कीर्ति रिक्शा वाला पंद्रह साल से रिक्शा खींचता चला आया है। वह गरीब तो था ही और रिक्शा चलाने में जी-तोड़ परिश्रम की जरूरत होती थी, पर उसे अपने इस धंधे पर गर्व था : गाढ़े पसीने की कमाई और वह अपनी मर्जी का खुद मालिक था।

वह अभी अधेड़ तो नहीं, पर चौंतीस साल के पुरुष को युवक भी नहीं कह सकते, यद्यपि उसका हृष्ट-पुष्ट शरीर एक नौजवान के समान था। हाँ, इससे अधिक, वह अपने दिल के भोलेपन, जो पर्वतीय जाति का सामान्य गुण था, के कारण अपनी उम्र से कम मालूम देता था। वह गढ़वाल के गाँव में खानदानी कृषक घराने में पैदा हुआ था। कहते हैं कि उसके पूर्वज वीर राजपूत थे, अतः कीर्ति सिंह को वंश का अभिमान भी था। उसके पिता को अपने एक घनिष्ठ मित्र के हाथों धोखा खाकर लाखों रुपए की हानि उठानी पड़ी। ज़मीन-जायदाद तक बेचनी पड़ी। उसका पूरा कुनबा गरीबी के नरक कुंड में गिर-सा गया। इसके फलस्वरूप कीर्ति को अपनी शिक्षा केवल तीसरी कक्षा में ही छोड़ देनी पड़ी। उसके बड़े भाई बूढ़े माता-पिता और थोड़ी-सी बची ज़मीन की देखभाल के लिए अपने तीन छोटे भाई और बहनों के साथ गाँव में रह गए, परंतु कीर्ति को शहर में मजदूरी के लिए गाँव छोड़ना पड़ा।

अपनी बिरादरी का आश्रय लेकर वह पहले दिल्ली आया था। वहाँ पहले एक रेस्तराँ में बर्तन मांजने का काम किया था, परंतु यह काम दस साल के लड़के के लिए बहुत सख्त था, दिन भर की थकावट के बाद रात को सोने के अलावा कुछ नहीं कर सकता था। अभी उसे पढ़ने की बहुत इच्छा थी। इसलिए वह यह काम छोड़कर एक अमीर आदमी के घर में नौकर बन गया ताकि पैसा कमाकर कुछ पढ़ सके। यहाँ तीन साल तक काम किया।

मालिक अच्छे थे और उनके छोटे मुन्ने का अच्छा दोस्त भी बना था। छोटी-मोटी किताबें भी पढ़ने को मिल जाती थी। किंतु तनख्वाह इतनी नहीं मिलती थी कि पेट भर खा सके और घर भेजकर माँ-बाप की मदद कर सके। फिर चढ़ती हुई जवानी ने उसे नई दुनिया देखने को प्रेरित किया। वह दिल्ली छोड़कर बम्बई आ गया। बम्बई में एक फिल्म अभिनेत्री के घर में नौकर बना। यह उसके लिए बिल्कुल अलग दुनिया थी। यद्यपि यहाँ कीर्ति के साथ बहुत अच्छा व्यवहार नहीं किया गया, बल्कि कभी-कभी कटु-व्यवहार भी किया जाता था, पर कम से कम खाना तो उसे पेट भर मिलता था, इसलिए दो-तीन साल में वह बहुत हृष्ट-पुष्ट शरीर का नौजवान बन गया।

यहाँ उसने तरह-तरह के आदमियों को देखा : फिल्मी सितारे, फिल्म निर्माता आदि फिल्म उद्योग से संबंधित लोगों का रोज तांता-सा लगा रहता था, हर समय शराब और जुआ के दौर चलते थे। उसे बचपन से यह कड़ी शिक्षा मिली थी कि मदिरापान बहुत बुरी चीज़ है, आत्मा को भ्रष्ट करता है। परंतु वातावरण कुछ ऐसा था कि उसे भी शराब का चस्का लगा, उसकी पूरी कोशिश थी कि इस दुरभ्यास से कोसों दूर रहे। जब तक किसी मेहमान के हाथों ज़बरदस्ती न पिलाया जाता था तब तक उसने शराब न छूने की ठानी थी।

