सोशल मीडिया में दक्षता एवं प्रबंधन कौशल विकास

मनोज कुमार श्रीवास्तव

वैसे सोशल मीडिया की डाउनसाइड ही ज्यादा बताई जाती हैं। माएँ अपने बच्चों को डाँटती हैं। पत्नियाँ पति को कि एकेडेमिक परफार्मेंस बिगड़ जायेगी। स्लीप क्वालिटी बिगड़ जायेगी। ‘स्लीपीटीन्स’ यह शब्द आपने सुना हो। टीन एज में बच्चे स्लीपी पाये जा रहे हैं। उनकी सेल्फ -एस्टीम या आत्म-श्रद्धा कम हो रही है। उनकी इंपल्सिविटी बढ़ रही है। वे अवसाद में जा रहे हैं। उनमें सोशल मीडिया का एडिक्शन बढ़ रहा है और साइबरसाइकोलॉजी एक गंभीर विषय बन कर उभर रही है।

एमी शूमर ने यह बात कही थी, मजाक में कही हो पर है यह बात आज की डिजिटल डिपेंडेंसी के दौर की कि “मैं सोशल मीडिया पर हूँ, मैंने उसे छोड़ने की भी कोशिश की, पर फिर मैंने रियलाइज़ किया कि मुझे फिर रियल लाइफ में लोगों से मुखातिब होना पड़ेगा तो मैं वापस आ गई।’ एमी शुमर ने यह भी कहा कि मैंने डिजिटल डिटॉक्स भी ट्राई किया, लेकिन पांच मिनट बाद ही मैं गूगल करते पाई गई कि How to Survive without wifi. इन दिनों हालत यह है कि फोन बैटरी ज्यादा चलती है बनिस्बत फोन न छूने की हमारी विल पॉवर के। जब आपकी फोन बैटरी 1% पर हो और आपके पास कोई चार्जर न हो तब स्वयं की हालत देखना, ऐसा लगेगा जैसे आप किसी मरुस्थल में आखिरी जलस्रोत ढूंढ रहे हो। हमें बिना शरम के मान लेना  चाहिए कि हम फोन फिक्सेशन के युग में हैं। अब तो डूमस्क्रोलिंग करते करते समय का पता ही नहीं चलता।आप x को बोलते हो कि जल्दी से एक बार निगाह मार लें लेकिन पता नहीं क्या हो जाता है वहाँ कि आपकी निगाह ही बाँध ली जाती है।आप एक सेल्फी पोस्ट करते हो। फिर तीस तीस सेकंड बाद आपकी लाइक-चेजिंग चलती है। एक एक लाइक स्वीट डोपामाइन हिट की तरह है। सोशल मीडिया ने फोन को एक वैलिडेशन स्लॉट मशीन बना दिया है। नार्सीसिज्म अब सेल्फ-प्रेजेंटेशन की तरह सामने आता है।

ऐसे में आप सोशल मीडिया में दक्षता और प्रबंधन कौशल पर यह कार्यशाला रखे तो हो पर यह ध्यान दीजिए कि कोई भी बड़ा सोशल मीडिया प्लेटफार्म अपने आपको मीडिया नहीं कहलाना चाहता।फेसबुक वाइस प्रेसीडेंट ने स्वयं को टेक्नोलाजी कंपनी कहा, मीडिया कंपनी नहीं । ट्विटर के CEO डिक स्टालो ने भी स्वयं को मीडिया कंपनी कहने से मना कर दिया। स्टीव जॉब्स स्वयं कहे कि हम मीडिया कंपनी नहीं हैं, हम एप्पल हैं।

