प्रवासी भारतवंशियों का भारतीय संस्कृति के प्रचार – प्रसार में योगदान
किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति से होती है। देश के नागरिकों का खान-पान, रहन-सहन, उनकी वेशभूषा, उनकी भाषा, उनके रीति-रिवाज़, धर्म, दर्शन, कला इत्यादि में ही देश की संस्कृति प्रतिबिंबित होती है। भारत की संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति मानी जाती है।
भारत का एक अपार जनसमूह देश की सरज़मीं से दूर अनेक अन्य देशों में बसा हुआ है। इस समूह में वे लोग शामिल हैं जो भिन्न – भिन्न उद्देश्यों से विभिन्न देशों में बसे हुए हैं – कुछ स्थायी रूप से और कुछ अस्थायी। इनमें से कुछ हाल ही के वर्षों में वहां जा बसे हैं और कुछ वे हैं जिनके पूर्वज अंग्रेज़ों द्वारा भारत से, कमोबेशी जबरन, ले जाए गए मज़दूर थे। इन सभी भारतवंशियों को ‘प्रवासी’ या ‘डायस्पोरा’ कहा जाता है।
भारत के लोग कब कब और किन-किन देशों में जाकर बसे इसका सविस्तार वर्णन प्रख्यात समाज-भाषा वैज्ञानिक डॉ. सुरेंद्र गम्भीर जी ने अपनी संपादित पुस्तक ‘हिंदी की कहानी’ में कुछ इस प्रकार किया है:
“भारत से लोगों का दूसरे देशों में जा कर बसना कम से कम दो हज़ार वर्षों से चला आ रहा है। लगभग आठ समुदाय अलग अलग काल में भारत से जा कर दूसरे देशों में बस गए। ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी में तमिल-भाषी श्रीलंका गए, जिप्सी नाम से विख्यात रोमनी लोग ईसा-पूर्व चौथी शताब्दी और ग्यारहवीं शताब्दी के दौरान अफ़गानिस्तान की तरफ़ से टर्की होते हुए योरोप, अमेरीका, कनाडा, दक्षिण अमेरिका, न्यूज़ीलैंड, आस्ट्रेलिया में फैल गए। भारत मूल के लोग पांचवीं शताब्दी और फिर बीसवीं शताब्दी में इंडोनेशिया गए। उन्नीसवीं शताब्दी में सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैंड, बर्मा, हांगकांग आदि, 1834-1917 के दौरान शर्तबंद श्रमिक मॉरिशस, रियूनियन, गयाना, त्रिनिदाद, सूरिनाम, ग्वाडालूप, फीज़ी, दक्षिण अफ्रीका आदि, उन्नीसवीं शताब्दी में पूर्वी अफ्रीका, उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में नेपाल, और बीसवीं शताब्दी में योरोप, अमेरीका, कनाडा, ब्रिटेन, न्यूज़ीलैंड, आस्ट्रेलिया आदि देशों में भारतीयों का भारत से विदेश-गमन और प्रवासन हुआ। सभी समुदायों ने अपनी संस्कृति के कुछ अवयवों का पीढ़ी – दर – पीढ़ी संरक्षण किया है। इन संरक्षित उपकरणों में हैं धर्म, खाना और मनस्पटल पर अंकित कुछ संस्कार। परंतु भाषा का उपकरण वे हर जगह नहीं बचा पाए”। (डॉ. सुरेन्द्र गंभीर, हिंदी की कहानी, 2017)।
हाल ही में मॉरिशस में आयोजित 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में भारत की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने अपने उद्घाटन संबोधन में कहा “भाषा और संस्कृति एक दूसरे से जुड़ी हैं। जब भाषा लुप्त होने लगती है तो संस्कृति के लोप का बीज उसी समय रख दिया जाता है”।
निस्संदेह, सुदूर बसे प्रवासी संस्कृति और भाषा दोनों के संरक्षण की दिशा में प्रयासरत हैं। तथापि यह भी सत्य है कि आधुनिक डायस्पोरा की स्थिति उन्नीसवीं सदी में अंग्रेज़ों द्वारा भारत से, कमोबेशी जबरन, ले जाए गए भारतीय मज़दूरों से सर्वथा भिन्न है। गिरमिटिया मज़दूर या कुली कहे जाने वाले इन लोगों को प्रताड़ित और शोषित किया जाता था। बावजूद इसके, इनके वंशजों ने आज उन देशों में अपना सुदृढ़ स्थान बना लिया है। कठिन व कठोर परिस्थितियों का सामना करते हुए भी पीढ़ी–दर—पीढ़ी, प्रगति की राह चलते हुए, इन भारतवंशियों ने भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार इतनी प्रबलता से किया कि आज इन देशों में भारतीय संस्कृति, सभ्यता और धर्म की ऐसी झलक देखने को मिलती है कि भारत से दूर होते हुए भी इन देशों में भारतीयता की महक चहुं ओर महसूस की जा सकती है।
चाहे आधुनिक डायस्पोरा हो या वर्षों पूर्व विदेशों में जा बसे गिरमिटया मज़दूरों के वंशज, ये सभी विश्व के विभिन्न भागों में रहते हुए भी अपने देश की सांस्कृतिक परम्पराओं को तो बख़ूबी निभाते ही हैं अपने प्रवास के देशों की धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक गतिविधियों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए वहाँ की परिस्थितियों पर भी सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। उन देशों के विकास एवं समृद्धि में इनका उल्लेखनीय योगदान रहता है। उनके इसी योगदान को सम्मानित करने के उद्देश्य से वर्ष 2003 से हर वर्ष 7 से 9 जनवरी तक प्रवासी दिवस मनाया जाता है। 9 जनवरी को प्रवासी दिवस माना जाता है क्योंकि यही वह दिन है जब स्वाधीनता की ख़ातिर गांधी जी वर्ष 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आए थे।
