दैहिक, वैचारिक, आर्थिक अथवा सामाजिक समता एवं स्वतंत्रता? आख़िर वह कौन सी धुरी है जिसके इर्द-गिर्द, गले में नारीवाद की घंटी लटकाकर कोल्हू के बैल सदृश जुते हुए विचारक, वर्षों से स्त्री-विमर्श को मथते चले आ रहे हैं। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि, वर्षों के इस वैचारिक मंथन से क्या प्राप्त हुआ? स्त्री-स्वतंत्रता का आभासी अमृत अथवा अधूरे आश्वासनों से अतृप्त रह गई आत्माओं की टूटी हुई आस का वह विष, जिसे गटक कर, न जाने कितनी ही पीड़िताओं ने अपनी अंतिम साँसे ली। एक तरफ दैहिक स्वतंत्रता के नाम पर सारा विमर्श स्त्री-देह की परिधि के आसपास ही घूमता जा रहा है दूसरी ओर, इच्छाओं के पसरते पैर से स्वतंत्रता की ये चादर छोटी पड़ती जा रही है। परिवार की प्रतिष्ठा और सदिच्छा के विरुद्ध मनपसंद जीवनसाथी पाने की चाह में प्राण गंवाने वाली ग्रामीण बाला और “मेरी ज़िन्दगी मेरे नियम” का नारा बुलंद करने वाली महानगरीय महिला में, धरती और आकाश जैसा अंतर है। दोनों की परिस्थितियाँ, चुनौतियाँ, जीवन से अपेक्षाएँ और उसे देखने का दृष्टिकोण भिन्न है। एक ने अपनी मुट्ठी में आसमान को भरने का सपना देखा और दूसरी ने अनंत आकाश को पाने के लिए अपनी बाहों को अनंत विस्तार देने का प्रयास किया। आकाश न तो मुट्ठी में समाया और न ही आलिंगन के घेरों में क़ैद हो सका है। आकाश तो सदा से ही धरती के लिए अप्राप्य आकांक्षा बनकर रहा है, ठीक उसी तरह जिस तरह नारी के लिए स्वायत्तता, स्वीकार्यता एवं सम्मान प्राप्त करना ।

प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक, स्वाभाविक या अस्वाभाविक शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु मुखर होते, विवाहेत्तर संबंधों की पैरवी करने वाले और विवाह नामक सामाजिक संस्था के औचित्य पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले उदारवादी नारीवादियों के विमर्श से इतर, मैं नारी की अस्मिता और उसके अस्तित्व से जुड़े मूलभूत प्रश्नों की ओर ध्यानाकर्षित करना चाह रही हूँ। मैं उन नारियों की पैरोकार नहीं बनना चाहती हूँ जिन्हें स्वयं को भव्या के स्थान पर भोग्या रुप में प्रस्तुत करने में आनंद की अनुभूति होती है। ऐसी नारियों के अधिकारों को लेकर प्रश्न नहीं उठाना चाहती हूँ जो मदिरालय जाकर जाम से जाम टकराती हैं, एक रात वाले संबंधों में अपनी दैहिक स्वतंत्रता का उत्सव मनाती हैं और अपनी महत्त्वकांक्षाओं की ख़ातिर पुरुषों का इस्तेमाल करती हैं, उनसे अपना दिल बहलाती हैं। ऐसी महिलाएँ न तो मेरी चिन्तन का विषय है और न चर्चा का। देह की खूँटी से बँधी हुई इन नारियों के संपूर्ण विमर्श का केन्द्र मात्र देह ही बना रहता है, जिसके चारों ओर चक्कर लगाते हुए ये स्वायत्त होने का भ्रम पाले रहती हैं।  स्वयं को आत्मनिर्भर कहलाने वाली ये नारियाँ पुरुषों के प्रति विषवमन करती हुई उन्हीं से अपने संबंधों की स्वीकृति की बाट जोहती रहती है। 

