
नीदरलैंड में भारत प्रेम
– प्रो. दिनेश प्रसाद सकलानी
मुझे मार्च 2005 में नीदरलैंड (हॉलैण्ड) जाने का अवसर मिला। मेरी नीदरलैंड यात्रा के विचार का शुभारंभ जून 2004 में फ्री विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग द्वारा ईमेल से प्राप्त एक आमंत्रण से हुआ। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में सहायक अध्येता के रूप में जून 2004 में अध्ययन एवं व्याख्यान के लिए जाना हुआ और वहीं कुछ अन्य साथियों के साथ चर्चा करते हुए उक्त निमंत्रण पर विचार भी किया।
उक्त अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का विषय ‘प्रोबिंग द डेप्थ ऑफ ईविल एंड गुड’, था और मैंने ‘माया एज एन ईविल फ्रॉम क्लासिकल हिंदू टेक्स्ट टू भक्ति सेंट्स एंड कबीर’ पर अपना व्याख्यान तैयार किया। सम्मेलन में प्रतिभागिता के लिए पूर्ण तैयारी के साथ मैं ऐम्स्टरडैम जाने से पहले ही अपने एक विद्वान मित्र के माध्यम से नीदरलैंड के जीतू भाई के संपर्क में आ गया था। जीतू भाई द हेग में रहते थे और एक प्रख्यात अधिवक्ता थे। मार्च के प्रथम सप्ताह में जीतू भाई ने दूरभाष से बात की और जिस आत्मीयता के साथ बात की उससे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हम घनिष्ठ मित्र हों। मेरे आदर-सत्कार और आतिथ्य के लिए उनमें बहुत उत्साह और व्यग्रता का सहजता से अनुमान लगाया जा सकता था। जीतू जी ने ऐम्स्टरडैम में रह रहे कनही सिंह जी से भी बात करवाई। कनही सिंह जी ने मुझे कहा ‘’क्या आप मेरे लिए चारों वेद हिंदी अनुवाद सहित ला सकते हैं?‘’ मैंने सहर्ष उन्हें कहा ‘’अवश्य लाऊँगा।‘’ यह मेरे लिए बहुत ही सुखद आश्चर्य की बात तो थी ही, इसके साथ ही मुझे भी उनसे बात करते हुए ऐसा प्रतीत होने लगा कि जैसे मैं अपने ही लोगों के पास जा रहा हूँ। मैं 16 मार्च 2005 को शिफोल हवाई अड्डे पर दिन के साढ़े ग्यारह बजे पहुँचा। हवाई अड्डे पर चारों ओर बर्फ के ढेर थे किंतु अच्छी गुनगुनाती धूप भी खिली हुई थी। हवाई अड्डे पर जीतू भाई और सिंह साहब मेरे स्वागत के लिए सुंदर पुष्पगुच्छ लेकर खड़े थे। हमने तुरंत एक दूसरे को पहचान लिया। अत्यंत आत्मीयता से मुझे मिले, गले लगाया और बोले कि आज महीनों की बर्फबारी और हाड़ कँपाने वाली सर्दी के पश्चात् पहली बार इतनी सुखद और चटक धूप खिली है। संभवत: मौसम भी गर्मजोशी से आपका स्वागत कर रहा है। मैंने मुस्कराते हुए कहा “मेरा नाम दिनेश है!”