आज अनेक राष्ट्रों के शासकीय पदों पर भी भारतवंशी पदासीन हैं। 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन के मेज़बान देश के राष्ट्रपति महामहिम अनिरुद्ध जगन्नाथ और प्रधानमंत्री माननीय रामगुलाम जैसे भारतवंशियों की लम्बी फ़हरिस्त है। त्रिनिदाद और टुबैगो की प्रधानमंत्री रह चुकीं श्रीमती कमला प्रसाद बिसेसर को पहली भारतीय महिला प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त है।
विश्वपटल पर भारत का परचम फहराने वाले अन्य लोगों की सूची में गूगल के सी ई ओ सुंदर पिचाई से लेकर नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक हर गोबिंद खुराना और माइक्रोसॉफ़्ट के सी ई ओ सत्या नाडेला से लेकर विश्व के प्रसिद्ध ऑर्केस्ट्रा संचालक जैसे अनेक नाम शामिल हैं। यह सूची अनंत है। विश्व में भारत की संस्कृति का प्रसार करने वाले ये लोग विभिन्न क्षेत्रों से जुड़कर भी इस दिशा में कार्यरत हैं, चाहे वे फिल्म निर्माता हों, लेखक, गीतकार, संगीतकार, गायक, नाटककार, रंगमंचकर्मी, चित्रकार, फोटोग्राफ़र हों या फिर वे डॉक्टर, वकील या व्यापारी ही क्यों न हों। ये भारतवंशी समस्त विश्व में भारत का तिरंगा निरंतर ऊँचा करने के मार्ग पर अग्रसर हैं।
बहुल-संस्कृति देश होने के बावजूद भारत की प्राचीनतम व सामासिक संस्कृति अपनी सर्वांगीणता, विशालता, उदारता, प्रेम और सहिष्णुता जैसी विशेषताओं के कारण विश्व में एक अलग स्थान रखती है। प्रवासी भारतीय जिन देशों में रहते हैं उन-उन देशों की संस्कृतियों के प्रभाव और भारत में पसर चुकी आधुनिकता के बावजूद भारत की संस्कृति, अपने समन्वयवादी और उदारतावादी दृष्टिकोण के चलते, लगातार समृद्ध ही हो रही है। भारतीय संस्कृति के इस वृक्ष पर कितने ही नव पल्लव उगते जाएं, इसकी परम्परा की जड़ें पोषित होती रहती हैं और अधिक मज़बूत ही होती जाती हैं।
मॉरिशस, गयाना, त्रिनिदाद, सूरिनाम, ग्वाडालूप, फीज़ी, दक्षिण अफ्रीका आदि वे देश हैं जहाँ बसे भारतवंशी गिरमिटिया मजदूरों की चौथी – पाँचवीं पीढ़ियां हैं। भारत से इन लोगों का जुड़ाव इतना गहरा है कि ये अपने-अपने आप्रवास के देशों को माँ का दर्जा देते हुए अपनी मदरलैंड कहते हैं तो भारत को दादी माँ मानते हुए ग्रैंडमदर पुकारते हैं। भारतीय संस्कृति मानो इन भारतवंशियों की रगों में खून की तरह दौड़ती है। उनकी आत्मा तो मानो भारत में ही बसती है।
इन सब का प्रत्यक्ष अनुभव मुझे तब हुआ जब त्रिनिदाद और टुबैगो द्वीप समूह की राजधानी पोर्ट ऑफ़ स्पेन में स्थित भारतीय उच्चायोग में द्वितीय सचिव (हिंदी एवं संस्कृति) के पद पर प्रतिनियुक्ति पर मेरा चयन हुआ और मुझे 3 वर्ष के लिए उस पावन भूमि पर रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वर्ष 2010 से 2013 के दौरान वहाँ रहते हुए मैंने स्वयं अनुभव किया कि क्यों वहाँ बसे भारतवंशी अपने देश को ‘होम अवे फ़्रॉम होम’ कहते हैं – मैंने बक़ायदा महसूस किया कि आप उस देश के किसी भी कोने में चले जाएँ आपका भारत में होने का अहसास बना ही रहेगा।
त्रिनिदाद और टुबैगो भी भारत की तरह बहुल-संस्कृति समाज है। देश के हर भाग में विभिन्न संस्कृतियों का संगम दिखाई देता है और यह सुखद अनुभूति आपको तब होती है जब आपको कई मील दूर बसे इस देश में सभी धार्मिक स्थल देखने को मिलते हैं फिर चाहे ये मंदिर हों, मस्जिद, गिरिजाघर या कि गुरुद्वारा………………. ।
बात शुरू करते हैं मंदिरों से – ‘टेम्पल इन द सी’ समुद्र के बीचों-बीच बना एक ऐसा मंदिर है जो इस कहावत को सिरे से ही नकार देता है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। विपरीत परिस्थितियों में भी कोई एक अकेला व्यक्ति कैसे असम्भव कार्य को भी संभव कर दिखा सकता है – यह मंदिर इसकी जीती-जागती तस्वीर है। औपनिवेशिक अधिकारियों और गन्ना-खेतों के मालिकों ने जब उस देश की ज़मीन पर मंदिर बनाने की इजाज़त नहीं दी तो शिवदास साधु ने समुद्र के बीच यह मंदिर बनाने का फ़ैसला कर लिया, वहाँ तो किसी की मलकीयत थी नहीं! ग़रीब गिरमिटिया मज़दूर शिवदास साधु साइकिल पर बाल्टी में पत्थर भर-भर कर ले जाते रहे और इस तरह खुद अकेले ही 25 साल में यह मंदिर तैयार किया जिसे आज उस देश के प्रमुख मंदिरों में से माना जाता है और सभी देशों के सैलानी इस अजूबे को देखने जाते हैं। इसका सुंदर-सा गुंबद और इस तक पहुँचने के लिए बनाया गया पुल साधारण होते हुए भी अत्यंत आकर्षक हैं और मंदिर के आस-पास और भीतर अत्यधिक शांति का अनुभव होता है।
