दर्पणों की गली

– वरुण कुमार

“यह रात जैसे दर्पणों की गली हो और तुम एक अकेली चांदनी बनकर निकली हो…”

छत की रेलिंग पर भिंचे अपने हाथ की उंगलियों को देखता हूँ। दाएँ हाथ की अनामिका उंगली। रिंग फिंगर, जो खाली है। और एक अंगूठी भी अनपहनी बक्से में रखी है। मैंने तो उम्मीद में बात फाइनल होने से पहले खरीद भी लिया था। अंगूठी की रस्म के दिन उसे पहनाने की सोचकर।

अनामिका –  उस रात के गुजरते क्षण उसकी रोशनी से आभासित थे। 

अस्वीकृति का दंश क्या होता है यह वही जानता है जिसने इसे झेला है।

मैं मान नहीं पाता कि बिना जाने, बिना समझे अपनी तरफ से उसपर अनुरक्त हो जाना मेरी कमजोरी थी। आखिर स्त्री-सौंदर्य पर मोहित होने की विशेषता और उसे जीवन में पाने की आकांक्षा किस पुरुष में नहीं होती? और मैं तो चित्रकार हूँ। बाहरी रूपाकार का सौंदर्य भी मेरे समक्ष रंगों और रेखाओं से निर्मित किसी कलाकृति जैसी उच्चता और उदात्तता रखता है। एक चित्रकार आत्मा की छाप भी तो चेहरे पर ही दिखा पाता है।  

अनामिका –  इस रात के हर गुजरते क्षण पर उसकी छाया पड़ रही है।

खाली आकाश में अंगूठी के नग-जैसे गिने-चुने सितारे चमक रहे हैं। दिल्ली के आकाश में सितारे भी ज्यादा कहाँ दिखते हैं। नीचे जलते बल्बों की रोशनी आकाश को धुंधला कर देती है।   

दिल्ली बहुत-कुछ को धुंधला कर देती है। घटनाओं की कड़ी को भी। आप सोचते रहते हैं कि इसके बाद यह होगा। मगर आप इंतजार करते रह जाते हैं। अंत में होता भी है तो कुछ और। अगर वह दिल्ली न आई होती तो वह न होता जो हुआ।

वह इलाहाबाद की थी और हाल ही में जॉब करने दिल्ली आई थी। अपने मामा के पास रह रही थी। मेरे माँ-पिताजी ने कहा था कि मैं दिल्ली में ही होने के कारण लड़की पहले देख लूँ। अगर मुझे जँच गया तो वे भी आकर देख लेंगे। उन्हें सुदूर बिहार के गाँव से दिल्ली आने में कठिनाई थी। उन्होंने फोटो, कुंडली वगैरह देख ली थी। 

वैसे हम सब किसी घरेलू लड़की की तलाश में थे लेकिन दिल्ली की ‘हाइ फाइ कल्चर’ से बाहर की होने और फोटो में काफी सुंदर दिखने के कारण मैं जॉब करनेवाली कन्या पर भी विचार करने को तैयार हो गया था।

दिल्ली में अपने कुछ दोस्तों और एक दूर के रिश्तेदार के साथ लड़की देखनी थी।

अनामिका –  यही उसका नाम था। मेरे हाथ की अनामिका में उसी की अंगूठी की आशा थी।

नीचे दिल्ली की सड़क पर रात में भी गाड़ियों की भीड़ है। जाने सब कहाँ, किस खातिर जा रहे हैं। ऊँचाई से मैं इन्हें ऐसे देखता हूँ मानो कोई ईश्वर बहुत ऊपर से मानवों की बनाई अर्थहीन दुनिया को देख रहा हो।

लेकिन उस दिन मैंने उसे देखा था बिल्कुल आदमी की तरह – जुड़कर, बिल्कुल निकट से। हैरान रह गया था। इतनी सुंदर! जैसे बार्बी गुड़िया! नहीं उस-सी बेजान नहीं बल्कि जीवंत और यौवन की ऊर्जा से छलछलाती। लम्बी, गोरी, छरहरी, नुकीली नाक; चिकने, गुलाबी आभा लिए न ज्यादा उभरे, न ज्यादा धँसे गाल; बेहद काली कोरोंवाली कटीली ऑंखें! (शायद बड़ी सफाई से काजल लगाया था) उसके चेहरे की रेखाकृतियाँ मेरे मन के कैनवस पर खिंच गई थीं। चाय का ट्रे लेकर आते समय एक सधी मोहक चाल, खड़ी होने की एक सीधी, गर्वीली मुद्रा, लम्बी काया में साड़ी की गरिमापूर्ण लिपटन। हर मुद्रा में बेहद आकर्षक। ट्रे रखने झुकी तो बगल से खुली गोरी तनी सुतवाँ कमर का हलका-सा खम! मेरा मन कैसा तो हो गया। कोई सपना सामने उतर आया था। जैसे कोई राजसी कन्या मुझ गरीब के सामने सौजन्यवश ही चली आई हो। मेरा चित्रकार मन अबतक कल्पना में ही ऐसे किसी रूप की रचना कर रहा था। आर्ट की ह्यूमन फॉर्म की कक्षा में देखी न्यूड मॉडलों की आकृतियों पर उस वक्त बड़ी वितृष्णा हुई, कहाँ वे कहाँ ये!

