व्याकरण और लोक-प्रचलन के बीच का द्वंद्व

– सृजन कुमार, बुसान यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज

कुछ दिनों पहले फेसबुक पर एक पोस्ट से आँखें दो-चार हो गईं। हालाँकि मैं फेसबुक पर सक्रिय नहीं हूँ, और नोटिफिकेशन भी अमूमन बंद करके रखता हूँ, परंतु पता नहीं क्यों उस दिन नोटिफिकेशन ऑन कर रखा था। पोस्ट मेरे अग्रज वेद प्रकाश सिंह जी का था जो कि ओसाका विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं। वे मेरे बड़े भाई तुल्य हैं, इसलिए शायद मैंने नोटिफिकेशन बंद नहीं रखा था। बहरहाल उनका पोस्ट कुछ इस तरह से था,

““दोस्तों, मैं कल दिल्ली में रहूँगा।” इस वाक्य में ‘दोस्तों’ की जगह ‘दोस्तो’ होना चाहिए।

सही वाक्य है- दोस्तो, मैं कल दिल्ली में रहूँगा।

इसी प्रकार साथियों, भाईयों बहनों आदि को संबोधन के रूप में लिखने पर बिंदु को हटा दिया जाता है।”

पिछले 12 सालों से मैं भी दक्षिण कोरिया में हिंदी शिक्षण के कार्य से जुड़ा हुआ हूँ। इसलिए मुझे इस नियम का ज्ञान था, और मेरे लिए यह कोई नई बात नहीं थी। नेताओं के भाषण सुनते समय कई बार ‘भाइयों और बहनों’ सुनते समय सहसा इस नियम की याद भी आ जाया करती थी। मुझे प्रसन्नता हुई कि वेद सर ने यह पोस्ट डाला। प्रसन्नता के ये क्षण शायद कुछ सेकंड ही रहे होंगे कि उस पोस्ट के नीचे के एक कमेंट पर मेरा ध्यान चला गया। कमेंट कुछ इस तरह से था,

“हिन्दी पट्टी में आजतक एक भी व्यक्ति मुझे ऐसा नहीं मिला जो इस तरह बोलता हो। पिछले कुछ सालों में कुछ सेवानिवृत्त पत्रकारों और अध्यापकों ने इसकी पैरवी शुरू की है और उनके प्रभाव के चलते कुछ लोग व्यवहार-विरुद्ध प्रयोग को कागज पर छापने लगे हैं। व्याकरण की पुरानी किताबें निकालकर कागजी दलील के दम पर इस तरह के अप्राप्य प्रचलन को थोपने का प्रयास करना अनुचित है। कागज पर लिखवा भी लिया जाए तो किसी भी हिन्दी भाषी के लिए इसे बोलना क़, ख़, ग़ बोलने की कसरत से भी ज्यादा कठिन हो जाएगा। कुछ चीजों को व्याकरण का अपवाद मान लेना चाहिए।”

कुछ सकारात्मक कमेंट के बाद एक और कमेंट में इसी तरह का चुनौती भरा स्वर दिखा। जो कि इस प्रकार था,

“बिंदु को क्यों हटाना चाहिए..??? किसी बाबा ने कहा है क्या.. यह अशुद्धि नहीं भाषा पर कुछ विशेषों के कब्जे का उदाहरण है”

जब मैंने पोस्ट देखा था, तब तक असंतुष्टि के केवल यही दो कमेंट मुझे दिखे थे बाकि सब के सब धन्यवाद और सहमति के थे। खैर, इन दोनों कमेंटों ने मेरे मन की प्रसन्नता के भाव को तुरंत ही द्वंद्व में बदल दिया। प्रथम दृष्टया मेरा मन भी एक आम हिंदीभाषी होने के नाते इन कमेंटों से सहमत था। लेकिन मेरे अंदर का हिंदी शिक्षक इन कमेंटों से असहमत था। सहमति और असहमति का यह द्वंद्व दो दिनों से चल रहा है और अब तक दोनों के बीच सहमति नहीं बन पाई है।