त्रिनिदाद के अन्य प्रमुख मंदिरों में एक और मंदिर है ‘दत्तात्रेय योग केंद्र, हनुमान मंदिर’ जो करापिचाइमा में स्थित है। इसका अद्भुत सौंदर्य और नक्काशीदार संरचना देखते ही बनती है। यूँ तो त्रिनिदाद और टुबैगो में भारतीय वास्तुशिल्प में उत्तर भारत (आर्य) की ही प्रधानता है तथापि हनुमान मंदिर दक्षिण भारतीय द्रविड़ वास्तुशिल्प की भव्यता का अद्भुत नमूना है। प्रवेशद्वार के दोनों ओर हाथी की दो विशालकाय मूर्तियाँ हैं। मंदिर के अंदर छत पर रंग-बिरंगी चित्रकारी और मूर्तिकाएँ आपको अनायास ही आकर्षित करती हैं और आप गर्दन थक जाने के बावजूद अपनी नज़रें वहाँ से हटाना नहीं चाहते।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश – तीनों की ईश्वरीय शक्तियों से समाहित भगवान दत्तात्रेय के इस मंदिर की संस्थापना संत श्री गणपति सच्चिदानंद स्वामी द्वारा वर्ष 1981 में की गई थी। वर्ष 1990 में मंदिर के साथ ही एक सार्वजनिक प्रार्थना कक्ष बनाया गया। जून 2003 में इसका और अधिक विस्तार किया गया।
इसी वर्ष 9 जून को यहाँ हनुमान जी की 85 फुट ऊँची मूर्ति की स्थापना की गई जो पश्चिमी गोलार्ध में सबसे ऊँची मूर्ति है।
हनुमान जी की एक अन्य विशालकाय मूर्ति डीगो मार्टिन के स्वाहा मंदिर में भी है। त्रिनिदाद में स्वाहा के अनेक मंदिर हैं।
मंदिरों की श्रृंखला में एक और ख़ूबसूरत मंदिर है दक्षिण त्रिनिदाद के गेस्परिलो के हार्डबार्गेन में बना ‘त्रिवेणी मंदिर’। तीन गाँवों की सीमाओं पर स्थित होने के चलते भारत में गंगा, जमुना और सरस्वती के संगम स्थल की तर्ज़ पर इसका यह नाम पड़ा। इसकी गगनचुंबी मीनारें इसकी सुंदरता में चार चाँद लगाती हैं।
भारत की तरह ही वहाँ भी सभी देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है। देश के हर भाग में आपको मंदिर ज़रूर मिलेंगे, फिर चाहे वह राम मंदिर हो, शिव मंदिर, गणेश मंदिर, देवी का मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर या फिर कृष्ण मंदिर (इस्कॉन)। लगभाग दो सौ के करीब मंदिर हैं। अनेक हिंदू समूह भी हैं जैसे सनातन धर्म महा सभा, स्वाहा, आर्य समाज, ब्रह्मो समाज, चिन्मय मिशन, डिवाइन लाइफ सोसाइटी, इस्कॉन। युवा वर्ग भी सभी धार्मिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर रुचि लेता है जिससे समाज के निर्माण में नित नवीनता का संचार होता रहता है।
त्रिनिदाद और टुबैगो के लगभग हर क्षेत्र में मस्जिद और गिरिजाघर भी हैं। देश में 100 से अधिक गिरिजाघर हैं। त्रिनिदाद में 85 से अधीक मस्जिद हैं और टुबैगो में 2-3 हैं। देश में अनेक इस्लामिक संगठन भी हैं। ईद-उल-फितर के दिन सार्वजनिक अवकाश रहता है। ब्रह्मकुमारी आध्यात्मिक केंद्र हैं तो यहूदी और बहाई समूह भी।
भारत सरीखी ‘विविधता में एकता’ भी बख़ूबी देखने को मिलती है। किसी भी धर्म या समूह का कोई भी त्यौहार या उत्सव हो, जनसमूह में सभी शामिल होते हैं। त्यौहार कोई भी हो, माहौल देखकर किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि वह भारत के ही किसी कोने में है। मनाए जाने वाले त्यौहारों में प्रमुख त्यौहार हैं: दीवाली, फ़गवा (होली), रामलीला, कार्तिक स्नान, बसंत पंचमी, शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, होसे, ईद-उल-फ़ितर और ईद-उल-अधा।
देश में कार्निवल के बाद सबसे बड़े पैमाने पर मनाया जाने वाला दीवाली का त्यौहार देश के लगभग सभी भागों में मनाया जाता है, गाँवों में आज भी पारम्परिक तरीके से और शहरी इलाकों में कुछ बदले हुए रूप में। वर्ष 1966 में सरकार द्वारा सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिए जाने के बाद से तो यह एक राष्ट्रीय पर्व का रूप ले चुका है। नौ दिन तक चलने वाली रामलीला की समाप्ति के बाद दशहरा और दशहरे के बाद नौ रातों तक दीवाली के कार्यक्रम चलते हैं जिनकी शुरुआत हर शाम यज्ञ और कथा से की जाती है। 10वें दिन कार्तिक मास की अमावस्या को पूरे जोश-ओ-ख़रोश के साथ दीवाली मनाई जाती है – घरों में, आँगन में, चौबारों पर, सड़कों पर, पेड़ों पर – सच पूछो तो हर जगह नारियल के तेल के दिए जलाए जाते हैं – पूरा देश जगमगा उठता है। त्रिनिदाद की दीवाली का विशेषाकर्षण है बाँस पर जलते दिए! बाँस को लंबाई में चीर कर उसे अलग-अलग तरह के सुंदर आकार दिए जाते हैं और फिर उनमें दिए जलाकर रखे जाते हैं। इनकी छटा देखते ही बनती है। लोग प्रकाश के इस उत्सव की सुंदरता का आनंद उठाने के लिए सड़कों पर पैदल या अपने वाहनों पर निकलते हैं। भारत की तरह ही शाम को माँ लक्ष्मी की पूजा की जाती है, तरह-तरह के पकवान बनाए जाते है, रिश्तेदारों और मित्रों के बीच मिठाइयों और उपहारों का आदान-प्रदान किया जाता है। प्रसाद, कुर्मा, बर्फ़ी, पेढ़ा, लड्डू, जलेबी, गुलाब जामुन और खीर बनाकर बाँटे जाते हैं। रंग-बिरंगे कपड़ों, प्लास्टिक, गुब्बारों, बल्बों इत्यादि से घरों, दफ़्तरों, मंचों की सजावट की जाती है, रंग-बिरंगी झंडियाँ लगाई जाती हैं।