मित्रगण भी निशब्द थे। वे कभी उसे देखते कभी मुझे। इसकी किस्मत में ये परी!

अनामिका –  यानी जिसका कोई नाम नहीं। किसी सुंदरी की अनाम जातिवाचक संज्ञा! एक बार लगा कहीं उसका असली नाम छिपाने का कोई शिष्ट तरीका तो नहीं?

हमें थोड़ा एकांत दिया गया, आपस में बात करने के लिए। मेरी एक ही शंका, बल्कि डर था – जॉब करनेवाली इतनी सुंदर, अभिजात कॉन्फिडेंट कन्या घर गृहस्थी के सीमित रोल को स्वीकार करेगी? मैंने बस कामचलाऊ चीजें ही पूछीं – खाना बनाना आता है? क्या-क्या पकाती हैं, शादी के बाद भी नौकरी करेगी? अगर परिवार और बच्चों की खातिर नौकरी और गृहस्थी में एक को चुनना पड़ा तो? वह ज्यादातर चुप ही रही लेकिन इतना सा जतला दिया था कि जॉब करते रहना चाहेगी, और शादी के बाद भी अपने माँ-पिताजी से जुड़े रहना चाहेगी। इसे मैंने ज्यादा महत्व नहीं दिया; शादी के पहले हर लड़की ऐसा ही सोचती है। उसकी बेपनाह सुंदरता, संकोचहीनता और कॉल सेंटर के जॉब को देखते हुए यह उत्सुकता बार-बार परेशान कर रही थी कि कोई ब्वायफ्रेंड है कि नहीं, जो, जाहिर है, उस वक्त पूछने लायक सवाल नहीं था। यह भी बार-बार लग रहा था कि ऐसी लड़की कॉल सेंटर में क्या कर रही है, इसे तो किसी और अच्छे जॉब में होना चाहिए था! पर मैं उसपर अभिभूत था।

उसके लोगों रिश्तेदारों ने भी मुझसे कई बातें पूछीं। मेरे चित्रकार के कैरियर से संबंधित सवाल। मेरे पेंटिंग्स की प्रदर्शनियाँ फ्रेंच, रशियन कई दूतावासों में लग चुकी थीं। मैं दिल्ली में एक कॉलेज में आर्ट लेक्चरर के रूप में अस्थायी रूप से पढ़ा रहा था। उन्हें जानकर काफी खुशी हुई कि मैंने गाजियाबाद में अपना एक फ्लैट भी बुक कर रखा है। सबकुछ से उन्होंने मुझे अच्छा ही पाया। मेरी सादगी और सरलता उन्हें विषेश रूप से पसंद आई थी। ‘लड़का सीधा और अच्छा है’ की एक फुसफुसाहट मुझतक पहुँची थी।

लेकिन लड़की के चेहरे पर मुझे विशेष खुशी नहीं दिखी थी। शायद संकोच और फिर विवाह की बात लड़कियों के मन में जो चिंता और तनाव पैदा करते हैं उसकी वजह से ऐसा हुआ होगा।

थोड़े दिनों बाद ही लड़की के मामा मुझसे मिलने आए और काफी तरह की बातें की। आशाजनक संकेत ही मिला। मुझे फिर उनकी तरफ से मिलने का बुलावा आया। दुबारा क्यों? मुझे दुबारा जाना अच्छा नहीं लगा। मैं एक कमरे में अकेला रहता था, उसी में मेरा स्टूडियो था। वहाँ उनका मिलने आना संभव नहीं था। सो मैंने ऑफर दिया कि इस बार मैं लड़की से अकेले में किसी और जगह मिलना चाहूंगा।

वे तैयार हो गए।

कनॉट प्लेस में बरिस्ता के कैफे में मैं उसके सामने था। हमने साथ काफी, स्नैक्स आदि में आधा घंटा से अधिक समय बिताया। लेकिन अपरिचय और एक लड़की के साथ अकेले में संकोच के कारण मैं कुछ बोल नहीं पा रहा था। उसको निहारते हुए यह सूझता नहीं था कि क्या बोलूँ। खुद को इतना बेवकूफ पहले कभी नहीं पाया था। वह भी ज्यादातर चुप ही रही। शायद उसके मन में संघर्ष चल रहा था। उसने स्पष्ट किया कि वह जॉब नहीं छोड़ सकती और माता-पिता को भी देखती रहेगी। कोमल सुमधुर आवाज में कही गई इस बात में चिंतित करनेवाली दृढ़ता थी। संदेह हुआ कि शादी के बाद मेरे प्यार में घर के दायरे में बंधना मानेगी भी कि नहीं।

