बदलाव की परछाई

डॉ सुनीता शर्मा, न्यूजीलैंड

 रमेश, संस्कृत का अध्यापक, दिल्ली से दूर एक छोटे कस्बे के कन्या विद्यालय में नियुक्त हुआ। यह नौकरी उसकी काबिलियत का सम्मान तो थी, पर एक नया शहर, नया माहौल और ऊपर से एक ऐसा स्कूल जहाँ सभी महिला अध्यापक और छात्राएँ थीं, रमेश के लिए यह सब थोड़ा असहज था।

पहले कुछ हफ्ते रमेश ने खुद को सीमित रखा। स्कूल के स्टाफ रूम में उसकी उपस्थिति एक औपचारिकता भर थी। लेकिन धीरे-धीरे, अध्यापिकाओं के सहज व्यवहार ने उसे भी बदलना शुरू कर दिया। लंच ब्रेक में अध्यापिकाएँ जब अपने घर के किस्से-कहानियाँ और रेसिपी साझा करतीं, तो रमेश चुपचाप सुनता रहता।

एक दिन, जब उसकी टिफिन से जली हुई रोटी की महक फैली, तो रसोई शिक्षिका सीमा ने मुस्कराते हुए पूछा, “अरे रमेश जी, ये क्या जला-भुना खा रहे हैं? लगता है रोटी बनाने की क्लास भी लगानी पड़ेगी!”

रमेश ने हँसते हुए जवाब दिया, “क्या करूँ, अकेला आदमी हूँ, सीखने की कोशिश कर रहा हूँ।”

इस पर मीरा बोली, “तो फिर कल से हमारे लंच ग्रुप में शामिल हो जाइए। हम आपको बताएँगे कैसे स्वादिष्ट खाना बनाते हैं!”

धीरे-धीरे रमेश ने रेसिपी सीखनी शुरू कर दी। घर पर नए-नए व्यंजन बनाकर वह कभी-कभी स्कूल लाता और अध्यापिकाओं के साथ बाँटता। अध्यापिकाएँ उसकी तारीफों के पुल बाँधतीं।

“वाह रमेश जी! आपके हाथ की खिचड़ी तो किसी शेफ से कम नहीं!” सीमा ने चुटकी ली।

रमेश हँसते हुए बोला, “अरे, ये तो आपकी दी हुई रेसिपी का कमाल है।”

रोज़मर्रा की यह दिनचर्या कब रमेश की आदत बन गई, उसे खुद भी पता नहीं चला। अब वह न केवल स्वादिष्ट खाना बनाने में रुचि लेने लगा था, बल्कि अपने पहनावे, घर की सजावट और छोटी-छोटी बातों पर भी बारीकी से ध्यान देने लगा था। उसके स्वभाव में एक नरमाहट और सजगता आ गई थी।

स्टाफ रूम में मीरा ने एक दिन हँसते हुए कहा, “रमेश जी, अब तो आप हमारे ग्रुप के स्थायी सदस्य बन गए हैं। नेहा जी आएँगी तो सोचेंगी कि आप तो पूरी तरह ‘घर-गृहस्थी’ में रम गए!”

सीमा ने मजाक में जोड़ा, “कहीं नेहा जी आपको देखकर सोचें कि आप अब जनखा बन गए हैं!”

सब हँस पड़े, और रमेश भी मुस्करा दिया, लेकिन उसके मन में यह बातें कहीं गहरे पैठ गईं। क्या वाकई वह बदल गया था? या यह महज़ हालात का असर था?

कई महीनों बाद नेहा रमेश से मिलने आई। उसने सोचा था कि इतने समय बाद मिलकर रमेश उसे देखकर खुश होगा, पर जैसे ही वह घर पहुँची, रमेश के चेहरे पर वह उत्साह नहीं दिखा जिसकी उसने अपेक्षा की थी। यूँ तो वह खुश था.. पर खुशी के मारे झूम नहीं रहा था l 

“अरे, नेहा! तुम आ गई? ठीक तो हो न?” रमेश ने जैसे सामान्य से स्वर में पूछा।

नेहा मुस्कराते हुए बोली, “हाँ, और तुम? इतने दिन बाद मिले हैं, कुछ गर्मजोशी तो दिखाओ!”

रमेश ने कंधे उचकाए, “बस, वही रोज़ का रूटीन है। स्कूल, खाना, आराम। चलो, बैठो, तुम्हारे लिए स्पेशल खिचड़ी बनाई है।”

नेहा हैरान थी। रमेश, जो कभी किचन के पास भी नहीं जाता था, अब इतने उत्साह से खाना बना रहा था। खाने की थाली में करीने से सजे सलाद के पत्ते और सुव्यवस्थित परोसे व्यंजन देखकर नेहा के मन में एक अजीब सी चुभन हुई.. धीरे से उसने कहा आज तो मैं थकी हुई हूं तो तुमने यह सब बना दिया ..पर कल से तुम्हें यह सब करने की जरूरत नहीं है l

रात को जब वे सोने के लिए लेटे, तो नेहा ने धीरे से पूछा, “रमेश, क्या तुम खुश हो?”

