
प्रोफेसर निर्मला जैन : हमारी गुरु, हमारी संरक्षक
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. और एम.ए.(हिंदी), आर्थिक परिस्थितियोंवश सांध्यकालीन संस्थानों से ही कर पाया था। दिन के समय नौकरी करनी पड़ी थी। खासकर एम.ए. करते समय यह भी अनुभव किया था कि सांध्यकालीन विद्यार्थियों को दिन के विद्यार्थियों के समान न अवसर मिलते हैं और न ही महत्त्व। आसानी से तो एकदम नहीं। हाँ कुछ अध्यापक ऐसे जरूर थे जो दिन के साथ-साथ सांध्यकालीन कक्षाओं में भी पढ़ाते थे। लेकिन वे बहुत कम थे। उनके नाम ही सुनने को मिलते थे। जैसे प्रो. नगेंद्र, प्रो. विजयेद्र स्नातक, सावित्री सिन्हा आदि। उस समय के अध्यक्ष प्रो. नगेंद्र एक बहुत बड़े आकर्षण थे। मेरा सौभाग्य रहा कि उनसे अनुमति लेकर मैं उनकी कक्षाओं में, दिन में भी पढ़ लेता था। ध्येय यही था कि किसी तरह प्रथम श्रेणी आ जाए और ‘लेक्चरर’ की नौकरी मिल जाए। दिन के समय में ही मैंने प्रो.निर्मला जैन जी का नाम भी सुना था। बस इतना ही।

प्रोफेसर निर्मला जैन के सम्पर्क में आने का श्रेय एम.ए. (हिंदी) की मिली प्रथम श्रेणी की उपाधि को जाता है। जहाँ मुझे प्रथम श्रेणी संस्था में प्रथम आने का परम सुख था वहीं मैं अपने अध्यापकों की विशेष दृष्टि में भी आ गया था। प्रोफेसर निर्मला जैन का, मुझ पर केंद्रित,बहुत बाद में आकर लिखा एक लेख याद आ रहा है, जिसका शीर्षक है – ‘दिविक होने की सार्थकता’, जो मेरे व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित, प्रेम जनमेजय के द्वारा संपादित पुस्तक ‘दिविक रमेश आलोचना की दहलीज पर’ में संकलित है। इसी लेख में उन्होंने मुझे अपने आत्मीय वृत्त में प्रवेश पाने का कारण बताते हुए लिखा है- “हिन्दी साहित्य की समकालीन कविता में जिस रचनाकार ने अपनी पहचान दिविक रमेश के रूप में बनायी, उसे मैंने उनके विद्यार्थी जीवन में रमेश शर्मा के रूप में पहले-पहल जाना। यह बात 1970 के आसपास की है। इससे पहले मैं लेडी श्री राम कॉलिज से सहयोगी अध्यापक के रूप में विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर कक्षाएँ पढ़ाने जाती थी, इसलिए एम.ए. के विद्यार्थी के रूप में किसी रमेश शर्मा की मेरे मन पर कोई छाप नहीं थी। रमेश सांध्यकालीन कक्षाओं के छात्र थे, और उन कक्षाओं से हम लोगों का विशेष सम्पर्क नहीं होता था। पर परीक्षा परिणाम निकलते ही उन विद्यार्थियों के नामों की जानकारी हो जाती थी जो प्रथम श्रेणी में पास होते थे, क्योंकि उस ज़माने में प्रथम श्रेणी पाने का अर्थ था, कॉलिज में तुरंत नियुक्ति। अगले ही वर्ष मेरी नियुक्ति विभाग में हो गई और वे सभी विद्यार्थी ध्यान में रहने लगे जिनमें रचनात्मक ऊर्जा और साहित्यिक गतिविधियों को लेकर उत्साह था। विद्यार्थियों की संख्या कम थी। निस्वार्थ भाव से अपने अध्यापकों से मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन की अपेक्षा करना बहुत स्वाभाविक था। हर बैच में कुछ गिने-चुने विद्यार्थियों की रचनाधर्मिता ज़ोर मारती। कुछ में यह उत्साह कुछ महीनों तक चलता, कुछ और आगे दो-चार वर्षों तक कायम रहते और उन्हीं के बीच से गिनी चुनी ऐसी समर्पित और निष्ठावान प्रतिभाएँ उभरतीं जिनके लिए