महात्मा गांधी और हिंदी

– अतुल कुमार प्रभाकर
अंग्रेजों ने भारत में अपनी पैठ बनाने के लिए हिंदुओं की पीठ पर हाथ रखा और कहा कि मुसलमान तो बाहर से आए हैं तुम हमारी भाषा सीखो और अफसर बन राज करो। बहुत से हिंदुओं ने अंग्रेजी भाषा ही नहीं सीखी बल्कि उनकी संस्कृति को भी अपनाने लगे। कांग्रेस की स्थापना के साथ पढ़े-लिखे हिंदू अंग्रेजी साहित्य पढ़कर स्वराज की बात करने लगे जो अंग्रेजों को अच्छी नहीं लगी। तब उन्होंने मुसलमानो की पीठ पर हाथ धरा और उन्हें कहा कि तुम हमारी भाषा सीखो हम तुम्हें अफसर बनायेंगे,तुम्हारा फिर से राज होगा। बस हमारे प्रति वफादार रहिए और मुसलमान कांग्रेस का विरोध करने लगे। उसे सदा हिंदू जमात कहा।
इधर हिंदुओं का एक दल पुरानी संस्कृति को अपनाने पर जोर देता था और संस्कृतनिष्ट हिंदी का पक्षपाती था। उर्दू उनके लिए मुसलमानो की भाषा थी जो विदेशी लिपि में लिखी जाती थी। ऐसे भी लोग थे जो अंग्रेजी राज को तो अच्छा मानते थे पर अंग्रेजी भाषा और शिक्षण को राष्ट्रीयता के मार्ग की बाधा मानते थे। इसी प्रकार हिंदू, उर्दू और अंग्रेजी दोनों के विरोध में हिंदी के पक्षधर बनते जा रहे थे।
सब बटे हुए थे। उनको यह समझाने वाला कोई नहीं था कि पठान और मुगलों के शासन काल में आपने जो राष्ट्रीयता विकसित की थी वह आज ग्राह्य नहीं हो सकती। अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए हमें हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, यहूदी यह सब भेद भुलाने होंगे। यह उस समय की मांग थी।
इस समय मंच पर गांधीजी आए। उनका मुख्य उद्देश्य सबको साथ लेकर स्वराज की लड़ाई लड़ना था। एक राष्ट्रभाषा की खोज उनके लिए अनिवार्य थी और वह हिंदी ही हो सकती थी। ऐसी हिंदी जो सबको ग्राह्य हो। उत्तर भारत के हिंदुओं ने गांधी जी की हिंदी को पूरा समर्थन दिया पर वे उर्दू का विरोध करते रहे।
दूसरी ओर जवाहरलाल जैसे व्यक्ति थे। वे अंग्रेजी राज का विरोध करते थे पर पश्चिमी सभ्यता का नहीं। उन्हें अंग्रेजी से प्रेम था। उन्हें राष्ट्रभाषा के रूप में अंग्रेजी चाहिए थी, क्योंकि उनकी शिक्षा अंग्रेजी में ही हुई थी। गांधी जी के प्रभाव में आकर जवाहरलाल ने हिंदी को स्वीकार अवश्य किया पर अंतर मन में अंग्रेजी ही शासन करती रही।
मुसलमान भी गांधी जी की हिंदी स्वीकार न कर पा रहे थे। राष्ट्रवादी मुसलमानो का कहना था, “एक बात ध्यान पूर्वक समझ लीजिए, उत्तर भारत में हमारा राज था। आज जिस तरह देश पर अंग्रेजी का प्रभाव है, इसी तरह उस समय हिंदू- मुसलमान सभी पर्शियन सीखते थे। संस्कारिता के लिए दुनिया भर में यही भाषा मशहूर थी। इस देश के लोग पर्शियन और हमारी धर्म भाषा अरबी निष्ठा पूर्वक सीखने लगे थे। हमारा राज फारसी में चलता था।”
“यह सब होते हुए भी प्रजा का महत्व पहचान कर जनता की भाषा खड़ी बोली को हमने राजभाषा स्वीकार किया। आज जैसे भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी के शब्द घुस गए हैं इस तरह खड़ी बोली में अरबी फारसी के शब्द प्रचुर मात्रा में घुसे। उस भाषा का नाम हुआ उर्दू। इस देश में राज करना है तो उर्दू जैसी प्रजा भाषा को ही राजभाषा बनाना चाहिए। ऐसा तय करके हमने उर्दू को राजभाषा करार दिया।”
यह उस समय के मुस्लिम मित्रों की भावना थी तो यह निश्चित जाना गया कि यदि अरबी- फारसी शब्दों के बहिष्कार की बात छोड़ भी दी जाए, फिर भी मुसलमान पूरे उत्साह से हिंदी प्रचार में सहयोग नहीं देंगे।