इस घर में उसे प्रायः ऐश करने वाले आदमी ही मिलते थे, कोई सज्जन पुरुष तो इसकी नज़र में नहीं आया। उसकी मालकिन सज-धज कर बाहर जाती थी और प्रतिदिन किसी न किसी नये आदमी को घर ले आती थी। तितली की तरह चंचल थी। यहाँ का भोग-विलास भरा वातावरण उसे अच्छा नहीं लगा, अतः उसने फिल्म अभिनेत्री के यहाँ की नौकरी भी छोड़ी। यहाँ उसने यह शिक्षा पाई कि आदमी धनी होने मात्र से सुखी नहीं होता, भले ही मालकिन अपने को सुखी समझती हो, पर कीर्ति को वह सुखी नज़र नहीं आई।

कई बार उसने किसी कंपनी या कारखाने में पक्की नौकरी पाने की कोशिश की। परंतु उसने विशेष कुछ तकनीकी शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। यह योग्य नहीं था–ऐसी बात नहीं थी, सिर्फ अवसर से वंचित था। उसकी निरीहता, कर्मठता, सहनशीलता और उसका भोलापन इनमें से कोई गुण पक्की नौकरी दिलाने में काम नहीं आया। फिर भी उसने कभी किसी से असंतोष प्रकट नहीं किया। संयोग से उसे दादर स्टेशन पर कुली का काम मिला। यह मजदूरी भी सख्त थी, पर उसका स्वस्थ बदन भारी सामान उठाने के काबिल था। यहाँ भी उसने नाना प्रकार के यात्रियों को देखा, विरह-मिलन सब देखा। उसे लगा कि स्टेशन जीवन का एक रंगमंच है उसने कुली का काम करते-करते मराठी, गुज़राती और थोड़ी अंग्रेज़ी भी सीखी।

वह अब साल में दो बार छुट्टियाँ लेकर गढ़वाल चला जाता था, परंतु दिन-रात कड़ी मेहनत करके कुछ बचत भी कर लेता था। उसने बैंक में अकाउंट खोला। बूढ़े माँ-बाप की इच्छा थी कि कीर्ति की शादी जल्दी कर दी जाए। अब वह उन्नीस साल का पूरा नौजवान था, हर तरह से शादी के लायक था। बड़े भाई ने अपने गाँव की सत्रह साल की एक लड़की को कीर्ति की वधू के रूप में सुझाया जो उस जैसी बिल्कुल भोली-भाली लड़की थी। माँ-बाप और बड़े भाई के आग्रह को टालने का विशेष कोई कारण नहीं था। अतः उसने उन लोगों के कहने के अनुसार उस लड़की से शादी कर ली। अब उसकी नई ज़िंदगी शुरू हो गई, पर उसके साथ विडंबना तो यह थी कि अपने इस गाँव में ज़मीन की तंगी की वजह से गुजारा नहीं हो सकता था। अतः उसे फिर नौकरी की तलाश में शहर जाना पड़ा।

:2:

कीर्ति जीवन में हर प्रकार का दुःख झेलता आया है, परंतु कभी अपने भाग्य पर रोया नहीं। किसी भी कष्ट को चुपचाप हँसते-हँसते सहन करता आया है। भगवान ने एक ओर उसे धन से वंचित किया था तो दूसरी ओर उसे अद्भुत सहन-शक्ति और लगन प्रदान की थी। वह जीवन में उन्नति करना चाहता था। कई बार पेशा बदलने के पीछे यह भाव काम करता था। असंतोष का कारण इसकी तुलना में कम था। अब वह किसी के यहाँ नौकरी करना नहीं चाहता, बल्कि ‘सेल्फ़-एम्प्लोई’ बनना चाहता था। लेकिन कीर्ति जैसे अल्प-शिक्षित तथा अल्प पूँजी वाले व्यक्ति के लिए, जिसने कभी ‘स्किल्ड लेबर’ नहीं सीखा, ‘सेल्फ़-एम्प्लोई’ बनना इस प्रकार कठिन था, मानो एक ग़रीब का महलों के ख्वाब देखना। कीर्ति सीधा-सादा आदमी था, पर उसमें बुद्धि का अभाव नहीं था। उसने मेरठ शहर में अपना रिक्शा चलाने का सोचा। अब तक की अपनी कुल बचत पाँच सौ रुपए, एक नया रिक्शा खरीदने के लिए पर्याप्त नहीं थी, पर आधा तो नकद में दे सकता था। बाक़ी खर्चे के लिए उसने रिक्शा संघ के नाम बैंक से उधार ले लिया। इस प्रकार उसे नया चमचमाता रिक्शा मिला। जब उसने पहली बार इस नये रिक्शे को देखा तो वह गद्गद् हो गया। ऐसी अद्भुत तृप्ति मिली जैसी उसे जीवन में पहली बार ‘अपनी चीज़’ प्राप्त हुई हो।

