
मैकाले की आत्मा
डॉ. रवि शर्मा ‘मधुप’
मैकाले तो आम आदमी की तरह वक्त आने पर नश्वर देह को त्यागकर इस संसार से कूच कर गए। परंतु आत्मा तो अजर-अमर है। शरीर से निकलने के बाद वह यमदूतों के साथ चल देती है। ऐसा प्रायः सामान्य आत्माएँ करती हैं। कुछ आत्माएँ असामान्य-असाधारण होती हैं। वे बँधे-बँधाए कायदे कानूनों को नहीं मानतीं। मैकाले की आत्मा भी ऐसी ही असामान्य-असाधारण आत्मा थी। मैकाले की मृत्यु के बाद उसने धरती न छोड़ने का निर्णय लिया। यमदूतों की तेज नज़रों से बचना कठिन था।
मैकाले की आत्मा छुपने की जगह तलाशने लगी। उसे अधिक समय नहीं लगा। वह जानती थी कि मैकाले ने अपने जीवन का प्रमुख लक्ष्य बनाया था – भारतवासियों को शिक्षित, सभ्य और आधुनिक बनाने का। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मैकाले ने आजीवन प्रयास किया। तीनों लक्ष्यों को साधने का एक रामबाण उपाय उसे सूझ गया था। वह था – अंग्रेज़ी भाषा और अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति। उसने अपने इस महान कार्य को करने की शुरुआत भी कर दी थी। काम चल रहा था। इसी बीच मैकाले के शरीर ने साथ छोड़ दिया। काम अधूरा रह गया। मैकाले की आत्मा को अपने छुपने के लिए भारत से बेहतर और कौन-सी जगह मिल सकती थी ? मैकाले मरा। यमदूत आए। शरीर पड़ा था। आत्मा गायब थी। यमदूतों ने सब जगह ढूँढ़ा। ‘डिपार्टमेंटल इंक्वायरी’ हुई। अंत में इस आत्मा को असामान्य-असाधारण ‘लापता आत्माओं’ की श्रेणी में डालकर फाइल बंद कर दी गई।
मैकाले की आत्मा अब आज़ाद थी। उसने राहत की साँस ली और जुट गई अपने मिशन पर। मैकाले के शरीर में रहते-रहते उसे मैकाले से प्यार हो गया था, इसलिए मैकाले के देहांत के बाद उसने मैकाले के सपने को अपना सपना बना लिया था। देश में आज़ादी का आंदोलन ज़ोरों पर था। चारों ओर अंग्रेज़ों, अंग्रेज़ी तथा अंग्रेज़ियत का जमकर विरोध हो रहा था। मैकाले की आत्मा ने दुबके रहने में ही भलाई समझी। उसे यह भी मालूम था कि भारत में आत्माओं को वश में कर लेने वाले तांत्रिक भी होते हैं, जिनसे बचकर रहना बहुत ज़रूरी था। अगर वह किसी तांत्रिक के हत्थे चढ़ जाती, तो उसकी सारी हेकड़ी हवा हो जाती, उसकी आज़ादी उससे छिन जाती तथा उसे उस तांत्रिक के इशारों पर नाचना पड़ता। भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम निरंतर आगे बढ़ता रहा। मैकाले की आत्मा शांति से सारा तमाशा देखती रही। वह उपयुक्त समय की प्रतीक्षा कर रही थी।
अंततः भारत स्वतंत्र हो गया। चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण व्याप्त हो गया। लोग अंग्रेज़ों को भारत से बाहर निकालकर खुश हो रहे थे। उन्हें लग रहा था कि जंग जीत ली गई है। किसी को भी ज़रा-सा आभास तक न था कि मैकाले की आत्मा भारत में ही भटक रही है। मैकाले की आत्मा चूँकि शरीर त्याग चुकी थी, इसलिए अब किसी भी शरीर में प्रवेश कर, उस शरीर की आत्मा को अपने वश में कर लेना तथा उससे मनचाहे काम करवा लेना, उसके लिए सरल था। मैकाले की आत्मा अच्छी तरह जानती थी कि उसके लक्ष्य के मार्ग में रोड़े अटकाने वाले वे लोग हैं, जो भारत, भारतीयता, भारतीय भाषाओं, भारतीय संस्कृति पर गर्व करते हैं। उन्हें ठिकाने लगाए बिना तथा मैकाले के मानस पुत्रों को ऊँचे पदों पर बिठाए बिना, उसकी दाल नहीं गलने वाली।
