सांप्रदायिक सौहार्द और गाँधी-दृष्टि

ज्ञान प्रकाश

जब पूरी दुनिया आज सांप्रदायिक उन्माद के कुहासे से घिरी है जहाँ ‘स्व धर्म’ को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में ईश्वर-निर्मित इंसानों का खुलेआम खून बहाया जा रहा है मानो उनका ईश्वर बस और बस खून से ही प्रसन्न होता हो, विज्ञान की नवजात शिशु ‘फेसबुक’, ‘ट्वीटर’ आदि ने इस उन्माद को हवा देने में कोई कसर न छोड़ रखी हो, जहाँ सत्ता पाने का सबसे अच्छा नुस्खा दो संप्रदायों को आपस में भिड़ा देना बन गया हो, जहाँ धर्म की आड़ में स्त्रियों को बच्चे पैदा करने की मशीन साबित करने की होड़ मची हो, वहाँ सांप्रदायिक सौहार्द के प्रति गाँधी का दृष्टिकोण ही नहीं बल्कि उनका संपूर्ण जीवन प्रासंगिक ही नहीं बल्कि इंसानियत और इंसान के वज़ूद के लिए अनिवार्य आवश्यकता नजर आती है।

गाँधी हमारे हैं, राष्ट्रपिता हैं और इससे बढ़कर आधुनिक लहजे में मजबूरी का नहीं मजबूती का नाम है, बावजूद इसके कि कुछ लोग जो कानून की परिभाषा में गैरइरादतन हत्या के दोषी होने चाहिए, उनके हत्यारे को देशभक्त कहकर उनकी मूर्ति-स्थापना की बेतुकी, बहकी बात कर रहे हैं आज भी गाँधी का संपूर्ण जीवन और उनकी जीवन-दृष्टि न केवल भारत के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए एकमात्र विकल्प है, ऐसा कहना अतिश्योक्ति अलंकार का दुरुपयोग करना, कम से कम मुझ जैसे नासमझ गाँधीवादी के लिए नजर नहीं आता।

‘गाँधी-दृष्टि’ शब्द-बंध के आते ही न केवल गाँधी जी के जीवन से जुड़ी घटनाओं, आन्दोलनों का चित्र उभर आता है बल्कि ‘सत्य के प्रयोग’ और ‘हिन्द-स्वराज’ आदि पुस्तकों के अनेकानेक पृष्ठ खुद-ब-खुद कुछ कहने लगते हैं? तब सवाल उठते हैं कि क्या ‘सत्य के प्रयोग’ और ‘हिन्द स्वराज’ की व्याख्या गाँधी-जुब़ान से मेल खाता है या फिर उसका सरलीकरण और दीर्घीकरण कर इन शब्दों का या तो गलत अर्थ में प्रयोग किया जा रहा है या जानबुझकर उनका उपहास किया जा रहा है। अगर ऐसा है तो दोषी हम वो सभी हैं जो या तो गलत व्याख्या कर खुद को गाँधीवादी साबित करने के लिए पूरी दुनिया में अपने आप को स्वच्छ रखने का प्रदर्शन कर रहे हैं या फिर उन्हें ईश्वर मानकर मूर्ति-स्थापना का स्वांग रच रहे हैं?

गाँधी सिर्फ एक नाम नहीं है जिसे कोई सरकार, सत्ता सिर्फ इस रूप में प्रयोग करे कि ‘हथेली पर तुम्हारा नाम लिखता हूँ’, मिटाता हूँ। गाँधी होना अपने आप में आज एक सोच है, एक धारणा है, एक जीवन-दृष्टि है जिसे तत्कालिक दुनिया का सबसे शक्तिशाली और कई मायनों में सबसे हिंसक भी; अपनाने में दंभ भरता है, भले ही उसके कथनी-करनी में आसमान-जमीन का फर्क है, जैसा गाँधी-दृष्टि और गाँधी जीवन में कहीं नजर नहीं आता। जहाँ तक मेरी समझ है गाँधी-दृष्टि का तात्पर्य गाँधी का जीवन दर्शन है और जब हम गाँधी दर्शन की बात करते हैं तो उनके नाम के अनुरूप ही दो शब्द सामने आते हैं, पूरी शक्ति के साथ और वह है-‘सत्य’ और ‘अहिंसा’। इसके बरक्स दैत्य की तरह खड़े भी दो ही शब्द हैं- ‘झूठ’ और ‘हिंसा’, जिनपर सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की पूरी जिम्मेदारी है। साथ ही साथ दो शब्द और हैं जिसके कारण सांप्रदायिक सौहार्द को हवा मिलती है, और वे हैं-‘स्व’ और ‘धर्म’। इतना ही नहीं सौहार्द कायम करने के लिहाज से भी हमारे पास दो ही शब्द हैं-‘सत्य’ और ‘प्रयोग’ जिससे समाधान तक पहुँचा जा सकता है, और संयोगवश ये दोनों शब्द गाँधी-दृष्टि के केन्द्र में है। दिलचस्प हो या ना हो परन्तु यह वास्तविकता है कि गाँधी ने अपने अंतिम घड़ी में भी दो ही शब्द उच्चारित किये- ‘हे! राम’! और विषय के लिहाज से हमारे सामने भी दो-दो शब्दों की ही युगलबंदियां हैं- ‘सांप्रदायिक’, और ‘सौहार्द’ एवं ‘गाँधी’ और ‘दृष्टि’। गाँधी की पूरी जीवन-दृष्टि ‘समन्वय’ और ‘सौहार्द’ की वकालत करता रहा ठीक ‘कबीर’ और ‘जायसी’ की तरह। उन्होंने ‘सत्य’ को हथियार बनाया और ‘अहिंसा व्रत का पालन किया जिसका विस्तृत दस्तावेज गाँधी साहित्य से जुड़े विद्वानों के पास भी है और कुछ किताबें मेरे जैसे पाठकों के पास भी। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मैंने जितना पढ़ा है, साहित्य का विद्यार्थी न होते हुए भी मेरे पिता ने पढ़ा है, यह कहते हुए मुझे किसी तरह का संकोच नहीं है, क्योंकि वास्तव में मैं केवल पढ़ता था, पिताजी मंथन करते थे और सवाल भी।

परिवार, समाज, समुदाय, राज्य, राष्ट्र और संघ होने की प्रक्रिया में गाँधी का जीवन और गाँधी की जीवन-दृष्टि न केवल हमारी मदद कर सकता है बल्कि बहुत सरलता से हमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना से जोड़ सकता है। इसके लिए हमें ‘हिन्द स्वराज’ और ‘सत्य के प्रयोग’ नामक उनकी जीवन-दृष्टि की परिचायक पुस्तकों के न केवल करीब जाना होगा बल्कि उन्हें ‘आत्मसात’ करना होना- ठीक गाँधी के शब्दों में।

फणीश्वरनाथ रेणु रचित ‘मैला आँचल’ के तैवारी जी के गीत में दर्ज गाँधी-दृष्टि ही सांप्रदायिक उन्माद के कुहासे को छांट सकता है, सौहार्द स्थापित कर सकता है-

               अरे, चमके मंदिरवा में चाँद

               मसजिदवा में बंसी-बजे!

               मिली रहू हिंदू मुसलमान

               मान-अपमान तजो।

                                                            (मैला आँचल, दूसरा खंड, पृ. 232)

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