सम्मेलन के आयोजकों ने ऐम्स्टरडैम के किंग्स होटल में मेरे आवास की व्यवस्था की थी। मुझे कक्ष में छोड़कर जीतू भाई और सिंह साहब ने कहा कि आप स्नान कर लीजिए, हम आपकी प्रतीक्षा स्वागत कक्ष में करते हैं। मैं जल्दी से नहाकर स्वागत कक्ष में पहुँचा और फिर जीतू भाई ने मुझे एक गरम जैकेट खरीदकर पहना दी। शहर में काफी बर्फ थी और चुभने वाली हवा चल रही थी। जीतू भाई बाले कि भारत से लाई हुई जैकेट से आप यहाँ की ठंड से अपने आप को सुरक्षित नहीं रख पाएँगे। जैकेट के साथ ही एक मफलर और टोपी भी खरीदकर पहना दी। इसके बाद वे मुझे एक भारतीय भोजनालय में ले गए, स्वादिष्ट भोजन करवाया। सिंह साहब तो एक पंजाबी मिठाई की दुकान में ले जाकर मिठाई खाने का आग्रह भी करने लगे। इसके बाद पुन: मुझे होटल में छोड़ा और बोले कि 20 मार्च की सुबह हम आपको होटल से अपने साथ लेकर जाएँगे, फिर कम-से-कम एक महीने आपको हमारे साथ ही रहना है।
सिंह साहब तो ऐम्स्टरडैम में ही रहते थे, जीतू भाई द हेग से आए थे। यह दोनों ही सूरीनाम के प्रवासी भारतीय थे। सूरीनामी भारतीय मुख्यत: ऐम्स्टरडैम, रॉटरडैम, यूट्रेक्ट और द हेग, इन चार शहरों में बसे हुए हैं। सूरीनामी भारतीय और अप्रवासी भारतीय दोनों ही कुल मिलाकर लगभग 2.5 लाख हैं, जो कि यूरोप के किसी भी देश में भारतीय मूल के लोगों की संख्या में दूसरे क्रम पर हैं। यद्यपि यह निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता है कि सर्वप्रथम भारतीय कब और किस परिस्थिति में नीदरलैंड पहुँचे होंगे किंतु भारत और नीदरलैंड का संपर्क सदियों पुराना रहा है। 1600 ई. के बाद डच ईस्ट इण्डिया कंपनी ने पुर्तगालियों से मसालों का व्यापार अपने पास ले लिया था किंतु इस बात का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि इस अंतराल में भारतीय नीदरलैंड गए थे अथवा नहीं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सिखों का एक दल जर्मनी अधिकृत हॉलैंड में जून 1943 में पहुँचा था। यह ब्रिगेड नेताजी सुभाषचंद्र बोस के आह्वान पर स्थापित की गई थी। इस प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात भारतीयों का उत्प्रवासन नीदरलैंड में हुआ।
यहाँ सूरीनामी भारतीयों की संख्या 2 लाख से अधिक है और इनमें सभी की जड़ें मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार से हैं। अधिकांश सूरीनामी भारतीय 1975 में सूरीनाम की स्वतंत्रता के पश्चात ही नीदरलैंड आए। स्वतंत्रता से पूर्व ही सूरीनाम से बेहतर शिक्षा के अवसरों के लिए नीदरलैंड प्रवास अभिप्रेरणा का एक मुख्य कारक था। सूरीनामी भारतीय वैसे तो सूरीनाम से नीदरलैंड गए किंतु सूरीनाम में भारतीय ब्रिटिश राज के दौरान गिरमिटिया श्रमिकों के रूप में भेजे गए थे। डच उपनिवेश सूरीनाम में दासता की समाप्ति पर डच सरकार ने 1873 ई. में इंग्लैंड के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें संविदा श्रमिकों की नियुक्ति का प्रावधान था। इस प्रकार 1873 से ही भारतीय लोग संविदा श्रमिकों के रूप में सूरीनाम जाने लगे जिसमें बहुसंख्यक लोग भारत के वर्तमान उत्तर प्रदेश से थे और अन्य बिहार, हरियाणा, पंजाब और तमिलनाडु से भी गिरमिटिया श्रमिकों के रूप में वहाँ पहुँचे थे। इस प्रकार सूरीनाम की स्वतंत्रता के पश्चात् 1975 में सूरीनाम से बड़ी संख्या में यही भारतीय नीदरलैंड पहुँचे। भारतीय मूल के सूरीनामी भारतीय और अप्रवासी भारतीय आज अनेक सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक समारोहों पर एकजुटता का प्रदर्शन भी करते हैं और इसकी पृष्ठभूमि में भारतीयता की भावना और स्वदेश प्रेम ही प्रबल तत्व के रूप में उभरता है।