मैकाले की आत्मा ने अपना जाल बिछाना शुरू किया। उसके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा थी – महात्मा गाँधी नामक दुबला-पतला, मगर मजबूत व्यक्ति, जिसने साफ़ शब्दों में कह दिया था, ”दुनिया को कह दो कि गाँधी अंग्रेजी भूल गया। ….यदि मेरे पास तानाशाही शक्ति होती तो मैं आज से ही अंग्रेज़ी पढ़ना-पढ़ाना बंद करवा देता।“ आदि आदि। ऐसी बातें मैकाले की आत्मा को तीर-सी चुभतीं। इसीलिए महात्मा गाँधी उसे फूटी आँख न सुहाते। एक दिन उसने नाथू राम गोडसे नामक व्यक्ति की आत्मा को काबू किया तथा उसके हाथों गाँधी जी को बैकुंठ धाम पहुँचा दिया।
स्वतंत्रता के बाद भारत में लोकतंत्र को स्वीकार किया गया था। लोकतंत्र की आत्मा बसती है – उसके संविधान में। भारत का संविधान बनाया जाने लगा। मैकाले की आत्मा चिंतित हो उठी। यदि कहीं भारतीयता समर्थकों ने हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को भारतीय संविधान में महत्त्वपूर्ण स्थान दे दिया तो…और इस तो पर आकर मैकाले की आत्मा की सूई अटक जाती। उसका रक्तचाप बढ़ जाता। साँसें तेज़ चलने लगतीं और दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता। आप कहेंगे कि आत्मा को यह सब नहीं होता, तो मैं आपको बता दूँ कि सामान्य आत्मा को नहीं होता, मगर मैकाले की आत्मा तो असामान्य-असाधारण आत्मा थी, जो लापता थी और चौदह भुवनों (लोकों) के यमदूत उसे ढूँढ़कर हार गए थे, जैसे डॉन को ग्यारह देशों की पुलिस नहीं ढूँढ़ पा रही थी।
भारत की आज़ादी के बाद धीरे-धीरे मैकाले की आत्मा की ताकत दिन-पर-दिन बढ़ती ही जा रही थी। उसने संविधान निर्मात्री समिति के सदस्यों की आत्माओं को अपने वश में करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद जैसी नीतियाँ अपनाईं। अधिक तो नहीं, किंतु कुछ सदस्य अवश्य ही उसके मायाजाल में फँस गए।
संविधान बना, मगर अंग्रेज़ी में। संघ की राजभाषा बनी – हिंदी, मगर अंग्रेज़ी पंद्रह वर्ष तक साथ-साथ चलने की बात भी जोड़ दी गई। अब मैकाले की आत्मा को लगा मानो उसने आधा किला जीत लिया हो। मैकाले की आत्मा को यदि भारतीय नेताओं में कोई सर्वाधिक पसंद था, तो वह था – जवाहर लाल नेहरू। वह उन्हें भारतीय प्रधानमंत्री के पद पर देखना चाहती थी। मैकाले की आत्मा ने दिन-रात एक कर दिया, एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया, सारी नीतियाँ अपनाईं और नेहरू जी को प्रधानमंत्री पद पर बिठाकर ही दम लिया। उनके प्रधानमंत्री बनने से मैकाले की आत्मा की जान में जान आई। मैकाले की आत्मा को अब भारत में मैकाले के सपने सच होने की संभावनाएँ दिखाई देने लगीं।
इतना होने पर मैकाले की आत्मा ने अपने अगले मिशन पर आगे कदम बढ़ाए। उसने अन्य भाषा-भाषियों को भड़काना शुरू किया। और तो कोई उसके काबू नहीं आया, हाँ तमिल वाले मैकाले की आत्मा की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गए। हिंदी विरोध को लेकर उन्होंने खूब बवाल मचाया, दंगे-फसाद किए, तोड़-फोड़ की और अपने लिए विशेष दर्जा तो लिया ही, साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री से संसद में यह आश्वासन भी ले लिया कि जब तक एक भी राज्य अंग्रेज़ी का पक्ष लेगा, अंग्रेजी चलती रहेगी।
संविधान और संसद में अंग्रेज़ी का आसन मज़बूती से जमा देने के बाद मैकाले की आत्मा थोड़ी संतुष्ट हुई। अब वह चल पड़ी जनसामान्य में अंग्रेज़ी के प्रचार-प्रसार के लिए। उसे यह देखकर घोर निराशा हुई कि सरकार की जी तोड़ कोशिशों के बावजूद भारत का सामान्य जन अंग्रेजी के प्रति आकर्षित नहीं हुआ। मैकाले की आत्मा के सौभाग्य और संयोग से उसी समय साम्यवाद का किला ध्वस्त करके पूँजीवाद की प्रतिनिधि महाशक्ति ‘विश्वविजय’ के अभियान पर निकली।
