
वेदांत से वैराग्य
-सुरेश पटवा
आध्यात्मिक ग्रंथ उन ऊंचाइयों पर सृजित होते हैं जहाँ नाम, रूप, काल, दिग, दिशायें सब खो जाते है। साधक के भीतर खिला हुआ शून्य, ज्ञान के प्रकटन का दर्पण बनता है। यही शंकराचार्य का ज्ञानयोग है। भारतीय मानस में ब्रह्मसूत्रों की अपनी खास जगह है। वे न तो पूरी तरह वेद में शुमार है, न उपनिषदों में। वे वेदांत अर्थात ज्ञान का अंत है। वे केवल सूत्र हैं जिनमें ब्रह्म का सम्पूर्ण ज्ञान समाया हुआ है। वे ज्ञान के अणुबम है। दो या तीन शब्दों में बहुत विराट बात सहजता से कह देना भारतीय मनीषियों की विशेषता रही है। इसमें ब्रह्मसूत्र अद्वितीय हैं। कभी-कभी केवल दो शब्द वह बात कह देते है, जिसे समझने में पूरी उम्र बीत जाती है। फिर भी कुछ पल्ले नहीं पड़ता।
ब्रह्मसूत्र वैसे लोकप्रिय नहीं है जैसे कि पंतजलि के योग सूत्र, या नारद के भक्ति सूत्र, जिनमे विधियां बताई गई हैं। इनमें करने के लिए कुछ क्रियाएं हैं, साधारण आदमी को कृत्य में रस है। क्रियायोग की कोरी चर्चा कथावाचकों में लोकप्रिय हो सकती है, क्योंकि उन्हें करना कुछ नहीं है, सिर्फ बोलना है। ब्रह्म सूत्रों में की गई चर्चा भले ही जन साधारण की समझ से परे हो, लेकिन उनकी उत्तुंगता मनुष्य के सामूहिक अवचेतन में मानसरोवर के पीछे कैलाश पर्वत सी अटल खड़ी, समय के लंबे प्रवाह में निरंतर टीकाकारों को आकर्षित करती रही है।
ब्रह्मसूत्रों पर प्रबुद्ध पुरूषों ने जितनी टीकाएं लिखी हैं उतनी किसी भी शास्त्र पर नहीं लिखी गई। आदि शंकराचार्य, रामनुजाचार्य, बल्लभाचार्य, निम्बार्क, वाचस्पति मिश्र, कितने ही जागृत पुरूषों ने ब्रह्म सूत्रों की ऊँचाई और गहराई नापने की कोशिश की है। यह घटना ठीक ऐसी है जैसे पर्वतारोही माऊंट एवेरस्ट पर लगातार चढ़ने की कोशिश करते है, क्योंकि उसकी अजेयता एक चुनौती बनती है। एडमंड हिलैरी ने कहा था “क्योंकि वह वहां है।” ब्रह्म सूत्रों की टीका लिखने के लिए भी यह पर्याप्त कारण है: “क्योंकि वह (ब्रह्म) है”— वह अजेय, अमेय, अलंघ्य, जिसकी जिज्ञासा को जानना उसका लक्ष्य है।
ब्रह्मसूत्रों को वेदांत दर्शन का अंग बताया जाता है। इसमें अनुभूति के स्तर पर ब्रह्म के स्वरूप का सांगोपांग निरूपण है। इन सूत्रों की विशेषता यह है कि प्राय: सभी संप्रदायों के आचार्यों ने इनकी व्याख्या अपने मत के अनुसार की है। यह एक आश्चर्य है कि परस्पर विरोधी दर्शनों को अपने परस्पर विरोधी सिद्धांतों का प्रतिबिंब इसमें दिखाई दिया। कितना विराट होगा इसका आशय जो सब विरोधों को अपने आलिंगन में लेकर भी शेष रहता है। सूत्रकार ने ब्रह्मसूत्रों को चार अध्याय में बांटा है।
पहला- समन्वय अध्याय। इसमें व्यास मुनि विषयवस्तु अर्थात ब्रह्म विचार को, अनेक उदाहरण और तर्क देकर स्थापित करते हैं।
दूसरा- अविरोध अध्याय। इस अध्याय में ब्रह्म को लेकर पहले सब प्रकार के विरोधाभासों का उल्लेख फिर उनका निराकरण किया गया है।
तीसरा- उपासना अध्याय। यह अध्याय परब्रह्म की अनुभूत उपलब्धि हेतु ब्रह्मविद्या और उपासना पंथों की चर्चा करता है।
चौथा- फल अध्याय। यह उपासना उपायों द्वारा मिलने वाले फल का वर्णन है। इसलिए उसे फलाध्याय कहते है।
जैसी कि सनातन शास्त्रों की शैली रही है, लेखक अपने सिद्धांत को सिद्ध करने से पूर्व सभी मत-मतांतरों की खबर लेता था। व्यास मुनि भी वही शैली अपनाते है। वे न जाने कितने प्रचलित मतों को उल्लेख कर उनका खंडन और ब्रह्म का मंडन कर अबाध बहती हुई सलिला की भांति मस्ती से आगे बढ़ते हैं।
भारत में आध्यात्मिक विचार प्रवाह अनादि काल से प्रवाहित रहे हैं। वे अन्य संस्थागत धर्मों की तरह किसी एक व्यक्ति को प्रगट नहीं हुए। यह मान्यता है कि वे आकाशस्थ अभिलेख में थे, व्यक्तियों ने उन्हें सिर्फ वाणी दी। परंपरा का निर्वाह करते हुए बादरायण व्यास ने भी प्रधान कारणवाद, अणुवाद, विज्ञानवाद, आदि सिद्धांतों की समीक्षा की। लेकिन उनके प्रधान आचार्यों का उल्लेख नहीं किया है। क्योंकि ज्ञान न कभी पैदा हुआ न कभी समाप्त होगा। ज्ञान की इस अनादि-अनंतता की प्रतिध्वनि ‘’ब्रह्मसूत्र’’ जैसे ग्रंथों में सुनी जा सकती है।
ब्रह्मसूत्र और आधुनिक मनुष्य के बीच हजारों वर्ष का फासला है। यह फासला सिर्फ सत्य का नहीं है, मानसिकता का भी है। मनुष्य के अंतरतम व्यक्तित्व पर षठरिपु की इतनी पर्तें चढ़ गई हैं कि उसका मूल चेहरा ही खो गया है। अगर कहा जाये कि ब्रह्मसूत्र मूल चेहरे की खोज है तो गलत न होगा। तुम्हारी चेतना में ब्रह्म की पहचान भले ही खो गई हो, ब्रह्म तो वही है; उसका नाम भर बदल गया है। वैज्ञानिक हवल ने जब ‘’expanded universe’’ अर्थात फैलते हुए ब्रह्मांड का पता लगाया तो वह ब्रह्म का ही अविष्कार था। उसे हम बीसवीं सदी का ब्रह्म कह सकते हैं।
ब्रह्म की मूल प्रकृति है: ‘’अपबृंहणात् ब्रह्म।‘’ जो फैलता जाता है उसे ब्रह्म कहते है। ऐसा नहीं है कि ब्रह्माण्ड प्राचीन समय में ही फैल रहा था, वह तो आज भी फैल रहा है। वैज्ञानिकों ने धर्म की ओर पीठ कर ली और पदार्थ में उतर गये। वह भी ज़रूरी था। लेकिन जैसे ही पदार्थ की गहराई में पहुंचे, वहां पुन: ब्रह्म प्रवेश करता दिख रहा है।
@सुरेश पटवा
प्रस्तुति : डॉ जयशंकर प्रसाद