उस दुर्घटना के बाद उसने माँ को कोई पत्र नहीं लिखा। किस तरह लिखता? क्या लिख सकता था?

उसी वक़्त बचाव पक्ष के वकील की आवाज़ ने उसके ध्यान को पुनः अदालत में खींच लिया था। जापानी वकील ने कहा था कि बोल्ट-नट खोलने के लिए गैसकटर का प्रयोग करने से पहले दोनों अभियुक्तों ने नीचे फ़र्श पर टार्च से देखा था कि बिल्ज नहीं था। यह बात कमलनाथ बार-बार कहता आया है, इसलिए उसकी बात पर विश्वास करना चाहिए। अगर फ़र्श पर कुछ बिल्ज फैला हुआ भी हो तो उस पर चिंगारी या ज्वलंत लोहे के टुकड़े गिरने पर हर समय आग लग जाय–यह कोई आवश्यक नहीं है यानि उसमें कारण और कार्य का कोई अवश्यंभावी संबंध प्रमाणित नहीं होता। जब आग लग गई थी तो कमलनाथ ने फ़ायर होज़ से उसे बुझाने की कोशिश की थी परंतु फ़ायर प्लग में पानी बिल्कुल नहीं आ रहा था। घबराहट के मारे उसने फ़ायर एक्सटिंग्युशर भी गिरा दिया था पर यह तो आग लगने की आरंभिक स्थिति में ही काम आ सकता है।

दुर्भाग्य यहीं तक सीमित नहीं था। आग लगते ही बिजली बंद हो गई। इस अँधेरे ने इंजिन रूम में काम कर रहे लोगों में हड़बड़ी मचा दी। इससे भी बड़ी त्रासदी यह थी कि पोर्ट-साईड (जहाज की बायीं ओर) की सीढ़ी किसी कारणवश उतरवा दी गई थी, जिसकी वजह से उन दस जापानी कर्मचारियों के बाहर निकलने का रास्ता ही बंद हो गया। ये सारे दुष्परिणाम अभियुक्तों के लिए कल्पनातीत थे। निश्चय ही इन सबके लिए जापानी कंपनी ही पूरी तरह से दोषी है। अगर बिजली बंद न होती तो कर्मचारी बच सकते थे। फ़ायर प्लग में पानी होता तो अभियुक्त खुद उसे बुझा सकते थे। और तो और, यों भी जहाज पर इतने लोग काम कर रहे थे, जापानी कंपनी का कर्तव्य था कि वहाँ एक पहरेदार को नियुक्त किया जाता, ताकि किसी भी प्रकार की सम्भावित दुर्घटना की उचित चेतावनी दी जा सकती। जलपोत उद्योग के क्षेत्र में ऐसी जानी-मानी कंपनी ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की थी यह बहुत आश्चर्य की बात है। अदालत में बैठे दोनों अभियुक्तों की जापानी कंपनी की कार्य कुशलता का पूरा विश्वास था परंतु आग लगने की वह दुर्घटना बिल्कुल अप्रत्याशित थी, इसलिए दोनों अभियुक्तों को इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

बचाव पक्ष के वकील की इन तर्कपूर्ण एवं प्रभावशाली दलीलों को सुनकर कमलनाथ का मन उनके लिए कृतज्ञता से भर गया था। उसे अपने आप को निरपराधी सिद्ध किए जाने का भरोसा हो चला था, परंतु सरकारी वकील ने इस बार अपनी दलीलों में तर्क के साथ भावना को भी मिला दिया था। उनका कहना था कि दुर्घटना के छह महीने बाद भी वे दोनों उन परिवारों के यहाँ क्षमा माँगने नहीं गए जिनके प्रियजन अग्निकांड में मरे थे। इससे यह पता चलता है कि अभियुक्तों को अपने अपराध का लेशमात्र भी खेद नहीं है। अतः सजा और भी सख्त मिलनी चाहिए।

