
डॉ. गौतम सचदेव
डा. गौतम सचदेव जी का जन्म 8 जून 1939 को मंडी वारबर्टन (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय से आपने एम.ए. तथा पी.एच.डी. किया। डा. गौतम सचदेव जी ने भारत सरकार में नौकरी करते हुए अपनी शिक्षा पूरी की तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में दो दशकों से अधिक समय तक हिन्दी साहित्य का अध्यापन और शोध का मार्गनिर्देशन किया। कुछ समय केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में भी अध्यापन किया। डा. गौतम सचदेव जी लंबे समय तक बी.बी.सी. लंदन की हिन्दी सेवा से सम्बद्ध रहे तथा एक प्रतिष्ठित प्रसारक के रूप में कार्य किया।
डा. गौतम सचदेव जी की प्रकाशित कृतियां हैं शोध-प्रबन्ध ‘प्रेमचन्दः कहानी शिल्प’, बालगीत ‘गीतों भरे खिलौने’, काव्य ‘अधर के फूल’, समीक्षा- ‘सिन्दूर की होली कसौटी पर’, व्याकरण ‘नवयुग हिन्दी व्याकरण तथा रचना’, काव्यसंग्रह ‘एक और आत्मसमर्पण’।
डा. गौतम सचदेव जी को ‘गीतों भरे खिलौने’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार, ‘तितली’ कहानी को हरियाणा हिन्दी अकादमी द्वारा आयोजित अखिल भारत कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार से विभूषित किया जा चुका है तथा ‘हमसे पूछिये’ रेडियो कार्यक्रम को वर्षों तक उत्कृष्ट रूप से प्रस्तुत करने पर बी.बी.सी. हिन्दी सेवा लंदन द्वारा सम्मानित किया गया है। अभी हाल ही में श्री गौतम को उनके कविता संग्रह ‘एक और आत्मसमर्पण’ के लिए अक्षरम् व यू.के. हिन्दी समिति द्वारा संयुक्त रूप से ‘डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान-2003’ प्रदान किया गया।
संपर्क: 42, हेडस्टोन लेन, हैरो, मिडलसेक्स, HA2 6HG, यू.के.
लंदनी धूप
यहां धूप मिलती पहनकर लबादा हर दिन बदल जाए उसका इरादा कभी बनके निकले फटेहाल दुखिया कभी बाप ज्यों उसका हो रायजादा दबे पांव घुस-घुसके देखे घरों में परदों के अन्दर छिपाए इरादा कभी तोड़ बंधन चली बादलों से महाजन-सी लग जाए करने तगादा गिरे बावली-सी सभी की नजर में कटे जंगलों का उड़े ज्यों बुरादा कभी उम्र छोटी कभी छांव लम्बी चमक ऊपरी और ठंडक जियादा संभलकर उघाड़े बदन नस्ल गोरी बना देगी फरजी से उसको पियादा कभी छेड़ती कमसिनी चुटकियों से कभी गर्भिणी-सी पड़ी सुस्त मादा भले ही सवेरा दुपहरी या संध्या निकलने का यह रोज करती न वादा
धुंध का बुर्का पहनकर आई बरतानी सुबह
धुंध का बुर्का पहनकर आई बरतानी सुबह पेड़ पर पंछी सरीखी झाड़ती पानी सुबह बहुत रोका और सोने दो नहीं मानी सुबह
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आई परदों से छनी कुछ चाय में छानी सुबह
आ दुलकती है छतों से घास पर शबनम सुबह वक्त के हर टाट पर बिछ जाय बन रेशम सुबह जिस डगर टिक जाय उसका दे बदल मौसम सुबह काम पर जाना पड़ेगा है बड़ी निर्मम सुबह
मोटरों की दौड़ में दुबकी हुई सहमी सुबह याद करके आदमी की रोज बेरहमी सुबह भीड़-भड़कम में धंसी संकोच से वहमी सुबह फिर नया दिन आ गया होती गलतफहमी सुबह
गांव की अल्हड़ छरहरी मस्त पगडंडी सुबह चंद मिनटों में लगा दे रूप की मंडी सुबह प्रेम करना सोचकर है बहुत पाखंडी सुबह है अभी हल्दी, सलेटी झट हुई ठंडी सुबह
जख्म सपनों के भरे फाहे धरे गीली सुबह धूप से मिलकर हुई कुछ और भी सीली सुबह भागने पर हो रही मजबूर पर ढीली सुबह ताकती मुड़-मुड़ रुकेगी पर न शर्मीली सुबह
कैलिफोर्निया के पश्चिमी तट पर एक शाम
आज सागर गर्व से मचला हुआ फिर हरहराता उमड़ता उन्मत्त ले जल-पाश अपने फेंकता आकाश में उस ओर गिरता सोनपांखी है जिधर घायल
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का संकलन ब्रिटेन की प्रतिनिधि हिन्