ऐसी स्थिति में प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी पंडित सुंदरलाल ने गांधी जी से कहा, “हिंदी की व्याख्या आप चाहे जितनी व्यापक करें उसमें सारे के सारे उर्दू शब्दों को स्वीकार करें तो भी जब तक उसका नाम हिंदी है तब तक आपकी राष्ट्रभाषा की प्रवृत्ति हिंदू राज्य की प्रवृत्ति मानी जाएगी। इसलिए हिंदी और उर्दू दोनों नाम छोड़कर पूर्ण राष्ट्रीय व्याख्या की राष्ट्रभाषा को हिंदुस्तानी नाम दीजिए और उसके लिए नागरी तथा उर्दू दोनों लिपि मान्य रखिए। तब ही मुसलमानो की शंका दूर होगी।”
स्वतंत्रता संग्राम की दृढ़ता को बनाए रखने और राष्ट्रीय एकता को ध्यान में रखते हुए गांधी जी को सुंदरलाल जी की बात जंची और उन्होंने उसी के अनुसार अपने हिंदी प्रचार के रूप में कुछ परिवर्तन करने का विचार बनाया और हिंदुस्तानी नाम को अपनाने पर सहमत हुए।
कुछ मुसलमान साफ-साफ कहते रहे हैं,” हिंदुस्तानी की आड़ में गांधीजी हिंदी चलाना चाहते हैं। इसलिए हमें उसमें शामिल नहीं होना चाहिए।”
उत्तर भारत के लोग कहते हैं कि हिंदुस्तानी की आड़ में उर्दू चलेगी।
सुभाष बोस की आजाद हिंद फौज की भाषा भी हिंदी- हिंदुस्तानी थी।
1916 में गांधी जी ने हिंदी और देवनागरी को अपनाने का प्रस्ताव रखा था जिसका समर्थन दक्षिण के अनेक लोगों ने किया। रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा, ‘आधुनिक भारत की संस्कृति एक विकसित शतदल के समान है जिसका एक-एक दल एक-एक प्रांतीय भाषा और उसका साहित्य, संस्कृति है। किसी एक को मिटा देने से उस कमल की शोभा नष्ट हो जाएगी। हम चाहते हैं कि भारत की सब प्रांतीय बोलियां, जिनमे सुंदर साहित्य की सृष्टि हुई है, अपने- अपने घर में रानी बनाकर रहे। प्रांत के जनगण की हार्दिक चिंता की प्रकाश भूमि स्वरूप कविता की भाषा होकर रहें और आधुनिक भाषाओं के हार के मध्य मणी हिंदी भारत- भारती होकर विराजती रहे।’
गुजरात शिक्षा सम्मेलन के सभापति पद से बोलते हुए गांधी जी ने कहा था की राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सहज और सुगम हो। जो धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में माध्यम बनने की शक्ति रखती हो। जिसके बोलने वाले बहुसंख्यक हो। जो पूरे देश के लिए सहज रूप से उपलब्ध हो। अंग्रेजी किसी भी तरह से इस कसौटी पर खरी नहीं उतर पाती। उनके अनुसार हिंदी ही एकमात्र वह भाषा थी जो उनके द्वारा निर्धारित आवश्यकताओं की पूर्ति करती थी।
गांधी जी उस समय लोगो से कहते थे, ‘हम हिंदी को उसका उचित स्थान दिलाने की बात ही करते रहे और स्वयं अपने जीवन में उसकी उपेक्षा की।
गांधी जी ने सदा हमें अपने देश, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति पर गर्व करने की सीख दी थी।
गांधी जी यह भी जानते थे कि उनके जाने के बाद देश की बागडोर अंग्रेजी के कायल और पश्चिम के उपासक देश भक्तों के हाथ में जाने वाली है। इसलिए वे बार-बार सावधान करते रहे कि अगर राज-काज से और शिक्षा के क्षेत्र से अंग्रेजी को तुरंत नहीं हटाया तो अंग्रेजी इस देश में ऐसा मजबूत स्थान लेकर बैठेगी कि उसे दूर करने के लिए जनता को दूसरी क्रांति करनी पड़ेगी।