खैर अब मैं अपने नीदरलैंड प्रवास के उन क्षणों को साझा करना चाहता हूँ जिन्हें मुझे अत्यंत सुखद, स्वदेश प्रेम के अगाध, अद्वितीय एवं घनीभूत भावों के रूप में अपने उन भारतभक्त भाइयों के साथ व्यतीत करने का सौभाग्य मिला। जैसे मैंने फ्री विश्वविद्यालय ऐम्स्टरडैम में अपना व्याख्यान दिया तो उस व्याख्यान का श्रवण करने के लिए अनेक सूरीनामी भारतीय भी विशेष अनुमति लेकर उपस्थित रहे, केवल इसलिए कि मैं भारत से वहाँ जाकर व्याख्यान दे रहा था। उनका भारत प्रेम ही था कि वे मुझे व्याख्यान देते हुए सुनकर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे। भारतीय जनसमुदाय में कनही सिंह जी और जीतू भाई बड़े उत्साह और गर्व से कह रहे थे कि भारत से आए हमारे प्रोफेसर मित्र यहाँ विश्वविद्यालय में व्याख्यान दे रहे हैं। बार-बार मेरे व्याख्यान के दौरान और फिर व्याख्यान पर परिचर्चा के दौरान भी वे खूब तालियाँ बजा रहे थे मुझे प्रोत्साहित करने के भाव से। ऐसा लग रहा था जैसे मेरा उनके साथ सदियों पुराना घनिष्ठ पारिवारिक संबंध है। इसका एकमात्र कारण था- उनका भारत प्रेम। मेरा व्याख्यान ठीक था मगर जिस उत्साह के साथ वे मेरे व्याख्यान की प्रशंसा और प्रचार कर रहे थे, वह मेरे व्याख्यान की उत्कृष्टता नहीं अपितु मेरे भारतीय होने और उनके द्वारा मुझे अपना मानने के कारण ही था।
विश्वविद्यालय द्वारा उपलब्ध व्यवस्था 19 मार्च रात्रि तक थी। 20 मार्च की प्रात: जीतू भाई द हेग से ऐम्स्टरडैम पहुँचे और कनही सिंह जी के साथ ठीक नौ बजे मुझे साथ ले जाने के लिए होटल पहुँच गए। उन्होंने मेरे नीदरलैंड पहुँचने से पहले ही मुझे दूरभाष पर सूचित कर दिया था कि कम से कम एक महीने तक वे मुझे नीदरलैंड में अपने साथ ही रखेंगे और कम से कम चार व्याख्यान तो आर्यसमाज मंदिरों में मुझे देने होंगे। इस प्रकार पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुरूप जीतू भाई और कनही सिंह जी मुझे सिंह साहब के घर ले गए। जीतू भाई फिर द हेग लौट गए। सिंह साहब एक विशुद्ध भारतीय तो थे ही साथ ही भोजपुरी भी उतने ही पक्के थे। भारतीय परंपरा, संस्कृति एवं संस्कार जो लगभग सवा सौ साल पहले उनके पूर्वज अपने साथ ले गए थे, सिंह साहब उसकी साक्षात प्रतिमूर्ति थे। नीदरलैंड में उन्हें चालीस वर्ष से अधिक का समय हो गया था। लगभग बीस वर्ष की अवस्था में वे सूरीनाम से यहाँ आकर एक कम्पनी में प्रबंधक के रूप में सेवा करने के पश्चात् अब सेवानिवृत्त हो गए थे और ऐम्स्टरडैम में ही घर बनाकर स्थायी रूप से रह रहे थे। सिंह साहब के घर के प्रथम तल पर एक विशाल कक्ष में पुस्तकालय था। उस पुस्तकालय में भारतीय साहित्य यथा- वेद, पुराण, उपनिषद् इत्यादि और इतिहास, संस्कृति, काव्य, संगीत, कला आदि से संबंधित अनेक ग्रंथ थे। मैं चारों वेद उपहार स्वरूप जो उनके आग्रह पर ले गया था, वे भी अब इस पुस्तकालय में सुशोभित हो गए। सिंह साहब भारतीय संगीत, विशेषकर हारमोनियम और तबला वादन में भी निपुण थे। भजन गाते थे और स्वयं हारमोनियम बजाते