स्त्री-विमर्श के जिस पक्ष की मैं पाठकवृन्द का ध्यानाकर्षण करना चाह रही हूँ वह स्त्री की मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़ा हुआ है – भरपेट भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, आर्थिक स्वावलंबन का, आत्मनिर्भरता का अधिकार, सामाजिक स्वीकार्यता का अधिकार और जीवन से संबंधित महत्त्वपूर्ण निर्णयों में परामर्श और सहमति की अनिवार्यता का अधिकार। मेरे विचार से, ये स्त्री-विमर्श के ऐसे महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जिन्हें नारीवाद की ऐनक के स्थान पर मानवतावादी चश्मे से देखने की आवश्यकता है। तभी दृष्टि और दृष्टिकोण दोनों पर पड़ी ये आभासी धूल छँटेगी, सही और साफ़ तस्वीर देखने को मिलेगी। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ का जयघोष कर, नारी को देवी का दर्जा दे कर,  उससे पर्वत-सदृश त्याग की अपेक्षा रखने से अधिक आवश्यक है कि नारी को पहले हाड़-माँस का बना हुआ एक सामान्य जीव समझा जाए। उसकी उपस्थिति को महत्व दिया जाए, उनसे उनकी अपेक्षाओं के बारे में पूछा जाए, उनकी शिकायतों को धैर्यपूर्वक सुना जाए, उन्हें जीवन जीने का समान अवसर और अधिकार दिया जाए।

स्वंय को आधुनिक कहने वाले इस समाज में, आज भी बेटियों को जन्मते ही ज़िम्मेदार बना दिया जाता है। उसके खुले बालों को कर्तव्यों और प्रतिबंधों की लंबी सूची के लाल फ़ीते से गूँथकर चोटी में कस कर बाँध दिया जाता है। विवाह से पूर्व अपने पिता और भाई से संरक्षित एवं आदेशित बेटी और बहनें, विवाहोपरांत पति की अनुचरी बनकर एक नए परिवेश, एक नए परिवार और एक नई परिस्थिति में ढलने लगती हैं अथवा ढलने पर विवश कर दी जाती हैं। वृद्धावस्था में स्वामित्व का यह राजदंड पति के हाथों से निकल पुत्र के हाथों में चला आता है, अर्थात् उम्र के हर पड़ाव पर नारी के जीवन में उस पर अधिकार जताने वाले पुरुष किसी न किसी रुप में उपस्थित रहते हैं। सबसे दुखद पक्ष यह कि इन सभी परिस्थितियों को गढ़ने वाली, इस मानसिकता का पालन-पोषण करने वाली भी एक नारी ही होती है।

एक माँ जो अपनी बेटी को बचपन से ही ससुराल की आदर्श बहू बनाने की तैयारी में जुट जाती है, वह अपने बेटे को एक अच्छा जीवनसाथी बनने का प्रशिक्षण देना आवश्यक नहीं समझती क्योंकि, उन्हें भी तो अपनी सास के सौजन्य से ऐसा ही अप्रशिक्षित पति प्राप्त हुआ था। वह माँ जो अपनी बेटी को लड़कों की ओर देखने से मना करती है और उसके उधड़े तन को ढँकने की हिदायत देती फिरती है, वह अपने बेटे को किसी और की बेटी को सम्मान से देखने की दृष्टि देना आवश्यक नहीं समझती। यदि आप विचार कर रहे हैं कि, यहाँ पिता का उल्लेख क्यों नहीं ? तो स्पष्ट कर दूँ कि, नागरिक शास्त्र की कक्षाओं में कुछ वाक्य घोलकर पिला दिए जाते हैं। मसलन, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। परिवार, समाज की प्रथम इकाई और मनुष्य की प्राथमिक पाठशाला है और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि माँ संतान की प्रथम गुरु होती है। यही कारण है कि बच्चों के बिगड़ने का सारा दोष अक्सर माँ के माथे ही मढ़ दिया जाता है और पिता आर्थिक उत्तरदायित्व के निर्वहन की आड़ में इस दोषारोपण से बच जाते हैं। ये बात और है कि, बच्चों के सुयश और सफलता का श्रेय लेने में पिता पंक्ति में अग्रणी बन जाते हैं और माँ सफलता के पीछे का कारक बनकर संतुष्ट हो जाती है।