पर उसके रूप के झोंके में ये अन्यथा बड़ी चिंताएँ तिनके की तरह उड़ी जा रही थीं। मेरी तरफ से सदैव हाँ थी। ऐसे सौंदर्य के सान्निध्य में जिंदगी कोई खुशनुमा ख्वाब होगी। उसे जी भरकर प्यार करूंगा। अपने प्यार से उसे झुका ही लूंगा। प्यार में बड़ी ताकत होती है। घर-गृहस्थी के दबे सपने मानों हड़बड़ाकर जाग उठे। कमरे में स्टोव के सामने उसकी फोटो रख ली थी। रोटियाँ बेलते, सब्जी बनाते, दूध उबालते, सलाद काटते सदैव उसे निहारता रहता। ख्वाब बुनता रहता कि ये काम वो कर रही है और मैं उसके पास खड़ा हूँ। पीछे से उसकी कमर घेरकर गर्दन पर चूम लेता हूँ। वह भी मुसकुराकर सिर घुमाकर मुझे चुम्बन दे देती है। वह सामने बैठकर मुझे खिला रही है, मैं उसे देखता अपनी सौंदर्य और अन्न की क्षुधा तृप्त कर रहा हूँ – अन्न की तृप्ति देनेवाली देवी अन्नपूर्णा! मैं उसे कभी कोई कष्ट नहीं दूंगा। रसोई में उसकी पूरी मदद करूंगा। बेचारी काम से थककर आएगी।

अनामिका… अनामिका… अनामिका…

मैं हर वक्त उसी को सोच रहा था, खुद को उसकी नजरों से देख रहा था। वह एक नामालूम-सा दर्द बनती जा रही थी। मुझे पता चला था कि उसका घर का पुकार का नाम संजू है। खुद का मजाक उड़ाते हुए मैंने उसकी तसवीर के नीचे लिख दिया था – “Sanju, my problem, my headache, my heartache” (संजू, मेरी मुश्किल, मेरे सिर का दर्द, मेरे दिल का दर्द)। मैं जल्दी शादी के लिए उत्सुक था।

मेरे माता-पिता देखने और बात फाइनल करने के लिए दिल्ली आना चाह रहे थे। लेकिन लड़कीवालों की तरफ से देर हो रही थी। एक बार कहा लड़की के चाचा देखने आएंगे, फिर मौसा के आने का भी जिक्र हुआ। मेरा एक दोस्त उनसे संपर्क में था। उसने बताया कि अब जाड़े का मौसम आ गया है और दिल्ली में बड़ी ठंड पड़ती है। दिसम्बर, जनवरी के बाद जाड़ा थोड़ा घटने पर आएंगे। देर होने के साथ मेरी चिंता बढ़ रही थी। दोस्त भी चिंतित थे।

मार्च का महीना आधा बीत गया, कोई संदेश नहीं आया। दोस्त और संबंधी कहने लगे भूल जाओ उसे। पिताजी ने लोगों से कह दिया कोई दूसरी लड़की देखो। पर उसे भूलना क्या इतना आसान था? भूलने की सलाह के अंत में जो ‘मगर’ आता था उसकी गूंज को क्या अनसुना किया जा सकता था?

मेरे उस दोस्त ने कोशिश करके इधर-उधर से आखिर पता कर ही लिया उधर क्या हो रहा था। उसने बताया, लड़कीवालों को मैं बहुत पसंद आया था लेकिन लड़की ना कर रही थी। बार-बार कह रही थी अभी शादी नहीं करूंगी, अभी कैरियर छोड़कर घर-गृहस्थी और बच्चे पैदा करने में नहीं फँसना चाहती। यह झूठ था, पच्चीस की उम्र कम नहीं होती और पता चला कि उसके द्वारा शादी के लिए हामी भरने के बाद ही लड़का देखना शुरू हुआ था। उसे बड़ी डाँट पड़ी थी। माँ-बाप ने कह दिया था अब हम तुम्हारे लिए कभी कोई लड़का नहीं ढूढेंगे। अपने से शादी कर लेना। दिल्ली की हवा लग गई है लड़की को। रिश्तेदारों ने भी काफी दबाव डाला। अंतत: उसने कह दिया कि लड़का पसंद नहीं है। संपर्क बनाते-बनाते अंतत: लड़की की कॉल सेंटर की सहकर्मी निशा से पता चला कि मैं उसे बहुत सीधा-सादा, पुराने चाल का और ‘बोर’ नजर आया था। वह कोई मॉडर्न, फैशनेबुल और ‘इंग्लिश स्पीकिंग’ व्यक्ति चाहती थी।

जिस चीज का हल्का-सा अंदेशा हो रहा था वही असल सच निकला। सचमुच इस लड़की को दिल्ली की हवा लग गई है। इसे कोई छैला, माडर्न, अंग्रेजी में फड़फड़ानेवाला आदमी चाहिए। आहत पुरुषत्व की प्रतिक्रिया में मैंने कैसी-कैसी बातें नहीं सोची।