वर्ष 1986 में शगुवानाज़ में एन सी आई सी (नेशनल काउंसिल ऑफ इन्डियन कल्चर) के तत्वाधान में दीवाली के कार्यक्रम आयोजित किए गए थे और इन्हें दीवाली नगर नाम दिया गया था। तब से नौ रातों तक चलने वाले ये विस्तृत कार्यक्रम एन सी आई सी द्वारा प्रायोजित किए जाते हैं, यहाँ तक कि एन सी आई सी और दीवाली नगर एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। मंच पर भारतीय नृत्य, संगीत आदि के अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं और देश के मंत्रीगण भी यहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं, प्रधानमंत्री द्वारा इस मंच से सारे देश को संबोधित किया जाता है। इस अवसर पर भारत से भी, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा, कलाकारों के समूह भेजे जाते हैं।
दीवाली नगर में अनेक स्टॉल लगाए जाते हैं जहाँ लोग भारतीय कपड़े, आभूषण, पर्स, प्रसाधन सामग्री, खाने-पीने की चीज़े और मिठाइयाँ आदि खरीदते हैं। हाथों में मेहंदी लगाने के स्टॉल पर भी भारी भीड़ देखी जा सकती है। देश के अलग-अलग हिस्सों से लगभग 20,000 लोग इन दिनों हर शाम दीवाली नगर आते हैं।
दीवाली की यह रौनक कोई बीस दिन पहले रामलीला की शुरुआत के साथ ही दस्तक दे देती है । त्रिनिदाद में 36 रामलीला समूह हैं जो मंच पर या मैदान में राम कथा का मंचन बड़े मनोयोग से करते हैं। रामलीला की प्रस्तुति में हर आयु, हर वर्ग के लोग बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं। वर्ष 2007 में नेशनल रामलीला काउंसिल ऑफ़ त्रिनिदाद एंड टुबैगो ने ‘त्रिनिदाद और टुबैगो में रामलीला के 127 वर्ष – एक यादगार’ शीर्षक से एक पत्रिका निकाली थी जिसका उद्देश्य सभी 36 रामलीला समूहों को एक ही छाते के नीचे लाना था।
ये 36 समूह अश्विन मास के नवरात्रों में अलग-अलग दिनों पर देश के अलग-अलग भागों में रामलीला का आयोजन करते हैं जो आमतौर पर नवरात्रि के पहले शुक्रवार से शुरु होकर अगले 10 दिन तक चलती है। यह श्रीराम के जन्म से शुरु होकर, कथा के विभिन्न सोपानों को पार करती हुई आख़िरी दिन रावण का पुतला जलाए जाने के साथ समाप्त होती है। देश के निवासी रामलीला को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास का माध्यम मानते हैं। उनका मानना है कि मन, शरीर और आत्मा – तीनों का विकास आवश्यक है।
भारत की तरह ही त्रिनिदाद में भी कार्तिक मास की पूर्णिमा गंगा स्नान के लिए प्रसिद्ध है। त्रिनिदादवासी भी इस पवित्र दिन से जुड़ी अनेक कथाओं में विश्वास करते हैं। भक्तजन स्नान करते हैँ, कोई नदी न होने के कारण इस दिन समुद्र के जल को ही पवित्र मान कर उसी में स्नान किया जाता है और इसे वे जिह्वा सुख के लिए गंगा नहान या कार्तिक नहान कहते हैं। उनका मानना है कि इस पावन दिन पवित्र जल में स्नान करके उनके सभी पाप मिट जाते हैं। स्नान के बाद वे दीप दान करते हैं, और जल में पुष्प, अक्षत, दूध, सिक्के, शहद आदि प्रवाहित करते हैं। फिर ईश्वर की स्तुति में भजन गाए जाते हैं और मंत्रोच्चारण किया जाता है। इस दिन खाना, कपड़े, धन आदि का दान भी किया जाता है।
भारत की तरह ही त्रिनिदाद में भी होली या फ़गवा मार्च या अप्रैल माह में मनाया जाता है। भारत में इस समय बसंत ऋतु का आगमन होता है, वहीं त्रिनिदाद में भी मीलों तक फैले बड़े-बड़े पुई के पेड़ों पर चटख पीले और हल्के गुलाबी रंग के मनमोहक फूल खिलते हैं। रंगों के इस पर्व पर सभी नगरवासी गीत, संगीत और नृत्य के कार्यक्रमों के बीच एक-दूसरे को अबीर और गुलाल लगाते हैं। चौताल गीत और पिचकारी गीत फ़गवा के विशेषाकर्षण रहते हैं। चौताल गीतों के साथ ढोलक और मंजीरा बजाए जाते हैं। चौताल गाने वाले समूहों के बीच प्रतियोगिताएँ भी होती हैं।
पिचकारी गीत हिंदु प्रचार केंद्र द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में प्रस्तुत किए जाते हैं। पिचकारी प्रतियोगिताएँ भी आयोजित की जाती हैं। दरअसल पिचकारी गीतों में समाज की वर्तमान परिस्थितियों पर टीका-टिप्पणी की जाती है। हिंदु प्रचार केंद्र के अध्यक्ष एवं आध्यात्मिक गुरु रवि जी द्वारा ईजाद की गई इस संगीत-कला में हिंदी, अंग्रेज़ी और भोजपुरी शब्दों का प्रयोग किया जाता है। सभी लोग इनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लेते हैं और इन प्रतियोगिताओं का आनंद भी उठाते हैं। हिंदू प्रचार केंद्र ने माखन चोर की भी शुरुआत की है, यह भारत में खेले जाने वाले ‘दही हाँडी’ की तर्ज़ पर है, इसके अलावा केंद्र द्वारा ‘रंग बरसे’ (रंगों की बरसात के बीच किया जाने वाला नृत्य), ‘बच्चों के खेल’ और ‘सादा रोटी’ प्रतियोगिताएँ भी शुरु की गई हैं।
महाशिव-रात्रि, गणेश-चतुर्थी, तुलसी-विवाह, कृष्ण जन्माष्टमी, रक्षा बंधन और हनुमान-जयंती इत्यादि जैसे पर्वों पर भी भारत की तरह ही विधिवत् पूजा-अर्चना की जाती है और मंदिरों की शोभा देखते ही बनती है। यदि भारत से दूर ऐसे पवित्र दिनों पर आपको इतना सुंदर धार्मिक वातावरण और ऐसे आयोजनों में शामिल होने का अवसर मिल जाए तो क्या आपको रत्ती भर भी यह महसूस होगा कि आप वास्तव में स्वदेश से मीलों दूर हैं?