अंग्रेज़ी और पूँजीवाद का तो चोली-दामन का साथ है। अंग्रेज़ी से पूँजीवाद पनपता है और पूँजीवाद से अंग्रेज़ी का प्रचार-प्रसार होता है। मैकाले की आत्मा ने ‘आव देखा न ताव’ घुस गई संसद भवन में। दरअसल उसे तलाश थी – सत्ता शिखर पर बैठे मैकाले के मानस पुत्रों की। इसके लिए भारतीय संसद सर्वाधिक उपयुक्त स्थान था। हिंदी और भारतीय भाषाओं में जनता से वोट की भीख माँगने वाले हमारे अधिकतर माननीय सांसद संसद भवन में घुसते ही मैकाले की आत्मा को नित्य नियम से प्रणाम किया करते थे। उनकी इसी श्रद्धा भक्ति को देख-समझकर ही मैकाले की आत्मा ने संसद भवन में प्रवेश किया।
अभी भी काफी सांसद मैकाले की आत्मा के प्रभाव से अछूते थे, उनका ‘ब्रेन वाश’ करना शुरू किया। सांसदों के मन में सोए अंग्रेज़ी प्रेम को जगाया। चूँकि पूरा देश सांसदों के ही इशारों पर नाचता है, अतः सांसदों में अंग्रेज़ी प्रेम जागते ही पूरे देश में अंग्रेज़ी प्रेम अंगडाई लेने लगा। सांसदों ने उद्योगपतियों से साँठ-गाँठ करके अपने भाई-भतीजों, बीवी-बच्चों के नाम से जगह-जगह अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल खोलने शुरू कर दिए। जल्दी ही उन्हें समझ आ गया कि इस देश में सबसे अच्छा धंधा है – अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल तथा इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट खोलने का। ये, हींग लगे न फिटकरी, रंग भी आए चोखा, कहावत का साक्षात प्रमाण हैं।
मैकाले की आत्मा ने अंग्रेज़ी शिक्षा के संबंध में अंग्रेज़ों द्वारा शुरू की गई ‘फिल्टरेशन थ्योरी’ को ही आगे बढ़ाया। महानगरों के अंग्रेज़ी माध्यम के पब्लिक तथा कांवेंट स्कूलों में पढ़ा-पला उच्च वर्ग तो पहले से ही अंग्रेज़ी का भक्त था। धीरे-धीरे देश भर में भ्रष्टाचार की तरह फूलते-फलते मध्यमवर्ग तक भी इस अंग्रेजी शिक्षा को पहुँचाना ही अब मैकाले की आत्मा का मुख्य लक्ष्य हो गया था।
वह चाहती थी कि अंग्रेज़ी भारतीय लोकतंत्र रूपी वृक्ष की फुनगियों से नीचे आकर डाल-डाल और पात-पात से होते हुए इसकी जड़ों तक पहुँच जाए। इसके लिए आवश्यक था – गली-गली, गाँव-गाँव में अंग्रेज़ी माध्यम के पब्लिक स्कूल खुलना। यह तभी संभव था, जब भारत के आम आदमी को सब ओर अंग्रेज़ी की जय-जयकार सुनाई दे। तभी उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण, आधुनिकीकरण, बाजारीकरण आदि आदि अनेक ‘करण’ एक साथ विश्व में हलचल का कारण बने। मैकाले की आत्मा की बाँछें खिल गईं, बिल्ली के भागों छींका जो टूटा था। इन सब ‘करणों’ के कारण अचानक सब ओर अंग्रेज़ी की जय-जयकार होने लगी। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने-अपने किलों से निकलकर निकल पड़ीं, विश्व में नए-नए किले फतह करने। उनकी सेना के हाथ में था-अंग्रेज़ी ध्वज।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निगाह भारत पर न जानें कब से गड़ी थी। भारत उनका सर्वाधिक मन पसंद देश था। क्यों ? क्योंकि भारतवासियों के मन में गोरों के प्रति असीम आदर, प्रेम तथा कृतज्ञता का भाव था। यहाँ नियम-कानून नामक चिड़िया को कोई भी दाना डालकर आसानी से अपने पिंजरे में बंद कर सकता था। भारतीयों की पाचन शक्ति इतनी अधिक थी कि वे किसी भी प्रकार की कुछ भी चीज़ हँसते-हँसते हजम कर जाते थे। अतः यूरोपीय देशों की प्रतिबंधित खाद्य सामग्री और दवाइयाँ यहाँ सहज ही खपाई जा सकती थीं। सस्ते, परिश्रमी और कुशल कारीगर, श्रमिक इन कंपनियों के लिए आकर्षण का एक और कारण था।
इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए सर्वाधिक आकर्षण तथा सुविधाजनक था – भारतवासियों के मन में उपजती अंग्रेज़ी भक्ति। लिहाजा ये कंपनियाँ अंग्रेज़ी की जय-जयकार करती, भारत भूमि को अपने चरण-कमलों से उपकृत करती हुई, भारत में प्रविष्ट हुईं। तत्कालीन सरकार ने पलक पाँवड़े बिछाकर इन कंपनियों का स्वागत किया। उनकी शर्तों पर उन्हें भारत में करोबार करने की न केवल अनुमति दी, अपितु उनका धन्यवाद भी किया, अनेक प्रकार की छूट देकर। वस्तुतः तत्कालीन भारतीय सरकार ने अपने पूर्वज मुगल बादशाह जहाँगीर की परंपरा का ही पालन किया था। जहाँगीर ने भी तो अपने दरबार में पधारे सर टामस रो का इसी प्रकार स्वागत-सहयोग किया था, तो भला आधुनिक सरकार पीछे कैसे रहती ?
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारतीय युवाओं और उनके अभिभावकों के मन में मुंगेरी लाल के हसीन सपने जगाने शुरू कर दिए। आकर्षक वेतन, सुख-सुविधा के साधन तथा शानदार दफ्तर देखकर भारतीय युवाओं के मुँह में पानी आ गया। वे किसी भी कीमत पर इन कंपनियों में नौकर बनने के लिए छटपटाने लगे। मैकाले की आत्मा की तो मानो मन की मुराद ही पूरी हो रही थी। इन कंपनियों ने नौकरियों के लिए अपने विज्ञापनों में बस एक ही शर्त रखी – ‘फ्ल्युऐंट इन इंग्लिंश’। फिर क्या था, सभी भारतीय अंग्रेज़ी सीखने के लिए पिल पड़े।
भारत में पिछले दशकों में सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तक कौन सी है, जानते हैं क्या आप? जी, बिलकुल ठीक पहचाना। ‘रेपिडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स’। महानगरों से नगरों, शहरों, कस्बों से होते हुए गाँव-गाँव, गली-गली में अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूल खुलने लगे, जैसा कि मैकाले की आत्मा चाहती थी। मध्यम वर्ग ही नहीं, निम्नवर्ग भी अपने बच्चों को बाबू, अफसर बनाने के लिए इन स्कूलों की ओर अंधाधुंध दौड़ पड़ा।
पूरा भारत अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत के मोहपाश में जकड़ता चला गया। चौदह वर्ष की स्कूली शिक्षा के दौरान यह अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत भारतीय बच्चों की रग-रग में समाती चली गई। वे हिंदी का एक अनुच्छेद भी शुद्ध बोल या लिख नहीं पाते। उन्हें हिंदी की वर्णमाला, हिंदी की गिनती, हिंदी महीनों के नाम तक नहीं पता होते। भारतीय सभ्यता-संस्कृति, जीवन मूल्य, आदर्श सब उनके जीवन से ऐसे रिस रहे हैं, जैसे दरार आए मटके में से जल। लेकिन बच्चों के अभिभावक बहुत खुश हैं। वे बड़े गर्व से बताते हैं कि उनके बेटे या बेटी को 6 लाख का पैकेज मिला है, या उनका बेटा अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि में नौकरी करने गया है। इन सबसे अधिक खुश है – मैकाले की आत्मा। उसने डेढ़ सौ वर्ष पहले मैकाले द्वारा देखा सपना जो सच कर दिखाया है। मैकाले की आत्मा हँस रही है, खिलखिला रही है, अट्टहास कर रही है और भारत माता ? उसकी किसे परवाह है!!
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