किसी लड़की द्वारा अस्वीकृत किए जाने का क्या दंश होता है यह वही जानता है जिसने इसे झेला है।

पराजय की चोट मुझे चैन नहीं लेने दे रही थी ….. कुछ-न-कुछ करना होगा। पर क्या? दोस्त भी कुछ सलाह नहीं दे पा रहे थे। लड़की ही छाँट दे तो आप क्या कर सकते हैं! ऐसा नहीं था मुझे अंग्रेजी नहीं आती थी, मगर इसे बात-बात में छौंकते रहना मुझे छिछलापन लगता था। कक्षा में, दूतावासों की प्रदर्शनियों में मुझे अक्सर ही अंग्रेजी में बोलना-सुनना पड़ता था। लेकिन इस लड़की के लिए तो मेरी खूबी ही खामी बन गई थी!

कुछ न कुछ करना तो है जरूर। इसे यूँ नहीं जाने दूंगा। हारूंगा भी तो लड़कर। कम से कम अपने को दोष तो नहीं दूंगा कि निष्क्रिय पराजय स्वीकार कर ली।

एक मनस्थिति बन जाती है जब कोई भी कदम उठाना हिम्मत की नहीं, चयन की बात लगती है। मैं, जो उससे ठीक से बात तक नहीं कर पाया था, बरिस्ता में उसके साथ प्रथम एकांत में लड़खड़ाता रह गया था, उसके देदीप्यमान सौंदर्य के सामने छोटा महसूस करता रहा था, एक सुबह दिल कड़ा करके उसको सीधे फोन कर दिया। इसके पहले फोन का उपयोग सिर्फ बरिस्ता में मिलने का दिन और समय तय करने के लिए किया था।

ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ……. फोन बजता रहा और खतम हो गया। मैंने दुबारा कोशिश की। वही परिणाम। शायद बाथरूम में हो। आधे घंटे बाद फिर लगाया, व्यर्थ गया। दोपहर एक और कोशिश के बाद मैं समझ गया, फोन नहीं उठाएगी।

मैंने उसे एक एसएमएस किया, “Good morning, nice friend, can we have a cup of coffee together? इस बार मैंने मिलने के लिए बरिस्ता का नहीं The Park होटल का नाम दिया, जहाँ कुछ कलाकारों के साथ मेरी भी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी थी। यह एक थ्री स्टार रेटेड विलासितापूर्ण होटल था। वह हाइ सोसाइटी की हसरत रखनेवाली लड़की थी। सोचा इसका असर होगा।

कोई जवाब नहीं आया। प्रत्याशित ही था। मैंने प्रदर्शनी के दो आमंत्रण कार्ड अनामिका के नाम भेजे (उसमें कलाकारों की सूची में मेरा भी नाम था) और कॉल सेंटर में उसके साथ काम करनेवाली की सहकर्मिणी निशा से दोस्त के जरिए संपर्क किया। मैंने उससे बातचीत में जान- बूझकर थोड़े-थोड़े अंग्रेजी के छींटे मारते हुए रिक्वेस्ट किया कि एक बार संजू को कम से कम मुझसे मिलने के लिए प्रेरित करे। शादी के लिए ना तो हो ही गई है तो बस फ्रेंड के तौर पर एक बार मिलने में क्या हर्ज है। हम दो बार तो मिल ही चुके हैं एक बार और में कुछ हानि तो नहीं। उसने हमदर्दी से मेरी बात सुनी। मुझसे न सही, मेरी कोशिश से भी हमदर्दी मेरे लिए संजीवनी के समान थी। 

दूसरे दिन निशा का फोन आया। संजू को उसने मना लिया था।

अगले दिन मैं ‘द पार्क’ के एक्जीवीशन रूम में बेकरारी से इंतजार कर रहा था। डाइनिंग हॉल में तीन सीटें भी बुक करा रखी थीं। पता नहीं था कि अकेले आएगी या निशा के साथ। लग रहा था वह अकेले नहीं आएगी।

मैंने उसे एक्जीवीशन रूम के दरवाजे से बाहर कॉरीडोर में ही उसे देख लिया था। गरिमापूर्ण चाल में चलती एक लम्बी आकृति। साड़ी में आई थी। जब अंदर प्रविष्ट हुई तो हॉल की पीताभ दीवारों और टयूबलाइटों की मुलायम रोशनी में जैसे एक बार एकाकार हो गई। साथवाली लड़की निशा होगी। मैंने बड़े अदब से पिछले नमस्ते की जगह ‘हलो’ कहा। दोनों लड़कियों ने हलो कहकर जवाब दिया। मेरे साथी चित्रकार मुझे देखने लगे। मैंने उन्हें बताया नहीं था।