शिथिल टूटे परों से।
आज फिर बंधक बनेगा गगनचारी रात दे-देकर फिरौती चांद तारों की उसे जब फिर छुड़ाएगी सवेरे शंख घोंघे सीपियां तट पर फंसे ही छटपटाएंगे।
उठाकर शीश अपने कांच के टुकड़े पुराने गोल पत्थर खिलखिलाकर देखते हैं वार लहरों के मजा है देखने में रोज का देखा हुआ आखेट तब तक और जब तक खुद तरंगें ले नहीं जातीं सभी को रोशनी रहते हुए भी तमस-तल में।
लंदन के फुटपाथ – शायी
शंख औंधे जा पड़े इस-उस किनारे लहर के छोड़े हुए सूने पिटारे भूख कुतिया-सी न छोड़े साथ इनका चुन रहे पत्तल फिंकी से नमकपारे
राज गुजरी पास से अभिसारिका-सी पर उसे न चाहिए ये चिर-कुंवारे
धरती एक पु
मूतने तक को मिले न एक कोना रोशनी बेचैन हो-होकर निहारे
देखता एकाध कोई भीख देकर कौन है उम्मीद की टोपी पसारे
दर्द शायद जानता असमर्थ खंभा टूटते बेकार डिब्बों में सितारे
अलविदा दिल्ली, तुम्हारा आसमां
अलविदा दमघोंट जहरीला धुंआ अलविदा फैशन भरी तन्हाइयां अलविदा मतलब भरी रुसवाइयां अलविदा मेले नुमाइश शोरगुल अलविदा बेकार के जल्से बिगुल अलविदा दिल्ली की जिंदा महफिलें अलविदा मुर्दा बनातीं मुश्किलें अलविदा धक्कों से ठिलती जिंदगी अलविदा दौलत ढकी बेपर्दगी अलविदा वे तंग गलियां कैद बू अलविदा बिजली बिना गरमी व लू अलविदा देवासुरी सब मोटरें अलविदा वे जानलेवा टक्करें अलविदा रिक्शा व तांगों की जबां अलविदा कुढ़ती हुई खामोशियां अलविदा वह भीड़ का मारा शहर अलविदा सस्ती मिलावट का जहर अलविदा फुटपाथ भिखमंगों के दिल
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का संकलन ब्रिटेन की प्रतिनिधि हिन्दी कविताओं
अलविदा वे झुग्गियां चूहों के बिल अलविदा उजड़े दिखें आबाद भी अलविदा बरबाद का उन्माद भी अलविदा हर छेड़खानी हर चुहल अलविदा कुछ हो न दिल जाए बहल अलविदा वह पागलों-सी चिल्लपों अलविदा झगड़े बहस क्या और क्यों अलविदा मतलब-परस्ती दिल्लगी अलविदा ईमान की साथिन ठगी अलविदा संसद व दफ्तर गजब के अलविदा बाबू निकम्मे भी थके अलविदा सब बाबुओं की अफसरी अलविदा सब राजनीतिक मसखरी अलविदा आजाद औरत सुर्खरू अलविदा घूंघट में सकुचाई बहू अलविदा कालिज की सब खरमस्तियों अलविदा आधी अधूरी हस्तियों अलविदा ऐ पांडवों मुगलों के धन अलविदा अंग्रेज के लूटे चमन अलविदा खंडहर उजड़े मकबरों अलविदा सोए समय के पत्थरों अलविदा गढ़ कोट कीली लाट को अलविदा यमुना के प्यासे घाट को अलविदा इतिहास की दहलीज को अलविदा बूढ़ी हुई हर चीज को अलविदा छत के कबूतर सीटियों अलविदा संधों से निकली चींटियों अलविदा ककड़ी कचौरी चाट को अलविदा ढीली पुरानी खाट को अलविदा झूठे व सच्चे ठाठ-बाट
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अलविदा नेताओं की हर सांठ-गांठ अलविदा ऐ धर्म की मायापुरी अलविदा सारी सियासत की धुरी अलविदा नंगे दिखावे बांकपन अलविदा तरसे हुए भूखे बदन अलविदा ऐ चांद से काटी छुरी अलविदा ऐ कमसिनी संगत बुरी अलविदा ओ याद की मचली सुबह अलविदा ओ प्यार की पहली जगह अलविदा बचपन की ओ लूटी पतंग अलविदा ओ उम्र के माया-कुरंग अलविदा हर चीज में धोखाधड़ी अलविदा गुंडे व दादा की तड़ी अलविदा दुश्मन के दिल की सब जलन अलविदा ऐ पेशगी रक्खे कफन अलविदा फिरं लौटने की आरजू अलविदा मिलना वतन से रूबरू अलविदा ऐ दोस्तों सब खुश रहो अलविदा कहकर कहो आते रहो
एक और आत्मसमर्पण
खोलकर डोरी धनुष की और निज तूणीर तीखी वेदनाओं से भरा मैं डालता हूं आज फिर हथियार मन के
स्वर्णलता के बिछाए जाल से
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का संकलन ब्रिटेन की प्रतिनिधि
