
मनाली के इग्लू
(पहला दिन – 21 जनवरी 2021)

मनोज श्रीवास्तव ‘अनाम’
इस्माईल मेरठी का वही शे’र ख़ुद को बारम्बार आकर्षित करता रहा है, जिसने केदार मिश्र को राहुल सांकृत्यान बना दिया।
सैर कर दुनिया की गाफिल, ज़िन्दगानी फिर कहाँ?
ज़िन्दगी ग़र रही, नौज़वानी फिर कहाँ ?
बरक्स इस शेर के कुछ हौसला दिल में और कुछ पैसा जेब में रहे, तो घुमक्कड़ी का जुनून हर पल सवार ही रहता है। ऐसे ही एक सर्द मौसम में जब एक दोस्त का मैसेज आया कि, दो- चार दिन के लिए हिमाचल चलते हैं। तो हम कैसे मना कर दें। बिना कोई सवाल किए हमने हाँ तो कर दिया, पर कुछ तैयारी तो करनी ही थी, यह सोच कर ट्रिप के बारे में जानने के लिए फोन किया, तो उसने बदले में अंग्रेज़ सिंह (ट्रिप लीडर) का फोन नंबर भेज दिया, जहाँ से यह पता चला, कि हमें 21 की साँझ तक चंडीगढ़ के सेक्टर 43 वाले बस स्टॉप पर पहुँचना है। साथ ही कुछ जरूरी चीजों की फेहरिस्त भी इनबॉक्स में आ गयी। खैर तब तक मैं घर से निकल कर आधे रास्ते में पहुँच चुका था। तो आगे का प्लान दिल्ली पहुँचने के बाद ही करना था। अगले दिन दिल्ली पहुँचने के बाद अपने बैग, जो लॉकडाउन की वजह से धूल खा चुके थे, झाड़-पोंछ कर साफ किये और जनवरी की सर्द और हिमाचल की बर्फ का ख्याल करके कुछ गर्म कपड़े, कुछ जरुरी सामान रख कर बिना किसी को बताये चंडीगढ़ के लिए ट्रेन पकड़ ली। आधे रास्ते पहुँच कर कुछ करीबी दोस्तों को मैसेज किए और निश्चिंत होने के लिए अपने बॉस को भी एक मैसेज भेज दिया। ऊना जन शताब्दी ने मुझे सही समय पर चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन पर उतार दिया, जहाँ से ऑटो करके मैं तय समय के भीतर ही निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गया। फिर मैंने अंग्रेज़ सिंह को कॉल किया, तो पता चला कि वे मेरे सामने ही खड़े हैं और वहाँ कुछ मेरे जैसे और अधिकांश सैलानी मुझसे भिन्न स्थिति में पहले से मौजूद थे। खैर तब तक अगली यात्रा के लिए बस लग चुकी थी, पर कुछ शॉपिंग करने गयी मेरी दोस्त थी। वह बस स्टॉप के भीतर और बस बाहर हाईवे पर खड़ी थी। जिसे बस तक लाने के लिए मैं भीतर गया, पर तब तक मेरे फोन की बैट्री ऑफ हो चुकी थी और बस में ठीक ठाक सीट मिलने की जद्दोजहद भी दिमाग का दही किए हुए थी। खैर हम लोग मिल गए। फिर पानी की बॉटल और कुछ कुकीज़ लेकर बस में चढ़े। अपने बड़े बैग्स को बस की डिक्की में पटक कर अपनी – अपनी सीट में समा गए, तो याद आया कि रास्ते में सर्दी बढ़ेगी और हमने अपने ब्लैंकेट डिक्की में ही छोड़ दिया है। फिलहाल आगे निकल जायेगा, की दिलासा पा करके हम निश्चित हुए तो एक नज़र बस में बैठे सैलानियों पर डाली। जिसमें एक तरफ में कॉलेज गर्ल्स थीं और दूसरे तरफ कुछ चाँद – सितारे थे। बाहर घना कोहरा था, जिसका असर हमारी बस के काँच पर साफ दिख रहा था। जिस पर बायीं तरफ, आगे से दूसरी खिड़की के काँच पर एक नव दम्पत्ति ने वेलेंटाइन वाला तीर खाया दिल उकेर दिया था। शायद उस पर उनके नाम के पहले अक्षर भी अंकित थे, पर हमारे और उनके बीच फासला इतना था, कि वे पढ़े ना जा सके। बस अब तक चंडीगढ़ की सीमा से काफी दूर निकल चुकी थी और अधिकांश लोग ऊंघने लगे थे या ठंडक की वजह से शॉल और चादर में लिपटे हुए थे।