इस समानतावादी आधुनिक युग में हम आज भी उसी समाज का अंग हैं जहाँ, घर की बेटियाँ के हाथ से कलम और दावात का अधिकार छीनकर झाड़ू और पोंछे का कर्तव्य पकड़ा दिया जाता है जिसे लेकर, वह अपने साक्षर एवं आत्मनिर्भर होने के टूटे सपनों के बिखरे हुए अवशेषों को चुपचाप बुहारने लगती है। स्याही में डुबोकर अपनी क़िस्मत की लकीरें संवारने की जगह, वह बर्तनों की कालिख की सफ़ाई को ही अपनी नियति मान लेती है। दिनभर घर और खेती की दोहरी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करने वाली, अनाज की कुटाई-पिसाई में व्यस्त रहने वाली ऐसी उदारमना बहनें, अपने हिस्से की दाल और सब्ज़ी भाई की थाली में दे आती हैं और स्वयं सूखा भात का कौर नमकीन आँसुओं और एक गिलास चापाकल के ठंडे पानी के साथ निगल लिया करती है। परपुरुष के स्पर्श से बचाकर रखी गई कुँवारी कन्याएँ, अधेड़ उम्र के कमाऊ पूतों के खूटे से बाँध दी जाती हैं। फिर उनसे न तो स्पर्श की अनुमति ली जाती है न ही सहमति। उनकी देह एक नई ज़रुरत की पूर्ति का साधन बन जाता है। उसकी देह को स्पर्श की अनुमति न तो पड़ोस के भैया ने ली, न दूर के ताऊ ने ली और न ही देवर या ससुर ने ली…अपनी ही देह में कब से पराई बनी बैठी इन बेटियों की डोलियाँ बाद में उठती हैं, मगर सम्मान और अरमान का जनाज़ा बहुत पहले उठ चुका होता है। ‘मेरा जीवन, मेरा अधिकार’ का नारा बुलंद करने वाली आधुनिक नारियाँ कहाँ सुन पाती हैं इस पिछड़ी हुई बेज़ुबान आबादी के दुख का वह शोर जो इनके भीतर ही घुटता रहता है।  कभी-कभी हथौड़ा बनकर बरजता है मस्तिष्क की नसों पर जिसमें जम गया होता है उनका आक्रोश, भय, पीड़ा और संशय का वह थक्का जिसने उनके स्वतंत्र विचारों के रुधिर-प्रवाह को बाधित कर रखा होता है।

दरअसल मेरे विचार में, स्त्री-विमर्श हिमखंड की तरह है जो जितना सतह पर दिखाई देता है, उससे दो-तिहाई अधिक सतह के नीचे अनदेखा.. अनसुलझा.. दबा हुआ.. प्रतीक्षारत। अभी तक हो रहा समस्त स्त्री-विमर्श सतह पर ही केंद्रित है जबकि असली समस्या तो संज्ञान की प्रतीक्षा में न जाने कब से सतह के नीचे दबी हुई है। स्त्री देह पर किस तरह के वस्त्र सजने चाहिए.. कैसी होनी चाहिए एक स्त्री की मर्यादा, किस तरह एक स्त्री को अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करना चाहिए…एक स्त्री में कैसे संस्कार होने चाहिए और उसे किस तरह का आचरण करना चाहिए…जीविकोपार्जन के लिए स्त्रियों को पारिवारिक हितों को प्राथमिकता देते हुए किन कार्यक्षेत्रों का चयन करना चाहिए..इन सभी मुद्दों पर अपने विचार-भार से आपके मस्तिष्क पर दबाव डालने वाले, आपको बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के अपने आसपास बहुतायत में मिल जाएँगे। सबसे दुखद पक्ष यह है कि, स्त्रियों के लिए आचार-संहिता निकालने वाले इस दबाव-समूह में स्वयं स्त्रियों की सक्रियता एवं संख्या देखकर ऐसा लगता है कि मानो शोषक भी स्त्री और शोषित भी स्त्री।

ये कहना ग़लत न होगा कि औरत ही औरत की सबसे बड़ी शत्रु है। एक स्त्री दूसरी स्त्री की सफलता को आसानी से पचा ले और उसके मार्ग की अवरोधक न बने, यह एक सुखद और आदर्श स्थिति ही मानी जा सकती है। हम सभी इस तथ्य से भलीभाँति अवगत हैं कि आदर्श को व्यवहार में अमल में लाना कितना कठिन है। एक स्त्री जिन बंधनों, बेड़ियों और कठिनाइयों का सामना करके अपने लिए समाज में एक विशिष्ट स्थान और सम्मान प्राप्त कर लेती है, स्वभावत: वह दूसरी स्त्रियों से भी उसी संघर्ष की अपेक्षा करती है। उसका हृदय इतना उदार नहीं होता कि वह दूसरी स्त्रियों के लिए संघर्ष को आसान बनाने में अपना कोई विशिष्ट योगदान दे सके। स्त्रियाँ ये उदारता न तो कार्यस्थल पर दिखाती हैं और न ही घर-परिवार में ही। सास अपनी बहू को मुँह-दिखाई पर किसी तीक्ष्ण दृष्टिधारी सूक्ष्म पर्यवेक्षक की तरह आँकती है मानो अपनी मुँह-दिखाई का बदला निकाल रही हो। सास की नज़रें नवांगुतका के मनोभाव की गहराई को समझने की जगह उसके रुप-रंग, शरीर पर सजे आभूषणों की नाप-तौल और वस्त्र के मूल्यांकन में व्यस्त हो जाती हैं और फिर वे समय-समय पर अपनी बहू को ससुराल में सुखपूर्वक जीवन बसर करने के गुर सिखलाने लगती हैं। ये सारी नसीहतें बस बहू के लिए, बेटे से तो बस इतनी ही अपेक्षा रहती है कि वह कहीं जोरु का ग़ुलाम न बन जाए। बहू के सिर से खिसकते पल्लू को घर की ज़िम्मेदारी का प्रतीक बना कर, ऐसी सास सचेष्ट हो उसे सहेज कर वापस माथे पर सजा दिया करती है। सजा देती है अथवा सज़ा देती है, इस रहस्य पर से तो पर्दा आने वाले कुछ महीनों में स्वत: हटने लगता है।

