साथी
रहने दो प्रिय, मत लो मेरी
लोहे की बेडौल कड़ाही।
यह छिछली सी, बड़ी कड़ाही,
दादी से माँ ने पाई थी।
भारत छोड़ चली थी जब मैं,
साथ इसे भी ले आई थी।
अपनी गोल तली के कारण,
यहाँ न चूल्हे पर टिकती थी।
असम आँच लगने के कारण,
खाद्य-वस्तु बहुधा जलती थी।
केवल यही नहीं, देखो तो,
कितने सारे इसके साथी।
पीतल का बदरंग सरौता,
धार नहीं है जिसमें बाक़ी।
टेढ़ी सी वह माँ की सँड़सी,
पकड़ नहीं जो कुछ भी पाती।
फूल-धातु की गोल पतीली,
लुढ़क-लुढ़क जो हरदम जाती।
बिन हत्थे का बड़ा भगौना,
जिसका ढक्कन बदल गया है,
नहीं जानते तुम इनसे यह
जीवन कितना सँभल गया है।
सच है, यह परिवेश भिन्न है,
इसमें अलग अलग ये लगते।
नए चमकते उपकरणों के बीच
भला ये क्यों कर सजते?
याद करो पर जब पश्चिम में,
हम सब नए नए थे आए,
सच्चे अर्थों में तब कितना,
इस संस्कृति में थे मिल पाए?
यत्न किया हमने बहुतेरा,
समय लगा पर हमें बदलते।
तब इनकी ही तरह बहुत कुछ,
अलग, अटपटे से हम लगते।
इस अन्तर से जन्मी पीड़ा
ने जब जब था मन को तोड़ा,
इन सब उपकरणों ने तब
भारत से मेरा नाता जोड़ा।
इन्हें देख, छू, पा जाती थी,
जीवन की वे बिछुड़ी राहें,
प्यार सभी भाई-बहनों का,
माँ-बाबुल की स्नेहिल बाँहें।
दादी की सीखें बहुतेरी,
नानी की मधुर लोरियाँ,
बाँधें रखतीं अन्तर-मन को,
नातों की जो नरम डोरियाँ।
वही सुरक्षा मिली उन दिनों,
मन को इन सबके माध्यम से,
जो नन्हा बच्चा पाता है,
मुट्ठी में थामें आँचल से।
बहुत सहारा दिया इन्होंने,
सच्चे अर्थों में ये साथी।
रहने दो प्रिय, मत माँगो यह
लोहे की बेडौल कढ़ाही।
-अचला दीप्ति कुमार