“वीरेंद्र, क्या तुम सचमुच नहीं जानते कि सम्राट अशोक कौन थे? तुम कैसे भारतीय हो जिसने भारत के ऐसे प्रसिद्ध राजा का नाम भी नहीं सुना! क्या तुम्हारे माँ-बाप ने तुम्हें कभी यह नाम नहीं बताया?”

वह हमारी इतिहास की कक्षा थी। एक अमरीकी अध्यापक मिस्टर स्मिथ के मुँह से जब मैंने भर्त्सना भरा यह प्रश्न सुना था तो मुझे जीवन में पहली बार बड़ा धक्का लगा था। वास्तव में सम्राट अशोक का नाम मुझे नहीं मालूम था। इस बात को लेकर अध्यापक ने मुझे मेरे माँ-बाप के सामने बहुत लज्जित किया था। ‘अशोक’ का नाम ही क्या, मैं तो ‘राम’ और ‘कृष्ण’ के नाम तक से भी परिचित नहीं था। “तुम कैसे भारतीय हो!”– अध्यापक के ये शब्द मेरे कानों में बार-बार तीर की तरह चुभते रहे।

यद्यपि मैं सदा से ही भारतीय हूँ पर न सिर्फ मैंने कभी अपने को विशेष रूप से ‘भारतीय’ महसूस किया था, बल्कि इसकी कभी ज़रूरत ही न हुई थी। इस स्थिति का कारण यह नहीं कि मेरी माँ जापानी हैं, बल्कि इसलिए कि हमारे उस अंतरराष्ट्रीय स्कूल में– जहाँ मैं पढ़ता था, कोई भी छात्र अपनी राष्ट्रीयता की ओर सजग न था। स्कूल के आदर्श ने ही राष्ट्रीयता के आधार पर हम छात्रों में आपसी भेद-भाव करने को कभी प्रोत्साहित नहीं किया था।

बात पाँच साल पहले की है। तब मैं जापान के कोबे शहर में स्थित अंतरराष्ट्रीय स्कूल की आठवीं कक्षा में पढ़ता था। इस स्कूल में शहर और उसके आसपास में रहने वाले विभिन्न प्रवासी विदेशियों के बच्चे पढ़ने आते हैं। परंतु इनमें जापानी बच्चों की संख्या बहुत कम है, क्योंकि उनके लिए जापानी स्कूलों में अधिक सुविधाएँ हैं। कोबे का यह अंतरराष्ट्रीय स्कूल अमरीकी शिक्षा-पद्धति के अनुसार अंग्रेज़ी माध्यम में चलाया जाता है, लेकिन जापानी भाषा एक ऐच्छिक विषय के रूप में अवश्य रखी जाती है। कक्षा में और कक्षा के बाहर हम सब अंग्रेज़ी में ही बोलते थे। अमरीकी हो, चीनी हो या भारतीय, यहाँ कोई भेदभाव नहीं था। सबके साथ ‘भाईचारा’ ही हमारे इस स्कूल की विशेषता थी जिसका हम सबको हमेशा से गर्व था। लेकिन नव-नियुक्त इतिहास के उन्हीं अमरीकी अध्यापक ने पहली बार राष्ट्रीयता का नाम लेकर मेरा घोर अपमान किया था।