पर यह भी सच है कि सोशल मीडिया ने पत्रकारिता को भी प्रभावित किया है। अब पारंपरिक संपादकीय प्रक्रियाएं लगभग बाइपास हो जा रही हैं और तत्काल समाचार-शेयरिंग हो रही है और रियल टाइम अपडेट्स हो रही हैं, हालांकि उस राह में बड़े बड़े धोखे भी हैं। दूसरे सिटीजन जर्नलिज़्म को जो सफलता आज मिल रही है, उसके पीछे सोशल मीडिया ही है। 2022 का एक सर्वेक्षण यह बताता है कि 87% पत्रकार ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म को अपनी stories को प्रमोट करने और अपने पाठकों से कनेक्ट करने में बहुत उपयोगी मानते हैं, पर यह भी उसी तस्वीर का एक दूसरा पहलू है कि 42% पत्रकारों को एक साल में ऑनलाइन गाली भी पड़ी हैं। एक अन्तर यह भी आया कि अब अखबार भी ट्वीट या इंस्टाग्राम रील की तरह शार्ट-फॉर्म कंटेंट परोस रहे हैं। चौथे टिक टोक, इंस्टाग्राम, वीडियो, लाइवस्ट्रीम से प्रभावित आधुनिक पत्रकारिता खबरों के भी स्केच और इन्फोग्राफिक्स दे रही है। इसलिए सोशल मीडिया की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती।

तब किया क्या जाये। अब हम उन देशों की तरह तो नहीं हैं जो सोशल मीडिया पर बैन ही लगा दें। चीन, ईरान, पाकिस्तान, म्यानमार, रूस , तुर्कमेनिस्तान की तरह हम भी ट्विटर फेसबुक आदि सख़्ती से बंद कर दें? या फिर चीन की तरह अपनी एक राष्ट्रीय इंटरनेट सेवा शुरू करें? अच्छा आपने कभी Baidu, Tencent, Xiaomi, WeChat , Wepay के नाम सुने ? क्या आपको मालूम है कि दुनिया का सबसे बड़ा नेशनल इंटरनेट यूजर बेस किसका है? 5G, AI और क्वांटम कंप्यूटिंग को मिलाकर दुनिया की सबसे तीव्र और नवाचारी डिजिटल टेक्नॉलाजी किसने तैयार की? जिसे post-digital कहा जा रहा है। क्या हम वैसा कर पा रहे हैं।

जब हम ये दोनों ही नहीं कर पा रहे तो अब यही जरूरी हो जाता है कि सोशल मीडिया के उपयोग में ही दक्षता और प्रबन्धन कौशल लाया जाए ताकि विभिन्न प्लेटफार्म का रणनीतिक और रणनैतिक प्रयोग प्रभावशाली तरह से किया जा सके। ठीक है कि अधिकतर सोशल मीडिया प्लेटफार्म विदेशी हैं पर अभी ऑपरेशन सिंदूर में भारत ने दिखाया कि चाहे स्वीडिश हो या रूसी या इज़राइली हम सबका इंटीग्रेशन कर उनमें भारतीय प्रतिभा इंजेक्ट कर उसे  प्रभावशालिता के एक अलग ही स्तर तक ले जाने में हमारा कोई मुक़ाबला नहीं है।

