डॉ सुनीता शर्मा, न्यूजीलैंड

एक छोटी सी बात…

आज जब मैं घर लौटी, तो बगल की बिल्डिंग से कुछ असामान्य शोर सुनाई दिया। निकोला — वहीं रहने वाली महिला — अपनी सास मीरका से तीखी बहस कर रही थी। मन में स्वाभाविक जिज्ञासा जगी, पर मैंने हमेशा यही सीखा है कि दूसरों के निजी मामलों में टाँग अड़ाना ठीक नहीं। चुपचाप चाबी निकाली, दरवाज़ा खोला और भीतर आ गई।

यूँ तो निकोला से मेरी पहचान केवल “गुड मॉर्निंग” और “गुड ईवनिंग” तक सीमित थी, पर वह हमारे भारतीय परिवार की आत्मीयता — साथ बैठकर खाने, आदरपूर्वक बात करने की संस्कृति — को देखकर मुस्कराया करती थी।

थोड़ी देर बाद बहस की आवाज़ें और तेज़ हो गईं। अब रहा न गया, तो खिड़की से हल्की सी झाँककर देखा। माँ — मेरी सास — ने भी पूछा,

“क्या हो रहा है बाहर?”

दूर से दिखा, निकोला का बेटा माइकल — लगभग पाँच साल का — उदास-सा खड़ा था, आँखों में नमी, चेहरे पर उलझन। उसके लंबे बाल, जो अकसर उसकी आँखों पर छाए रहते थे और उसे लड़की जैसा दिखाते थे, आज करीने से कटे हुए थे। वह सचमुच प्यारा लग रहा था।

निकोला तीखे स्वर में मीरका से कह रही थी,

“माइकल के बाल कटवाने हैं या नहीं — यह फैसला डेविड और मुझे करना चाहिए था। आपने ऐसा कैसे कर लिया?”

मीरका शांत थी —

“कितनी बार कहा था तुमसे — बाल बहुत बढ़ गए थे। मुझे वह लड़कियों जैसा लगने लगा था। सोचा, तुम दोनों व्यस्त हो, तो मैंने ही बाल कटवा दिए।”

निकोला लगभग चिल्ला उठी —

“आपने ऐसा कैसे कर दिया? ये मेरा बेटा है!”

आसपास के लोग भी आवाज़ें देने लगे — कोई निकोला के पक्ष में, कोई मीरका के। कुछ तो माइकल को भी सांत्वना देने लगे।

“आप सही हैं, आप एक अच्छी माँ हैं।”

“सास को पहले पूछना चाहिए था।”

“जब मैं छह साल का था, माँ ने जबरन बाल काट दिए थे… मैं वर्षों तक उनसे नाराज़ रहा।”

“छोटे, बाल फिर से बढ़ जाएँगे।”

“बच्चे का शरीर है, पसंद भी उसी की होनी चाहिए…”

मैंने माँ को कहा — “थोड़ी बहस हो रही है।”

फिर खिड़की बंद कर दी, पर मन वहीं अटका रहा।

चाय चढ़ाई, दाल-सब्ज़ी बनाई, पर विचारों की तरंगें थमने का नाम न ले रही थीं।

याद आया — हमारी संस्कृति में भी लंबे बालों का अर्थ है: शक्ति, बुद्धिमत्ता। क्या हर पीढ़ी हर संस्कृति में इसे ऐसे ही देखती है? नहीं जानती।

सोचा — शायद ग़ुस्से में बात बढ़ गई। थोड़ी देर में ठंडे दिमाग से सब सुलझ जाएगा। वैसे, माइकल की यह नई लुक मुझे अच्छी लगी… पर मेरी राय का क्या मोल?

तभी डोरबेल बजी।

दरवाज़ा खोला, तो देखा — मीरका खड़ी थीं। आँखें लाल, चेहरा बुझा हुआ।

उन्हें भीतर बुलाया, पानी दिया। थोड़ी देर बाद बोलीं —

“मुझे लगा, बाल बढ़ गए थे, इसलिए कटवा दिए… लेकिन निकोला को बहुत बुरा लग गया। उसने कहा — देयर इज नो प्लेस फॉर यू इन थिस हाउस…”

माँ सिहर उठीं —

“हे भगवान! बाल कटवाने पर इतना बवाल? अरे नीलम, मैं तो तुझे दिन में चार बार डाँट देती हूँ… सास नहीं समझाएगी तो कौन समझाएगा?”

मैंने माँ को देखा — शायद मीरका की दशा देख उनका स्वर भी धीमा पड़ गया था।

राजेश घर आए। हमने मीरका को खाने पर बिठाया। वे चुप थीं, जैसे भीतर कुछ टूट गया हो… या जड़ जमाने लगा हो।

मैं सोचती रही —

हमारे माँ-बाप ने कब बाल कटवाने, नाक-कान छिदवाने या शादी के फ़ैसले पूछकर लिए थे?

और यहाँ — बाल कटवाने पर घर से निकाल देना?

मन डगमगाया। क्या मुझे कुछ कहना चाहिए? मैं कौन होती हूँ?

फिर भी — एक स्त्री, एक बहू, एक माँ और एक पड़ोसी के नाते — फ़ोन उठाया।

“हाय निकोला, सब ठीक है?”

“यस… व्हाट डू यू वांट?” — स्वर ठंडा था।

मैंने शांत स्वर में कहा —

“जानती हूँ, मीरका ने जो किया, वह सही नहीं था। पर क्या एक ग़लत कदम के बदले दूसरा इतना कठोर निर्णय उचित है? क्या उन्हें घर से निकालना ज़रूरी था?”

वो चुप रही।

“बाल फिर से बढ़ जाएँगे। पर रिश्तों की दरार…? माइकल ने सब देखा। वो आपसे सीखेगा कि रिश्तों को कैसे संभालना है। अगर वह भी आगे चलकर किसी बात पर ऐसे ही प्रतिक्रिया देने लगे… क्या आप चाहेंगी कि वह भी किसी अपने को दूर कर दे?”

वो चुप रही। फिर बहुत हल्के स्वर में बोली —

“हाँ… डेविड को जब मैंने बताया…”

स्वर थम गया।

मैंने फोन रख दिया।

माँ मेरी ओर देख रही थीं — आँखों में गहरी नमी थी। संतोष भी, और चिंता भी।

रात उतर आई थी। बाहर चुप्पी थी।

मैंने खिड़की की ओर देखा।

पड़ोस की बालकनी में धीमी रोशनी थी।

एक परछाईं कुर्सी पर बैठी थी — शायद निकोला।

दूसरी कुर्सी अब सीधी कर दी गई थी… और तकिया फिर से उसी पर रखा था।

शायद कुछ भी नहीं बदला था…

शायद बहुत कुछ बदल रहा था…!!

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