मिस्टर स्मिथ शिकागो विश्वविद्यालय से भारतीय इतिहास में एम.ए. करके आए थे और उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय में शोध कार्य भी किया था। वे तमिल भाषा में निपुण थे और उनको हिंदी भी आती थी। वे भारत-प्रेमी थे। भारतीय इतिहास, विशेष रूप से प्राचीन भारतीय इतिहास में उनका गहरा ज्ञान था। स्कूल के पाठ्यक्रम में भारतीय इतिहास, अमरीकी इतिहास, चीनी इतिहास आदि ये सब अलग-अलग विषय न हो करके एक ही विषय- ‘विश्व का इतिहास’ में सम्मिलित हैं। मिस्टर स्मिथ हमें यही ‘विश्व का इतिहास’ पढ़ाते थे। परंतु पाठ्य पुस्तक में जहाँ कहीं भी भारत से संबंधित प्रसंग आ जाता तो वे उसी पर ज़ोर दे-देकर बोलते थे और आवश्यकता से अधिक विस्तार से उसका व्याख्यान करते थे। हमें यह सब बहुत बोर लगता था। इसीलिए वे हम छात्रों में लोकप्रिय नहीं थे, भले ही वे बहुत मेहनत तथा जोश के साथ पढ़ाते थे। हमें उनसे यह शिकायत थी कि उनका पढ़ाने का ढंग संतुलित नहीं है। कई छात्रों ने यहाँ तक कहा था कि वे केवल अपना ज्ञान हमें दर्शा रहे हैं बस। उनको यूनिवर्सिटी में पढ़ाना चाहिए था। शुरू-शुरू में मेरी समझ में नहीं आया था कि उन्होंने किस इरादे से मुझे डांटा है। बाद में पता चला कि उनके विचार में हरेक भारतीय को विशेष रूप से भारतीय इतिहास और संस्कृति से परिचित होना चाहिए और उनकी दृष्टि में मैं पूर्णरूप से एक भारतीय था।

मेरे बारे में उनकी धारणा बहुत कुछ सही भी थी। मैं 19 वर्षीय वर्णसंकर भारतीय हूँ। मेरे पिताजी पंजाबी हैं। उनका नाम राजेन्द्र खन्ना है और मेरी माँ का नाम मारीको खन्ना है। पिताजी द्वितीय महायुद्ध में फौजी थे। उन्होंने सिंगापुर में जापानी सेना के अत्याचार देखे थे इसलिए प्रारंभ में उनके मन में जापान के प्रति घृणा की भावना का उत्पन्न होना स्वाभाविक था। जब द्वितीय महायुद्ध समाप्त हुआ तब वे ‘ऑक्यूपेशन् आर्मी’ में भरती होकर जापान आए। तबसे धीरे-धीरे उनके मन से जापान के प्रति घृणा की भावना दूर होती गई। अब वे जापानियों के गुणों को भी पहचानने लगे थे और जब कोबे में मेरी माँ के साथ उनकी प्रथम भेंट हुई और वे दोनों प्रेम बंधन में हमेशा के लिए बंधे, तब से जापान के प्रति उनकी द्वेष-भावना पूर्ण रूप से प्रशंसा में बदल गई। उन्होंने न केवल मेरी माँ से प्रेम किया अपितु जापान की हरेक चीज़ से प्रेम किया। शादी के बाद पिताजी सेना छोड़ के मशीन और कपड़े के आयात-निर्यात के काम में जुट गए। तब तक जापान भी स्वतंत्र हो चुका था। उन्होंने दिन-रात बहुत परिश्रम किया। जापान की तरक्की के साथ-साथ उनके व्यापार ने भी तरक्की की और अब वे कोबे शहर के सबसे सफल एवं संपन्न प्रवासी भारतीयों में से एक हैं। उन्होंने कभी जापान में रहकर जापानी नागरिक बनने का फैसला किया था, परंतु राष्ट्रीयता के संबंध में जापान का कठोर कानून हमेशा उनके आड़े आया। चालीस साल से वे जापान में ही रह रहे हैं। उन्हें जापानी भाषा बोलने का अच्छा अभ्यास हो गया है और सबसे बड़ी बात यह है कि उनको जापान से गहरा प्रेम है, फिर भी न तो जापानी सरकार ने उनको अपने देश की राष्ट्रीयता प्रदान की, न वह करेगी ही। यह कानून सभी विदेशी ‘पुरुषों’ के लिए लागू है। मेरी माँ भारत की राष्ट्रीयता ले सकती थी पर जापान में रहने के लिए इसका कोई फायदा नहीं, इसलिए माँ की राष्ट्रीयता जापानी ही बनी रही। बच्चों की राष्ट्रीयता पिता की राष्ट्रीयता के अनुकूल होती हैं, इसलिए मैं जापान में पैदा होकर भी हमेशा के लिए भारतीय हूँ। हाँ, मेरी छोटी बहन अगर जापानी लड़के के साथ शादी करेगी तब उसे जापान की राष्ट्रीयता मिल सकती है।