थे। मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने कब और कहाँ तबला एवं हारमोनियम बजाना सीखा। फिर सिंह साहब एक-एक कर अपने संगीत प्रेम और उसकी साधना के किस्से सुनाने लगे। हारमोनियम के बारे में उन्होंने कहा कि सूरीनाम में बचपन में रामलीला और होली के समय हारमोनियम बजाई जाती थी। दोनों ही अवसरों पर खूब तैयारी की जाती थी और रामलीला समितियों में ऐसे वादक होते थे जिन्होंने मुझे हारमोनियम बजाना सिखाया। मैंने उनसे पूछा कि क्या सूरीनाम में रामलीला होती थी? उन्होंने कहा, “अभी भी होती है और नीदरलैंड में भी होती है।” मुझे थोड़ी बहुत जानकारी तो थी कि सूरीनाम, मॉरिशस, ट्रिनिडाड, टोबैगो आदि देशों में जब गिरमिटिया श्रमिकों के रूप में भारतीयों का उत्प्रवसन हुआ तो उनमें अधिकांश लोग अपने साथ तुलसीकृत रामचरितमानस का गुटका ले गए थे। वे रामभक्त थे और उनके लिए रामचरितमानस उनकी अस्मिता की प्रतीक एवं संबल थी। रामलीला की देशी परंपरा को वे अपने देश से दूर विश्वभर के उन स्थलों में लेकर गए और उसे जीवित रखा। इसे उन्होंने अपनी उत्तरवर्ती पीढ़ियों को केवल सौंपा ही नहीं बल्कि मौलिकता के साथ उसे आगे बढ़ाने का कार्य भी किया।
इसी प्रकार सूरीनामी भारतीय भी रामलीला का आयोजन सूरीनाम और नीदरलैंड में भी करते रहे। दीपावली एवं सभी भारतीय त्योहारों की विरासत को इन्होंने सँजोकर रखा। कनही सिंह जी ऐसे ही एक रामलीला के उत्साही कार्यकर्ता रहे और हारमोनियम बजाकर रामलीला में संगीत का पक्ष संभालते रहे। तबले के बारे में जब उन्होंने बताया कि वे कितने पापड़ बेलकर तबला सीख पाए तो मुझे उनके तबला प्रेम और साथ-ही-साथ उनके दृढ़ संकल्प का भान हुआ।
कनही सिंह जी और लगभग सभी सूरीनामी भारतीय आर्यसमाजी हैं और भारत भक्ति के अनूठे भक्त भी हैं। सिंह साहब मुझे लाइडन के एक पुराने पुस्तकालय में ले गए। यह पुस्तकालय 18वीं शताब्दी के एक भवन में स्थित एक सार्वजनिक पुस्तकालय है। उस पुस्तकालय में एक डच लेखक की 1783-84 ई. की अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित पुस्तक के एक पृष्ठ पर उन्होंने मुझे पढ़वाया कि पुष्कर स्थित ब्रह्मा जी के मंदिर से महमूद गजनवी साढ़े सात किलो का स्वर्ण कमण्डल लूटकर ले गया था और वह कमण्डल बहुत गंदी स्थिति में अफगानिस्तान के काबुल संग्रहालय में पड़ा हुआ है। हम पुस्तकालय से बाहर आए तो सिंह साहब ने मुझे कहा कि “आप उत्तराखण्ड में रहते हैं, रूड़की में शेरसिंह राणा भी रहता है। शेरसिंह राणा ने दावा किया था कि वह गजनी जाकर पृथ्वीराज चौहान की अस्थियाँ लाया है जिन्हें उन्होंने गंगाजी में विसर्जित कर दिया।” सिंह साहब आगे बोले “क्या आप शेरसिंह राणा से संपर्क कर सकते हैं? मैं चाहता हूँ कि शेरसिंह राणा काबुल जाकर ब्रह्मा जी का कमण्डल भी लेकर आए। इस काम के लिए जितना भी धन चाहिए मैं दूँगा।” मैंने कहा, “यह तो संभव नहीं है कि मैं शेरसिंह राणा से मिलूँ। यदि यह मान भी लिया जाए कि मैं उससे मिलकर आपका संदेश दूँ और वह आपसे धन लेकर यह काम भी कर ले तो आप ब्रह्मा जी के कमण्डल का करेंगे क्या?’’ सिंह साहब तपाक से बोले कि “पुष्कर में ब्रह्मा जी के मंदिर में दान कर दूँगा।” आप समझ सकते हैं कि भारत के धर्म एवं संस्कृति के प्रति कितनी अगाध श्रद्धा सिंह साहब जैसे सूरीनामी भारतीयों में कूट-कूटकर भरी हुई थी!
