

हैरान हूँ!
जो माँ
अपने शिशु को
अपने सिवा
किसी को छूने नहीं देती
वहीं माँ
शिशु को
मातृभाषा छूने नहीं देती!
कोई है
जो मुझे समझाए!
या माँ -भाषा को
शिशु से
दूर न ले जाए।
*****
– डॉ. अशोक बत्रा
गुरुग्राम
8168115258

माँ बोली वाली भाषा
मॉं जब भी मुझे बुलाती थी,
नी -बबली कहकर आवाज़ लगाती थी।
मुँह में कौर डालते हुए कोई क़िस्सा सुनाती थी
माँ के हर क़िस्से में रोटी की मिठास थी,
शब्दों की महक की ख़ुशबू मेरे इर्द गिर्द
मुझे कब अपने भीतर समेटती गई
पता ही नहीं चला।
नानी माँ मुहावरों में बात करती थी
माँ के मुँह से भी सुनते सुनते ना जाने कब
मैं भी अपनी माँ की तरह बात करने लगी,
और अब मुझे अक्सर लगता है कि
मैं माँ की तरह ही बात करती हूँ
मेरे भीतर समाया है माँ बोली का वो हर पल
जिसमें मैं हर रात जीती हूँ अपना बचपन
पर बेटी अब इस भाषा में बात नहीं करती
मेरी हर कविता पर जड़ देती है इमोजी
बहू को भी मेरी भाषा समझ नहीं आती
माँ-बोली में कही गई हर बात ताना लगती है
भाषा के भीतर का तत्व बिखर रहा है
शब्दों का संसार सिहर सिहर रहा है
प्रश्न बड़ा तो नहीं पर अर्थ सिमट रहा है
*****
– अनीता वर्मा

वंदे मातरम
मेरे सारे शब्द उधारी के हैं।
बोल रही मैं उन्हीं शब्द में
जिनमें बोली माँ और दादी
और उनकी भी दादी
और दादी की दादी….
इन शब्दों की मिट्टी से ही
देश बना और देह बनी है,
इन शब्दों को रटते, गाते
भाव बने और तर्क बने हैं,
मेरी हर उपमा में, सोच-सीख में,
पुरखों के जीवन गुँथे हुए हैं,
जाने कितने संस्कृति पुरुषों की वट छाया में
चुन-मुन जैसे हम खेले हैं,
जब-जब चोट लगी मन में या तन में
इनसे लिपट-लिपट रोये हैं,
जब-जब हमने साहस हारा
इनके शब्दों की मशाल ने किया उजाला।
बाँहों पर सिर रख जब रोई,
तुलसी बाबा की चौपाई
यादों की खिड़की से झाँकी
और अनोखा साहस दे गई।
नानक, मीरा, सूर, कबीरा
अतिथि से आँगन में आए
अपने मधुर स्वरों में सब ने
जाने कितने ही पद गाए..।
मेरी सारी सोच उन्हीं के
डी.एन. ए. से बनी हुई है।
मेरे सारे कार्य एक प्रभारी के हैं
मेरे सारे शब्द उधारी के हैं।
मेरे देश के पास ज्ञान की कितनीं पुस्तक
हर पुस्तक में भरे हुए हैं ढेरों अक्षर,
हर अक्षर में भरा हुआ एक जीवन,
महाबोध के महाकवि थे वे सारे
हर पुस्तक में बसा सचेत एक महानगर
पन्ना पलटें तो जैसे गली मुड़ गए
वाक्य
हैं इतिहासों के खुले झरोखॆ….
जिस अक्षर के दरवाज़े पर भी दस्तक दी,
उस पर ही पुरखों का रक्त-स्वेद
चमकते पाया।
उसने भावों के द्वार खोल
अर्थ का बिंब दिखाया।
हर विराम पर योग साधना की बाते थीं,
कॉमा-डैश उलझ रहे थे शास्त्रार्थ में,
रस-गंगा के पास भरत मुनि औ दंडी को
संवेदन के दीप जला, तैराता पाया..।
मेरे तन-मन की मिट्टी में आग तुम्हारी
जहाँ रहूँ, मेरे भीतर का आकाश, तुम्हारा दिया हुआ है,
पासपोर्ट चाहें जो भी कहता हो
पर चेहरा अक्सर सब से यह कहता है,
मैं बाशिंदा, उसी देश का,
जिसके माथे ताज हिमालय का रहता है,
गंगा जिसकी प्राण दात्री,
आँखों में काशी रहता है
चाहें जिस मिट्टी पर बस ले
हर भारतवासी की साँसों में
शाश्वत भारतपन रहता है॥
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– डॉ. शैलजा सक्सेना

पहला मोर्चा भाषा का है
हमारी भाषा
वह नहीं हो सकती
जिसके शब्द हमने शब्दकोश से गुने हों
बल्कि वह ही हो सकती है
जिसके शब्द
हमने माँ के पेट से सुने हों ।
(‘मोर्चे पर’ काव्य संग्रह : अनिल जोशी)
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– अनिल जोशी