दो घंटे के सफ़र के बाद करीब ग्यारह बजे बस एक पंजाबी ढाबे पर रुकी। बस के रुकने के साथ ही सब में हरकत हुई, किसी को हल्का होना था, तो किसी को अपने ब्लैंकेट निकालने थे। हमें भी कॉफी की तलब थी, इसलिए नीचे उतर कर दो कॉफी का आर्डर दिए, पर मेरी दोस्त को अदरक वाली चाय की दरकार थी, इसलिए एक चाय और एक कॉफी का आर्डर हुआ। हम लोग एक टेबल पर आमने – सामने बैठे थे। तब तक आसपास कुछ और भी साथी आ गए। तभी टीम लीडर की पंजाबी आवाज ‘हम लोग यहाँ डिनर करेंगे ! सब लोग आ जाओ। सुनकर बाहर से वे सभी लोग भी अंदर आ गए, जो ढाबे के बाहर सजी, पंजाबी स्टेच्यू के साथ फोटो शूट करने में मशगूल थे। भारतीय संस्कृति के अनुरूप सहयात्रियों को देख कर मुस्कुराने की कला हम में भी थी। जो कि आँखों ही आँखों में दूसरे का परिचय प्राप्त करने का बहुमुखी प्रयास साबित हुआ ? और लोगों ने आप कहाँ से हैं ? जैसे सवालों के जवाब में उदयपुर, चित्तौड़, रायपुर, बठिंडा, पठानकोट और दिल्ली के लोग एकसार होने लगे। फिर तो हमारी कॉफी के साथ ही डिनर सज गया। मक्के की रोटी, सरसों का साग, जिस पर खूब सारा मक्खन और खुशबूदार शक्कर। सबने अपनी – अपनी रुचि के अनुसार खाना खाया। हम भी सरसों का साग परोसती एक लड़की जो कि पटियाला सूट और कानों पर शॉल को दुपट्टे की तरह लपेटे हुई पंजाबी कुड़ी सी दिखती थी, जिसे हम उस ढाबे की मालकिन समझ रहे थे। मैंने अपनी दोस्त से कहा, देखो तो वह कनक छड़ी ! अगले दिन सुबह हमें पता चला कि वह भी हमारे साथ ट्रिप पर आयी है, उसका नाम राजबीर है और वह रियल में पंजाबी कुड़ी है। खा – पी कर सभी लोग बस में अपनी – अपनी सीट पर आ चुके थे। तो हमने भी बढ़ती सर्द का अंदाजा करके अपने ब्लैंकेट निकाल कर ले आए और अच्छी तरह से लपेटकर बैठ गए। वैसे मुझे बस में लंबे सफर का कोई तजुर्बा तो नहीं, पर कोई दिक्कत भी नहीं होती। अलबत्ता बस में मुझे नींद कभी नहीं आती। उल्टियां और चक्कर आने का कोई सवाल ही नहीं। खैर सभी को संतरे कि टॉफियां बांटी गई थी कि किसी को ऐसी समस्या न हो, मैंने अपनी टॉफियां भी दोस्त को दे दी। अब बस चल पड़ी और सभी लोग अपनी सीट पर दुबक कर बैठे थे। एक बार तो ऐसा लगता था, जैसे सीटों पर लोग नहीं रजाइयों के ढेर पड़े हैं। बस की लाइट ऑफ हो गयी, और पंजाबी रीमिक्स धुन बजने लगी। सभी मनाली की सुबह का ख्वाब पाले उनींदे अनमने से ऊंघ रहे थे। और मैं कालका, से मंडी जाने वाली सड़क के दोनों तरफ खड़े पहाड़ों को देखता जा रहा था। कभी – कभी एक तरफ खतरे से भरी गहरी खाई और आगे पड़ने वाले तीव्र मोड़ बस को झकझोर देते, तो दूसरी तरफ चाँदनी रात के दूधिया प्रकाश में पहाड़ों को चीरती जेसीबी विश्राम कर रही थी। एक दो झपकियों के बाद कितना रास्ता कट गया यह तो पता नहीं, पर एक बार फिर वही पंजाबी आवाज सबके कानों से गुजरी। कि किसी को वॉशरूम जाना है, तो जा सकता है, आगे फिर बस नहीं रुकेगी। कुछ लोग उतरे और सभी लोग वापस आ गए हैं, यह सुनिश्चित होने के बाद बस फिर से चल पड़ी। करीब दो घंटे बीत जाने के बाद प्रभात की किरण बिखरी और कल – कल करती व्यास और पहाड़ों से फूटती जल धाराओं का सम्मिलित स्वर मीठे संगीत सा सुनाई पड़ने लगा। ऊंचे – ऊंचे पहाड़ और उन पर शांत खड़े पर्वतीय वृक्ष और वन लताएं जैसे हमारे स्वागत को आतुर हो। कहीं-कहीं पहाड़ों पर बर्फ जमी हुई थी, जो जैसे – जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे, वैसे – वैसे और घनी दिखलाई पड़ती थी। मैंने अपनी दोस्त को हिलाया, देखो ! कितना स्नो बिखरा है ! उसने एक बार देखा, फिर ठीक है, आगे बहुत मिलेगा। कहकर मुँह ढक लिया। वैसे पहाड़ों की मैंने बहुत सैर की थी। पर सर्दियों में पहली बार पहाड़ों के बीच आया था। इसलिए मैं सारे नज़ारों को अपनी आँखों में कैद कर लेना चाहता था। अब बिल्कुल सवेरा हो गया था। और हम कुल्लू पहुँच चुके थे। पहाड़ों के बीच घनी बस्तियां, पर अभी कोई अपने घरों से बाहर नहीं निकला था। छोटे-छोटे पहाड़ी मकान और सड़क पर सामने के तरफ बंद दुकानें। उनके बीच कुछ सरकारी इमारतें और उन सबके रीढ़, घुमावदार सड़कें। जो जलेबी की तरह हर कर्व पर लयात्मक रफ्तार से घूमती जाती थी।
क्रमश: …
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