मेरठ के अधिकांश रिक्शा चालकों के पास अपना रिक्शा नहीं था, उन लोगों के मालिक उनकी कमाई का अधिकांश भाग हड़प लेते थे। इस दृष्टि से कीर्ति अन्य रिक्शावालों से कहीं अधिक सौभाग्यवान था, लेकिन उसे पूरा विश्वास था कि अगर पूरी मेहनत और ईमानदारी से काम करें तो इस शहर के सभी रिक्शा चालक अपना रिक्शा खरीद सकेंगे और मालिकों के शोषण से मुक्ति पा सकेंगे। उसने रिक्शे पर बैठकर पैडल चलाया, हल्का और द्रुतगामी था। वह चलता क्या था मानो हवा से बातें कर रहा हो। उसे लगा मानो वह महाराणा प्रताप बनकर चेतक पर बैठा हो। लेकिन कुछ दूर जाने के बाद जब बाईं ओर मोड़ना चाहा तो नहीं मोड़ सका। जल्दी से हैंडल घुमाया, लेकिन जिस दिशा में वह जाना चाहता था उस दिशा में न जाकर एक बिजली के खम्भे से टकरा गया। उसको साइकिल चलाना तो आता था, किंतु साइकिल और रिक्शा चलाने में बड़ा अंतर मालूम हुआ। रिक्शे का हैंडल बहुत भारी था, इसलिए हैंडल घुमाना बहुत मुश्किल लगा। उसे मालूम हो गया कि देखने में आसान लगता है, लेकिन रिक्शा चलाने में बड़ी कुशलता की आवश्यकता है, हर कोई तो नहीं चला सकता। विशेषतः जहाँ गाड़ी और आदमियों की भीड़ लगी रहती हो वहाँ से निकलने के लिए एकाग्रचित्त होकर हैंडल पकड़ना पड़ता है, नहीं तो दुर्घटनाग्रस्त होने की बहुत संभावना थी। कीर्ति को इस दक्षता को प्राप्त करने के लिए पूरा हफ्ता लगा था। अब उसे पूरा विश्वास हो गया कि रिक्शा चलाना भी ‘स्किल्ड लेबर’ की कोटि में आ जाना चाहिए। एक तो बह ‘सेल्फ़-एम्प्लोई’ था, और अब ‘स्किल्ड-लेबर’ बना। सोने में सुहागा-सा लगा। अब वह शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक सवारियों को बिठाकर ले जाता था। इतवार को भी काम करता था, किंतु जिस दिन आराम करने की इच्छा हुई तो आराम करता था वह खुद मालिक था, किसी से अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं थी। शहर में एक छोटी-सी कोठरी भी ले ली। नाश्ता और रात को खाना खाता था। दिन को खाना नहीं खाता था- हाँ, चाय तो बहुत पीता था : मेहनत का काम था, पसीना जल प्रपात की तरह बह निकलता था। एक दिन की उसकी औसत कमाई लगभग दस रुपए थी। उसका दृढ़ संकल्प था कि रोज़ पाँच रुपए बचाकर प्रति मास डेढ़ सौ रुपए घर भेजेगा। उस जमाने में गाँव में डेढ़ सौ रुपए बहुत नहीं, तो भी एक परिवार के गुज़ारे के लिए काफी थे।