मैं कुछ देर तक उन्हें प्रदर्शनी में घुमाता रहा। तसवीरों में उसकी ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। उसकी अपेक्षा निशा अधिक रुचि ले रही थी। वह उससे ज्यादा मानवीय स्वभाव की लड़की लगी। मैं असमंजस में था। कब प्रदर्शनी से रेस्त्राँ में ले चलूँ। निशा भी साथ रहेगी तो बात कैसे होगी। मैं सबकुछ किस्मत पर छोड़कर जो सामने करने लायक दिख रहा था वही कर रहा था। आखिर में मेरे एक साथी चित्रकार ने विजिटर्स कमेंट्स वाला रजिस्टर उनके सामने बढ़ा दिया। उन्होंने कुछ लिखा। मैंने देखा संजू ने सामान्य प्रशंसा में लिखा था। निशा ने मेरे नाम का अलग से उल्लेख करके तारीफ की थी। मुझे हल्की-सी चोट लगी। यह थोड़ी कम मैनर्सवाली है। या हो सकता है, जान-बूझकर मेरी उपेक्षा कर रही हो।

लेकिन निशा ने काफी शिष्टता दिखायी। उसने अंत में बोलकर भी मेरे चित्रों की अच्छी तारीफ की। लगा वह सचमुच मेरे चित्रों से इम्प्रेस्ड हुई थी।

गैलरी दिखाना समाप्त हो गया था। अब? उन दोनों के चेहरों पर भी यही प्रश्न था। मैंने उन्हें रेस्त्राँ में चलने का ऑफर किया।

निशा ने घड़ी देखी। ”मुझे तो इस बार माफ कीजिए। बहुत जरूरी काम है। अगली बार…” कहकर वह संजू की ओर मुड़ी। संजू उसकी इस बात से चौंकी और वह भी साथ जाने को उद्यत हुई। मगर उसने उसको रोका, तुम रुको।”

संजू नाराज हो रही थी। शायद वह इसी वादे पर आई थी कि दोनों साथ रहेंगी। दोनों में कुछ फुसफुसाहट में बातें होने लगी। मैं थोड़ा सा हँट गया। कुछ क्षण में निशा की थोड़ी तेज आवाज सुनी, “’बात ही तो करनी है। पहले भी बात कर चुकी हो। फिर ऐसे घबराने की क्या बात है?”  फिर वह मेरी ओर मुड़ी, “सॉरी, मुझे सचमुच जरूरी काम है। अगली बार…”

उसने एक बार फिर मुझे कायल कर लिया। वह देवी थी। न केवल संजू को मेरे पास अकेले छोड़ रही थी बल्कि आगे की भी संभावना का संकेत कर रही थी। मैं मन ही मन उसका बेहद कृतज्ञ हुआ।

“ओके बाय”… उसने शिष्टता से मुस्कुराते हुए हाथ जोड़े।

“बाय… प्लीज स्टे विद् अस दि नेक्स्ट टाइम” मैंने प्रत्युत्तर में हाथ जोड़े। उसका संस्कारपूर्ण व्यवहार बहुत अच्छा लगा।

संजू के चेहरे पर नाराजगी स्पष्ट दिख रही थी। मैंने इसकी परवाह नहीं करते हुए उससे “आइये, प्लीज”  यथासंभव संयत स्वर में चलने का अनुरोध किया। वह कुछ क्षण ठिठकी रही। फिर धीमे से मेरे साथ कदम बढ़ा दिए। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया।

रेस्टोरेंट में मैंने एक कोने की सीट रिजर्व करा रखी थी।

दिल कड़ा रखने की कोशिश के बावजूद धक-धक कर रहा था। मैंने मेनू उठाया और देखकर उससे बिना पूछे दोनों के लिए आर्डर दे दिया। मैंने सोच लिया था कि आज हिचकिचाऊंगा नहीं। बाद में आर्डर के बारे में सिर्फ पूछ लिया, “इज इट ओके?” उसने सिर हिलाया। मुझपर गुजरती उसकी नजर एक क्षण के लिए रुकी। शायद मेरे अंग्रेजी प्रयोग को नोटिस कर रही थी।

ग्लास उठाकर पानी पीने का मन हुआ। खुद को रोका।

“कैसा चल रहा है आपका जॉब?”

“अच्छा।”

पहली बार निकली उसकी आवाज बीच-बीच से टूटी। लगा उसका गला सूख रहा है। मैंने ग्लास ऑफर किया।

नहीं ली।

एक क्षण के लिए सोचा उसे संजू कहूँ या अनामिका। अनामिका उसका औपचारिक नाम था।

“अनामिकाजी, वी आर जस्ट हियर ऐज फ्रेंड्स। पहले की कोई बात नहीं छेड़ूंगा! आज सिर्फ आज की बात!”