साहित्य-रचना उनकी अध्यापन-वृत्ति का सहवर्ती कर्म हो जाता। ऐसे कर्मठों के बीच भी ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है जिन्होंने इन दोनों क्षेत्रों में गुण और परिमाण दोनों दृष्टियों से निरंतरता बनाए रखी। इस दृष्टि से रमेश शायद अकेले हैं। याद नहीं आता कि जो टोली ‘दिविक’ यानी ’ दिल्ली विश्वविद्यालय (के) कवि’ के रूप में सक्रिय हुई थी, उनमें से आज किसी ने अपनी ज़मीन पर अपनी पकड़ उतनी मज़बूती से कायम रखी हो जितनी रमेश ने बराबर बनाए रखी। वस्तुतः ऐसा करके उन्होंने अपने लेखकीय नाम ‘दिविक’ को बखूबी सार्थक किया है। मुझसे उनका निकट परिचय शोध-छात्र के रूप में हुआ। इस औपचारिक संबंध में पारिवारिकता का रंग इसलिए आ गया क्योंकि उनकी पत्नी प्रवीण लेडी श्रीराम कॉलिज में मेरी छात्रा रही थीं और बाद में उन्होंने भी अपना शोध प्रबंध मेरे ही निर्देशन में पूरा किया। यह संयोग ही कहा जाएगा कि उस दौर के कई रचनाकर्मी विद्यार्थियों ने अपना शोध-कार्य मेरे साथ ही संपन्न किया…।”

ऊपर के उनके लिखे शब्दों से आसानी के साथ अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रोफेसर निर्मला जैन बहुत महीन छलनी में से छान और परख कर ही किसी को अपने आत्मीय वृत्त में आने का अवसर प्रदान करती हैं। केवल परिचित होना और उनका आत्मीय होना दो अलग-अलग अवस्थाएँ हैं। एक बार आप उनकी कसौटी पर खरे उतर जाएँ तो फिर उनकी सहज और निर्बाध आत्मीयता का आनंद सामने और पीठ पीछे, दोनों रूपों में ले सकते हैं। इस दृष्टि से उनके व्यक्तित्व में कोई पेच नहीं मिलेगा औए न ही लाग-लपेट। अपने लेख में उन्होंने ही यह भी तो लिखा है, खुल कर, जिससे उनकी भीतर तक साफ-सुथरी दुनिया का पता चलता है- “जहाँ तक रमेश का संबध है – छात्र जीवन से ही मेरे मन पर उनका प्रभाव एक मेधावी, कर्मठ और निष्ठावान शोधार्थी और संभावनावान रचनाकार के रूप में पड़ा। वे जितनी लगन से अपना शोध-कार्य सम्पन्न कर रहे थे, उतनी ही ऊर्जा से काव्य-रचना में संलग्न थे। यह उनका सौभाग्य था कि परिवार की ओर से भी उन्हें बहुत अनुकूल परिस्थिति और पत्नी का पूरा सहयोग मिला। रमेश जी की प्रतिभा बहुमुखी है, इसका अंदाज़ा मुझे आरंभ से था क्योंकि उन्हें नियमित काव्य-रचना के साथ ही ‘दिशाबोध’ नाम से एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन शुरू के ही दिनों में आरंभ कर दिया था। मुझे अक्सर शक होता था कि एक साथ इतने मोर्चों पर सक्रियता कहीं उनके शोध-कार्य में बाधक न हो। पर उन्होंने शायद ही कभी शिकायत का मौका दिया हो। दूसरी ओर अध्यापन और शोध की यांत्रिक नियमितता ने उनके रचनाकार की भी क्षति नहीं की। इसका एक कारण यह भी रहा कि किसी भी क्षेत्र में रमेश ने अपेक्षा से अधिक महत्वाकांक्षाएं नहीं पालीं। मैंने अनेक युवा प्रतिभाओं को अपने कद से ऊँची छलांग लगाने के चक्कर में धराशायी होते या कम से कम संतुलन खोते देखा है। अपनी सामर्थ्य और योग्यता से बाहर जाकर उन्होंने न आकाश की ऊँचाइयाँ छूने का प्रयत्न किया न पाताल की गहराइयाँ नापने का। अपनी सीमा और शक्ति के बारे में संतुलित अनुपात-बोध के साथ वे बड़े संयम, धीरता, और निष्ठा से उन तमाम दायित्वों को अंजाम देते रहे जिन्हें