खैर, माँ-बाप की शादी के बहुत वर्ष के बाद मेरा जन्म हुआ था, इसलिए मैंने उनका विशेष प्रेम पाया। इस संपन्न परिवार में मेरा पालन-पोषण सुख-शांति से हुआ। उन्होंने मुझे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दिया। छोटी बहन से भी मेरा बहुत स्नेह था। स्कूल में सभी सहपाठियों से मेरी अच्छी बनती थी। पड़ोस के जापानी बच्चों के साथ भी मेरी दोस्ती थी। पिता से पुरुषार्थ, माँ से कोमलता; पिता से सुंदर आकृति, माँ से गोरा रंग, पिता से बर्ताव का खुलापन, माँ से शांत स्वभाव तथा पिता से विनोद-प्रियता, माँ से गंभीरता–यह सब मुझे संस्कारगत रूप में मिला है। व्यक्तित्व के इन्हीं गुणों के कारण मुझे सब ने हमेशा पसंद किया। ट्राम या बस में प्रायः मैंने लड़कियों को अपनी ओर ताकते हुए महसूस किया था। मुझे देखकर कुछ लड़कियाँ तो खुले आम कहती थीं—”वाह! कितना सुंदर लड़का है!” मेरे माँ-बाप अपने इस योग्य पुत्र का परिचय दूसरों से बड़े गर्व के साथ कराते थे।

घर में हम लोग जापानी तथा अंग्रेज़ी दोनों भाषाएँ बोलते हैं- माँ के साथ ज़्यादातर जापानी में और पिता के साथ अंग्रेज़ी में। माँ को टूटी-फूटी अंग्रेज़ी आती है लेकिन पिता धारा-प्रवाह जापानी बोल सकते हैं। हाँ, उनको जापानी भाषा का अक्षर ज्ञान नहीं है, क्योंकि उन्होंने कभी इसकी विधिवत शिक्षा नहीं पाई थी। मेरी हालत भी यही थी। मैंने कक्षा में थोड़ी बहुत जापानी लिपि सीखी अवश्य थी परंतु उसे अच्छी तरह से पढ़ना-लिखना कभी नहीं सीखा। इसलिए पिता के साथ स्कूल संबंधी किसी भी प्रसंग को छेड़ने के लिए मुझे हमेशा अंग्रेज़ी का ही सहारा लेना पड़ता रहा है। पिताजी अपने भारतीय मित्र-मंडल में हिंदी अथवा पंजाबी में बात करते थे, पर घर में न जाने क्यों हमारे साथ कभी इन भाषाओं में नहीं बोले। परिणामतः मैं हिंदी या पंजाबी सीख ही न पाया। माँ-बाप ने मुझ पर कभी किसी तरह का दबाव नहीं डाला। उनकी यह ‘उदारता’ केवल भाषा तक ही सीमित नहीं थी बल्कि सांस्कृतिक क्षेत्र में भी थी। हम लोगों ने घर में कभी कोई जापानी उत्सव मनाया हो—मेरी स्मृति में तो नहीं आता। आसपास के जापानी बच्चे ‘नव वर्ष,’ ‘बाल दिवस,’ ‘गुड़िया उत्सव’ आदि धूमधाम से मनाते थे पर हमारे घर में यह सब कभी नहीं हुआ। माँ ने न कभी इन त्योहारों के बारे में मुझे बताया न जापानी बच्चों की कहानियाँ सुनाई। जापानी संस्कृति से वंचित होने पर भी मेरे जापानी समाज में अस्वीकृत न होने का एकमात्र कारण मेरा सभ्य व्यवहार था जो माँ की देखा देखी मैंने सीखा था। पिताजी ने भी कभी घर में ‘होली,’ ‘दशहरा’, ‘दीवाली’, ‘राखी’ इत्यादि त्योहार नहीं मनाये जिसके कारण मैं भारतीय संस्कृति से भी पूरी तरह वंचित रहा। माँ-बाप सदा से बहुत व्यस्त रहे सुबह से रात तक दफ्तर में काम करते। पिताजी का व्यापार बढ़ते रहने के साथ-साथ माँ को भी उनकी मदद करनी पड़ी थी। त्योहार और मेरी शिक्षा के बारे में मां-बाप दोनों अन्योन्याश्रित थे–माँ के मन में यह विश्वास था कि पिताजी मुझे संभाल लेंगे और पिताजी के मन में यह कि माँ सब कुछ करेंगी। ऐसी हालत में ‘अशोक’, ‘राम’, ‘कृष्ण’, ‘राजकुमार शोतोकु’, ‘तोकुगावा इएयासु’ आदि नामों से अनभिज्ञ होना स्वाभाविक था।

