
अपनी राह की अन्वेषक

-प्रेम जन्मेजय
1969 में दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्टस फैक्लटी में मेरे साहित्यिक व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले शिक्षाकाल का आंरभ हुआ तो लगा कि कुएं से मेंढक बाहर आ गया। लेखन और आधुनिक काल में रुचि के कारण पहले तो अपने नए साथी तलाश किए और उन संग अपनी प्राथमिकताएं तय की। दिल्ली विश्वविद्यालीय समय में, एक छात्र के रूप में निर्मला जैन ही नहीं विजयेंद्र स्नातक, रामदरश मिश्र, नित्यानंद तिवारी, विश्वनाथ त्रिपाठी, गंगा प्रसाद विमल, अजित कुमार, महीप सिंह, पुष्पा राही आदि से जुड़े संबंध आज भी निरंतर चढ़ाव पर रहे हैं। आज इनमें से बहुत सारे लोग नहीं हैं पर उनसे जुड़ा संबंध मुझे उनके साथ बांधे हुए है, मेरा शिक्षाकाल नैरंतर्य है।
डॉ0 निर्मला जैन से मिलकर और पढ़कर जितना उन्हें जाना, उसने ये साहस दिया कि जो तुम्हें सही लगता है उसे अभिव्यक्त करने में भयभीत नहीं होना चाहिए। उन्होंने भी तो एक समय में, ऐसे उन डॉ नगेंद्र की बात मानने से इंकार कर दिया था जिनकी बात को न मानने का साहस लगभग किसी में नहीं था। इंकार की सूचना पाकर डॉ नगेंद्र बौखला गए थे। इसे छोटे मुंह बड़ी बात समझा गया था। इस लड़की में इतनी हिम्मत जैसी सोच उत्पन्न हुई थी। निर्मला जैन की तलबी हुई। डॉ नगेंद्र बहुत कुछ बुदबुदाए पर दृढ़ निश्चयी निर्मला जैन को उदयभानु सिंह के विरुद्ध हस्ताक्षर अभियान पर हस्ताक्षर करने को बाध्य नहीं कर सके। निर्मला जैन के तरकस में हर तरह के निर्मम बाण हैं, पर कब किसपर छोड़ना है ये उनकी अपनी इच्छा और समझ पर निर्भर करता है। उनके बाण उनके अपने लक्ष्यों के लिए हैं किसी की डिक्टेशन पर नहीं चलते हैं।
निर्मला जैन के व्यक्तित्व पर संस्मरणात्मक लिखना किसी दुर्गम पर्वत की चुनौती को स्वीकार करने जैसा है। मैं वही कर रहा हूं। वैसे वे एक ऐसा दुर्गम पर्वत हैं जो रिश्तों की कद्र करता है और आपने शुभचिंतकों के लिए सुगम मार्ग का निर्माण भी करता है। यूं भी जब मेरी गुरु डॉ निर्मला जैन ने ऐसे अनेक चुनौतीपूर्ण पर्वतों पर विजय प्राप्त की है तो मैं क्यों नहीं कर सकता। 1969 से आंरभ हुए इन संबंधों कभी उतार नहीं आया है, कुछ ठहराव और बहुत कुछ चढ़ाव ही रहा है। उनके स्नेह का ग्राफ निंरतर बढ़ा ही है।
डॉ निर्मला जैन पढ़ाती नहीं थीं, पर जबसे उन्हें देखा उनसे पढ़ने को मन तरसने लगा। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा आकर्षक था जो किसी को भी — छात्र या सहयोगी, किसी को भी आकर्षित कर सकता है। एक ऐसा सौंदर्य जो निरंतर आपको सावधान भी करता हो। एक ऐसी मारक मुस्कान जो कह रही हो कि हम सब जानते हैं कि तुम्हारे मन में क्या है। दोनों आंखें जैसे तराजू के पलड़े जिनपर बिना तुले प्रवेश वर्जित है। आत्मीय स्वर जो समयानुसार अचानक औपचारिक भी हो सकता है। समयानुसार गंभीर और खिलंदड़ी होती मुद्राएं। वैरी से वैरी की तरह व्यवहार, कोई शांति-वार्ता नहीं। अपने अधिकारों के प्रति उतनी ही सजग जितनी दूसरों के षड़यंत्रें के प्रति। किसी अच्छे प्रस्ताव के कारण फूटे लड्डुओं को पार्श्व में रख एक निस्पृहता के साथ स्वीकार करने का गुण। उनमें सबसे बड़ा गुण था कि वे युवा पीढ़ी से मित्रवत व्यवहार करती, आपने बड़े होने के आतंक से आतंकित नहीं करती।