लाइडन से लौटकर ऐम्स्टरडैम पहुँचे तो सायंकाल में हम फल एवं कुछ खाने का सामान खरीदने के लिए बाजार जा रहे थे। रास्ते में दो सज्जन मिले। एक पाकिस्तानी थे और दूसरे किसी और देश से। पाकिस्तानी सज्जन ने हमें देखा तो उन्हें लगा कि शायद हम भी पाकिस्तान से ही हैं, उन्होंने आदाब कहा। सिंह साहब तुरंत उनकी ओर बढ़े, हाथ जोड़कर कहा, “नमस्ते करो नमस्ते! तुम भी हिंदू की ही औलाद हो’’ और फिर पाकिस्तानी सज्जन के हाथ पकड़कर जुड़वा दिए। मैं एक क्षण के लिए हतप्रभ रह गया। सिंह साहब का यह रूप देखकर मैंने उनसे कहा ”इस प्रकार किसी अनजान व्यक्ति को पकड़कर हाथ जुड़वाना और एक मुस्लिम को यह सब कहना, कितना संवेदनशील और असुरक्षित हो सकता है? आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था।’’ सिंह साहब दृढता से बोले, ”मैंने सत्य कहा और यही सही है। पाकिस्तान भी भारत का ही अंग था और इस्लाम अपनाने से पहले वहाँ के लोग भी हिंदू थे, उनका धर्म भी सनातन धर्म ही था।’’
दूसरे दिन ऐम्स्टरडैम के आर्यसमाज मंदिर में मेरा व्याख्यान था। कम से कम 200 लोग मेरा व्याख्यान सुनने के लिए एकत्रित हुए थे। मुझे डच नहीं आती इसलिए मुझे लगा कि अंग्रेजी में ही व्याख्यान देना उचित होगा क्योंकि इतने सारे लोग जिनके पूर्वज सूरीनाम 19वीं सदी में आए और जो लोग नीदरलैंड में ही पले-बढ़े हैं वस्तुत: हिंदी नहीं समझते होंगे। मैंने जैसे ही अंग्रेजी में बोलना आरंभ किया सभी श्रोता एक मत से बोले, ”कृपया हिंदी में बोलें। हम डच जानते हैं मगर हमारी मातृभाषा हिंदी ही है।’’ मैं थोड़ा शर्मिंदा हुआ किंतु मुझे उन सभी लोगों पर बहुत गर्व हुआ। फिर मैंने भारतीय संस्कृति पर व्याख्यान दिया जो सभी ने सराहा। कम-से-कम एक घंटे तक श्रोतागणों द्वारा भारतीय संस्कृति के गूढ़ एवं सूक्ष्म विषयों पर अनेक प्रश्न पूछे गए। मैं तो इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ और इतिहासकार के नाते विश्वविद्यालय में अध्ययन-अध्यापन कार्य करता हूँ, किंतु श्रोतागण तो इतिहासकार नहीं थे और न ही इतिहास के विद्यार्थी थे परंतु भारतीय इतिहास और संस्कृति के संबंध में उनकी जिज्ञासा, जानकारी एवं समझ अत्यंत गहन थी। यह इस बात का प्रमाण था कि भारत प्रेम इन लोगों के मन-मस्तिष्क में रचा-बसा होने के कारण ही ऐसा संभव हो पाया। भारत में तो बहुत से पढ़े-लिखे लोगों के मध्य भी ऐसा संवाद दुर्लभ ही दिखाई देता है।
व्याख्यान में आए लोगों ने मेरे सम्मान में सौहार्दपूर्ण प्रीतिभोज रखा था। ऐसा अनूठा समन्वय एवं व्यवस्था थी कि 200 से अधिक लोगों ने आर्यसमाज मंदिर में एक साथ भजन-कीर्तन किया एवं भारतीय भोजन का आनंद लिया। ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं भारत में अपने ही लोगों के मध्य किसी धार्मिक अनुष्ठान में हूँ। सिंह साहब ने यहाँ भी हारमोनियम के साथ भजन गाए। रात्रि में हम सिंह साहब के आवास पर लौटे तो सिंह साहब ने तबला-वादन सीखने की अपनी अति रोचक कहानी सुनाई। उन्होंने बताया कि ऐम्स्टरडैम में उनका अन्य समुदाय का एक परम मित्र रहता है। वह दिल्ली से रोजगार के लिए आया था और ऐम्स्टरडैम में एक डच महिला से शादी कर वहीं बस गया। उसके पिता एक ख्यातिलब्ध तबला वादक उस्ताद थे। सिंह साहब के लिए यह एक सुअवसर था कि दोस्त के पिता से तबला सीखें। उस्ताद साहब दिल्ली से मार्च में अपने पुत्र के पास आते और जुलाई में वापस दिल्ली चले जाते। सिंह साहब ने अनेक बार बड़ी मिन्नतें कीं, अपने मित्र से भी कहलवाया कि उस्ताद उन्हें तबला सिखाएँ, किंतु सफल नहीं हुए। साल-दर-साल बीतते गए। सिंह साहब के मित्र का पुत्र पाँच साल का हो गया था। उस्ताद साहब अपने पोते को धर्म एवं धार्मिक पुस्तकों की नियमित शिक्षा देने का प्रयास करने लगे किंतु उनकी डच बहू को यह नागवार गुजरा और मार्च के महीने में एक बेहद सर्द सुबह जब हिमपात हो रहा था, बहू ने अपने श्वसुर का सामान घर के बाहर रखते हुए अपने पति को कहा कि अपने पिता को तुरंत घर से बाहर करें। यह एक गंभीर संकट था। ऐसी विपदा की घड़ी में उन्हें अपने धनिष्ठ मित्र सिंह साहब की याद आई। सिंह साहब के पास सुबह-सुबह अपने बुजुर्ग बीमार पिता का सामान लेकर जब मित्रवर पहुँचे और अपना दर्द बयाँ किया तो सिंह साहब जैसे मित्र का दिल तुरंत पसीज गया।
सिंह साहब अकेले रहते थे। दो बेटियाँ विवाहित थीं और ऐम्स्टरडैम में ही रहती थीं। पत्नी का देहांत हो चुका था। उनके घर और दिल में भी पर्याप्त जगह थी। दोस्त के बुजुर्ग बीमार पिता को अपने पिता तुल्य मानते हुए तुरंत घर में सम्मान सहित खुशी-खुशी रख लिया। वे वहाँ मार्च से जुलाई तक रहे क्योंकि उनका दिल्ली वापसी का टिकट जुलाई का था। मित्र के पास इतना पैसा नहीं था कि तुरंत दूसरा टिकट खरीदकर पिता को मन मारकर समय से पूर्व ही वापस भेज दे। खैर बीमार एवं बुजुर्ग पिता की पूर्ण मनोयोग से सिंह साहब ने सेवा-सुश्रूषा और दवा-दुआ की। स्वास्थ्य लाभ करने पर सिंह साहब ने तबला सीखने की अपनी दबी-छुपी उत्कण्ठा दोस्त के पिता के समक्ष पुन: व्यक्त की क्योंकि विगत चार-पाँच वर्षों से अनेक बार दोस्त के घर जाकर अनुनय-विनय करने पर भी उस्ताद सिंह साहब को तबला सिखाने के लिए सहमत नहीं हुए थे। किंतु अब तो गंगा स्वयं कठौती में आई थी और फिर इतनी सेवा-सुश्रुषा और गाढ़े वक्त में बुजुर्गवार को पितातुल्य मानकर जो सेवा की तो सिंह साहब को अब पूरा हक भी था कि उस्ताद से तबला सीखें। सिंह साहब ने एक दिन सुबह-सुबह उस्ताद से बड़े आग्रहपूर्वक निवेदन किया कि तबला सीखना चाहता हूँ और अभी आप मेरे पास ही हैं, एक घंटे मुझे सिखा देंगे तो आपका आभारी रहूँगा। मगर उस्ताद ने फिर इनकार कर दिया। काफी देर तक जब उस्ताद किसी भी सूरत में तैयार नहीं हुए तो सिंह साहब का धैर्य जबाव दे गया। वे फिर अधिकार भाव में बात करने लगे वे बोले, ‘’आपकी सेवा-सुश्रूषा में