ईद पर भी पूरी रौनक रहती है। यह दिन रमज़ान का महीना ख़त्म होने के बाद आता है, त्रिनिदाद निवासी इसे रमादान का महीना कहते हैं। सुबह सभी मुस्लिम भाई बड़ी संख्या में मस्जिद में, खुले मैदानों में, स्टेडियम में नमाज़ पढ़ने जाते हैं। फिर दिन-भर रिश्तेदारों और दोस्तों के घर आना-जाना, गले लगना, मिठाइयाँ बाँटना, ईदी देना जारी रहता है। सभी अल्लाह का शुक्रिया अदा करते हैं और एक-दूसरी की सलामती की दुआएं माँगते हैं। देश के सभी वर्गों के लोग जश्न में शामिल होते हैं।
त्रिनिदाद में होसे भी मनाया जाता है, यह मुहर्रम का ही स्थानीय नाम है। यह कोई त्यौहार नहीं है बल्कि एक मातम का दिन है। इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद साहब के छोटे नवासे (नाती) इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। ‘हुसैन’ शब्द का ही विकृत रूप है होसे। इस्लामिक कलैंडर के अनुसार मुहर्रम एक महीना है, जिसमें शिया मुस्लिम दस दिन तक इमाम हुसैन की याद में शोक मनाते हैं। यह शिया मुस्लिमों का अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देने का एक तरीका है। पहले छः दिनों में रोज़े रखे जाते हैं और इबादत की जाती है। मुहर्रम के दस दिनों तक बांस, लकड़ी का इस्तेमाल कर तरह तरह से लोग ‘ताजिया’ सजाते हैं। लोग इन्हें सड़कों पर लेकर पूरे नगर में भ्रमण करते हैं, साथ-साथ तासा ड्रम भी बजाए जाते हैं। तासा ड्रम भारत में बजाए जाने वाले ढोल जैसे होते हैं। सुंदर ताजिया दसवें दिन यानी आशुरा के दिन जल में विसर्जित कर दिए जाते हैं। इन दिनों ताजिया लेकर जुलूस में शामिल होने वाले लोग माँस, शराब और अन्य व्यसनों से दूर रहते हैं। त्रिनिदाद में इस्लामिक लोगों के अलावा अन्य सभी समुदायों, धर्मों, जाति और वर्गों के लोग भी इसमें इकट्ठे होते हैं। होसे का सबसे बड़ा जुलूस देश की राजधानी पोर्ट ऑफ़ स्पेन से सटे सेंट जेम्स में देखा जा सकता है, इसके अलावा क्यूरेप, टूनापूना, कुवा और सेड्रोस में भी यह जुलूस निकाला जाता है।
सनातन हिंदू धर्म के अनुसार किए जाने वाले 16 संस्कारों में से त्रिनिदाद में मुख्यतः 5 संस्कार ही किए जाते हैं। नाम करण – यह जन्म के ठीक बाद किया जाता है, परंतु इसे उस समय गोपनीय ही रखा जाता है, इस डर से कि कहीं नवजात शिशु का कोई अनिष्ट न हो। गुरु दीक्षा – यह संस्कार 7 वर्ष की छोटी आयु में भी किया जा सकता है और कई लोग 31 वर्ष की आयु में भी गुरु धारण करते हैं। संभवतः इस संस्कार के लिए कोई आयु निर्धारित नहीं है। जनेऊ – 8 से 22 वर्ष की आयु के बीच बालक को पवित्र सूत पहनाया जाता है। इसे यज्ञोपवीत भी कहते हैं और यह बाएँ कंधे के ऊपर और दाहिनी भुजा के नीचे पहना जाता है। ज़्यादातर यह पंडितों के पुत्रों का ही किया जाता है।
विवाह संस्कार – यह सर्वाधिक लोकप्रिय है और आधुनिक रूप में 2 घंटें में केवल जयमाल करके ही पूरा कर दिया जाता है परंतु पारंपरिक रूप में सभी रीति-रिवाज़ पूरे करते हुए यह तीन दिन तक चलता है। विवाह से तीन दिन पहले, शुक्रवार की रात ‘माटीकोर’ से समारोहों का प्रारंभ किया जाता है। इसमें दूल्हे या दुल्हन की बहन हाथ में मिठाइयाँ लेकर परिवार की अन्य महिलाओं के साथ घर से चलकर किसी जलस्रोत तक जाती हैं। रास्ते भर तासा ड्रम (ढोल) बजता रहता है, सभी नाचते-गाते, मौज-मस्ती करते हुए बहते हुए जल के पास जाकर पूजा करते हैं और दूल्हा-दुल्हन के लिए शुभकामना करते हैं। घर लौटकर दुल्हन को मंडप में बैठाया जाता है जहाँ चावल और केले के पत्तों से वेदी बनी होती है, यहाँ दुल्हन को हल्दी लगाने की रीत की जाती है। इसी रात सभी महिलाएँ मेहंदी भी लगाती हैं। शनिवार की रात ‘कुकिंग नाइट’ कहलाती है। सभी औरतें मिलकर उस रात और अगले दिन के लिए खाना बनाती हैं। साथ ही दुल्हन की बुआ द्वारा आग पर चावल भी भूने जाते हैं जो विवाह के समय पवित्र अग्नि में अर्पित किए जाते हैं। मस्ती, नाच-गाना सब साथ-साथ चलता रहता है।