यहाँ भी उसने तरह-तरह के मनुष्यों को देखा। बूढ़ा, बच्चा, स्त्री, अमीर, ग़रीब, बड़ा, छोटा आदि। सवारियों की आपस में वार्तालाप वह ध्यान से सुन लेता था। उसकी जिज्ञासा थी कि लोग किस प्रकार का जीवन बिताते हैं। कीर्ति ईमानदार आदमी था। कभी किसी सवारी से ज़्यादा पैसा नहीं माँगा। कुछ रिक्शा वालों के ज़्यादा पैसे माँगने से रिक्शावाले बदनाम थे। कीर्ति को अफसोस था कि थोड़े से आदमियों की वजह से यह पेशा खामखां बदनाम है। लेकिन उसे पूरा विश्वास था कि बेईमानी से पैसे कमाने वाले रिक्शा वाले बहुत ही कम हैं। कीर्ति को इस बात का भी दुःख था कि कुछ सवारी रूखे शब्दों में बात करती थी, थोड़ा दिशा भ्रम होने से या धीरे चलाने से उन लोगों के मुख से इस प्रकार के अपशब्द निकलते थे– “अबे, साले! क्या करता है!” स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए यह अपमान असहनीय था, पर कीर्ति यह भी हँसकर सुन लेता था। उसकी अद्भुत सहिष्णुता को देखकर किसी ने कीर्ति को ‘वैशाख नंदन’ कहा था। कीर्ति यों समझता था कि गाली देने से गाली खाने वाला अपमानित नहीं होता, अपितु गाली देने वाला स्वयं अपमानित हो जाता है। कीर्ति ने देखा कि समाज में सम्मानित कुछ आदमी भी रिक्शावालों से रूखे ढंग से बोलते हैं। कीर्ति को ऐसा लगता है कि ऐसे आदमी पाखंडी हैं। वह अपनी पीठ के पीछे मनुष्य के चरित्र का सही रूप देख सकता है। यही उसको सबसे बड़ी उपलब्धि थी। उसे यह समझ में नहीं आता था कि आदमी क्यों अक्खड़ हो जाता है। उसके विचार में यह उनके दिल की कमज़ोरी के अलावा कुछ भी नहीं है। कीर्ति यह मानता था कि समाज में बड़े आदमी और छोटे आदमी का फर्क अनिवार्य है, किंतु उसका विचार था कि यह भेद कर्म से जनित होना चाहिए, जन्म से नहीं। कीर्ति साम्यवाद, समाजवाद सरीखे शब्द से परिचित नहीं था, किंतु उसने जीवन के प्रति अपनी यह धारणा बना रखी थी कि आदमी को समान अवसर प्राप्त होना चाहिए, किंतु आदमी की क्षमता में मात्रा भेद होने के कारण अंततः आदमी बराबर नहीं हो सकता इस दृष्टि से वह समाज में वर्ग-भेद को स्वीकार करता था, परंतु उच्च वर्ग के लोगों का घमंड होने का कारण उसकी समझ में नहीं आता था। आदमी को वहन करने का काम क्यों निम्न हो सकता है? आखिर विमान का पायलट भी चालक तो है न? फिर पायलट के प्रति इतना आदर क्यों? शायद इसलिए कि वह मशीन चलाता है और ज़्यादा सवारियों का बहन करता है? जितनी बड़ी संख्या में सवारियों का वहन करेगा उतनी ही इज्ज़त मिलेगी? तब रेलगाड़ी के चालक का स्थान पायलट से ऊँचा होना चाहिए।

यदि यह बात है तो सवारी के स्थान के अनुसार चालक का स्थान निर्धारित होना चाहिए क्या? इसका मतलब यह हुआ कि अगर शहर के प्रतिष्ठित न्यायाधीश संयोग से कीर्ति की सवारी बनें तो वह महान् है? और उसके साथी के रिक्शे में कोई मेहतर बैठा हो तो वह नीच है? नहीं, आदमी ‘संयोग’ से छोटा बड़ा नहीं हो सकता।

यों सोचते-सोचते दस साल हो गए, लेकिन न तो जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण में कोई परिवर्तन आया न उसके भोलेपन में, हालाँकि उसके पारिवारिक जीवन में बड़ा परिवर्तन आया था। अब वह दो बच्चों का बाप था। साल में दो-तीन बार गाँव वापस जाकर बच्चों के साथ समय बिताने का आनंद पाकर उसका जीवन और सार्थक हो गया था। वह ‘परिवार नियोजन’ को मानता था, इसलिए अब और बच्चे पैदा नहीं करेगा।