कोई कमी नहीं की अपने पिता का मलमूत्र साफ नहीं किया, किंतु आप दूसरे संप्रदाय के हैं, फिर भी मैंने आपकी अस्वस्थता में आपका मल-मूत्र भी साफ किया। जब आपको आपके बेटे के घर से बीमारी की स्थिति में बे-आबरू होकर निकाला गया तो आपको अपना बुजुर्ग समझ कर अतिथि देवोभव: के अपने संस्कार का पालन किया। आप अब क्यों मुझे तबला न सिखाने के लिए इस तरह ज़िद पकड़े बैठे हैं? अपने हुनर का अब क्या करेंगे? आपके पाँव तो कब्र में रखे हैं।” इस प्रकार जब उन्होंने बहुत भला-बुरा सुनाया तो लगभग एक महीने तक आधे-अधूरे मन से उस्ताद ने तबला सिखाया, वह भी गलत। मैंने सिंह साहब से पूछा कि आपको कैसे पता कि गलत सिखाया, तो सिंह साहब बोले मैं भारत गया और अमरोहा में एक तबला वादक के पास एक महीना रहकर तबला सीखा। जब मैंने पहले दिन उनको बताया कि दिल्ली के अमुक उस्ताद ने मुझे तबला सिखाया तो वे बोले फिर मैं क्या सिखाऊँ वह तो बड़े उस्ताद हैं। फिर उन्होंने कहा अच्छा बजाकर दिखाओ कितना सीखे। मैंने बजाना शुरू किया तो उन्होंने कहा आप गलत बजा रहे हो और या तो उन्होंने गलत सिखाया है या आपने गलत सीखा है।” यह वृत्तान्त मैंने इसलिए लिखा कि सोचने की बात है कि एक व्यक्ति जो भारत में न जन्मा और न ही पला-बढ़ा, वह किस तरह तबला सीखने के लिए अमरोहा तक पहुँच गया।
अधिकांश सूरीनामी भारतीय साल-दो-साल में नीदरलैंड से भारत आते हैं और ऋषिकेश, हरिद्वार, मथुरा व काशी जैसे भारत के सभी महत्वपूर्ण धार्मिक, सांस्कृतिक एवं पर्यटक स्थलों की यात्रा करते हैं। भारत-प्रेम में ये लोग ऐसे रमे रहते हैं कि हर स्थिति में भारत की छोटी-बड़ी सभी बातों को अपना ही समझते हैं। मेरे प्रवास के दौरान में होली का त्योहार भी आया। मुझे प्रतीक्षा थी कि देखें नीदरलैंड में सूरीनामी भारतीय होली का त्योहार किस प्रकार मनाते हैं। होली के दिन सुबह-सुबह सिंह साहब ने पिचकारी और रंग तैयार किए। मुझे सफेद कुर्ता पायजामा दिया और खुद भी पहना, सरसों का तेल दिया और कहा कि अच्छी तरह तेल शरीर और चेहरे पर लगा लूँ ताकि रंग आसानी से धुल सके। उनके घर पर ऐम्स्टरडैम से 20-25 लोग इकठ्ठे हुए, गुझिया और मिठाई बनाकर लाए।
होली में रंग-गुलाल, गुझिया के साथ-साथ ‘होली खेले अवध में रघुवीरा, होली खेले रघुवीरा’ जैसे गीत गाते हुए ढोलक और हारमोनियम के साथ नृत्य भी हुआ। फिर हम सब सिंह साहब की बड़ी बेटी के घर भी गए वहाँ भी होली धूम-धाम से मनायी जा रही थी।
जीतू भाई होली के दूसरे दिन मुझे द हेग ले गए अपने आवास पर। वह अकेले रहते थे। शादी करना चाहते थे पर केवल भारत में और इसके लिए उन्होंने मुझसे भी अपनी इच्छा व्यक्त की। वे भारत से बहुत प्यार करते थे। वे मुझे कहने लगे कि सूरीनाम में उनकी बहुत सारी कृषि भूमि, मकान और ऐसे ही बहुत से सूरीनामी भारतीयों की कृषि भूमि और संपत्ति खाली पड़ी हुई है और चीनी लोग बड़ी संख्या में वहाँ बाजार और खेती पर अपना आधिपत्य