जहाँ एक ओर मेरे अंदर का आम हिंदीभाषी यह दलील दे रहा है कि अगर लोग इसे प्रयोग नहीं कर रहे हैं और बिना प्रयोग किए भी इससे कोई दिक्कत नहीं हो रही है तो इसकी आवश्यकता ही क्यों? बिंदु के रहने या न रहने से उच्चारण में निश्चित रूप से अंतर होना चाहिए, परंतु आम हिंदीभाषियों के उच्चारण का यह अंतर कालांतर में सहसा गौण होता हुआ विलुप्ति के कगार पर आ गया है और उच्चारण के इस अंतर भेद के मिटने के बाद भी अर्थ के दृष्टिकोण से इसमें कोई दिक्कत नहीं होने के कारण यह अंतर धीरे-धीरे रूढ़ होता चला जा रहा है तो क्यों न इसे अपना लिया जाए? आख़िर यही तो एक जीवित भाषा की नैसर्गिकता है जो उसे मृत होने से बचाती है। इस तरह के बदलाव तो लगभग दुनिया की सभी भाषाओं में देखे जा सकते हैं। क्यों इस बदलाव पर कुछ कागज़ी नियमों के द्वारा नकेल डालकर प्रयोगकर्ताओं को रुष्ट किया जाए। लोक-प्रचलन भी निश्चित रूप से सोचनीय है।

दूसरी ओर मेरे अंदर का हिंदी शिक्षक यह दलील दे रहा है कि अज्ञानतावश हम कभी-कभी गलतियाँ करते हैं, परंतु सही ज्ञान के मिलने पर अगर हमें अपनी गलतियों का अहसास हो तो उसे स्वीकार करना और स्वयं को सुधारना ही विवेकसम्मत है। भाषाओं के स्वरूप में बदलाव होना यदि एक सत्य है तो भाषाओं का अदृश्य किंतु निश्चित नियमों से बँधा होना भी दूसरा सत्य है। बच्चे भाषा के इन नियमों की अनदेखी करते हुए बोलना सीखते हैं, परंतु परिवार, समाज और शिक्षा प्रणाली के द्वारा वे इन्हीं अदृश्य नियमों को तो सीखते हैं। पूरी दुनिया की शिक्षा व्यवस्था का ज्ञान तो मुझे नहीं है परंतु कुछ देशों की शिक्षा व्यवस्था के बारे में जो जानकारी मिली है उससे तो यही पता चला है कि वे सभी देश अपनी भाषा के नियमों की शिक्षा विद्यालयों में देते हैं।

प्रत्येक मनुष्य यदि वह किसी समाज का हिस्सा है तो चाहे वह विद्यालय जाए या न जाए व्यवहार के द्वारा भाषा सीख ही जाता है तो मातृभाषा के व्याकरण-शिक्षण की ज़रूरत ही क्यों पड़ती है? यह शिक्षण इन्हीं अदृश्य नियमों को सिखाने के तो उपागम हैं। अतः भले ही बोलचाल में हम शत-प्रतिशत व्याकरणनिष्ठ भाषा का प्रयोग न करें, परंतु सही भाषा के प्रयोग की दिशा में हमारा प्रयास जरूर जारी रहना चाहिए, मेरे अंदर के भाषा शिक्षक ने मेरे ही अंदर के आम हिंदीभाषी को यह दलील दी। फिर मेरे अंदर के आम हिंदीभाषी ने यह दलील दी कि तर्क की दृष्टिकोण से तो यह बात सही प्रतीत होती है लेकिन हिंदी भाषा के व्यवहार की ऐतिहासिकता की कसौटी पर देखें तो पिछले कई हजार सालों से हिंदी भाषा के स्वरूप में हो रहे निरंतर बदलाव यह सिद्ध करते हैं कि भाषा के नियम होते हुए भी भाषा में बदलाव ही अंतिम सत्य है। दो दिनों से यह द्वंद्व मेरे अंतर्मन में चल रहा है, और मेरे अंदर का आम हिंदीभाषी और हिंदी शिक्षक अभी तक एक-दूसरे से सहमत नहीं हो पाए हैं। लोक-प्रचलन में एक ही शब्दों के कई उच्चारण देखने को मिलते हैं, परंतु लिखते समय उन्हें उच्चारण के अनुसार नहीं लिखा जाता है। इसलिए लोक-प्रचलन में भले ही लोग संबोधन में अनुस्वार के साथ बोलें जब तक इस बदलाव को हिंदी व्याकरण में स्वीकार नहीं कर लिया जाता है, तब तक लेखन में व्याकरणनिष्ठ वाक्य ही प्रयोग होना चाहिए, ऐसा मैं मानता हूँ।

