
सफेद बत्तखें
हंसा दीप
मेरी पत्नी बहुत कम बोलती है। मैं उसकी चुप्पी का आदी हूँ। उसकी आँखों की पुतलियाँ मुझे उसकी हर बात समझा देती हैं। जब दोनों आँखें चौड़ी हो जाती हैं तो इसका मतलब “ये क्या कह रहे हो!” जब सिकुड़ जाती हैं तो “बकवास बंद करो।” जब पलकें झपक जाती हैं तो “अब बस भी करो, बहुत हो गया।” और जब आँखों में आँखें डालती है तो इसका मतलब होता है– “किला फतह कर लिया।” इसी एक संकेत से मैं समूचा प्रेम ग्रंथ लिख लेता हूँ और लोकार्पण के लिए तैयार हो जाता हूँ।
इसके विपरीत जब कभी वह लगातार बोलती है तो मुझे सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि वह आखिर इतना क्यों बोल रही है! मैं उसे सुनने के बजाय यह जानने की कोशिश करता हूँ कि आखिर ऐसा क्या खास हुआ कि उसे बोलना पड़ रहा है। आज भी यही हुआ। वह लगातार कुछ कहे जा रही थी। मैं सुन रहा था, पर समझ नहीं पा रहा था। जब ध्यान से समझने की कोशिश की तो उसका सारांश यह निकला कि हमें बंसल जी के घर, उनके लिए आयोजित शोक सभा में जाना चाहिए। यह कम्यूनिटी के समूह से मिली सामूहिक ईमेल की प्रतिक्रिया थी जिसमें बंसल जी की मृत्यु के समाचार के साथ, उनके घर रखी शोक सभा की जानकारी थी।
मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। टोरंटो शहर में दो किलोमीटर दूर रहने वाला भी पड़ोसी ही कहा जाता है। इसीलिए हमारा अपना पड़ोसी था बंसल परिवार। बस इसके अलावा कुछ ज्यादा बात कभी नहीं हुई। न ही उनके घर आना-जाना हुआ। कम्यूनिटी के कार्यक्रमों में अवश्य मिलते रहे। पड़ोसियों की तरह बात करते हुए हमें अपने एरिया को टोरंटो का श्रेष्ठ एरिया कहने में कभी हिचक नहीं होती। वे कहते- “यार, समर जी, हमारा इलाका पॉश इलाके में माना जाता है। मुझे नहीं लगता कि हमारी कम्यूनिटी के और लोग इस इलाके को अफोर्ड कर सकते हैं।”
“हो सकता है, लेकिन अब सबके बच्चे सेटल हो रहे हैं। धीरे-धीरे यहाँ भी हमारा वर्चस्व होगा।”
“अरे साहब, हमने-आपने शुरुआत की, अब अगली पीढ़ी कुछ भी करे, हमारा नाम सूची में अग्रणी ही रहेगा। अपना तो भई एक ही सिद्धांत है। सवेरे नींद से आँखें खुले तो लगना चाहिए कि हम कहाँ रह रहे हैं। देश छोड़कर आए हैं। रहन-सहन का स्तर हाई-फाई न हो तो विदेश में रहने के क्या फायदे!”
मुझे उनकी बातें अच्छी लगती थीं। सकारात्मक और आशावादी। मस्ती से भरी। बुढ़ापे का रोना-गाना नहीं था। जीवन को शान से जीने की उद्दाम चाहत थी। आज बंसल जी की शोक सभा में पहुँचना इसलिए भी पैरों को भारी कर रहा था क्योंकि एक सप्ताह पहले ही वे मुझे बच्चों के स्कूल में मिले थे। अपने पोते को छोड़ने आए थे और मैं अपने नाती को छोड़ने स्कूल पहुँचा था। अपने बच्चों के बच्चों की जिम्मेदारी निभाते हुए हम दोनों देर तक गपशप करते रहे थे। जाते-जाते कह गए थे- “समर जी, ये बच्चे हमारी पिरोयी गयी माला के छोटे-छोटे फूल हैं। हमारी देखरेख में बड़े हो जाएँगे तो बैकुंठ जाकर हम खुश रह पाएँगे।”