सवारियों के प्रति उसका कौतूहल ज्यों का त्यों बना हुआ था। अब उसने आगरा जाकर रिक्शा चलाने का फैसला किया, क्योंकि आगरा में बहुत विदेशी पर्यटक आते हैं। उसने बम्बई में थोड़ी अंग्रेज़ी सीखी हुई थी, अतः विदेशी सवारियों के साथ अंग्रेज़ी में बोलना कितना आनंदपूर्ण अनुभव होगा! दस साल में वह तीन-चार बार नया रिक्शा खरीद चुका था। इस बार भी उसने यह सोचकर पुराना रिक्शा बेच दिया कि आगरा में फिर नया रिक्शा खरीद लेगा। अब नये रिक्शे का दाम आठ सौ हो गया था।

:3:

कीर्ति को आगरा शहर में रिक्शा चलाते चार-पाँच साल हो गए। इस शहर में रिक्शा वालों की बदनामी के बारे में मेरठ से कुछ ज़्यादा सुनने को मिला था। कहते हैं कि वे विदेशियों को ठगते हैं, एक विदेशी पर्यटक को आगरा छावनी स्टेशन से ताजमहल तक के किराए के लिए बीस रुपए देने पड़े। कीर्ति को फिर भी विश्वास था कि बेईमान आदमी तो हर जगह हर क्षेत्र में हैं, ज़्यादातर रिक्शा वाले ईमानदार होते हैं।

कीर्ति ने यहाँ बहुत से स्वार्थहीन और निष्काम सेवा करने वाले रिक्शा वालों को देखा है। एक समय बस्ती का एक छोटा-सा बच्चा अचानक रोगग्रस्त हो गया था, जान खतरे में थी और चिकित्सालय बहुत दूर था। तब कीर्ति का एक साथी अपने रिक्शे पर बच्चे और उसकी घबराई हुई माँ को बिठाकर कड़ी धूप और गर्मी की परवाह न करते हुए तेज़ी से रिक्शे को चलाते हुए दोनों को डॉ. के पास ले गया जिसके कारण उस बच्चे की जान बच गई। माँ के बहुत आग्रह करने पर भी उसने एक भी पैसा नहीं लिया था, उसकी आत्मा को यह संतोष मिला था कि उसने एक इंसान की जान बचाई। कीर्ति ने सोचा कि ऐसे आदमी को ही समाज में सम्मान मिलना चाहिए।

कीर्ति ने भी खुद दो नौजवान लड़कियों को गुंडों के आक्रमण से बचाया था। एक दिन साँझ ढल चुकी थी। दो नौजवान लड़कियाँ, जो कॉलिज की छात्राएँ मालूम होती थीं, कीर्ति के रिक्शे पर बैठीं। उसने दिल में यह सोचा था कि रात को लड़कियों को बाहर नहीं निकलना चाहिए। हजार में से एक रिक्शा वाला तो बदमाश हो सकता है। फिर शहर में गुंडे आवारा भी तो बहुत हैं। कीर्ति सावधानी से दाईं-बाईं ओर देखता हुआ तेजी से रिक्शा चला रहा था कि रास्ते में दो गुंडे अचानक रिक्शे के सामने आ गए और लड़कियों को ज़बरदस्ती ले जाने की कोशिश की। कीर्ति पहले एक गुंडे का सामना तो कर चुका था, पर कभी दो गुंडों का सामना नहीं किया था। वह बिना आगा-पीछा सोचे दोनों पर टूट पड़ा और इतनी ज़ोर से घूसों और लातों की बारिश की और शीघ्र ही दोनों को खदेड़ दिया कि दोनों गुंडे भाग खड़े हुए। लड़कियों को उनके घर तक सकुशल पहुँचाया। लड़कियों के घर वालों ने कीति को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। एक लड़की ने कहा, “आप हमारे यहाँ चाय पीकर जाइए।”