रमेश ने आँखें मूँदते हुए जवाब दिया, “हाँ, क्यों नहीं?”

थकी हुई नेहा छत की तरफ देखते हुए सोचने लगी, क्या वाकई ये वही रमेश है जिससे मैंने शादी की थी? उसके मन में एक अनजानी बेचैनी घर कर गई थी पर थकावट के कारण पता नहीं कब उसकी आंखें नींद के आगोश में चली गई थी..!

अगले दिन रमेश ने नेहा से उठने से पहले ही सुबह उठकर चाय नाश्ता वगैरह सब बना दिया था। हैरान होते हुए कहा था यह है क्या आज तो मैं थी आज मैं बना देती.. I नेहा रमेश के साथ उसे स्कूल के स्कूल के प्रांगण तक छोड़ने जाती है तो रमेश उनसे नेहा का परिचय करता है l कुछ ने मुस्कुराते हुए हंसी मजाक में आपस में व उससे कहा, मीरा ने सीमा से कहा, “देखा, नेहा आ गई है। अब रमेश जी की शेफ वाली नौकरी खत्म होगी!”

सीमा ने हँसते हुए कहा, “अरे छोड़ो, रमेश जी अब पूरी तरह से बदल चुके हैं। उसने कुछ अध्यापिकाओं को फुसफुसाते सुना । पता नहीं नेहा को जनखा पति पसंद आएगा भी या नहीं!”

नेहा के कानों में यह बातें तीर की तरह चुभ गईं। उसने खुद को मजबूत करते हुए सोचा, क्या यह वही रमेश है, जिसके साथ मैंने जीवन के सपने देखे थे? क्या ये बदलाव सिर्फ परिस्थितियों का नतीजा है, या कुछ और?

रात को नेहा ने हिम्मत जुटाकर रमेश से बात करने की कोशिश की।

“रमेश, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है,” नेहा की आवाज़ में हल्की फ़िक्र थी।

रमेश किताब में डूबा था। उसने बिना सिर उठाए पूछा, “क्या बात है?”

“तुम इतने बदल क्यों गए हो? तुम्हारा व्यवहार, बोलचाल… सब कुछ अलग है,” नेहा की आँखों में एक अजीब सी नमी थी।

रमेश ने सिर उठाया, “अरे नेहा, तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मैं अब घर का सारा काम खुद कर लेता हूँ।”

“बात काम की नहीं है, रमेश। तुममें वो अपनापन, वो जुड़ाव अब महसूस नहीं होता। मैं यहाँ इतनी दूर से आई हूँ, और तुम्हारे चेहरे पर वो खुशी नहीं देखी जिसकी मैंने उम्मीद की थी,” नेहा की आवाज़ काँपने लगी।

रमेश कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, “तुम ज़्यादा सोच रही हो, नेहा। यहाँ की ज़िंदगी अलग है।”

नेहा ने उसकी आँखों में देखा, लेकिन वहाँ कोई भाव नहीं थे। उसकी आत्मा जैसे कहीं और भटक रही थी.. ऐसा कब तक चलेगा..? 

पर वह अब और ऐसे अपने को और परेशान नहीं करेगी यह सोच कर नेहा ने तय कर लिया कि अब और नहीं रुकना है। अगले दिन उसने रमेश से कहा, “मुझे वापस दिल्ली जाना है। रमेश ने बहुत बार नेहा को कहा इतनी जल्दी जाने की क्या जरूरत है..? नेहा ने वापसी की तैयारी कर ली थी। उसके चेहरे पर उदासी की एक महीन परत थी, जिसे वह रमेश से छुपाने की नाकाम कोशिश कर रही थी।

 रमेश जब नेहा को स्टेशन छोड़कर वापस घर आया तो कमरे में एक अजीब सी खामोशी भर गई। उसने एक लिफाफा टेबल पर रखा हुआ पाया जिसे नेहा स्टेशन जाने से पहले उसके लिए छोड़ कर गई थी..जिसमें एक चिट्ठी व टिकट थी रमेश कुछ देर तक उस लिफाफे को अनदेखा करता रहा, मानो उसमें छुपे शब्दों से डर रहा हो। आखिरकार फिर उसने धीरे से लिफाफा खोला।

प्रिय रमेश 

यह टिकट दिल्ली की है “तुम्हें याद दिलाने के लिए कि तुम्हारा घर कहाँ है..! और हमारे रिश्ते के लिए “मैं चाहती हूँ कि तुम भी जल्दी से छुट्टियाँ लेकर वापस आओ। हमें इस रिश्ते को फिर से समझने की ज़रूरत है।”

रमेश ने टिकट को कुछ देर तक हाथ में थामे रखा। उसकी उंगलियाँ उस कागज के छोटे से टुकड़े पर जमी रहीं, जैसे वह उसमें नेहा की भावनाओं की गर्माहट महसूस कर रहा हो कमरे की खामोशी में वह खुद से एक अनकहा सवाल कर रहा था—क्या वह लौट पाएगा इस टिकट के साथ, या उसके भीतर का बदलाव अब इतना गहरा हो चुका है कि वापसी संभव….!!

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