उन्होंने स्वेच्छया अपना लिया था। यही कारण है कि उनके विकास का ग्राफ़ उत्तरोत्तर ऊँचाई की ओर बढ़ता रहा। आज वह जिस मुकाम पर हैं उसकी सिद्धि निष्ठा, कर्तव्यबोध और कर्म के प्रति समर्पण-भाव के बिना संभव नहीं थी। रचनाकार के रूप में रमेश बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। यूँ उनकी ख्याति कवि-रूप में अधिक है किन्तु उन्होंने कविता के अलावा ‘खंड-खंड अग्नि’ शीर्षक से रामकथा के आधार पर एक अत्यन्त सफल काव्य-नाटक की रचना की।”

मेरे अनुभव के अनुसार प्रो.निर्मला जैन ने हमेशा गुणवत्ता की कद्र की है। वे सिफारिश और संस्तुति के बारीक अंतर को समझती हैं। उन्होंने सदा माँगने के स्थान पर अर्जित करने में विश्वास रखा है। साधना और संघर्ष की राह अपनायी है। अपने संदर्भ में भी उन्होंने सिफारिश से खुद को दूर रखा है। उन्होंने ‘जमाने में हम’ में लिखा भी है- “ मैंने न लेडी श्रीराम कॉलेज में लेक्चरर होने के लिए, और न ही विश्वविद्यालय में रीडर होने के लिए कभी कोई सिफारिश जुटाई थी।‘ बताना चाहूँगा कि मैंने पहली बार कॉलेज में प्राचार्य पद के लिए आवेदन किया था। जब प्रो.निर्मला जैन को मैंने यह सूचना दी तो न केवल खुश हुईं बल्कि गवर्निंग बॉडी के बहुत ही महत्त्वपूर्ण सदस्य को मेरे उस पद के योग्य होने की बात भी कही –नि:संकोच। वे जिसमें भी योग्यता देखती थीं उसकी इस रूप में हमेशा मदद करती थीं। बिना किसी हीले-हवाले के। छिपी हुई बात नहीं है कि विश्वविद्यालयी विभागों में अपना-पराया भी चलता है। विभाग में सहयोगी अध्यापक के रूप में कॉलिजों से भी अध्यापकॉं को बुलाया जाता है। प्रो. निर्मला जैन को जब पता चला कि मुझे यह अवसर नहीं मिला है तो तुरंत मुझे बुलाया गया। प्रशासनिक क्षमता भी प्रो. जैन की अव्वल दर्जे की रही है। वह घर में हो या कार्यक्षेत्र में। मैंने विभाग के अध्यक्ष के रूप में भी देखा है और अपने कॉलिज की गवर्निंग बॉडी की अध्यक्ष के रूप में भी। बहुत ही सलीके और कुशलता से समस्याओं को सुलझाते हुए देखा है। कभी-कभी तो वे मुझे कूटनीति की भी विशेषज्ञ लगी हैं। सामान्य ज्ञान की दृष्टि से भी उनका कोई मुकाबला नहीं। वैसे अच्छे- अच्छों की जन्मपत्री उनकी जेब में रहती है। यह उनकी कला भी है और क्षमता भी।

आप आत्मीय हैं या सम्माननीय हैं तो उनके यहाँ आपको यह छूट नहीं मिल जाती कि आप उनसे गलत-सलत भी मनवा लें। शोध के सिलसिले में मुझे उनके निवास पर लगातार जाना ही पड़ता था। घर पर वे आवभगत में किसी किस्म की कसर नहीं छोड़ती थीं। बड़े से बड़े व्यक्ति उनके मेहमान होते थे। कभी-कभी यह सुन कर कि कोई चीज उन्होंने स्वयं बनाई है मैं मन ही मन चौंक जाता था। मैं तो यही सोचता था कि वे तो रसोई की ओर झांकती भी नहीं होंगी। सबकुछ नौकर-चाकर ही करते होंगे। बाद में तो पढ़ने को मिला कि वे बहुत अच्छी कुक रही हैं। इधर तो जब भी उनसे बात हुई उन्होंने अपने पारिवारिक होने की भी बात कही है। पूरा परिवार उनका किस प्रकार ध्यान रखता है और अपनी-अपनी तरह से किस तरह सब आत्मनिर्भर हैं। मुझे लगता रहा है कि प्रो. जैन ने अपने मजबूत प्रभाव और बेहतरीन संपर्कों का फायदा अपने बच्चों के संदर्भ में कभी नहीं उठाया। उनके बारे में कभी सुनने में नहीं आया, जबकि कुछ आचार्यों के बारे में बराबर सुनने में आता था।