विवाह के दिन भी हिंदू रीति के अनुसार सभी परंपराएँ निभाई जाती हैं। बारात आने पर उसके स्वागत में दोनों पक्षों के पुरूष और पंडितों की मिलनी होती हैं, पंडितजन मंत्रोच्चारण करते हैं, दुल्हन का पिता दूल्हे के पिता को जल से भरा लोटा, सिक्के, फूल और आम के पत्ते देकर बारात का स्वागत करता है। इसे बारात मिलन कहा जाता है। इसके बाद दूल्हे का स्वागत किया जाता है जिसे परिचय कहा जाता है। इसके बाद द्वार पूजा जिसमें आरती और फिर दूल्हे का तिलक किया जाता है। तत्पश्चात् दुल्हन को मंडप में बैठाया जाता है, इमली घोटाई की रीत के बाद भगवान गणेश और माँ लक्ष्मी की पूजा की जाती है। इसके बाद दाल संकल्प, पीढ़ा संकल्प, मधु परख, अंग स्पर्श, कन्यादान, गठबंधन, पाणिग्रहण, पाँव पूजा, हवन, अग्नि परिक्रमा, सप्त पदी (सात फेरे), अश्म रोहण, सूर्य दर्शन, हृदय स्पर्श सब विधिवत् किए जाते हैं। दूल्हा व दुल्हन एक-दूसरे को सात-सात वचन देते हैं। फिर जयमाल, सिंदूरदान, मुद्रिका प्रतिदान, मंगलसूत्र दान, ताग पट के बाद विवाह रजिस्टर पर हस्ताक्षर किए जाते हैं। मंत्रों के बीच दूल्हा-दुल्हन पर चावल और फूलों की वर्षा करके दोनों को आशीर्वाद दिया जाता है। कुछ देर के लिए मंडप से बाहर जाकर दूल्हा-दुल्हन फिर लौट आते हैं तो सभी को खीर परोसी जाती है। उपहार आदि भेंट किए जाते हैं। अंत में दूल्हा सबके पाँव छूता है, सबसे आशीर्वाद लेता है और फिर दुल्हन की विदाई कर दी जाती है।
अगर आप तीन दिनों तक चलने वाले इस विवाह समारोह में शामिल हों तो पल भर को भी आपको भारत में ही होने का भ्रम होने लगेगा।
अंतिम संस्कार है – मृत्यु होने पर किया जाने वाला – अंत्येष्टि- मनुष्य का अंतिम संस्कार! मृत्यु के दिन शरीर को अग्नि के सुपुर्द कर दिया जाता है। हर माह कुश घास और जल से तर्पण किया जाता है और 11वें या 12वें माह में भण्डारा किया जाता है।
त्रिनिदाद के कण-कण में व्याप्त भारतीय संस्कृति आपको यह अहसास कभी होने ही नहीं देगी कि आप भारत से कोसों दूर हैं। यदि किसी कारणवश आप अपने निवासस्थल से बाहर नहीं निकलते तो भी आपको ऊब या खिन्नता नहीं होगी। देश के 5 रेडियो स्टेशनों पर 24X7 हिंदी गाने, भजन और कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। हिंदी/भारतीय संगीत और गीतों के अलावा पण्डितों और इमामों द्वारा धार्मिक व्याख्याएँ भी प्रसारित की जाती हैं। सेहत और खान-पान संबंधी कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं, दैनिक और साप्ताहिक भविष्यफल भी बताए जाते हैं, श्रोताओं द्वारा अपने रिश्तेदारों और दोस्तों आदि को जन्मदिन और वर्षगाँठ की शुभकामनाएँ भी दी जाती हैं और अन्य सामुदायिक घोषणाएँ भी प्रसारित की जाती हैं।
टेलीविज़न पर हिंदी चैनल बकायदा चलते हैं और हिंदी फिल्मों, गीतों के कार्यक्रमों और धारावाहिकों के तो अधिकतर लोग दीवाने हैं। आप पलभर को भी अपने पसंदीदा गीतों या कार्यक्रमों की कमी महसूस नहीं करेंगे।
घर से बाहर जाकर फ़िल्मों का आनंद उठाना चाहें तो भी सोचने की कोई बात ही नहीं – तीन सिनेमा-घरों (मूवी टाऊन) में हिंदी फिल्में भी दिखाई जाती हैं।
भारतीय मूल के लोगों द्वारा विवाह-समारोहों तथा अन्य सामाजिक पर्वों पर वही हिंदी/भोजपुरी लोक-गीत आज भी गाए या बजाए जाते हैं जो उनके पूर्वज अपने साथ लाए थे। यूँ तो भारत से आए गिरमिटिया मज़दूर अपने साथ शुद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत भी लाए थे। बाद में इंडो-त्रिनिदाद शास्त्रीय संगीत भी एक अलग रूप में विकसित हुआ। प्रो. हरिशंकर आदेश द्वारा स्थापित शुद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देने वाली पहली संस्था भारतीय विद्या संस्थान में आज भी यह शिक्षा बदस्तूर दी जाती है। आज कई अन्य संगीत विद्यालय भी हैं जैसे संगीत महाविद्यालय और शिव संगीत स्कूल ऑफ म्यूज़िक । पंडित मंगल पटेसर, शिवानंद महाराज और डेक्स्टर रघुनानन जैसे व्यक्ति जिन्हें भारत में आकर संगीत सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उन्होंने देश लौटकर संगीत सिखाने का बीड़ा उठा लिया।
त्रिनिदाद एवं टुबैगो विश्वविद्यालय (यू. टी. टी.) में डॉ. रूबी मलिक, श्री राना मोहिप और श्री प्रशांत पटेसर द्वारा संगीत की शिक्षा दी जाती है।
भारतीय उच्चायोग के तत्वाधान में महात्मा गाँधी सांस्कृतिक केंद्र द्वारा भी नियमित रूप से संगीत और नृत्य की कक्षाएँ आयोजित की जाती हैं।