मिस्टर स्मिथ से पहली बार अपने व्यक्तित्व के इस अधूरेपन की भर्त्सना सहकर मैंने अपनी तरफ से भारतीय इतिहास तथा संस्कृति के बारे में जानकारी प्राप्त करने की बहुत कोशिश की। कई किताबें पढ़ीं, पर पृष्ठभूमि के अभाव के कारण यह सब बहुत कठिन लगा। एक पुस्तक में लिखा है- “अशोक मौर्य राजाओं में सबसे अधिक प्रसिद्ध था। उसका भारतवर्ष में हुए महानतम शासकों में प्रमुख स्थान है।” पर ‘मौर्य’ क्या चीज़ है? महानतम शासकों में अशोक का प्रमुख स्थान क्यों है? एक के बाद एक प्रश्न मेरे दिमाग को कचोटने लगे। स्कूल के अन्य विषयों की तैयारी करने में यह सब बाधक बना। गणित, विज्ञान आदि की कक्षाओं का अनुसरण करना कोई आसान काम नहीं था। दूसरी ओर मिस्टर स्मिथ के पास जाने की मेरी हिम्मत भी नहीं थी।

एक दिन पिताजी कोबे के ‘इंडिया-क्लब’ में ‘गणतंत्र दिवस’ के उपलक्ष्य में हुई पार्टी में शामिल होने के लिए मुझे ले गए। वहाँ सैकड़ों व्यक्ति उपस्थित थे। प्रवासी भारतीयों के साथ जापानी अतिथि भी काफी संख्या में आमंत्रित थे। पिताजी लोगों से हँस-हँसकर बातें करते रहे और भाग्ययोग से वहाँ मेरा परिचय ओसाका विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के एक अध्यापक और कुछ छात्रों से कराया गया जो भारतीय भाषाओं का अध्ययन-अध्यापन कर रहे थे। वे सब हिंदी में ही बोलने लगे। मेरे यह कहने पर कि मुझे हिंदी नहीं आती, अध्यापक ने अंग्रेज़ी में बोलना शुरू किया परंतु उनमें से एक विद्यार्थी अजीब-सा मुँह बनाकर हिंदी में ही कहने लगा– “आप कैसे भारतीय हैं जो हिंदी भी नहीं जानते!” इसके बाद उसने क्या-क्या कहा, मेरी समझ में नहीं आया। लेकिन उसके मुख से निकले शब्दों—“आप कैसे भारतीय हैं!” ने एक बार फिर तीन साल पहले मिस्टर स्मिथ से खाई चोट को ताजा कर दिया। पर मेरी इस पीड़ा को कौन समझेगा? तब से मैं अपने आत्मविश्वास को खो बैठा हूँ। कई बार सोचा कि हिंदी सीखूँ पर सोचते-सोचते रह गया। मेरी ही ‘हीन ग्रंथि’ ने मेरे दिल को जकड़े रखा।

इस घटना को बीते दो साल हो चुके हैं। मैंने उस अंतरराष्ट्रीय स्कूल को किसी तरह से पास कर लिया है। लगभग मेरे सभी सहपाठी अब किसी न किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश ले चुके हैं, परंतु मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूँ। मैं दिशाहीन हूँ। मुझे न तो जापान के किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश मिलेगा न भारत के किसी विश्वविद्यालय में कई बार सोचा कि पिताजी के व्यापार में हाथ बटाऊँ पर इसका साहस नहीं, भले ही पिताजी भविष्य में मुझसे ऐसा ही चाहेंगे। परंतु मेरे जीवन की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि मैं तन से भारतीय हूँ, पर मन से कहीं का नहीं। इसलिए आज मैं चौराहे के बीच खड़ा हूँ। खड़ा रहूँगा-–जाने कब तक………।

-तोमिओ मिज़ोकामि

(ज्वालामुखी पत्रिका, 1982, अंक 3 से साभार)

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