कमलनाथ को सरकारी वकील का यह तर्क समझ नहीं आ रहा था। उसकी राय में क्षमा माँगने का मतलब था अपना अपराध स्वीकार करना और अपराध को स्वीकार करने का मतलब उसके लिए कड़ी सजा भोगने के लिए तैयार होना था। मनुष्यता के नाते उसे शोक संतप्त परिवारों से अपार सहानुभूति थी, परंतु उनके घर जाकर क्षमा माँगने की बात वह नहीं समझ पाया था। साक्षी के तौर पर अदालत में उपस्थित हुए ‘बलजक’ के कैप्टन तथा चीफ़ इंजीनियर ने भी अपना दोष स्वीकार नहीं किया। कैप्टन ने कहा था कि इंजिन रूम में जितने भी काम हो रहे थे उनका इंचार्ज तो चीफ़ इंजीनियर ही था। मुख्य न्यायाधीश ने इस पर असंतोष प्रकट किया था और बार-बार कैप्टन से पूछा था कि फिर भी जहाज के कैप्टन की हैसियत से आप पूरी तरह से दुर्घटना की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते न? कम से कम नैतिक उत्तरदायित्व तो आपका है न? परंतु कैप्टन ने अंत तक अपनी जिम्मेदारी नहीं मानी, संभवतः वह ‘नैतिक जिम्मेदारी’ का मतलब ही न समझा हो। चीफ़ इंजीनियर ने भी कहा था कि जब काम थर्ड इंजीनियर को सौंप दिया गया था तो उसे पूरा करना उसकी ही जिम्मेदारी थी।

इस तरह दोनों ही उच्च अधिकारी अपने आप को निर्दोष ही सिद्ध करते रहे। बचाव पक्ष के वकील ने बाद में कमलनाथ को समझाया था कि न्यायाधीश चाहते थे कि यदि कैप्टन और चीफ़ इंजीनियर अपने-अपने ‘नैतिक उत्तरदायित्य’ को स्वीकार कर लेते तो कमलनाथ और सुरेश के दंड की मात्रा में कटौती हो सकती थी। परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ था। जापानी न्याय व्यवस्था में अपना दोष मान लेने से कुछ दया भी मिल सकती थी पर कमलनाथ के लिए दोष मानने का मतलब कड़ी सजा को भी मानना था। इसलिए कमलनाथ ने अपने बयान में कहा था कि उसने जो कुछ भी किया वह चीफ़ इंजीनियर के आदेश का पालन मात्र था। सुरेश ने भी यही कहा था कि उसने थर्ड इंजीनियर की आज्ञा से ही वैसा किया था।

मुकदमे के अंत में सरकारी वकील ने अदालत से कमलनाथ के लिए तीन साल और सुरेश के लिए दो साल की क़ैद की सजा माँगी थी। सरकारी वकील की माँग को सुनकर कमलनाथ को चक्कर-सा आ गया था। उसे अपने पैरों तले की ज़मीन खिसकती-सी जान पड़ी थी। उसे तुरंत अपनी बूढ़ी माँ की याद आयी थी। इस खबर को सुनकर तो शायद वह जी नहीं सकेगी, आत्महत्या ही कर लेगी। मुख्य न्यायाधीश ने निर्णय देते हुए कमलनाथ को दो साल (पर दो साल के लिए निलंबित), और सुरेश को डेढ़ साल (पर डेढ़ साल के लिए निलंबित) की श्रम-रहित क़ैद की सजा दी थी। इससे पूर्व कमलनाथ और सुरेश, वकील के सुझाव पर, उन शोक संतप्त परिवारों के सम्मुख सिर झुकाकर क्षमा माँगने भी गए थे। शायद न्यायाधीश महोदय के निर्णय पर इसका कुछ अच्छा प्रभाव ही पड़ा था। अदालत ने उन्हें निर्दोष नहीं कहा था, पर जापानी कंपनी की गलती को भी मानकर उनकी सजा माफ़ कर दी थी।

‘बलज़क’ के मालिकों ने अपनी ओर से केवल इतना ही किया था कि उन दोनों के लिए वकीलों को नियुक्त किया और अपने बीमे की राशि में से अग्निकांड के शिकार बने प्रत्येक परिवार के लिए एक करोड़ येन क्षतिपूर्ति के रूप में दान दिये थे। बस इतना करके ‘बलजक’ अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया था। कमलनाथ और सुरेश को सासेबो में ही छोड़ दिया गया था। वकील साहब तथा दयालु दुभाषिए की ओर से मिलने वाला ढाँढ़स तथा आश्वासन ही दोनों के लिए मन का एकमात्र सहारा था।

कमलनाथ आज घर वापस लौट रहा था, पर अब वह नाविक नहीं था। बंदरगाह पर रुके जहाज में चढ़ने और अपनी-अपनी निर्धारित सीट पर बैठने में अभी कुछ समय की देर थी। कुछ औपचारिकताओं का निर्वाह अभी शेष था। यात्रियों और जहाज कर्मचारियों की चहल-पहल के बीच गुम-सुम खड़ा कमलनाथ अपने आप को बिल्कुल अकेला अनुभव कर रहा था। भीड़ में भी अकेला। वह घर जा रहा था, पर क्या यह जाना पहले सा ही था?

-तोमिओ मिज़ोकामि

(ज्वालामुखी पत्रिका, 1985, अंक 5 से साभार)

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