भारत सरकार और त्रिनिदाद एवं टुबैगो सरकार के बीच तय किए गए ‘सास्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम’ (सी ई पी) के तहत भारत से भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् द्वारा त्रिनिदाद में कलाकारों के समूह भेजे जाते हैं जो भारतीय उच्चायोग और महात्मा गाँधी सांस्कृतिक केंद्र के समन्वयन से त्रिनिदाद के भिन्न-भिन्न हिस्सों में सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैँ। देश में अन्य भी अनेक धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाएँ हैं जो हिंदी और भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए कार्यरत हैं और समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करती हैं। इन सभी कार्यक्रमों में अधिकांश महिलाएँ भारतीय वेशभूषा में, यानी साड़ी या सलवार-सूट पहनकर गौरान्वित महसूस करती हैं।
30 मई का दिन भी कमोबेशी एक त्यौहार की तरह ही मनाया जाता है। सभी मिलकर याद करते हैं वर्ष 1845 का वह दिन – 30 मई – जब फतह-अल-रज़ाक नामक जहाज़ पर 230 भारतीयों का पहला समूह 103 दिन की समुद्री यात्रा तय करके इस ज़मीन पर पहुँचा था। कठिनतम परिस्थितियों के बीच भी यहाँ पहुँचे सभी भारतीयों ने आज तक अपनी संस्कृति का हर वो पहलू संजो कर रखा है जिसे वे अपने साथ लाए थे – इन्होंने इस देश की संस्कृति को बहुत कुछ नया दिया था – खान-पान, संगीत शैली, गीत, नृत्य, वनस्पति, धार्मिक ग्रंथ, धर्म व संस्कृति के नए आयाम।
21 मार्च 1917 को ब्रिटिश संसद द्वारा गिरमिटिया प्रथा की समाप्ति की औपचारिक घोषणा के सौ वर्ष पूरे होने पर मार्च 2017 में त्रिनिदाद में आयोजित ‘भारतीय डायस्पोरा – विश्व सम्मेलन’ में देश की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती कमला प्रसाद बिसेसर (भारतीय मूल की पहली महिला प्रधान मंत्री) ने इसी बात को संज्ञान में लेते हुए कहा कि हमें गर्व है कि हम आज यहाँ हैं और आज हमने यहाँ अपनी जगह ख़ूब बना ली है। वे हमेशा गर्व के साथ ट्रनिडाड व टुबैगो को माँ का और भारत को दादी माँ का दर्जा देती हैं।
इसी सम्मेलन में देश के वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. कीथ राऊली ने अपनी बात रखते हुए कहा कि 1917 में जब गिरमिटिया प्रथा समाप्त हो गई और अधिकांश मज़दूरों ने इसी देश में रहने का फ़ैसला कर लिया तो यह एक अच्छी बात हुई, इसके लिए यह राष्ट्र सदैव उनका आभारी रहेगा। (पारस रामावतार)3
देश में एक भारतीय-कैरेबियाई संग्रहालय भी है जिसमें गिरमिटिया मज़दूरों द्वारा लाया सामान आज भी सुरक्षित रखा हुआ है, इनमें शामिल हैं कुछ तस्वीरें, दस्तावेज़, किताबें, चित्रकारी, पुराने वाद्य यंत्र, कृषि संबंधी औज़ार जिन्हें वे कोको, कॉफ़ी और गन्ने के खेतों में इस्तेमाल किया करते थे और रसोई घर में काम आने वाले बर्तन।
भारतीय संस्कृति से सराबोर इस देश में अगर आपके कोई कमी खटकेगी तो वह है – बोलचाल में हिंदी भाषा – इसके अभाव का अहसास तो आपको इसकी ज़मीं पर पाँव रखते ही हो जाएगा। यह अभाव अत्यंत स्पष्ट तौर पर हृदय को कचोटता है। लेकिन यह स्थिति अकारण नहीं है। देश की राजभाषा अंग्रेज़ी है और विभिन्न राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों से और अन्य जन-समूहों के प्रभाव के चलते अधिकतर बोलने-सुनने को अंग्रेज़ी क्रियोल ही मिलती है जिसमें हिंदी भाषा के शब्दों की भरमार है फिर भी हिंदी वहाँ बोलचाल की भाषा नहीं है। स्पैनिश और फ्रैंच द्वितीय भाषाओं के रूप में स्कूलों में पढ़ाई जाती हैं लेकिन हिंदी को वहाँ की सरकार की ओर से यह दर्जा नहीं दिया गया है। देश के सामाजिक-धार्मिक संगठनों के प्रयासों के परिणामस्वरूप कुछ स्कूलों में हिंदी सिखाई तो जाती है लेकिन यह केवल धार्मिक शिक्षा के लिए निर्धारित पीरियड तक ही सीमित रहती है।
हिंदी का प्रचार-प्रसार करने वाली अनेक संस्थाएँ त्रिनिदाद एवं टुबैगो में हैं जैसे हिंदी निधि, वेस्ट इंडीज़ विश्वविद्यालय, भारतीय विद्या संस्थान, पंडित परसराम स्कूल ऑफ हिंदुइज़्म, सनातन धर्म महासभा इत्यादि। लगभग सभी मंदिरों में हिंदी की कक्षाएँ चलाई जाती हैं जिनमें ‘स्वाहा’ मंदिरों और स्कूलों की भूमिका उल्लेखनीय है। भजनों, गीतों और मंत्रों आदि के ज़रिए हिंदी का ज्ञान बढ़ाने के प्रयास किए जाते हैं। अनेक धार्मिक संगठन जैसे हिंदू प्रचार केंद्र, कबीर पंथी, चिन्मय मिशन, एन सी आई सी (नेशनल काउंसिल ऑफ इंडियन कल्चर), आर्य प्रतिनिधि सभा में नियमित तौर पर आयोजित की जाने वाली धार्मिक गतिविधियाँ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी के शब्द-भंडार को समृद्ध बनाती रहती हैं। यह और बात है कि ये शब्द वाक्यों में परिवर्तित होकर बातचीत का रूप कम ही ले पाते हैं।