कीर्ति पहले तो कुछ हिचकिचाया, परंतु उस लड़की के बार-बार आग्रह करने पर उसने स्वीकार कर लिया। उस लड़की के घर वालों ने कुछ इनाम भी देना चाहा, परंतु उसने इनाम तो यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि यह तो उसका फर्ज़ था। हाँ, चाय उसने बड़े शौक से पी। वह यह देखकर फूला नहीं समाता था। कि उसे घर के बाक़ी लोगों के साथ खाने की मेज-कुर्सी पर बिठाया गया और चाय भी मिट्टी के प्याले में नहीं बल्कि कप में दी गई थी जिससे घर के और लोग चाय पी रहे थे। और उसे अपने जीवन में पहली बार ‘आप’ कहकर संबोधित किया गया, सुकर्म का फल था! तो, उसके दिल का यह संशय अभी नहीं सुलझा था कि मध्यम पुरुष सर्वनाम ‘आप’, ‘तुम’, ‘तू’ की सापेक्षता का निर्णय करने वाला कौन है?

कीर्ति की सवारियों में बहुत-से विदेशी पर्यटक भी थे- अंग्रेज़, अमरीकी, जर्मन, फ्रांसीसी, रूसी, इटालियन, जापानी आदि प्रायः हर देश के लोग कीर्ति की सवारी बन चुके थे। कीर्ति को टूटी-फूटी अंग्रेज़ी बोलने में मज़ा आता था। विदेशी सवारियों से बातचीत करने से एक तो उसे दुनिया भर की नई-नई बातें जानने का मौका मिलता था, दूसरी ओर उसे थकावट का ज़रा भी आभास नहीं होता था। जिस तरीके से भारतीय सवारियों द्वारा कीर्ति की कभी-कभी उपेक्षा की जाती थी वह उपेक्षा विदेशी सवारियों द्वारा कभी नहीं की गई। जिस उल्लास से कीर्ति बात करता था, उसी उल्लास से विदेशियों से जवाब मिलता था और प्रत्युत्तर में विदेशी भी कीर्ति से नाना प्रकार के प्रश्न करते थे। हाँ, विदेशियों में भी सब एक जैसे नहीं थे। कीर्ति को लगा कि सबसे ज़्यादा खुलकर बोलने वाले अमरीकी हैं, उससे थोड़ा कम बोलने वाले रूसी हैं और सबसे कम बोलने वाले जापानी हैं।

कुछ विदेशियों के मुख से कुछेक रिक्शा वालों की बेईमानी की शिकायत सुनकर तो कीर्ति का मुँह शर्म से नीचा हो जाता था, लेकिन आज उसे विदेशियों द्वारा भोले-भाले रिक्शा वालों के साथ विश्वासघात किए जाने की एक अत्यधिक चौंकाने वाली खबर मिली।

बात यों थी कि तीन जर्मन लड़कियों ने तीन रिक्शावालों से वायदा किया था कि वे उनसे शादी करेंगी। शादी करने के बाद वे उनको जर्मनी ले जायेंगी और वहाँ उन्हें मजदूरी करने की कोई ज़रूरत नहीं होगी अपितु एक ऐश्वर्य की ज़िंदगी होगी। चूँकि रिक्शा वालों से विदेशी लड़कियों की शादी इस शहर में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में एक नई घटना थी, यह खबर समाचार-पत्रों में छपी और शहर में क्या, पूरे देश में फैल गई। इस घटना के प्रति लोगों की विविध प्रतिक्रियाएँ थी; कुछ लोगों ने कहा कि पागल लड़कियाँ हैं, जिन्होंने ऐसी नीच जाति के लोगों से शादी कर ली, किसी ने कहा कि बेचारियों ने रिक्शा वालों से धोखा खाया होगा। किसी ने रिक्शा वालों के ‘कौशल’ की व्यंग्यपूर्ण प्रशंसा की और कहा कि कमबख्तों ने गोरी मेमों को अच्छा फँसाया है। और किसी ने खुलकर अपना ईर्ष्या-भाव प्रकट किया कि काश! गोरी मेम से एकात्म होने का सौभाग्य मुझे भी मिलता !