मैंने फिर ग्लास आगे बढ़ाया। इस बार उसने ग्लास ले लिया। दो घूँट लेकर रखते हुए बोली, ‘थैंक्स।’ बड़ी नजाकत से उसने होंठों से नैपकिन छुला-छुलाकर पानी सुखाया। एक बार फिर मन में कसक हुई कि यह सुंदर लड़की मेरी नहीं है, इसके बावजूद कि उस ‘थैंक्स’ और होंठ पोंछने के पीछे अंग्रेजी मैनर्स और सुंदरता का गर्व छिपा महसूस हुआ।

“यू आर लुकिंग एक्सट्रीमली ब्यूटिफुल (आप बहुत ही सुंदर लग रही हैं)।” सही समय लगा था कहने का। मुझे अपनी हिम्मत पर आश्चर्य हुआ। उसके चेहरे पर भी विस्मय का भाव उभरा, जो धीरे-धीरे क्षीण मुस्कान में बदल गया।

मेरा डर दूर हुआ। विश्वास बढ़ा। तो तारीफ पसंद करती है। स्त्रियों की खास कमजोरी।

“सच कह रहा हूँ! आज तीसरी बार मिल रहा हूँ! लेकिन इवन टुडे माय सरप्राइज इज नॉट गॉन! (आज भी मेरी हैरानी गई नहीं है)।” मैंने सीधे उसकी ऑंखों में देखते हुए कहा। वह एक क्षण के लिए ही नजर मिला सकी, फिर सिर झुका ली।

शर्माती हुई लड़की और सुंदर लगती है!

“थैंक्स” की हल्की सी आवाज सुनाई दी।

एक चित्रकार के लिए तो यह स्वप्न की चीज है।

एक लट उसके चेहरे पर झूल रही थी। उसने उसे हँटाया।

मैं और कुछ कहना चाह रहा था मगर देखा उसके चेहरे पर उलझन उभर रही थी। शायद अब प्रशंसा से परेशान हो रही थी। मैंने विषय बदला।

“आप पेरेंट्स की बहुत केयर करती हैं… ”

“हाँ….”

“बहुत लकी होंगे वे। टु हैव अ डॉटर लाइक यू… आज के जमाने में ये बड़ी बात है।”

“मैं उन्हें कभी नहीं छोड़ सकती।”

“सही है, बेटी भी पेरेन्ट्स का केयर क्यों न करे! बेटा ही क्यों।”

उसके चेहरे पर आश्चर्य उभरा, “इज इट?”

“ऑफ कोर्स। माँ-बाप भी कोई छोड़ने की चीज हैं?”

वह कुछ आश्चर्य से देखती रही। उसे यकीन नहीं हो रहा था। इसके पहले मैंने ऐसा कोई संकेत दिया नहीं था।

सूप के प्याले आ गए। मैंने एक प्याला उसकी ओर बढ़ाया। कक्ष भरा हुआ था। पास के टेबुल पर एक सुंदर जोड़ा बैठा था। हल्का-हल्का संगीत। मद्धम रोशनी। मैं उसे अच्छी जगह लाया था।

मैंने उसे बताया कि मैं शादी के बाद बेटी का माता-पिता को सम्हालना गलत नहीं समझता था। बस यह बात पहले नहीं सामने आई थी इसलिए यह व्यक्त नहीं कर सका। वह चकित-सी दिखी। मैं थोड़ा और बढ़कर बोला कि यदि लड़की शादी के बाद पति के परिवारवालों को सपोर्ट करती है तो पति को भी ऐसा करना चाहिए। सिर्फ morally नहीं, बल्कि पैसे से भी।

मैं उसे जीतने के लिए आगे की परवाह किए बिना बढ़ा जा रहा था।

मैंने उसकी हॉबीज पूछी। चित्रकला में रुचि नहीं है क्या? ‘कुछ खास नहीं’, उसने बताया। क्या पसंद है? दोस्तों से मिलना-जुलना, घूमना, अंग्रेजी मूवीज, फिल्मी गाने आदि। उसके शौक मुझसे अलग थे। पार्टी, हंगामा, ग्लैमर, चमक-दमक! मैं था अंतर्मुखी।

उसकी चुप्पियों के अंतराल अब छोटे हो रहे थे और थोड़ा-थोड़ा बोलने लगी थी। मुझे अपनी सफलता आश्वस्त और प्रसन्न कर रही थी। आखिरकार उसे मैं खोलने में सफल हो गया था। वह मेरे साथ अकेली बैठी खा रही थी, बात कर रही थी।

मेरी चित्रकारों वाली कैटलॉग में मेरे आर्ट कैरियर के बारे में लिखा गया था। कौन-कौन से अवार्ड मिले हैं, कहाँ-कहाँ प्रदर्शनियाँ आयोजित हुई हैं, आदि। मन हुआ कि पूछूँ कि आपने उन्हें पढ़ा कि नहीं। पर अपने से अपने को प्रोजेक्ट करना अच्छा नहीं लगा। पर चाह भी  रहा था कि वह मुझसे इम्प्रेस्ड हो।

मैंने उसके सामने कार्ड की ओर इशारा करके पूछा, इसमें मेरे साथी कलाकारों के बारे में कुछ तारीफ है। आपने देखा?

