रोशनी का संचार
भावना कुँअर
सोसाइटी में सभी लोग नये साल के जश्न की तैयारी में जुटे थे। हर तरफ़ रंगीन कनातें तन चुकी थीं। सोसाइटी के कुछ हिस्से रंग-बिरंगी लाइटों से जगमगा रहे थे। कुछ हिस्सों पर अभी लाइट लगनी बाक़ी थी। रास्ते में कुछ लड़ियाँ अस्त-व्यस्त सी इधर-उधर बिखरीं पड़ी थीं; जिनको अभी लगाना बाकी था। सोसाइटी के सबसे बड़े लॉन की मखमली दूब पर रंग-बिरंगी कुर्सियाँ रखी हुई थीं। लॉन की बाहरी दीवार से सटे हुए वृक्षों पर आम, लीची, अंगूर और तितलियों से सजी हुई लाइटें लगाईं गईं थीं; जिसको देखकर आभास ही नहीं हो रहा था कि वो रात का वक़्त है । शायद ऐसा ही आभास उन पेडों रहने वाले पंछियों को भी हो रहा था। वे भी शोर मचा रहे थे, उछल-कूद कर रहे थे। सारे पंछी बहुत भ्रमित से नज़र आ रहे थे। कुछ पंछियों के घोंसलों से उनके नन्हें-नन्हें बच्चे भी चीं-चीं, चीं-चीं की आवाज़ से सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे थे किन्तु लोग तो अपनी ही दुनिया में मग्न थे। ऐसी दुनिया में जहाँ इन्सान ही इन्सान को कुछ नहीं समझता तो वहाँ पंछियों का तो अस्तित्व ही कहाँ? कौन सोचेगा उनके बारे में?
सोसाइटी में ही एक बड़े से हॉल को लाल और सफेद गुलाबों से सजाया गया था। गुब्बारों से ‘Happy New Year’ लिखा गया था। एक तरफ मेज़ पर पाँच मंज़िला केक रखा था। उसके ऊपर ‘Welcome New Year’ लिखा था। बराबर वाले हॉल में खाने-पीने की व्यवस्था की गई थी। सभी लोग धीरे-धीरे आने लगे थे। अन्य वर्षों के मुकाबले इस वर्ष कुछ ज्यादा ही रौनक थी। धीरे-धीरे घड़ी की सुँईयाँ बारह की ओर खिसक रही थीं और सभी लोग पुराने वर्ष की विदाई और नये के स्वागत की प्रतीक्षा कर रहे थे।
तभी सारी लाइटें बंद कर दीं गई और जैसे ही घड़ी ने बारह बजाए तालियों की गड़गड़ाहट, आतिशबाजियों की रोशनी, म्यूजिक की ध्वनि और Happy New Year की आवाज़ से सारा वातावरण गूँज़ उठा। आवाज़ें कटे शीशे की तरह मीता के कानों से टकरा रहीं थी और वह दोनों हाथों से अपने कान बंद करके चीख़ रही थी- ‘बन्द करो ये शोरगुल, भगवान के लिए चुप हो जाओ…’ लेकिन वहाँ उसकी कोई सुनने वाला नहीं था। धीरे-धीरे मीता अतीत में खोने लगी।
बरसों पहले ऐसी ही नए साल की तैयारियों वाली शाम थी जब एक फ़ोन की घंटी ने उसकी पूरी दुनिया बदल डाली थी और हमेशा के लिए उसके पति महेश को उससे छीन लिया था। साथ ही वो उन बीते दिनों को याद करने लगी जब उसके बेटे मुदित का जन्म हुआ था। वो दिन उसकी जिंदगी का सबसे ख़ूबसूरत दिन था। वह माँ जो बनने वाली थी। उसका महेश भावविभोर होकर बार-बार उसका माथा चूम लेता था। दोनों ने न जाने कितने सपने देख डाले थे अपने नन्हें-मुन्ने की कल्पना में। तभी तीव्र पीड़ा से कराह उठी थी मीता। महेश ने डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर ने बताया कि अब वो घड़ी आ चुकी है, जिसका उन्हें बेसब्री से इंतज़ार था, उनका सपना पूरा होने जा रहा है। मीता को ऑपरेशन थिएटर में ले जाया गया।
महेश ऑपरेशन थिएटर के बाहर मीता और अपने आने वाले बच्चे की सलामती की भगवान से प्रार्थना करता रहा। कुछ ही समय के बाद नर्स सुंदर से गोलमटोल से बच्चे को साथ लिये बाहर आई। महेश ने जब बच्चे को देखा तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। बच्चे को गोद में लेकर एकटक उसे निहारता रहा जैसे उसमें अपना बचपन ढूँढ रहा हो।