लेकिन यह समाचार छपने के पाँच दिन बाद ये ‘पत्नियाँ’ अपने ‘पतिदेवों’ को छोड़कर कहीं भाग गईं। ये लड़कियाँ ‘हिप्पी’ थीं और उनके वीज़ा की अवधि खत्म होने वाली थी और उसे बढ़ाने का एकमात्र साधन उन्हें भोले-भाले रिक्शा वाले नज़र आए थे। कीर्ति ने सोचा कि बेचारे रिक्शा वाले अवश्य सहानुभूति के पात्र हैं, लेकिन आदमी को इतना सीधा-सादा भी नहीं होना चाहिए। कीर्ति को यह विश्वास हो गया कि कुछ विदेशी लोग बदमाश होते हैं। अब वह कुछ सतर्कता से विदेशी पर्यटकों को देखने लगा।

इधर एकाध साल से विदेशी सवारियों में से कोई-कोई हिंदी बोलने वाले भी मिलने लगे—– कीर्ति के लिए यह नया अनुभव था। कीर्ति ने अपने पिता से यह सुना था कि अंग्रेज लोग भारतीयों के साथ कभी ‘आप’ का इस्तेमाल नहीं करते थे; अंग्रेज शासक थे, इसलिए उनको दबदबा बनाये रखना था। शुरू में कीर्ति की यह कल्पना थी कि सभी विदेशी यही ‘साहबी हिंदी’ बोलेंगे। लेकिन प्रायः सभी विदेशियों ने कीर्ति को ‘आप’ कहकर संबोधित किया। कीर्ति को अजीब सा लगा कि ऐसा क्यों है? उसने यह भी सोचा कि उन लोगों की भाषा में सम्बोधन के लिए सिर्फ ‘आप’ ही मौजूद होगा, बाहर के लोग एक-दूसरे का हमेशा आदर से संबोधन करते होंगे। लेकिन उन विदेशी पर्यटकों से बात-चीत के दौरान उसे इसका कारण पता चला कि वे लोग किताब से हिंदी सीखकर आते हैं और किताब में सिर्फ ‘आप’ ही लिखा होता है। किसी अमरीकी ने कीर्ति को यह समझाया है कि यूनिवर्सिटी में शिष्ट भाषा ही सिखाई जाती है और अमरीका की दर्जनों यूनिवर्सिटियों में हिंदी पढ़ाई जाती है। कीर्ति को यह सुनकर खुशी हुई कि बाहर के लोग भी हमारी हिंदी शौक से सीख रहे हैं। अब तक कीर्ति की यह धारणा थी कि विदेशी लोग हिंदी बहुत नहीं जानते होंगे।

जापानियों की मितभाषिता की ओर कीर्ति का ध्यान पहले से था। परंतु हिंदी बोलने वाले जापानी दूसरे देशों के लोगों से कुछ ज़्यादा थे और जो जापानी हिंदी बोलते थे काफी उत्साह से बोलते थे, हालाँकि धीरे-धीरे बोलते थे। कीर्ति को ‘आप’ से सम्बोधित किया जाना बुरा तो नहीं लगा, लेकिन अस्वाभाविक लगा, क्योंकि उसमें अति शिष्टता और परायापन था। कीर्ति को ‘तुम’ से संबोधित किया जाने में कोई आपत्ति नहीं थी : ‘तुम’ में हमेशा निरादर का भाव नहीं है, बल्कि उसमें आत्मीयता का भाव भी है।

कीर्ति का ध्यान विदेशियों में सबसे अधिक जापानियों की ओर आकृष्ट होने लगा, क्योंकि एक तो उन लोगों की शक्ल भी गढ़वाल के लोगों से कुछ मिलती थी, दूसरे उनका व्यवहार बहुत नम्र था।

एक दिन एक जापानी पर्यटक उसे मिला था जो सज्जन पुरुष था और धाराप्रवाह हिंदी बोलता था। उम्र लगभग कीर्ति जितनी ही मालूम होती थी। उसकी धारणा थी कि जापानी लोग भी उम्र से कम दिखते हैं वह ऐसे कम विदेशियों में से एक था जिन्होंने शुरू से ही कीर्ति को ‘तुम’ कहकर संबोधित किया था। कीर्ति को बहुत अच्छा लगा, क्योंकि उसमें अत्यधिक स्वाभाविकता थी और बिल्कुल भी उपेक्षा का भाव नहीं था, बल्कि आत्मीयता से परिपूर्ण था। इतना ही नहीं, वह बिल्कुल स्वाभाविक हिंदी बोलता था। उच्चारण भी मोटे तौर पर शुद्ध था। उस जापानी के साथ भी आगरा शहर के बारे में, ताजमहल के बारे में, और कीर्ति के जीवन के बारे में इत्यादि तमाम बातें होने लगी।

“तुम कितने साल से रिक्शा चलाते हो?” उस जापानी ने पूछा।

“पंद्रह साल से, साहब।” “कितने बच्चे हैं तुम्हारे?”