मैंने उन्हें सम्पन्न और संभ्रांत महिला के रूप में देखा है। ‘जमाने में हम’ को पढ़ने से पहले। मैं तो सोच ही नहीं सकता था, जैसा पृ. 216 पर लिखा है, कि घर से अपने कार्यक्षेत्र की यात्रा ‘बस’ से भी की होगी। खैर संदर्भ उनसे गलत-सलत बात मनवाने का था। एक दिन मैंने पाया कि डॉ. नगेंद्र जी का उन्हें फोन आया। जितना सुन पाया उससे यही पता चला कि वे कवि विजयदेव नारायण साही के बारे में बात कर रहे थे। थोड़ी देर सुनने के बाद, प्रो. जैन ने जिस ढंग से दृढता के साथ उनसे असहमति दिखाई वह मेरे लिए नया अनुभव था। मैंने तो नगेंद्रजी को उनके यहाँ बहुत ही करीबी मेहमान के रूप में देखा था। वस्तुत: निर्मला जी के यहाँ मित्रता या आत्मीयता का अर्थ यह नहीं है कि किसी भी बात पर विवाद या झगड़ा हो ही नहीं।स्वस्थ मतभेद के साथ भी संबंध बने रह सकते हैं, यह गुर मैंने अपनी गुरु से सीखने की कोशिश की है। मैंने प्रो. निर्मला जैन जी को संकट में घिरे अपने मित्रों के लिए बहुत ही करीबी पारिवारिक जन की तरह चिंतित और मदद करते पाया है, चाहे वे मन्नू भंडारी हों, कृष्णा सोबती हों, नगेंद्रजी हों या नामवर जी हों। वैसे तो वे हृदय से इतने ( कभी-कभी वाणी से भले ही इतना न दिखाती हों) अपनेपन से भरी हैं कि अपवादस्वरूप भी कोई नहीं बता पाएगा कि उनसे मदद मांगी गई हो और उन्होंने अपनी क्षमताभर मदद न की हो – मतभेद भुलाकर भी।

उनके यहाँ मिले एक बड़े अर्थात महत्त्वपूर्ण मेहमान से जुड़ा एक किस्सा भी दिलचस्प है। मेहमान थे प्रो. रामशरण शर्मा। प्रख्यात इतिहासविद और संस्कृत के ज्ञाता। उन्होंने जब मेरा उपनाम सुना, उपनाम अर्थात दिविक, तो चौंके। अब तक दिविक शब्द के निर्माण का रहस्य तो उजागर हुआ नही थ। उन्होंने बताया कि दिविक दिवि जमा क से बना लगता है। ‘क’ संबंध का द्योतक होता है। तो दिविक का अर्थ हुआ दिवि से संबद्ध। मेरे लिए यह जानकारी, जाहिर है, बहुत ही रोचक थी।
एक बार मैं अपने शोध-कार्य के रूप में एक चैप्टर लिख कर ले गया तो एक उद्धहरण देख कर उन्होंने न केवल मौखिक रूप में बल्कि लिख कर बताया कि केवल मान्य विद्वानों को उद्धृत करना चाहिए, हर किसी को नहीं। जिनको उद्धृत किया था वे दिल्ली विश्वविद्यालय से ही जुड़े हुए थे। एक और घटना है। मेरा ध्यान कविता रचने के लिए अधिक था अपने शोध-कार्य की अपेक्षा। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महाविद्यालय में अध्यापन कर ही रहा था। प्रोन्नति की एक योजना आई तो पीएच.डी न होने के कारण मेरा चुनाव नहीं हो सका। चयन समिति में प्रो. निर्मला जैन भी थीं। उन्होंने इस बात की दु:ख के रूप में शिकायत नामवर जी को की थी। संयोग से एक दिन नामवर जी के घर पर जाना हुआ। बातें हुईं। जाने के लिए दरवाजे से निकल कर चला तो दरवाजे तक विदा करने के लिए आए नामवर जी ने पीछे से कहा – ‘ऐ रमेश, सुनिए तो!’ मैं पलटा और उनके पास आया। बोले –‘ निर्मला जी ने बताया कि तुम्हारे यहां बहुतों की प्रोन्नति हुई है। पीएच.डी न होने के कारण तुम्हारी नहीं हो सकी। निर्मला जी को इस बात का दु:ख था। तुम प्रतिभाशाली हो और केवल पीएच.