डॉ0 निर्मला जैन अपने समय में, हिंदी विभाग के गलियारों में रचे जाने वाले अनेक षड्यंत्रों की न केवल साक्षी रही हैं अपितु कुछ का हिस्सा भी रही हैं। वे देखने में मासूम अबोध बालिका लग सकती हैं परंतु अपनी सोच ओर चिंतन में चतुर और अपने परिवेश के प्रति इस हद तक सजग कि कोई मूर्ख बनाने का प्रयत्न करे तो भांपा जाए और मुंह की खाए। रिश्तों को बनाने, उन्हें सजाने-संवारने और निभाने में वे सिद्धहस्त हैं। अपने इसी कौशल से उन्होंने एक समय में ध्रुव विरोधी — डॉ0 नगेंद्र और नामवर सिंह, के साथ ऐसे संबंध बनाए रखे कि एक का पलड़ा भी कम न हो।
डॉ0 निर्मला जैन से मेरे लेखन के शैशवकाल में जुड़े संबंध निर्बाध गति से से चलते रहे। संबंधों का यह वाहन आवश्यक्तानुसार अपनी गति बदलता रहा है पर कभी गतिहीन नहीं हुआ। मैंने उन्हें जब भी कष्ट दिया उन्होंने स्वीकार किया और मेरे आग्रह की रक्षा की। मेरे आग्रह पर वे सात समुंद्र पार, त्रिनिदाद में आई थीं। उस समय मैं यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्ट इंडीज में अतिथि आचार्य के रूप में कार्यरत था।
निर्मला जैन को कुछ लोग हठी मानते हैं, पर वे हठी नही दृढ़ निश्चयी थीं। अपने प्रिय विद्यार्थियों की इच्छा पर वे अनेक बार तो इतनी उदार हो जाती हैं कि अपने अपने दृढ़ निश्चयी स्वभाव को भी भूल जाती। मुझ जैसे, उनके अनेक विद्यार्थियों की एक लंबी सूची है जिनके साथ वे बड़ी बहन और अग्रज मित्र जैसा व्यवहार करती। दिविक रमेश और हरिमोहन शर्मा के प्रति उनके इस व्यवहार का तो मैं साक्षी भी रहा हूँ। वे इतनी साफगो हैं कि अपनी पसंद/ नापसंद जाहिर करने में संकोच नहीं करती।
2004 में जब मैने ‘व्यंग्य यात्रा’ का प्रकाशन आंरभ किया तो, हिंदी भवन में आयोजित हुए उसके पहले अंक के लोकापर्ण का वे हिस्सा थीं। इस लोकापर्ण का हिस्सा नरेंद्र कोहली, सुधीश पचौरी, दिविक रमेश, गोविंद व्यास और विष्णु नागर भी थे। लिए उनकी शुभकामनाओं के साथ- साथ ‘व्यंग्य के मनोविज्ञान’ पर उनके आलेख का आग्रह किया। अपनी व्यस्तता के बीच, संभवतः व्यंग्य पर पहली बार अपनी बात कही। व्यंग्य पर उनका लिखा जाना हिंदी व्यंग्य की ताकत को बढ़ाने वाला है।
हिंदी भवन दिल्ली में गोपालपसाद व्यास की स्मृति में, प्रतिवर्ष व्यंग्य विनोद दिवस पर का आयोजन होता है। इस अवसर पर व्यंग्यश्री सम्मान दिया जाता है। 2009 का व्यंग्यश्री सम्मान मुझे निर्मला जैन के हाथों मिला था।
उनकी मेरे व्यंग्य कर्म ओर लेखन को लेकर एक छोटी -सी टिप्पणी किसी बड़े खजाने से कम नहीं हैं। वे लिखती हैं,‘‘ प्रेम जनमेजय को बधाई देती हूं कि वह रचना के अकाल से बाहर निकल आया है। मैं प्रेम की इस बात की भी प्रशंसा करती हूं कि उसमें ईमानदारी जिंदा है। प्रेम जनमेजय के व्यंग्य अपने प्रहार में निष्ठुर हैं पर उनमें मानवीयता निरंतर बनी हुई है। प्रेम जनमेजय में एक लेखकीय फक्कड़पन है। ‘व्यंग्य यात्र’ के द्वारा व्यंग्य को सार्थक मंच भी दिया। प्रेम ने पत्रिका को इतने मनोयोग दृढ़ संकल्प और निष्ठा से इतने समय तक प्रकाशित किया है जिसके लिए वह साधुवाद का पात्र है। इस संदर्भ में विशेष बात यह है कि इस यात्रा में उसने ‘व्यंग्य यात्रा’ के स्तर को बनाए रखने में विवेक से काम लिया है। वह निपट हास्य की सृष्टि वाले रचानाकारों से अलग, और अपेक्षाकृत गंभीर दायित्व का निर्वाह करता है।’’
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी – विभाग के इतिहास का वे एक ऐसा महत्वपूर्ण अध्याय हैं जिनके बिना लिखा गया इतिहास अधूरा है। वे एक खुली किताब हैं पर इस किताब को पढ़कर समझना हर किसी के वश की बात नहीं है। उनके समय में अनेक राजमार्ग थे पर उन्होंने अपनी राह का अन्वेषण किया और अपने ‘निर्मल’ पथ पर चली।
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