मीता और महेश बच्चे को पाकर बहुत खुश थे। दोनों ने मिलकर एक बड़ा सा जश्न करने की ठानी। बस फिर क्या था, दोनों काम में जुट गये। मेहमानों की लिस्ट तैयार की गई, मैन्यू फिक्स कर लिया गया, कार्ड छपवा दिये गए और भी न जाने क्या-क्या तैयारियाँ कर डाली गईं उस नवागन्तुक की खुशी में, क्योंकि जश्न दस दिन बाद ही जो था। ऐसे अवसर पर महेश की माताजी की कमी बहुत ख़ल रही थी, जो कुछ दिन पहले ही न जाने कितने अधूरे सपने अपने साथ लेकर इस दुनिया से विदा ले गई थीं। अब इस परिवार में महेश और मीता के अतिरिक्त महेश के पिता ही थे। महेश को रह-रहकर आज माँ बहुत याद आ रहीं थीं, जब भी महेश की माँ उसको बुरी तरह काम में जुटा देखती तभी कहतीं- “महेश! अब हमें तु्म्हारी शादी कर देनी चाहिए जिससे तुम घर में भी कुछ समय रुक सको, वरना तो हर समय बस काम… काम…काम…। मेरी भी इच्छा है कि मैं भी किसी के साथ बातचीत करूँ, किसी के साथ खेलूँ, तुम शादी कर लोगे तो मैं भी अपने पोते-पोतियों के साथ खेलने का अपना अरमान पूरा कर लूँगी। तुम्हारे मन में कोई लड़की है तो तुम बताओ वरना मैं तुम्हारे लिए तुम्हारी पसन्द की कोई अच्छी सी लड़की तलाशती हूँ”। यह सब सुनकर महेश हमेशा ही ना नुकुर करने लगता। इसी तरह समय बीतता गया और महेश की माँ अपना अधूरा सपना लिए इस दुनिया से विदा ले गईं।
महेश उन दिनों बहुत व्यस्त हो गया था। एक तरफ तो जश्न की तैयारी दूसरी तरफ अपने ऑफिस के पचास काम। सुबह काम पर निकलता और देर रात तक घर लौटता। महेश सिविल इंजीनियर था। शहर की कितनी ही इमारतें उसकी देख-रेख में बन रही थीं। कुछ दिनों से उसे धमकी भरे फोन आने लगे थे। परिवार के लोग बहुत चिंतित थे किंतु महेश हमेशा ही उनको समझाता कि- ‘ये सब तो उसके काम का हिस्सा है कुछ नाखुश लोग इस तरह की बातें करते रहते हैं ताकि उनके मिलावटी सामान को मैं एप्रूव कर दूँ।’
मीता बार-बार समझाती- ‘इतनी भाग दौड़ मत किया करो बीमार पड़ जाओगे,’ पर महेश हमेशा ही हँस कर टाल देता और कहता कि- ‘कुछ ही दिनों की तो बात है जश्न के बाद तो इतनी भाग दौड़ नहीं रहेगी और अब तो मेरा बेटा भी आ गया हम दोनों मिलकर फटाफट सब काम निबटा लिया करेगें।’ इस बात को एक हफ़्ता ही हुआ था। अभी महेश और मीता के बेटे का नामकरण संस्कार भी नहीं हुआ था कि हमेशा की तरह आज भी महेश सुबह ही काम पर निकल गया। महेश शहर के सारे काम अपनी बाइक से ही निबटा लिया करता था ताकि शहर की भीड़-भाड़ से बच सके।आज भी वह बाइक लेकर ही निकला था और आज भी हमेशा की तरह ही उसको लौटने में देर हो गई। मीता ने कई बार सोचा कि चलो फोन कर लिया जाए पर ये सोचकर रुक गई कि आते ही होंगे। अब रात के बारह बज चुके थे। मीता को चिन्ता सताने लगी। मन में अजीब-अजीब से ख़्याल आने लगे। इससे पहले कि वह कुछ कर पाती, फोन की घन्टी बज उठी। मीता ने दौड़कर फोन उठाया उसे लगा कि महेश का ही फोन होगा लेकिन फोन पर किसी अज़नबी की आवाज़ सुनकर वह कुछ आशंकित सी हुई और जब उधर से बोलने वाले व्यक्ति की पूरी बात सुनी तो अपने होश गँवा बैठी। आँखें खुली तो अपने सामने अपने पिता समान ससुर को पाया जो पानी के छीटें मारकर उसे होश में लाने का प्रयत्न कर रहे थे और बेतहाशा बोले जा रहे थे- ‘क्या हुआ बेटे? बोलो तो किसका फोन था’? मीता बस इतना ही कह पाई – ‘वो महेश…’ महेश के पिता लगभग चीख पड़े-‘महेश! बताओ क्या हुआ महेश को? कहाँ है मेरा बेटा… मीता ने अपने आपको सँभाला और कहा- ‘वो अस्पताल में हैं, उनका एक्सीडेन्ट हो गया है। महेश के पिता सकते में रह गए, फिर थके से कदमों से फोन के पास जाकर जैसे ही फोन उठाया उनके हाथ से रिसीवर छूट गया तब मीता ने खुद में हिम्मत जुटाई और रिसीवर उठाकर उनके हाथ में दे दिया महेश के पिता ने महेश के मोबाइल पर फोन किया, किसी अज़नबी ने फोन उठाया और बताया कि वो कौन से अस्पताल में है। महेश के पिता किसी तरह हिम्मत बटोरकर मीता के साथ अस्पताल पहुँचे। महेश की हालत देखी नहीं जा रही थी। उसके आँख, नाक और मुँह से लगातार खून बह रहा था, सिर में बहुत गहरी चोट आई थी। डॉक्टर ऑपरेशन की तैयारी में उसके किसी अपने के आने का इन्तज़ार कर रहे थे, ताकि शीघ्र से शीघ्र उसका खून का बहना रोका जा सके। ऑपरेशन के बाद महेश को आई० सी० यू ० में रखा गया।