स्थापित कर रहे हैं। इसलिए आप भारत से लोगों को सूरीनाम भेजिए। उनको सूरीनाम में रहने के लिए घर और कृषि भूमि बिना किसी मूल्य के दी जाएगी उसमें से वे जो भी कमाई करेंगे, वह उनकी ही होगी। बस चीन के बजाय भारत के लोग वहाँ रहें। वे भारतीय युवाओं की एक क्रिकेट टीम बनाने के लिए भी प्रयासरत थे और मुझे भी कुछ अच्छे क्रिकेट खिलाड़ी भेजने के लिए कह रहे थे। उनके प्रशिक्षण, रहन-सहन का पूर्ण व्यय करने के लिए वे स्वयं तैयार थे। वे चाहते थे कि भारत की क्रिकेट टीम अविजेय बने।
जीतू भाई जैसे अनेक सूरीनामी भारतीय भी हॉलैंड में रहकर भी भारत से अत्यंत लगाव रखते हैं। अपनी शादी के लिए एक भारतीय कन्या चाहिए यह तो जीतू भाई मुझे कह चुके थे, किंतु इसके लिए उन्होंने अपनी मुँह बोली बहिन लीला से भी अपनी बात मुझ तक पहुँचाई। मुझे लीलाजी के घर ले गए। लीलाजी ने मुझे बड़े आग्रह एवं संजीदगी से कहा कि मैं जीतू भाई के लिए एक सुंदर, सुशील एवं संस्कारी कन्या भारत में तलाश करूँ क्योंकि वे चाहते हैं कि उनका विवाह भारत से होना चाहिए। लीलाजी एक पढ़ी-लिखी बैंकर थीं। उन्होंने एक डच पुलिस अधिकारी से विवाह किया था। वह डच पुलिस अधिकारी अनाथालय में पला-बढ़ा था इसलिए अनाथों के प्रति उनकी गहन सहानुभूति थी। इसलिए वे वर्ष में एक बार लीलाजी के जन्मदिन पर अनाथालय जाकर गरीब बच्चों को नए वस्त्र, मिठाई और उपहार देते थे। लीलाजी के पूर्वज जालंधर से थे इसलिए वे जालंधर के अनाथालय में अपने पति के हाथों दान करवाती थी। भारत में राधास्वामी के डेरा व्यासजी में अनेक सूरीनामियों के साथ भजन-कीर्तन और अन्य कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए जब भी समय मिलता था आती थी। ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं जो हॉलैण्ड के सूरीनामी भारतीयों के मध्य अपने अल्पकालीन प्रवास के दौरान मैंने देखे हैं और इसी आधार पर मैं पूर्ण विश्वास से कह सकता हूँ कि सूरीनामी भारतीयों ने नीदरलैंड में भी भारत प्रेम की अनूठी लौ प्रज्वलित की है।
भारत लौटने से तीन दिन पहले कनही सिंह जी मुझे अपने साथ ऐम्स्टरडैम के भ्रमण पर ले गए और एक दुकान से मेरे लिए एक गरम सूट, टाई एवं अन्य उपहार खरीद कर दिए। लौटते समय मुझे हवाई अडडे पर विदा करने 10 लोग तीन गाडि़याँ लेकर आए थे। उन्होंने मुझे इतनी अधिक भेंट और उपहार दिए कि वजन अधिक हो गया। हवाई अडडे से मुझे कुछ चॉकलेट और अन्य सामान वापस कनही सिंह जी को लौटाना पड़ा। मन मारकर उन्होंने यह सामान वापस तो लिया लेकिन अनाथालय में दान करने का वचन दिया। इस प्रकार की मधुर, प्यार भरी और देशप्रेम से ओत-प्रोत स्मृतियाँ आज भी मुझे सुखद अनुभूति देती हैं। भारत प्रेमी सूरीनामी भारतीयों के साथ आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व बिताए गए एक-एक क्षण आज भी मेरे मन-मस्तिष्क पर अंकित हैं।
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