इस “सोशल मीडिया” शब्द को एकवचनी तरह से प्रयुक्त करने से बात नहीं बनेगी। हर रणक्षेत्र के लिए अलग अलग समरनीति जरूरी होती है। तकनीकी ज्ञान ही नहीं स्वयं आपकी रचनात्मकता भी, संचार की खूबियाँ ही नहीं, विश्लेषण की क्षमता भी। क्या हमें प्लेटफार्मों की कार्यप्रणाली, प्रकृति और प्रस्तुति के तरीकों का पता है? ट्विटर पर लिंक्डइन की तरह नहीं लिख सकते। लिंक्डइन पर ट्विटर की तरह नहीं लिखा जा सकता। लिंक्डइन औपचारिक विश्लेषण और केस स्टडी पसंद करता है। ट्विटर में brevity का सम्मान है।lightweight वनलाइनर का। वे concise, witty statements जिनमें अंतर्दृष्टि और  प्रज्ञा के साथ साथ ह्यूमर भी है, क्विक डिलीवरी है।  280 अक्षरों के भीतर लिखना है। यह आपमें शेक्सपीयर की स्मृति जगाता है Brevity is the soul of wit. यह आपमें ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र के संस्कार जगाता है। आज भी इसका आदर्श उपयोग नहीं हुआ है। इसके 10% यूजर्स ही इसके 80% ट्वीट्स करते हैं और इसके 15% ट्वीट यानी 4 करोड़ 80 लाख ट्वीट तो इंटरनेट बॉट से ही होते हैं। अब ट्विटर ब्ल्यू को तो 4000 केरेक्टर्स तक को करने की छूट है। ट्विटर की एक dual life है। आपने Wendy’s का अकाउंट देखा इतनी विटी, इतनी ह्यूमरस और इतने चीकी प्रेजेंस है उसकी। वह इस प्लेटफार्म के Conversational होने का पूरा लाभ उठाता है। इतने शार्प और मजेदार तरह से वह अपने प्रतिद्वंद्वियों मैकडॉनल्ड्स आदि को रोस्ट करता है, अपने फ़ॉलोवर्स के साथ डायरेक्टली एंगेज करता है। ट्विटर पर कुछ सफल कैंपेन चले हैं। कभी उनका अध्ययन करें, ब्लैक लाइव्स मैटर या मी टू कैंपेन की याद है आपको। आइस बकेट चैलेंज ने एक गर्मी के मौसम में 115 मिलियन डॉलर ए एल एस जो एक मोटर न्यूरान बीमारी है के लिए पैदा कर लिये थे। ट्विटर पर ‘लाइक अ गर्ल’ हैशटैग ने Gender Equalily और किशोरियों के सशक्तीकरण में 290 मिलियन इंप्रेशंस इकट्ठे किए थे।

फेसबुक एक बहुमुखी प्लेटफार्म है जो टेक्स्ट, इमेज, वीडियो और लाइव स्ट्रीमिंग का समर्थन है। इसकी रीच विशाल है। 3 बिलियन एक्टिव यूजर्स हैं। इसमें छोटे बड़े दोनों तरह के संदेश जा सकते हैं। फेसबुक लाइव और मैसेंजर instant engagement के लिए हैं। गूगल सर्च और यूट्यूब के बाद सबसे ज्यादा लोग यही प्रयुक्त करते हैं। गूगल सर्च तो एक सर्च इंजिन है। यूट्यूब एक वीडियो शेयरिंग प्लेटफार्म है पर फेसबुक सोशल मीडिया नेटवर्क है। फेसबुक सुरक्षित नहीं है, हर दिन छह लाख कोशिशें होती हैं FB को हैक करने की। फेसबुक के सर्वर पर 300 पेटाबाइट्स का यूजर डाटा है। एक पीटाबाइट एक मिलियन गीगाबाइट के बराबर होती है। यों समझिए कि विश्व की समस्त भाषाओं में जितना भी लिखित साहित्य शुरू से आज तक रहा है, वह 50 पीटाबाइट का है, जबकि फेसबुक का यूजर डाटा 6 गुना है।

जब आप प्रबंधन कौशल की बात करेंगे तो कई बारीकियों में जाना होगा। मसलन सर्वे यह कहता है कि 10p.m. से 11 p.m. के बीच की गई पोस्ट सबसे ज्यादा रिस्पांस पैदा करती है।

यह सोशल मीडिया आपको अपने विचारों को सही तरह से आर्टिकुलेट  करने का अवसर और कान्फीडेंस देता है। आप किसी के भी साथ कम्युनिकेट या ट्रांजेक्ट कर सकते हो, अपने विचारों को पिच कर सकते हो, लाइक माइंडेड लोगों के साथ कनेक्ट कर सकते हो, अपना client base तैयार कर सकते हो।

सब कर सकते हो पर उसकी उपेक्षा मँहगी पड़ेगी क्योंकि सोशल मीडिया कनेक्शन ही नहीं है, सर्कुलेशन है। बल्कि उनसे ज्यादा वह data extraction and collection platform है। क्या आपने कभी surviellance capitalism या data colonialism के बारे में सुना? इसी सोशल मीडिया के कारण अब  social quantification sector उभर कर आया है। अब कल्चर इंडस्ट्री की जगह प्लेटफार्म एंपायर बन गए हैं। Every click is capital. हम एक सच्ची सामाजिकता में न हों। पर आज हम एक Programmed sociality में हैं इसी सोशल मीडिया के चलते।