डी न होने के कारण तुम्हारी प्रोमोशन रुक गई। अब कर डालो।‘ नामवर जी की वह अत्यंत निश्छल-आत्मीय झिड़की मेरे लिए रामबाण सिद्ध हुई। मैंने उन्हें अगले 6 महीनों में काम पूरा करने का भरोसा दिलाया और किया। शोध से ही जुड़ी एक और घटना है। रचानात्मक लेखन की ओर अधिक ध्यान होने के कारण शोध की ओर उतना ध्यान नहीं था जितना होना चाहिए था। निर्देशिका के रूप में प्रो. निर्मला जैन के सामने कोई न कोई बहाना बना लिया करता था। उनका स्नेह ही था जिसके कारण उनके गुस्से या नाराजगी का खास पात्र नहीं बना था। इसी बीच मुझे एक लंबें समय के लिए पूर्वी जर्मनी से रेडियों में नियुक्ति का प्रस्ताव भरा पत्र मिल गया। उस समय के कॉलिज प्राचार्य किन्हीं कारणवश मुझे अनुमति देने को तैयार नहीं थे। उन्होंने प्रो. निर्मला जैन को एक पत्र भेज दिया जिसमें पूछा गया था कि यदि मुझे अनुमति दी जाए तो क्या मैं अपना शोध कार्य पूरा कर पाऊँगा। बिना किसी हिचक के प्रो. निर्मला जैन ने उत्तर ‘नहीं’ में दिया था। जब मुझे पता चला तो मुझे पहली बार तो धक्का ही लगा था लेकिन कहीं न कहीं भरोसा था कि इसमें भी मेरा भला ही छिपा होगा। और वही सिद्ध भी हुआ। कहना यही चाहता हूँ कि मैंने प्रो. निर्मला जैन को हमेशा स्पष्ट निर्णय लेने की भूमिका में देखा है। न वे खुद किसी मुगालते में रहती हैं और न ही किसी दूसरे को मुगालते में रखती हैं।

मैंने उनके लेखन और उनके वार्तालाप से तो जाना ही, अपने शोध के दौरान भाषा संबंधी समय-समय पर मिलने वाले उनके निर्देशों से भी जाना कि भाषा के मामले में वे रोजमर्रा की बोलचाल की पक्षधर रही हैं। उनके यहाँ भाषा का अति शुद्धतावादी तत्सम प्रधान शब्दावली वाला आग्रह पानी भरता है। असल में भाषाओं पर उनका समान अधिकार है। उनका जितना अधिकार हिंदी पर है उतना ही अंग्रेजी पर है। अंग्रेजी साहित्य का भी वे गहरा अध्ययन करती रही हैं। खुद मुझे उन्होंने अंग्रेजी के हिंदी में उद्धरण देते समय साफतौर पर कहा था कि एक तो जहाँ तक हो सके उद्धरण प्रथम स्रोत से लूं और दूसरे हिंदी के साथ मूल अंग्रेजी में भी दूँ। अंग्रेजी पर उनके अधिकार और अध्ययन ने निश्चित रूप से उन्हें अपने पूर्व के आचार्यों (मसलन डॉ. नगेंद्र जी) के लेखन से थोड़ा आगे का या हटकर लिखने का मार्ग दिया लगता है।
प्रो. निर्मला जैन के यहाँ भाषा या शैलीगत कोई जाल-जंजाल या उलझाव नहीं मिलता। गजब की संप्रेषणीयता के गुण से समृद्ध होती है। नामवर जी पर लिखे एक लेख की शुरुआत ही देखिए- “ नामवर सिंह अपने ढंग के अकेले और विलक्षण आलोचक हैं जिनके कथित का वजन उनके लिखित की तुलना में कहीं अधिक है।वही उनकी अक्षय ख्याति का आधार भी है। “बिना चूके उन्होंने यह भी लिखा है- “ गोकि पूरी सभा समझ गई थी कि नामवरजी ने सिर्फ वाक1-चातुरी से बात का रुख पलट दिया था। जाहिर है लिखे हुए के संदर्भ में ऐसा करना संभव नहीं होता। पर नामवर जी के लेखन को लेकर भी प्राय: ऐसे अंतर्विरोधों की चर्चा तो की ही जाती रही है।” (बहुवचन, हिंदी के नामवर)
