ख़ुद्दारी

भावना कुँअर

आज फिर शीला अपने छोटे-छोटे बच्चों को गोद में लेकर काम की तलाश में सुबह-सुबह ही निकल पड़ी। पूरा दिन बच्चों को लेकर यहाँ-वहाँ भटकती रही किंतु काम नहीं मिला। जहाँ भी काम माँगने जाती वहाँ लोग भूख प्यास से बिलखते मासूम छोटे-छोटे बच्चों पर तो ध्यान ना देते पर, हाँ! उनकी निगाहें शीला के खूबसूरत, कसे, सुडौल बदन पर जाकर ज़रूर चिपक जातीं।

आज दो दिन हो गए थे शीला और उसके मासूम बच्चों के मुँह में अन्न का एक दाना भी नहीं गया था। कैसी मजबूरी थी। पति राकेश था तो कभी किसी चीज़ की कमी नहीं थी। आराम से घर चल रहा था। चारों अपनी छोटी सी दुनिया में बहुत खुश थे।

घर भले ही किराए का था किंतु उस घर में ख़ुशियों की कमी नहीं थी। राकेश एक कारखाने में काम करता था। बहुत ईमानदार और नेक इन्सान था। पति-पत्नी दोनों ही बहुत खुद्दार थे। ये बात अलग है कि राकेश को कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी, परन्तु ईमानदारी और खुद्दारी की रोटी खाकर सुकून की नींद आती थी।

अच्छी-ख़ासी ज़िंदगी के चलते एक दिन अचानक मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। कारखाने में काम करते वक़्त राकेश अपना दायाँ हाथ खो बैठा। बस ग़नीमत ये थी कि जान बच गई थी। मुआवज़े के नाम पर जो मिला उससे घर कितने दिन चल सकता था।

रमेश हारने वालों में से कहाँ था एक हाथ ही तो खोया था उसने,  हौंसला तो ज़िंदा था। रमेश किसी नए काम की तलाश में निकल पड़ा। एक हफ़्ता बीत गया पर कहीं काम ना मिला। ऐसे ही दिन बीतते गए और जमा किया हुआ पैसा भी अब लगभग समाप्त हो गया। शीला कुछ काम करने को कहती तो रमेश यह कहकर टाल देता कि-“दोनों ही बच्चे अभी बहुत छोटे हैं तुम्हें उनको सम्भालना है घर के भी इतने काम हैं तुम चिंता मत करो कुछ ना कुछ काम मिल जाएगा और मैं तुम्हें एक सिलाई मशीन ला दूँगा तो तुम घर में रहकर कपड़े सिलने का काम कर लेना इससे बच्चों के देखभाल भी कर पाओगी और कुछ पैसे भी आ जाएँगे पर होनी को कुछ ओर ही मंज़ूर था एक सड़क दुर्घटना में राकेश की मृत्यु हो गयी।

घर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। शीला उसी कारखाने में काम माँगने गई, लेकिन वहाँ मौजूद विकृत सोच वाले चंद व्यक्तियों को देख उसने वहाँ से वापस लौटना ही उचित समझा। अपने ख़्यालों में खोई शीला निराश वापस जब लौट रही थी तभी उसे ठोकर लगी और दो हाथों ने आगे बढ़कर उसे सम्भाल लिया। सम्भालने वाली महिला कोई ओर नहीं ऊषा दीदी थीं, जो एक एनजीओ चलाती थीं। वे असहाय महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने का काम करती थीं। ऊषा दीदी ने शीला से बातचीत की तो उन्हें सारी स्तिथि का पता चला। ऊषा दीदी ने बिना समय गवाँए उसे काम पर रख लिया।

शीला ने बहुत मेहनत और ईमानदारी से काम किया जिससे उसके बुरे दिन अब अच्छे दिनों में बदलने लगे। समय पंख लगाकर उड़ने लगा। बच्चे भी अब बड़े हो गए। दोनों बच्चों ने ख़ूब मेहनत और लगन से पढ़ाई की। दोनों ही को नौकरी में बड़ी-बड़ी पोस्ट मिलीं।

दोनों बच्चे भी अपनी माँ की तरह ही ईमानदार और खुद्दार हैं। शीला को भी अपनी परवरिश पर बहुत गर्व होता है।  बच्चों के साथ मिलकर शीला ने कितने ही शहरों में एनजीओ खोल डाले। सबकी देख-रेख खूब मन से करती। उसकी सोच में यही बात आती कि जिस तरह उसको मदद मिली उसी तरह वो भी बेबस लोगों का सहारा बने।

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