मैं सर्वीलांस सोसायटी की बात कर रहा था। वह इन डिजिटल डिक्टेटर्स के जरिये बन रही है।इनकी प्राथमिकताएँ कई बार आतंकवाद के पक्ष में काम करती दीख पड़ती हैं। जिन्होंने भी आतंक को, हत्या और हिंसा को, धर्म-द्वेष को प्राथमिकता दे रखी है, उन्होंने ही वह व्यवस्था भी बना रखी है कि सोशल मीडिया के किसी भी प्लेटफ़ॉर्म पर और कृत्रिम बुद्धि के किसी भी उपकरण पर इन मुद्दों की आलोचना करने पर आपकी रीच तुरत कम कर दी जाती है। कुछ ख़ास दृष्टि-बिंदु हैं जिन पर इस अलगोरिदम की पकड़ बहुत मज़बूत है। हिंदुत्व वॉच हाशिये पर गये लोगों की आवाज़ उठाता था। उसका x पर खाता ही बंद कर दिया गया भले ही वह तथ्यों के साथ बात करता था। मतदाता misinformation का इतना संगठित अभियान विदेशों से चलाया गया पर ये प्लेटफ़ॉर्म उसे प्रमोट करते रहे। फ़ेसबुक पर एंटी-हिंदुत्व के नाम से अकाउंट चलते हैं। हक्कानी नेटवर्क या तालिबान इन प्लेटफ़ार्मों में माउथपीस रख सकते हैं।

अभिव्यक्ति की आज़ादी के विरूद्ध यह एक मशीनी तानाशाही है। यह पूँजी का अधिनायकवाद है क्योंकि सारे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म बिना अल्ट्रापूँजी के बड़े हो ही नहीं सकते थे।

यह वास्तविक तानाशाही लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनकर आये लोगों को तानाशाह कहने न कहने की बहसों में व्यस्त रखती है।

सामान्यतः सेंसरशिप एक संप्रभु संक्रिया है। जिसके पास संप्रभुता होती है, वही सेंसरशिप लगाता है। पर इस बिग-टेक चक्रानुवर्तित्व के युग में राज्य की इस संक्रिया का भी निजीकरण हो चुका है।

ऐसे तो सर्वीलाँस भी राज्य की उसी संप्रभुता का हिस्सा है और राज्य उस प्रक्रिया को ऑरवेलियन स्तरों तक पहुँचाये, इसके पहले ही बिग-टेक ने वह कार्य संपन्न कर लिया। जॉर्ज ऑरवेल का ‘बिग ब्रदर इज़ वॉचिंग यू’ एक सर्वशक्तिमान राज्य वाला दु:स्वप्न था पर उसे संभव किया निजी क्षेत्रक ने। यानी नॉन-स्टेट एक्टर्स ने।

सोशल मीडिया आज राजनीतिक नियतियों का निर्धारण कर रहा है। मैंने भास्कर में लिखे अपने एक लेख में इसकी चर्चा की थी। सोशल मीडिया में झूठ की रफ़्तार हमेशा की तरह तेज है। 2018 के एक सर्वे ने बताया कि सच्ची खबर की जगह फेक न्यूज 70% ज्यादा गति से फैलती है। अभी तक हमने पॉवर के कई रूप सुने थे। कि एक लेजिटिमेट पॉवर होती है, कि एक कोएर्सिव पॉवर होती है। कि एक रेफरेंट पॉवर होती है। हमने फूको की पुस्तकों में पॉवर पर कितनी चर्चा पढ़ी थीं। पर सोशल मीडिया ने एक अल्गोरिद्मिक पॉवर को जन्म दिया है। अलगोरिदम तय करता है कि किसकी बात कौन सी बात किन्हें पहुँचेगी।

दक्षता और प्रबंधन कौशल सीखें ताकि इन प्लेटफार्म एम्पायर्स को उन्हीं के गेम में परास्त किया जा सके।

(श्री मनोज कुमार श्रीवास्तव का माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में व्याख्यान)

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