मैं भी पूरी तरह सहमत था। ये एक अलग तरह की ड्यूटी थी। नाती-पोतों के साथ समय बिताना ऐसा लगता जैसे हमने अपने पेड़ को सींचकर सुगठित रूप से शाखाओं को विस्तार दे दिया। अपनी छाया में इन्हें धूप-पानी, हर आपदा से बचाना एक अलग तरह का सुख देता। इन बच्चों में हमेशा हमें अपनी खुद की परछाई नज़र आती।
बंसल जी के आकस्मिक निधन से मैं अवाक् था। दो दिन पहले उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया था और आज इसी स्कूल के पास उनके बेटे के घर पर दोपहर दो से चार बजे शोक सभा रखी गयी थी। यह कोई औपचारिक शोक सभा न होकर एक बैठक जैसी थी जिसमें लोग आएँ और श्रद्धांजलि अर्पित करें। मैं अपनी पत्नी के साथ जब तक वहाँ पहुँचा, तब तक कई लोग आ चुके थे। गर्मी का मौसम था इसीलिए पीछे बैकयार्ड में एक छोटा-सा टैंट लगा दिया गया था। एक ओर उनकी पत्नी से मिलने वालों की लाइन लगी थी, दूसरी ओर एक मेज पर ठंडे पेय रखे थे।
शेष जगहों पर अलग-अलग दलों में बँटे, सफेद पोशाकें पहने लोग बतिया रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे चारों ओर सफेद बत्तखें क्वैक-क्वैक की ऊँची आवाज के साथ अपना शोक जता रही हों। एक कोने में बंसल जी की तस्वीर पर फूलों की माला टँगी थी। मुझे उस माला के हर फूल में उनके बच्चे और बच्चों के बच्चे दिखायी देने लगे जिन्हें मैंने कभी देखा नहीं था। उसी तस्वीर के अगल-बगल, आमने-सामने, झुंड में खड़े लोग अपनी-अपनी बातों के ओर-छोर को नापते नजर आ रहे थे।
मैं और पत्नी दोनों अपने परिचित चेहरों की तलाश कर रहे थे। चारों ओर नजर डालकर सबसे पहले जो ग्रुप दिखा, हम दोनों वहीं ठहर गए। मैंने विनम्रता से सिर झुकाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। एक सज्जन से पूछा- “बंसल जी का बेटा कहाँ है?” उन्होंने दूसरी ओर इशारा किया। हम दोनों उस तरफ़ मुड़ गए ताकि घर वालों की नज़र में अपनी हाजिरी दर्ज करा सकें। मैंने उसके समीप पहुँचकर कहा- “आप बंसल जी के बेटे हैं?”
“जी।”
“अच्छा, तो आप ही डॉक्टर हैं?” प्रश्नात्मक लहजा था। मेरा आशय सिर्फ बातचीत को आगे बढ़ाते हुए उसके पिता की मौत पर संवेदना व्यक्त करना था।
“जी हाँ अंकल, मैं डॉक्टर हूँ। आपको कोई मेडिकल सलाह चाहिए?” कहते हुए वह ठठाकर हँस पड़ा।
इस गमगीन मौके पर उसका यह फूहड़ मजाक मेरे दिल को चुभा, मेरे सम्मान को ठेस भी पहुँची, लेकिन मुस्कुराकर रह गया। भला यह कोई समय है किसी से मेडिकल सलाह लेने का। मैं कुछ बोलता तो तीखा हो जाता। कुछ वक्त की नजाकत थी, कुछ उम्र की भी। पत्नी ने यह बात कई बार मुझसे कही थी कि अतिरिक्त विनम्रता को लोग अनुदान की तरह लेते हैं, ग्रांटेड। मैं अपनी उदारता पर एक बार फिर चोट खाकर सहम गया था। पत्नी ने मुझे अजीब निगाहों से देखा था, शायद यह कहते हुए- “क्यों युवा पीढ़ी के सामने अपमानित होते हो। डॉक्टर है तो उसके घर का। इसे क्या पता कि हमारी बेटी भी डॉक्टर है!”
मैंने भी अपने चेहरे से पत्नी को मौन जवाब दिया- “मैं तो सिर्फ उससे बात करने का बहाना खोजते हुए डॉक्टर होने की बात पूछ रहा था। उसके पिता ने मुझे बताया था कि उनका एक बेटा डॉक्टर है जो इसी इलाके में रहता है।”
खैर, मैंने डॉक्टर बेटे को उसके हाल पर अकेला छोड़ दिया और पत्नी के साथ आगे बढ़ा। दूसरा समूह आने वाले चुनावों की बात कर रहा था। कम्यूनिटी के चुनावों में खड़ी उम्मीदवार, पंखुड़ी जी से कैनवासिंग की बात हो रही थी। उन्हें किसके वोट मिल रहे हैं, किसके नहीं मिल रहे, इसकी गिनती लगायी जा रही थी। पंखुड़ी जी का कहना था- “किसी से फोन करके हाथ जोड़ने की जरूरत नहीं मुझे। किस आदमी को अपना वोट, किस उम्मीदवार को देना है, सब पहले से तय है। फिर क्यों यह कहकर हाथ-पैर जोड़े जाएँ, मुझे वोट दो, मुझे वोट दो।”
मैं भी उन सबसे हाय-हलो कहकर बातचीत में शामिल हो गया- “फिर भी एक बार सबको फोन करके आने के लिए जरूर कहिए। हो सकता है कई लोगों ने चुनावी संदेश पर ध्यान न दिया हो और वोट डालने के लिए आएँ ही नहीं।”
“सच है समर जी, पर मैं सोचती हूँ जिसको इन सब चीजों में रुचि है, वह तो आएगा ही। जिसको नहीं है, वह लाख बुलाने पर भी नहीं आएगा।”
और लोगों ने पंखुड़ी जी का समर्थन किया- “हम तो आएँगे। अपने मित्रों को भी लाएँगे। बहरहाल अग्रिम बधाइयाँ लें, जीत आपकी होगी, यह निश्चित है।”
“हाँ, यह बात पक्की है, आपके मुकाबले कोई है ही नहीं जो इस पद के काबिल हो और आपकी तरह समर्पित भाव से काम कर सके।”
मैंने पत्नी को इशारे से अगले समूह की ओर बढ़ने का संकेत दिया। यहाँ कुछ उम्रदराज थे जो वहाँ रखी आइसक्रीम खाने के लिए आगे बढ़ रहे थे। उनमें से एक का यह कहना था- “चाय-वाय का इंतजाम नहीं रखा। इतनी दूर से आने वाले लोगों के लिए कम से कम एक कप चाय तो पिलाने की व्यवस्था रखते। दूर-दूर से ड्राइव करके आते हैं।”
न जाने क्यों मुझे भी चाय की जरूरत महसूस हुई। उनकी बातचीत में शामिल होने का भी मन किया, लेकिन संयम बरतते हुए आगे बढ़ गया।
अगला लक्ष्य उनकी पत्नी से मिलने की दिशा में था। अब हम उस लाइन में खड़े हुए लोगों की बातें सुन रहे थे। यहाँ भारत की राजनीति की चर्चा थी। आमतौर पर कुछ बात करने को न हो तो भारत में बारिश, गर्मी और राजनीति के दाँव-पेंचों का जिक्र यहाँ, टोरंटोनियन भारतीयों में आम बात थी।
बंसल जी की पत्नी हाथ जोड़े खड़ी थीं। “माला की तरह पिरो कर रखा था अपने परिवार को।” बंसल जी के शब्द मेरे कानों में गूँज रहे थे। अब माला का धागा ही टूट गया। फूलों को अपनी राह खुद तय करनी होगी। उनकी पत्नी आते-जाते लोगों से मिलते हुए अपनी आँखें उठातीं और वापस झुका लेतीं। मानो कतरा दर कतरा दु:ख बँटते हुए उनके मन को हल्का कर रहा हो। इतने लोगों से मिलने की महज औपचारिकता निभाती आँखें कोरी थीं, संवादहीन, भावहीन। उनके आँसू आँखों की गीली पोरों पर थे पर तीन दिनों से लगातार बहने के कारण अब वहीं थम गए थे। बाहर आकर छलकने की औपचारिकता भी पूरी नहीं कर पा रहे थे।
हमने अपनी संवेदना जताकर पीछे वालों को रास्ता दे दिया। कुछ महिलाएँ उनसे मिलने के बाद एक ओर खड़ी होकर आपस में कह रही थीं- “उनकी पत्नी ठीक लग रही हैं, आँखों में आँसू भी नहीं थे।”
“देखो, आँसू भी सूख जाते हैं। पिछले बावन वर्षों के साथ ने जो खालीपन दिया होगा, वह धीरे-धीरे अकेले में चुभना शुरू होगा।”
“और फिर जाने वाला धीरे-धीरे घर के इतिहास के पन्नों में एक नाम भर रह जाएगा।” यह कड़वा सच था, मगर मृतक के लिए आयोजित इस शोक सभा में इसकी कड़वाहट कुछ ज्यादा ही कसैली थी।
आगे सिर्फ महिलाओं का एक समूह था जिसमें लगभग पैंतीस से पैंतालीस की उम्र की महिलाएँ शामिल थीं। शायद ये बंसल जी के बेटे-बहू से दोस्ती होने की वजह से इस शोक सभा में आयी थीं। इस समूह में सभी दबी आवाज में बात कर रहे थे। उम्र के जिस मोड़ पर ये सारी महिलाएँ थीं, उस उम्र में लोगों पर अपना खराब प्रभाव छोड़ना मन को अच्छा नहीं लगता था। ऐसे मौकों पर पहने जाने वाले सफेद कपड़ों की उपलब्धता की व्यापक चिंता थी। इन सभी का बातचीत का अंदाज फुसफुसाहट से भरा था- “अरे आज तो सफेद सलवार सूट ढूँढना ही मुश्किल हो गया।”
“कैसे भी करके यह लाइट कलर का सलवार-कमीज मिल गया वरना पहनती ही क्या!”