2008 में कोरिया आने के बाद से मैं हिंदी से ज्यादा कोरियाई भाषा पढ़ और लिख रहा हूँ। दसवीं तक हिंदी भाषा के व्याकरण की शिक्षा मैंने भी ली थी। परंतु पता नहीं कैसे और कब से अनुस्वार और अनुनासिकता के अंतर को भूलकर मैंने चंद्रबिंदु की जगह अनुस्वार लगाना शुरू कर दिया। हिंदी शिक्षण का कार्य शुरू करने से पहले तक मुझे अपनी इस अज्ञानता का अहसास नहीं था। जब अहसास हुआ तो लज्जा भी आई, परंतु शायद हिंदी समाचार-पत्र और पत्रिकाओं के प्रभाव और शुरुआती दिनों में हिंदी टंकण की समस्या के कारण ऐसा हुआ होगा, ऐसा सोचते हुए मैं स्वयं की गलती का दोष दूसरों पर मढ़ता आ रहा हूँ। भले ही कई लोकप्रिय हिंदी समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ अभी भी धड़ल्ले से ऐसा कर रहे हैं, मैं कभी अपनी अज्ञानता पर अड़ा नहीं रहा और यथासंभव अंतर को बनाए रखने की कोशिश करता हूँ। स्त्रीलिंग और पुल्लिंग संबंधी गलतियाँ तो जाने-अनजाने कई बार होती रहती हैं। त्रुटिबोध होने पर यथासंभव सुधारने का प्रयास करता हूँ, भले ही व्यवहार में इसके कारण कोई दिक्कत नहीं होती हो। मेरे अंदर का शिक्षक मुझे अपनी अज्ञानता पर अड़े रहने की स्वतंत्रता नहीं देता है।

चाहे कोई भाषिक समाज हो शैक्षिक स्तर के अनुसार वह कई वर्गों में बँटा होता है। एक ही मातृभाषा बोलने वाले लोगों की मातृभाषा दक्षता में भी अंतर का होना लाज़िमी है, इसलिए विरोधाभास की स्थितियाँ भी कई बार उत्पन्न होती हैं। जब दो पक्षों के बीच सहमति और असहमति की स्थिति उत्पन्न हो तो न्यायालय की तरह किसी ऐसे तीसरे पक्ष की ज़रूरत होती है, जिसके पास यह क्षमता हो कि वह इस समस्या का समाधान करे। कोरियाई भाषा के लिए ‘नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ कोरियन लैंग्वेज’ यह काम करती है। कोरियाई भाषा से संबंधित इन संशयों को वह सोशल मीडिया, पुस्तकों, वेबसाइट आदि के माध्यम से लगातार दूर करती रहती है। शायद हिंदी के लिए भी ऐसी कोई संस्था हो जो हिंदीभाषियों के बीच दिन-प्रतिदिन उत्पन्न हो रहे विरोधाभासों का समाधान करे तो शायद दोनों पक्षों का भला हो।

बहरहाल मेरे मन का यह द्वंद्व अभी तक चल ही रहा है। इस बीच अच्छी ख़बर यह है कि हिंदी व्याकरण पर 50 से ज्यादा पुस्तक लिख चुके सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य और व्याकरणविद आदरणीय अशोक कुमार बत्रा सर की हिंदी व्याकरण की कार्यशाला शुरू हो गई है। अशावान हूँ कि मेरे अंतर्मन के इस द्वंद्व का समाधान उनकी कार्यशाला में निश्चित होगा।

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