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आई सी सी आर), भारत सरकार द्वारा वेस्ट इंडीज़ विश्वविद्यालय के ‘सेंटर फॉर लेंग्वेज लर्निंग’ में हिंदी शिक्षण के लिए एक हिंदी पीठ की व्यवस्था है। यहाँ हिंदी की कक्षाएँ नियमित रूप से चलाई जाती हैं। हिंदी सिखाने के लिए दृश्य-श्रव्य उपकरणों का सहारा लिया जाता है और हिंदी गीतों और टी वी धारावाहिकों के ज़रिए हिंदी सिखाई जाती है।
देश की राजधानी पोर्ट ऑफ स्पेन में स्थित भारतीय उच्चायोग भी हिंदी के प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभाता है। भारतीय उच्चायोग के तत्वाधान में महात्मा गाँधी सांस्कृतिक केंद्र में तथा देश के विभिन्न भागों में स्थित केंद्रों में हिंदी की कक्षाएँ चलाई जाती हैं और वर्ष के अंत में परीक्षा आयोजित करके प्रमाण-पत्र भी दिए जाते हैं। इन कक्षाओं में सभी आयु-वर्ग के लोग आते हैं। अधेड़ उम्र के अनेक लोग भी रामायण आदि पढ़ने के लिए हिन्दी सीखने में रुचि रखते हैं। इन कक्षाओं में केवल भारतीय मूल के ही नहीं अपितु अफ्रीकी और यूरोपीय मूल के लोग भी हिंदी सीखने आते हैं। हिंदी दिवस और विश्व हिंदी दिवस समारोह में सभी हिंदी सीखने वालों को हिंदी में कविताएँ, गीत या अपने अनुभव सुनाने का मौका दिया जाता है। इनके अलावा भारतीय उच्चायोग द्वारा समय-समय पर ‘फिल्म फेस्टिवल’ भी आयोजित किए जाते हैं जिनमें हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्में भी दिखाई जाती हैं।
त्रिनिदाद-निवासी हिंदी सीखते तो बहुत शिद्दत के साथ हैं, पर वो जज़्बा बोलचाल में कहीं दिखाई नहीं देता। हिंदी यूँ तो दुकानों के नामों में भी मिलेगी – रफी रोटी शॉप। सड़कों और जगहों के नाम जैसे फैज़ाबाद, कलकत्ता स्ट्रीट, पटना स्ट्रीट् भी हैं। पर मिलेगा सब रोमन में लिखा हुआ, फिर भी हिंदी तो है ही। इतना ही नहीं अधिकतर लोगों के नामों में भी भारतीय नाम मिलेंगे –सरस्वती, रामचरण, रेणुका, राधिका, जानकी, लछ्मी इत्यादि। इनके अलावा रोज़मर्रा के इस्तेमाल के शब्द जैसे खाना, पानी, भाई, लोटा, यज्ञ, दुल्हिन, गाना; रसोईघर में इस्तेमाल किए जाने वाले कुछ शब्द जैसे चूल्हा, चटनी, कुचला (अचार), दाल, भात आदि; और पोशाकों एवं आभूषणों के हिंदी नाम युवाओं की ज़बान पर सहज ही रहते है। नाना-नानी आज भी नाना-नानी ही हैं और दादा-दादी को आजा-आजी कहकर ही पुकारा जाता है।
कुछ धार्मिक क्रियाकलापों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में, ख़ासतौर पर संगीत के कार्यक्रमों में तो पूरी की पूरी कार्रवाई हिंदी में की जाती है और दर्शकगण, बहुत कुछ न समझने के बावजूद, मंत्रमुग्ध होकर उसका आनन्द लेते रहते हैं – यह उनका हिंदी प्रेम ही तो है!
हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति को पोषित करने के उद्देश्य से काम कर रहे भारतीय उच्चायोग और महात्मा गाँधी सांस्कृतिक केंद्र द्वारा सभी सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा भारत के स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्व भी मनाए जाते हैं जिनमें भारतीयों के अलावा त्रिनिदाद एवं टुबैगो के सभी निवासी सार्वजनिक तौर पर आमंत्रित होते हैं। गुरु रविंद्रनाथ टैगोर तथा महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों की जयंती और पुण्यतिथि पर भी कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस तरह के वातावरण का हिस्सा बनकर कोई भी भारत की आत्मा को वहाँ महसूस कर सकता है और अनायास ही कह उठता है – होम अवे फ़्रॉम होम! – निस्संदेह! भारत से दूर एक छोटा भारत जहां भारतीय संस्कृति हर दिशा में सजीव रूप में पसरी हुई है।
-सुनीता पाहूजा
पूर्व द्वितीय सचिव (हिंदी एवं संस्कृति)
भारतीय उच्चायोग,
त्रिनिदाद एवं टुबैगो (2010 से 2013)
एवं मॉरीशस (2020 से 2023)
राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय से सहायक निदेशक के पद से सेवानिवृत्त (31.01.2024 को)