पुलिस और परिवार एक्सिडेंट के कारणों की जाँच में लगे हुए थे। परिवार को संदेह था कि कहीं धमकी भरे फोन ही तो इसका कारण नहीं हैं। आख़िरकार पुलिस की जाँच ने उनके संदेह को पुख़्ता कर दिया और फ़रार दोषियों की तलाश में लग गए। दो दिन हो चुके थे पर महेश को अभी तक होश नहीं आया था।
डॉक्टर अभी भी बता रहे थे कि खतरा टला नहीं है। सबकी साँसें अटकी हुई थीं। सभी भगवान से मन्नत माँग रहे थे पर होनी को कुछ ओर ही मंज़ूर था। खतरे से बाहर आने की घड़ी से पहले ही महेश सबसे विदा ले गया। बड़ा मनहूस दिन था वो जब सबके घर रोशनियों से जगमगा रहे थे तब ही किसी के घर का इकलौता चिराग़ हमेशा-हमेशा के लिए बुझ गया।
लोग तो कुछ देर आकर गम मनाकर चले गए, पर मीता की जिंदगी तो हमेशा के लिये गमों से भर गई ।
अभी तो उसकी शादी को साल भर भी नहीं हुआ था, अभी तो उस नन्हीं सी जान ने पिता के प्यार का ठीक से एहसास भी नहीं किया था। वह यह भी नहीं जानता था कि उसका और उसके पिता का साथ सिर्फ चन्द दिनों का है। आज मीता की जिंदगी सवाल बनकर उसके सामने खड़ी उसको मुँह चिढ़ा रही थी। अभी तो उसको और महेश का साथ ठीक से मिला भी नहीं था, अभी तो उन्होनें सपने देखने ही शुरू ही किये थे कि किस्मत ने उनके सारे सपनों को रेत की दीवार की तरह धराशायी कर दिया। मीता का जीवन गमों से भर गया। नन्हीं सी जान को अपने सीने से लगाए दिनभर रोती रही और महेश के साथ बिताए दिनों को याद करती रही।फिर डबडबाई आँखों से बार-बार अपने बच्चे को देखती रही मानो उसमें महेश का चेहरा तलाश रही हो, कुछ बड़बडड़ाई और फिर चेतना शून्य हो गई। होश में आई तो उसका ध्यान नन्हीं सी जान पर गया जो भूख के मारे होंठ चाट रहा था। मीता के दिल में एक हूक सी उठी उसने अपने बच्चे सीने से लगा लिया। हौले से उसके सिर पर हाथ फेरने लगी। वह भी कुनमुनाया। ऐसा लगा जैसे घाटियों से होकर किसी मनोरम झरने का संगीत उमड़ पड़ा हो। वह बुदबुदाई- ‘मैं अकेली नहीं हूँ, मेरा बच्चा है ना मेरे साथ मेरे महेश की निशानी, मैं करूँगी इसका पालन-पोषण और महेश की ही तरह एक नेक, ईमानदार और अच्छा इंसान बनाऊँगी और महेश के हर अधूरे सपने को पूरा करूँगी।’ उसके ऐसा सोचते ही चारों तरफ मानों रोशनी की लहर दौड़ गई हो, पूरा वातावरण मानो इत्र से महक उठा हो, उसके विचारों की दृढता से उसमें नई रोशनी का संचार हुआ।
मीता खिड़की के बाहर देख रही थी। उस दिन भी लोग इसी तरह जश्न मना रहे थे जैसे की आज। ऐसे ही आतिशबाजियाँ चला रहे थे। बिल्कुल इसी तरह सब लोग अपने आपे में नहीं थे। वही शोरगुल, वही कहकहे, किसी को कान पड़ी नहीं सुनाई नही दे रही थी।
आज बरसों बाद ही सही पर मीता के सारे सपने पूरे हो चुके थे। बेटा मुदित भी अब बड़ा हो चुका था। वह भी अपने पिता की तरह ही सच्चाई और ईमानदारी की राह पर चल रहा था।
जिस महेश ने ईमानदारी के कारण अपनी जान गवाँ दी पर अपने फर्ज़ से गद्दारी नहीं की और पुल के निर्माण में सीमेंट में जरूरत से ज्यादा रेत मिलाने के प्रस्ताव को ठुकरा कर सैंकड़ों लोगों की जान बचाई आज उसके गुनहगार भी अपनी सज़ा पा रहे थे।
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