
चलते चलते : बरौनी स्टेशन

– डॉ वरुण कुमार
बरौनी। पुराने दिनों से इसकी स्मृति एक गंदे और लापरवाह स्टेशन की है जहाँ कोई कोई नियम नहीं मानता। लेकिन इस बार यह साफ है।
सेवानिवृत्ति के बाद एक फालतू की यात्रा में हूँ। गौहाटी की ओर। स्टेशन पर गाड़ी समय से पहले आकर देर से खड़ी है। सूर्योदय पूर्व का बसंत का सुहाना मौसम। प्लेटफार्म पर टहलने के साथ साथ दृष्टि विलास। ओवरब्रिज पर चढ़कर देखने पर मकानों के पार खेतों की सीमाहीन हरियाली।
पता नहीं ‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ का असर है कि क्या, गाड़ी के अंदर और बाहर प्लेटफार्म पर स्त्रियाँ ही अधिक दिख रही है। ग्रामीण वेशभूषा में। माथे पर मोटरी (गठरी), साथ में बच्चे। शिक्षित शहरी वर्ग की तरह इनमें ‘बच्चाहीनता’ और अनुर्वरता फैशन नहीं बने हैं।
अब ‘बरौनी’ शब्द कुछ मादकता जगाते हुए ‘हिरनी चंचल आंखों’ की बरौनियों की याद दिला रहा हो तो क्या आश्चर्य!
(दिनांक : ३.४.२०२५, सुबह ६.३० बजे)