प्रो. निर्मला जैन जी की सोच और मानसिकता को मैंने हमेशा सकारात्मक और संतुलित पाया है। मसलन स्त्री के उत्थान में पुरुष अपनी पुरुषवादी सोच के कारण किस किस हद तक बाधक और शोषक है, इसकी पूरी समझ रखते हुए वे उस नारेबाजी और फैशनी स्त्रीवाद या स्त्री विमर्श से अलग दिखती रही हैं जो प्रतिरोध के स्थान पर हर क्षण प्रतिशोध के झंडे उठाए हुए रहता है। इस अर्थ में वे मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, कृष्णा सोबती, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, राजी सेठ, सुनीता जैन जैसी लेखिकाओं की नारी-विमर्श संबंधी दृष्टि की अगुआई करती नजर आती हैं। वे समाज और मनोविज्ञान का सहारा लेकर मसले की तह में जाती हैं और खोज लाती हैं कि बहुत बार पुरुष जानबूझकर वैसा आचरण नहीं कर रहा होता बल्कि अपने अवचेतन से प्रेरित होकर कर रहा होता है। मुझे तो यही लगता है कि असल में प्रो. निर्मला जैन बनी बनाई राह पर आँख मूंद कर चलने की बजाए अपनी राह खुद बनाने में विश्वास रखती हैं । उसके लिए जितनी भी साधना करनी पड़े, कितना भी संघर्ष करना पड़े वे करने से गुरेज नहीं करना चाहतीं।
प्रोफेसर निर्मला जैन समीक्षात्मक या आलोचनात्मक लेखन के संदर्भ में लेखन को रचना केंद्रित होने के साथ-साथ उसके समस्याकेंद्रित अत: विचारोत्तेजक होने को उचित मानती हैं। उनके शब्दों में कहूँ तो ‘ समीक्षक उसमें केवल विश्लेषण मूल्यांकन के उद्देश्य से नही, स्वयं रचनाकार की सर्जनात्मक ऊर्जा से प्रवृत्त हुआ हो। रचना उसे किन्हीं बृहत्तर और बुनियादी सवालों से जूझने के लिए आमंत्रित करती हो। भले ही इस प्रक्रिया में उसे अपने प्रस्थान-बिंदु का अतिक्रमण करने की विवशता महसूस हुई हो।‘ और यह भी कि ‘अपने समय के साहित्य की पड़ताल जितनी जरूरी है उतनी ही समय-समय पर विरासत से मुठभेड़ भी।‘ (संकल्प समीक्षा दशक, संपादक: डॉ. निर्मला जैन)।
प्रो. निर्मला जैन जी ने भले ही किसी विद्वान या समर्थ रचानाकार की उपेक्षा न की हो, लेकिन जाने क्यों मुझे हमेशा लगा है कि उन्हें लोगों से, अपने शिष्यों से, पाठकों और विद्वानों से जितना भी सम्मान मिला है भले ही वह कम ना हो और वे भले ही सम्मानों से बहुत ऊपर हों लेकिन कुछ संस्थाएँ अब भी ऐसी हैं जो मेरी निगाह में दुर्भाग्यशाली हैं। उदाहरण के लिए साहित्य अकादमी, बिड़ला फाउंडेशन आदि संस्थाएँ अभी तक उस सम्मान से वंचित हैं जो उन्हें प्रो. निर्मला जैन जैसी विदुषी को सम्मानित करके सहज ही हासिल हो सकता था। वैसे उनके पास अवसर अब भी है। प्रो. निर्मला जैन जहाँ एक ओर भारतीय (उसमें भी सौदर्यशास्त्र) और पाश्चात्य काव्यशास्त्र की मर्मज्ञ और मौलिक विचारों से सम्पन्न विदुषी हैं, वहीं आधुनिक साहित्य और उसमें भी अद्यतन साहित्य की गहरी और गम्भीर अध्येता हैं। कविता, कहानी, उपन्यास आदि सब की। साथ ही उसकी विश्लेषक और वाहक भी। उनकी बेहतरीन रचनात्मक ऊर्जा देखनी हो तो ‘जमाने में हम’ और ‘दिल्ली शहर दर शहर’ को ही पढ़ लिया जाए। पाठ्यक्रमों तक में उन्होंने श्रेष्ठ रचनात्मक साहित्य को स्थान दिलवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और कूपमंडूकता की राह रोकी है। उनके खाते में महत्त्वपूर्ण संपादन कार्य भी मौजूद है। संपादन के क्षेत्र में तो ‘निबंधों की दुनिया’ जैसी महत्त्वपूर्ण श्रृंखला में तो मुझे भी संपादक रहने का अवसर मिला है।
(साभार- दिविक रमेश के फेसबुक वॉल से)
आभार।