कहते हैं कि नज़र बदलने से नज़रिया बदल जाया करता है तो ज़रा बदले हुए नज़रिए से एक दूसरा नज़ारा भी देखिए जहाँ एक ममतामयी सास अपनी आँखों में आकांक्षाओं का आकाश संजोए, स्नेहदृष्टि से नवविवाहिता पुत्रवधू को निहारती उसके सिर पर आशीषभाव से हाथ फेरती है और बहू, महँगे पार्लर में संवारे अपने बालों पर उनके हाथ का स्पर्श पाकर चिढ़ जाती है। तथाकथित आधुनिक एवं स्वतंत्र विचारधारा रखने वाली इन क्रांतिकारी नववधुओं को सास के द्वारा गृहप्रवेश के शुभ अवसर निभाई जाने वाली पारिवारिक परंपराएँ अप्रासंगिक, असुविधाजनक और उबाऊ लगती हैं। बेमन से इन्हें निपटाकर या फिर स्पष्ट शब्दों में अपनी असहमति जताकर ये तलाशने लगती हैं कमरे का एक ऐसा कोना जहाँ अलग-अलग कोणों से ये महँगे मेकअप से सजे अपने बनावटी चेहरे की सेल्फ़ी उतारकर सोशल मीडिया पर साझा कर सकें, अपनी सहेलियों को ललचा सकें और अपने सजने-सँवरने को सार्थक बना सकें। उनके अरमान, सास की भावनाओं  से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और होनी भी चाहिए। आख़िर भावनाएँ तो आहत होंगी ही फिर चाहे वह बहू की हो या फिर सास की। अपेक्षाओं का अंतर तो रहेगा ही। दोनों ही परिस्थितियों में शोषक और शोषित स्त्रियाँ ही होती हैं। स्त्रियों के दैहिक दमन में जिस तरह पुरुष आगे हैं उसी तरह स्त्रियों के मानसिक शोषण में स्त्रियाँ अग्रणी हैं। आपने ससुर और बहू के अनैतिक संबंधों की चर्चा कम सुनी होगी किंतु सास और बहू के आपसी संबंधों के बिगड़ते हुए समीकरणों की चर्चा तो समाचार से लेकर टेलीविज़न शृंखलाओं तक में होती रहती है। 

यह विषय विस्तार की माँग करता है जिसके समस्त पहलुओं पर विमर्श एक ही आलेख में संभव नहीं किन्तु, एक प्रमुख विचार-बिंदु की ओर ध्यान अवश्य आकर्षित करना चाहूँगी कि, स्त्री-विमर्श में पुरुषों की भूमिका के साथ-साथ स्वयं स्त्रियों की भूमिका पर भी स्वस्थ और तटस्थ परिचर्चा करने की आवश्यकता है। अपनी अधूरी लिप्सा, महत्त्वाकांक्षा एवं प्रतिशोध की भावना से पुरुषों पर अनुचित आरोप लगाने वाली स्त्रियों से इस विमर्श को बचाने की आवश्यकता है।  स्त्री-विमर्श के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाली ऐसी स्वार्थी महिलाओं के कारण ही कई प्रबुद्धजन, स्त्री-विमर्श को वैचारिक जुगाली से अधिक नहीं समझते हैं। न तो स्त्रियाँ सर्वथा सही हैं और न ही पुरुष सर्वथा ग़लत लेकिन कुछ तो है जो ग़लत है और हमें इसी ग़लत को सही करना है। यदि हम इसकी शुरुआत अपने परिवार से करें तो यह स्त्री-विमर्श की सबसे सार्थक पहल भी होगी और परिणति भी।

आराधना झा श्रीवास्तव, सिंगापुर

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