वह मेरा आशय समझ गई। मुस्कुरा पड़ी।

मुझे अपनी इस ‘ट्रिक’ पर खुशी हुई। मैं उसे चित्रकला संबंधी कुछ बेहद हल्की बातें बताने लगा। “ऐब्स्ट्रैक्ट आर्ट पर मुझे ज्यादा भरोसा नहीं, अबूझ, हवाई चीज। मुझे तो निश्चित ‘वेल डिफाइंड’ आकृतियाँ पसंद आती हैं।” (जानता था आम लोगों को ऐब्स्ट्रैक्ट आर्ट अच्छा नहीं लगता) उसने सिर भी हिलाया।

“और जब ऐसा प्रत्यक्ष ‘वेल डिफाइंड’ (सुपरिभाषित) सौंदर्य सामने हो तब तो ऐब्स्ट्रैक्ट आर्ट और मीनिंगलेस बात लगती है।” मैंने बड़ी हिम्मत करके कह दिया। ‘वेल डिफाइंड’ में छिपा इरॉटिक संकेत जरूर उसे स्ट्राइक किया होगा। मैं उत्कंठ होकर देखने लगा, कहीं बुरा न मान जाए। भगवान……

सीधी ‘चोट’ से वह शर्मा गई। जूस उठाकर दो घूँट ली। मुझे एक नजर देखी। आँखों में लाली थी।

मुझे पुरुष होने का एहसास और अफसोस दोनों ही हुए।  कहीं मैंने उसे आहत न कर दिया हो। मैंने भी दो घूँट लेकर तनाव के इस क्षण को जाने दिया।

मुझे कोई बड़ी और गहरी बात कहने की इच्छा हुई। जो इस नाजुक क्षण में उसके मन में अंदर उतर जाए। कुछ ऐसा कहूँ कि बड़ा और गहरा दिखूँ। और वह बात कुछ सौंदर्य से ही संबंधित हो। उसके सौंदर्य की तारीफ बिना उसको ‘ऑफेंड’ किए करते रहना चाहता था।

“पर वेल डिफाइंड सबकुछ होता कहाँ है। सौंदर्य भी नहीं। उसके अंदर इतना कुछ दबा-छिपा होता है कि…” मैंने वाक्य अधूरा छोड़ दिया। उसका चेहरा लाल होने लगा… मेरी बात में फिर एक इरॉटिक संकेत चला आया था।

“… कि जिन्दगी लगाकर उसकी परिभाषा ढूँढनी पड़ती है।” मैंने पूरा किया।

वह मुझे देख रही थी। उसके मुँह से कुछ शब्द निकला… फुसफुसाहट-सा… क्या मैं समझ नहीं पाया।

उसकी ऑंखों में पनीली-सी गहराई, नाक में कभी कभी चमक जानेवाली छोटी सी लौंग, कान के बगल से झूलती लट, कंधे पर करीने से पिन की गई साड़ी की परतें, अंदर का भराव, नेलपॉलिश लगी उंगलियाँ साड़ी के एक किनारे से खेलती हुईं… मन के एक फ्रेम में मैंने इस दृश्य को सुरक्षित कर लिया। कभी इसे पेंट करूंगा।

“आपको कभी-कभी ऐब्स्ट्रैक्ट पेंटिंग भी करनी चाहिए।” वह हँसी।

उसका यह शिष्ट परिहास मुझे बेहद पसंद आया।

“आप मुझमें दिलचस्पी ले रही हैं।” मैंने भी हँसते हुए जवाब दिया।

पकड़ी गई, पर चेहरे पर क्षण भर के लिए आए सिटपिटाहट के भाव को हँसी के पीछे छिपा गई। पॉलिश्ड लड़की है!

हॉल का गुनगुनाता शोर जैसे हमें एक मंद बहाव में बहाए जा रहा था। मेरी इच्छा हुई अब सूप और जूस से कुछ आगे जाना चाहिए। मैंने मेन्यू उठाते हुए पूछा, “एक ड्रिंक लेंगी?” बस आजमाने के लिए ही मैंने पूछ दिया।

उसने मुझे कुछ आश्चर्य से देखा। मेरे जैसा ‘सीधा सादा, बाबाजी टाइप’ आदमी, शराब?

“बस कभी कभी इम्बैसीज के एक्जिवीशंस (दूतावास की प्रदर्शनियों) में पीना पड़ जाता है, वे लोग मानते नहीं।” मैं मुस्कुराया।

“मैं नहीं पीती। आप पीजिए।”

“नहीं पीतीं?” मैंने आश्चर्य जाहिर किया। “आपके जॉब में तो यह एक्सेप्टेड बात होनी चाहिए?”

“क्यों? मुझे तो फोन पर ही बात करनी होती है। डायरेक्ट कॉन्टैक्ट तो नहीं होता।”

“लेकिन वहाँ का अंग्रेजी माहौल……….”