शिक्षा के क्षेत्र में हिंदी को समृद्ध करने की दिशा में महात्मा मुंशीराम ने बहुत कार्य किया। उनके अनुरोध पर बहुत से व्यक्तियों ने आज से 100 वर्ष से अधिक पूर्व (1908) में रसायन- शास्त्र, वनस्पति- शास्त्र, विद्युत-शास्त्र, भौतिक और रसायन विज्ञान जैसे विषयों की पाठ्य पुस्तक तैयार की। उनमें प्रमुख थे सर्व श्री महेश चरण सिन्हा (1882-1942) और गोवर्धन शास्त्री (1891-1927)। बाद में गुरुकुल के स्नातको सहित अनेकानेक इस क्षेत्र में आए। विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में अनुवाद द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध करने वाले विद्वानों में भी गुरुकुल के स्नातक प्रमुख रहे। प्रारंभ में यह काम करना निश्चय ही कठिन रहा होगा। आज भी अच्छी पुस्तकों का अभाव खटकता रहता है तो आज से 100 वर्ष पहले क्या स्थिति रही होगी। पर महात्मा मुंशीराम तो वास्तव में कर्म योगी थे। उन्होंने यह प्रमाणित करके कि हिंदी के माध्यम से किसी भी विषय में उच्च से उच्च शिक्षा दी जा सकती है, बड़े-बड़े विश्वविद्यालय के अधिकारियों को चकित कर दिया। तत्कालीन कोलकाता विश्वविद्यालय आयोग के प्रधान श्री सेडलर ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, “मातृभाषा द्वारा उच्च शिक्षा देने के प्रशिक्षण में गुरुकुल को अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई है।”
यही सब देखकर गांधी जी ने महामना पंडित मदन मोहन मालवीय से कहा था, गंगा के किनारे हरिद्वार के जंगलों में गुरुकुल खोलकर जब स्वामी श्रद्धानंद हिंदी के माध्यम से उच्च शिक्षा दे सकते हैं तो वाराणसी की गंगा के किनारे बैठकर आप इन बच्चों को टेम्स का पानी क्यों पिला रहे हैं।
सन 1917 में राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में हुआ। उसी के साथ हुआ राष्ट्रभाषा सम्मेलन। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक इसके सभापति थे। कांग्रेस और बंगाल के सभी नेता अंग्रेजी में बोले। सरोजिनी नायडू और सभापति भी अंग्रेजी में बोले, लेकिन जब गांधी जी बोलने खड़े हुए तो वे उस समय जैसी भी हिंदी जानते थे हिंदी में ही बोले। उन्होंने कहा, “लोकमान्य हमारे सबसे बड़े नेता हैं वे चाहे जो करें वह महत्व का है। परंतु राष्ट्रभाषा का सभापति यदि विदेशी भाषा में बोले तो यह राष्ट्रभाषा सम्मेलन कैसा?”
लोकमान्य बोले, “आप ठीक कह रहे हैं पर मेरी मजबूरी है, मैं जरा भी हिंदी नहीं जानता।”
गांधी जी विनम्रता से बोले, “आप मराठी जानते हैं, संस्कृत जानते हैं यह हमारे देश की भाषाएं हैं और यह सरोजिनी को देखो बहुत अच्छी उर्दू जानती है यह भी क्या अंग्रेजी में ही बोल सकती है।”
उस क्षण के बाद हवा बदल गई, एक व्यक्ति भी अंग्रेजी में नहीं बोला। संध्या के समय लोकमान्य एक सार्वजनिक सभा में भाषण देने गए। वहां हिंदी में बोलते हुए उन्होंने कहा, “आज मैं पहले-पहल हिंदी में बोल रहा हूं। मेरी भाषा संबंधी कितनी गलतियां होंगी यह मैं नहीं जानता, पर मैं मानता हूं कि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी है और हमें इसमें ही अपना काम करना चाहिए।
नंदी (बैंगलोर) प्रवास के अवसर पर एक दिन सुविख्यात वैज्ञानिक सर चंद्रशेखर रमन गांधी जी से मिलने आए। उनकी पत्नी वहां पहले से मौजूद थी और वे महात्मा जी से हिंदी में बात कर रहीं थीं। सर चंद्रशेखर ने हिंदी की खिल्ली उड़ाने के अंदाज में पूछा, “यह हिंदी क्या कुछ उपयोगी भी है?”
गांधी जी ने कहा, “इसमें संदेह ही क्या है। हिंदी उतनी ही उपयोगी है जितनी यह आपकी साइंस।”
इधर-उधर की बातें करते हुए सर चंद्रशेखर ने कहा, “हिंदुस्तान के जनसाधारण की भाषा कौन सी हो सकती है, क्या यह अंग्रेजी नहीं हो सकती?”
शायद यह बात उन्होंने उतनी गंभीरता से नहीं कही थी जितनी गांधी जी को चिढ़ाने के लिए। गांधी जी बोले, “हिंदुस्तान के करोड़ों आदमी जो बगैर सीखे ही हिंदी जानते हैं अगर वे अंग्रेजी सीखने का प्रयत्न करें तो क्या आपके ख्याल में उनके लिए दुर्भाग्य की बात न होगी?”