“दो हैं—लड़का और लड़की।”

“तुम कभी-कभी रिक्शे पर अपने बच्चों को बिठाते हो?”

“नहीं, वे तो गाँव में हैं।”

“गाँव किधर है?”

“गढ़वाल में है!”

“अच्छा, यह रिक्शा कितने में मिलता है? और कहाँ मिलेगा?” “यह आठ सौ रुपए का है और मेरठ में बनकर आता है। क्यों? आप रिक्शा खरीदेंगे क्या?”

“हाँ यही सोच रहा हूँ।”

यह सुनकर उसे बहुत हैरानी हुई। आज तक किसी विदेशी ने रिक्शे के प्रति रुचि प्रकट नहीं की थी। रिक्शे की उपयोगिता पर कीर्ति के संशय को दूर करते हुए उस जापानी ने समझाया कि वह रिक्शा यहाँ बनवाकर जापान ले जाना चाहता है, और अपने बच्चों को रिक्शे में बिठाकर शहर की सैर कराना चाहता है।

कीर्ति यह सुनकर और हैरान हुआ— “क्यों, आपके यहाँ रिक्शा नहीं चलता?” इस पर जापानी ने आधुनिक जापान का संक्षिप्त इतिहास और रिक्शे का इतिहास बताते हुए कहा कि रिक्शा जापानी शब्द है और अंग्रेज़ी के माध्यम से हिंदी में अपनाया गया है, मौलिक रिक्शा तो उसी को कहते थे जो दो पहिए वाला है जिसे आदमी ही खींचता है और जो आजकल कलकत्ते में ही उपलब्ध है। तीन पहिए वाला साइकिल-रिक्शा तीन दशक पहले जापान के कुछ खास शहरों की खास जगहों पर खास उद्देश्य के लिए चलता था जिसका नाम भिन्न था। जो भी हो, आजकल जापान में रिक्शा कहीं नहीं चलता। रिक्शे का स्थान बहुत पहले टैक्सी ने ले लिया था।

“हमारे देश में औसतन हर दो घरों में से एक के पास गाड़ी है। और कई अमीरों के पास हवाई जहाज भी है, लेकिन रिक्शा किसी के पास नहीं है। इसीलिए मैं इसे जापान ले जाना चाहता हूँ। मेरे बच्चे भी बहुत खुश होंगे। और मेरे व्यायाम के लिए भी अच्छा होगा। एक पंथ दो काज नहीं, तीन काज हैं न?” कीर्ति हार गया उसकी बुद्धि तथा उसके निरालेपन से।

“साहब! तब तो मुझे जापान ले चलिए, आपको खुद रिक्शा चलाने की ज़रूरत नहीं होगी।”

इस पर भी जापानी ने लंबी-लंबी व्याख्याएँ दी और कहा कि चाहते हुए भी कानूनी पाबंदी होने की वजह से यह संभव नहीं है। कानूनी पाबंदी की बात कीर्ति की समझ में नहीं आई, क्योंकि उसे मालूम था कि बहुत से भारतीय विलायत और मध्य एशिया में जाकर मजदूरी करते हैं। इस पर उस जापानी ने समझाया कि जापान का कानून विदेशियों के लिए अत्यंत कड़ा है।

कीति ने अपनी बात पर बल देना ठीक नहीं समझा और विषयान्तर किया “साहब, आप अपने रिक्शे का नाम चेतक रखियेगा। बहुत सुंदर नाम है न? यह आपके बच्चों की रक्षा करेगा।”

कीर्ति को उस दिन की याद आ गई जिस दिन पहली बार उसने अपना रिक्शा चलाया था। अब कीर्ति के लिए जापान जाकर ‘चेतक’ को चलाना एक अतृप्त स्वप्न-सा बन गया।

तोमिओ मिज़ोकामि

(ज्वालामुखी पत्रिका, 1981, अंक 2 से साभार)

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