वह कुछ नहीं बोली। वैसे भी बोलने और मनाने का काम आज मेरा था।

“एक मॉडर्न हाई सोसाइटी में आपकी इस आदत को चलने नहीं देंगे।”

हाई सोसाइटी….! उसका चेहरा गंभीर हो गया। कॉल सेंटर में काम करनेवाली लड़की की हसरत।

“यू विल सूट देअर बेस्ट” (आप वहीं सबसे अच्छी लगेंगी)। जितनी चापलूसी संभव थी, सब कर लेना चाहता था।

मैंने जिद की, एक बियर तो लीजिए। शायद मुझमें अपनी बात मनवाने की मंशा अधिक थी। आहत पौरुष की प्रतिक्रिया! पर वह ना कर गई।

‘दो बियर!’ उससे आधा कहते, आधा पूछते मैंने बेयरे को आवाज दी।  

लेकिन जैसे जैसे मैं उससे उससे संवाद बनाने में सफल होता जा रहा था, मेरे अंदर कुछ खाली होता जा रहा था। लग रहा था कहीं कोई चीज दरक रही है। हालाँकि मैं अभी भी उसपर वैसा ही आकर्षित था लेकिन लग रहा था जैसे पौधा हरा-भरा होने के बावजूद नीचे कहीं जड़ हिल गई है।

कहीं पढ़ा था कि परिचय के साथ सौंदर्य का रहस्यमय प्रलोभन घटने लगता है। क्या मेरे साथ ऐसा ही हो रहा है?

बियर के सुनहले द्रव के घूँट लेती हुई वह मुझे कोई नई-सी ही लड़की मालूम हो रही थी। मुझपर बियर और जीत दोनों का नशा था। पर इस नशे के अंदर एक दुख भी कहीं अनचाहे सिर उठा रहा था। इसके बावजूद कि उसने मेरी बात मानी थी, निशा इसको मेरे पास छोड़ ही गई तो इसने मेरे साथ को सही से और उपयुक्त रूप से निभाया था, मन में इसके लिए कृतज्ञता भी थी। लेकिन…

उसने बेयरे को बिल चुकाने का ऑफर किया तो मेरा दिल धड़क उठा। कहीं यह अस्वीकृति का ही संकेत तो नहीं? मैंने ‘इट्स ए मैन्स प्रिविलेज (पुरुष का विशेषाधिकार)’ कहकर नकली ठहाका लगाया था।

मैंने जिद करके अपने मोबाइल से उसे वापस जाने के लिए टैक्सी बुक कर दी थी।  

इसके बाद की घटना बहुत छोटी है। बल्कि कहना चाहिए, कोई घटना नहीं है। न मोबाइल या किसी और माध्यम से उसका मेसेज आया, न मैंने ही कोई कॉल किया या मैसेज भेजा। न ही निशा को कुछ बताया। शायद वह इंतजार करती रही होगी। मुझे करना चाहिए था। कम से कम यही जानने के लिए करना चाहिए था कि वह इच्छुक है कि नहीं। लेकिन मैं चुप था। किसी अभिमानवश नहीं। मुझे अपनी चुप्पी अनुचित लग रही थी। फिर भी…

आज निशा का मेसेज आया है, कैसा रहा उस दिन? क्या कहूँ उसे! कुछ नहीं कहूंगा तो अशिष्टता होगी, कृतघ्नता भी। हो सकता है अनामिका ने ही पुछवाया हो। मैं तब से उसे ही सोच रहा हूँ।

अनामिका… मेरे अभिभूत मन के दर्पण में उसका सौंदर्य अभी भी प्रतिबिम्बित हो रहा है। जैसे झील के जल में झलमलाते चाँद की यह रात कभी समाप्त न होनेवाली हो।

वह प्रदर्शनी, वह रेस्त्राँ, वह टेबुल, सूप और जूस और शराब की चुस्कियाँ, और उसका क्षण-क्षण नया-सा लगता रूप… काश इस रूप के पीछे कुछ प्रीति का भी एहसास होता। कुछ भी ऐसा कहती जो मेरी आसक्ति को सहारा देता।

मेरे चित्रकार को लग रहा है कि तसवीर की रंग-रेखाएँ सब-कुछ सही अनुपात में रहने के बावजूद, बहुत कोशिश करके भी, उसमें आत्मा की झलक नहीं मिल रही है।

धीरे-धीरे लग रहा है कि यह कोशिश भी बेकार है। चेहरे में आत्मा की झलक मिले यह कलाकृति की सिद्धि भले ही हो, प्रत्यक्ष जीवन में इसका कोई मतलब नहीं। प्रत्यक्ष जीवन में आत्मा जिस वाणी और कर्म में अपने को व्यक्त करती है, उसका चित्र में कोई मौका नहीं होता। चित्र की सीमा है, जीवन सीमाहीन।

चित्र चित्र ही रहना चाहिए और जीवन जीवन।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »