
यादों की यादगार की कुछ यादें
विजय विक्रान्त
भारत छोड़े हुए एक लम्बा अरसा हो गया है। कैसे ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा यहाँ कैनेडा में गुज़ार दिया, इसका कोई अन्दाज़ा ही नहीं रहा। वक्त गुज़रता गया और इसी के साथ साथ ज़िन्दगी की गाड़ी ने भी अपनी रफ़तार तेज़ करनी शुरू करदी। तेज़ी का, यह न रुकने वाला आलम, हमेशा से ही अपनी भरपूर जवानी पर रहा है।
फिर भी न जाने क्यों, दिल के किसी कोने में, पुरानी यादों के आगोश में जा कर गुम हो जाने के लिए तबियत बेचैन रहती है। वो यादें, जो कभी हकीकत हुआ करती थीं, आज उन्हीं को तरोताज़ा करने को जी कर रहा है। जाने अंजाने में आज आपको भी अपने इस सफ़र में मैं ने अपना हमसफ़र बना ही लिया है।
चलो, आज ज़िन्दगी की तेज़ रफ़तार को कीली पर टाँग कर, और कुछ आहिस्ता करके, जीने का मज़ा लिया जाए। यही वो तेज़ रफ़तार है जिसकी वजह से हम ख़ुदा की बख़्शी हुई नियामनतों से महरूम हो गए हैं।
(ईश्वरिय वरदानों से वंचित रह गए हैं)
चलो, एक बार थोड़ी देर के लिए बच्चे क्यों न बन जाएं। याद करें उन लम्हों को जब मुहल्ले के मैदान में दोस्तों के साथ गिल्ली डण्डा, पिठ्ठू, कबड्डी और कंचों से खेला करते थे। खुले आस्मान में पतंगें उड़ाया करते थे और बारिश में झूम झूम के नाचते, गाते और नहाते थे। यही नहीं, बारिश के बहते पानी में हम अपनी अपनी कागज़ की किश्तियाँ भी तैराया करते थे।
चलो, एक बार पशु पक्षियों के बीच में जाकर चिड़ियों की चहचहाहट, कोयल की कूक, कबूतरों की गुटरगूँ, मुर्गों की बाँग, कौओं की कौं कौं, कुत्तों की भौं भौं, गऊओं के रंभाने और घोड़ों के हिन्हिनाने में जो एक छुपा हुआ सँगीत है उसे बड़े ग़ौर से ध्यान लगाकर सुनें। यही नहीं मोर को नाचता, ख़रगोशों को फुदकता और हिरनों को उछलता देखकर क्यों ना हम भी आज एक ठुमका लगाएं।
चलो, एक बार खेतों में जाकर माटी की सुगन्ध, सरसों के पीले फूलों की चादर, गेहूँ की बालियां, बाजरे का सिट्टा, ज्वार और मक्की के भुट्टों में कुदरत का करिश्मा देखें।
चलो, एक बार फिर से उन्हीं खेतों में जाकर हल जोतते हुए किसान, बैलों का कुएं से पानी निकालते हुए रहट की कूँ कूँ, क्यारियों में पानी का चुपचाप गुमसुम बहना और पास के तालाब में तैरती हुई मछलियों के नाच को सराहें।
चलो, एक बार फिर से वो पुस्तकें पढ़ें जिन पर बुकशैल्फ़ में रखे रखे धूल जम गई है। गुम जाएं उन ख़्यालों में जब इन्हीं किताबों की सोहबत में वक्त का पता ही नहीं चलता था। याद करें अमीर ख़ुसरो, मिर्ज़ा ग़ालिब, बुल्ले शाह, वृन्दावन लाल वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवँशराय बच्चन, धर्मवीर भारती, महीप सिंह, भीशम साहनी और बहुत सारे दिग्गज लेखकों को जिन्होंने अपने साहित्य की सारी दुनिया में एक बहुत बड़ी छाप छोड़ दी है।
चलो, एक बार फिर से याद करें उन दिनों को जब फ़ॉन्टेन पैन या फिर स्याही वाली दवात और कलम से लिखाई किया करते थे और स्याही को सुखाने के लिए ब्लॉटिंग पेपर का इस्तैमाल होता था। कभी कभी तो इसी स्याही से किताबें और हाथ पैर काले नीले हो जाते थे। कैसे भूल सकते हैं उन लम्हों को जब फ़ॉन्टेन पैन लीक कर जाता था और जेब के ऊपर दुनिया का नक्शा बन जाता था।
चलो, एक बार फिर से छत पर जाकर बिस्तर के ऊपर पानी का छिड़काव किया जाए। उसके बाद सफ़ेद चादर ओढ़ कर लम्बी तान कर सोया जाए।
चलो, एक बार फिर से कुछ दोस्तों को साथ लेकर बस्ती से दूर पटेल पार्क में जाकर पिकनिक मनाई जाए। यादों की दुनिया को तरोताज़ा करते हुए दौराहा जाए, उन लम्हों को, जब ठण्डा करने के लिए देसी आमों को पानी की भरी हुई बाल्टी में डाला जाता था और देसी आम चूसने का मज़ा ही कुछ और होता था।
चलो, एक बार फिर से शहर के कोलाहल से दूर, पास वाले गाँव में तालाब किनारे बैठा जाए। वहाँ पर पानी में ठीकरों को ऐसे फैंका जाए कि वो तैरते नज़र आएं। पत्थरों पर बैठकर पैरों को पानी में डालकर ठण्डा किया जाए। आसपास के खेतों में हल चलाते हुए किसान से कुछ अपने दिल की बात कही जाए और कुछ उसकी सुनी जाए। मौका मिले तो सर्सों के साग और मक्की की रोटीयों के ज़ायके का भी लुत्फ़ उठाया जाए।
चलो, एक बार फिर से उन वाईनल रिकार्डों को, जिन्हें याद करके सुनना तो दूर रहा हाथ लगाए हुए भी एक बहुत लम्बा अरसा हो गया है, बड़ी मुद्दतों के बाद सुना जाए । इसी बहाने कुछ देर के लिए अपने आपको के.एल.सैगल, पँकज मलिक, लता मंगेशकर, सी.एच.आत्मा, बेग़म अख़्तर, किशोर कुमार, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर, सचिन्देव बर्मन, आशा भोंसले, शान्ति हीरानन्द, शमशाद बेग़म, कमल बारोत, सुधा मल्होत्रा, ज़ोहरा बाई अम्बाला, मुकेश, मुहम्मद रफ़ी, जगजीत सिंह, तलत महमूद, गीता दत्त, रहमत कव्वाल, शँकर शँभू कव्वाल, यूसफ आज़ाद, रशीदा ख़ातून, नुसरत फ़तेह अली ख़ान, सी. रामचन्द, हेमन्त कुमार, नूर जहाँ और सुरैया जैसे फ़नकारों के भूले बिसरे सदा बहार गीतों के आनन्द में डुबो दिया जाए।
काश
ज़िन्दगी की इस दौड़ धूप में यह सब मुमकिन हो पाता और हमें गुज़रे हुए दिनों के साथ थोड़ा वक्त गुज़ारने का मौका मिलता।
लेकिन
इन ख़ुशगवार पुरानी यादों के साथ साथ ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा कड़वा सच भी जुड़ा हुआ है। कुछ यादें को तो हम हमेशा हमेशा के लिए भुला देना चाहते हैं। ऐसी यादों के लिए तो यही कहना वाजिब होगा।
भूली हुई यादों, मुझे इतना न सताओ,
अब चैन से रहने दो, मेरे पास न आओ।