“मैंने तो एक सफेद पोशाक अलग ही रख दी है ताकि ऐसे मौकों पर सोचना न पड़े।”
“अब मुझे भी यही करना होगा, एक जोड़ा सफेद और एक जोड़ा काले कपड़ों का।”
“हाँ, हम लोगों के लिए एक और परेशानी यह है कि भारतीय रिवाजों के कपड़े अलग रखो और वेस्टर्न के अलग।”
“और क्या, सफेद कपड़ों को पहनने का रिवाज हम भारतीयों में है जबकि यहाँ ज्यादातर काले कपड़ों में उपस्थिति दर्ज होती है।”
“कपड़े कोई से भी पहने जाएँ, जाने वाला तो चला गया, उसे क्या फर्क पड़ेगा!”
“हाँ, वो तो है, मगर ये कुछ रीत-रिवाज बन गए हैं। अगर इन पर न चलो तो समूह में एक अकेले ही अलग दिखो।”
“बिल्कुल, ऐसे मौकों पर क्या कहना चाहिए, मुझे तो यह भी मालूम नहीं।” इस समूह की खास बात यह थी कि हर एक महिला की गुलाबी ज़ुबान अंदर-बाहर हो रही थी, इस संकेत के साथ कि, “ऐसा कुछ न कह दिया हो जो इस अवसर के प्रतिकूल हो। चुप करके बाहर निकल जाओ बस।”
अपने-अपने समूह थे, राग थे, आलाप थे। शोक सभा की समाप्ति का समय हो चुका था। सफेद बत्तखों के झुंड के झुंड बाहर निकलने लगे थे। बाहरी गेट से निकलते हुए किसी ने एक जोक मारा, समवेत ठहाके लगे। गम के साए से बाहर आकर सभी मुक्त अनुभव करने लगे थे। खुली हवा में साँस लेते हुए अपनी-अपनी गाड़ियों की ओर बढ़ रहे थे। बंसल जी की पत्नी को घर के अंदर घुसते हुए देखा, निश्चित ही एक लंबी साँस खींचकर वे सोफे पर जाकर पसर गयी होंगी।
इधर अपनी कार तक आते-आते पंखुड़ी जी को किसी ने कुछ ऐसा कह दिया कि वे आपा खो बैठीं। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि वह आदमी अगर सामने आ जाए तो उसका कत्ल कर देंगी। अहिंसा के अनुयायी भी एक हद तक ही अहिंसक रह सकते हैं। और लोगों के साथ मैं और पत्नी भी उन्हें शांत करवाने की कोशिश कर रहे थे। पंखुड़ी जी की गाड़ी निकलते ही हम सब लोगों ने अर्थपूर्ण ढंग से ठहाका लगाया और हाथ हिलाते हुए अपनी-अपनी गाड़ी में बैठने लगे।
बंसल जी के घर की खामोशी ऐसी थी जैसे तालाब का पानी सफेद बत्तखों के प्रस्थान के बाद हलचल रहित, शांत हो गया हो। बहुत लोग आए-गए, मगर बंसल जी इस सभा में कहाँ थे! वे तस्वीर में कैद होकर रह गए थे। तस्वीर पर टँगी माला के फूल भी शाम होते-होते मुरझा कर धागे से अलग हो जाएँगे और तब मृतात्मा मुक्ति के पथ पर अग्रसर होगी। एकाएक मुझे लगा बंसल जी का चेहरा उस तस्वीर से लुप्त होकर मेरी कार के पास से गुजरता कह गया- “समर जी, पॉश इलाके के कल्चर्ड फूल भी अपनी संपूर्णता से खिलकर अंतत: मुरझा ही जाते हैं।”
मैंने गाड़ी की गति तेज कर दी। मातम के चार पल बहुत होते हैं। अब मैं मौत से नहीं, अनायास फैले भीतरी सन्नाटे के शोर से भयभीत था। सफेदी के झुंड और क्वैक-क्वैक करती आवाजें कानों को लगातार बींध रही थीं।
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