सर चंद्रशेखर तुरंत बोल, “मुझे खुशी है की राष्ट्रभाषा हिंदी बड़ी तेजी से भारत में प्रगति कर रही है। मैं हिंदी भी जानता हूं। महात्मा जी मैं उसे अच्छी तरह समझ लेता हूं। मालवीय जी महाराज मेरे हिंदी के गुरु हैं। जब मैं काशी में था तब कभी-कभी घंटो उनकी सुंदर हिंदी सुनने का मुझे अवसर मिलता था और मुझे हिंदी सीखनी ही चाहिए थी, पर मैं अभी तक हिंदी ठीक से बोल नहीं पाता।”
गांधी जी उड़ीसा का भ्रमण कर रहे थे। किसी ने उनसे पूछा, “आप अंग्रेजी शिक्षा का विरोध करते हैं लेकिन आप इतने बड़े अंग्रेजी पढ़कर ही हुए हैं।”
गांधी जी ने उत्तर दिया, “महाराज, न तो मैं कोई विशेष पढ़ा हुआ हूं और ना कोई बड़ा आदमी हूं। लेकिन अपने बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता। लेकिन हां, इसमें कोई शक नहीं कि तिलक महाराज ने यदि अंग्रेजी के माध्यम द्वारा शिक्षा न पाकर मातृभाषा के माध्यम से पाई होती तो कौन कह सकता है कि वे जितने बड़े हुए उससे भी बढ़कर ना होते। अंग्रेजी की शिक्षा पाकर वे गीता के इतने बड़े भाष्यकार हुए। मातृभाषा के द्वारा शिक्षा पाकर तो न जाने कितने बड़े विद्वान होते।”
एक क्षण रुक कर फिर बोले, “अच्छा स्वामी शंकराचार्य या तुलसीदास जी क्या अंग्रेजी पढ़े हुए थे? इसमें कोई शक नहीं कि इस देश में अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग भी महान हुए हैं, किंतु वे अंग्रेजी के कारण ही महान नहीं हुए हैं, हुए भी हों तो उनकी संख्या इतनी कम है की उंगलियों पर गिनी जा सकती है। प्राचीन काल में हमारे देश में इतने ऋषि- महर्षि हुए, वे सब हमारी ही शिक्षा की उपज थे। जिन लोगों को आप अंग्रेजी पढ़ने के कारण बड़ा हुआ मानते हैं क्या वे उनसे बढ़कर महान और उनसे अधिक संख्या में है?”
सुप्रसिद्ध जैन विद्वान पंडित सुखलाल अंग्रेजी सीखने के लिए बहुत उत्सुक थे। किसी प्रसंग में उन्होंने गांधी जी को लिखकर पूछा कि वे किस तरह और किस स्थान पर यह भाषा सीखने की सुविधा पा सकेंगे।
नर्मदा जेल से गांधी जी का उत्तर आया, “तुम्हारी अंग्रेजी सीखने की विचारधारा के पीछे दोष तो है, लेकिन अगर तुमने दृढ़ निश्चय ही कर लिया है तो अवश्य सीखो। इस काम के लिए शांतिनिकेतन ठीक रहेगा।”
इस संबंध में कुछ वर्ष पूर्व भी पंडित जी ने गांधी जी से विचार विनिमय किया था। इसी संदर्भ में इस उत्तर का महत्व है। उस समय गांधी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, “अंग्रेजी भाषा तो पृथ्वी जैसी विशाल है। अगर तुम जैसे लोग उसमें शक्ति खर्च न करें तो कुछ बिगड़ेगा नहीं। तुम जो शास्त्र जानते हो उन संस्कृत, प्राकृत और पाली के शास्त्रों के ठीक-ठीक अर्थ और तत्वों को प्रकाशित करना कोई सरल काम नहीं। वह तो अनंत शक्ति का आकांक्षी है। इसलिए उनके रहस्य चिंतन में ही अपनी शक्ति क्यों नहीं लगाते।”
गांधी जी ने सन 1934 में काका कालेलकर को दक्षिण में हिंदी का कार्य व्यवस्थित करने को भेजा। क्योंकि हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रचार का काम ठीक-ठाक नहीं कर पा रहा था। जाते समय गांधी जी ने काका कालेलकर से कहा था कि हिंदी प्रचार के लिए पैसे का प्रबंध भी वहीं से करें, ताकि हिंदी उनके जीवन में प्रवेश कर सके।
गांधी जी जीवनपर्यंत हिंदी भाषा अपनाने के लिए सभी को प्रेरित करते रहे और इसी संदर्भ में उन्होंने हिंदुस्तानी साहित्य सभा की भी स्थापना की, जो बाद में गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा के रूप में काका साहेब कालेलकर द्वारा निर्देशित होती रही।
राष्ट्र की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए गांधी जी का एक राष्ट्रभाषा का सपना, जो केवल हिंदी ही हो सकती है,कब पूरा होगा!
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