अब तीर अपने आप छूटेंगे धनुष बिन बांधकर आघात मेरे वे सदा नूतन शिखाएं दीप्त करते जाएंगे मेरी समर्पणशीलता की छटपटाहट नित्य अब गूंजा करेगी अब तनावों की सुलगती लकड़ियों से ध्वनित पीड़ित ज्वाल का आह्वान होगा अर्थ प्रतिहत व्यूह में मरने न पाएंगे अकेले दान मेरा बन रहा है आज सम्बल और मैं नतशिर हुआ फिर युद्ध को उद्यत रहूंगा।
खंडित मुकुर
मैं पड़ा खंडित मुकुर-सा आपकी नजरों से गिरकर धूल में अब रूप कितने देखता प्रतिबिम्ब कितने दे रहा हूं। आप चतुरानन दशानन या शतानन रूप जितने भी बनाते मैं उन्हें शत-शतमुखी गंदले व टूटे
धरती एक
आपके चेहरे दिखाता आपको असली।
दंड देकर कोई खंडित कर चुके जब एकता को एक आभा एक अंतश्चेतना को रक्तबीजों-सी उठे वह टूट गिर कर और वह चिनगारियां बन भस्म करती है नहीं तो ताप देती और कालिख छिप नहीं पाती अधेरों में वही फिर मोम बनकर पिघलती है तन जलाती है उसी का जो तना था।
मैं पड़ा खंडित मुकुर-सा
देखता हूं जिंदगी तो और भी टूटी हुई है
हर जगह चिकनी सतह की ताजगी में
एक पतझड़ और सूखी-सी धरा है या
लोग टुकड़ों में बंटे
पर गोंद सपनों की लगाकर
बस लिफाफों-से पड़े हैं डाकघर में
पहुंचते उम्मीद के खोए पते पर।
मैं पड़ा खंडित मुकुर-सा धूल में हर कांच का हीरा बनाता या किसी अनजान के घायल पगों से दे रहा पहचान
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का संकलन ब्रिटेन की प्रतिनिधि हिन्दी का
कण-कण को युगों की खून बनकर जो गिरी थी काल की रौंदी हुई पगडंडियों पर।
मैं पड़ा खंडित मुकुर-सा देखता आकाश है प्रतिबिंब मेरा कामनाएं किस तरह से टिमटिमा-कर दूर होती टूटती, बुझती, बिखरती या रिझाती हैं मगर मुझसे निकल कर क्यों मुझी से रूठ जाती हैं।
अधर का पुल
अधर में रखा है एक पुल न इधर कोई किनारा है उसका न उधर।
दिशाओं से ऊपर आर या पार ले जाने की प्रतिबद्धता से मुक्त शून्य को चुनौती देता हुआ।
जब भी जाता हूं इस पर देखता हूं अनन्त विस्तार में धरती एक अन्य पुल है एक दूसरा अधर जिससे बहती है मुस्कानों और सिसकियों की धूपछांही गंगा।
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इस संगम पर पुल है मैं पुल पर हूं मुझे कहीं न जाकर सब ओर जाना है सब कुछ पाना हे और पुल पर छोड़ जाना है ये मेरा नहीं न कभी था न होगा।
दो चरणों का आधार है मिलता है और छूट जाता है अंधेरे और उजाले की सीढ़ियों पर चढ़ता और उतरता मैं कोई भी तो नहीं हूं।
शोर के गढ़
शोर के गढ़ बन गए सब ओर जिनमें शब्द अर्थों से छुड़ाकर कैद कर रखे उन्होंने पास जिनके आदमी अपने बने नक्कारखाने। लेखनी का शील करके भंग वे फहरा रहे हैं फाड़ आंचल से कंगूरों पर ध्वजाएं। शोर का अभिषेक अधजल गगरियों से हो रहा है जब छलकते खोखले सम्मान
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का संकलन ब्रिटेन की प्रतिनिधि हिन्दी
मुद्रा से सुसज्जित राजपथ पर झूमते चहुं ओर अपने दांत दिखलाते बजाकर तालियां सब राजसी गूंगे। नुमाइश बन गई नचनी सभी की देख ऋतु पावस सनातन आ गई है दादुरों के हो रहे सस्वर समागम। राज्य अब केवल स्वरों का ही चलेगा डफ बजाओ या नगाड़े घोष या जयघोष करके मंच पर आ जाओ तुम भी या किले अपने बनाओ गर्जनों के।
नीराजना
दीप बुझता-सा लिए मैं खोजता हूं चिर मुंदा अनजान ओझल द्वार जिसके पार स्रोत आपन्न अपरंपार बस ज्योतिष्मती निर्द्वन्द्व धारा बह रही है काल-द्रुम के स्वर्णपल्लव एक बंदनवार में आविद्ध मस्तक पर चिरन्तन भाव से आभा नमित हैं
धरती एक पुल /
पास कल-कल कर रही हैं ज्योति-लहरें सतत नर्त्तन भाव में कण-कण थिरकता लोमहर्षित इन्द्रधनुषों के अमर आनंदपथ भी ध्वनित हीरकचूर्ण की फिर-फिर सजाते हैं रंगोली।
द्वार मुझको वह किधर कैसे मिलेगा पार जिसके रश्मिरथ पर
यक्ष प्रश्न
चढ़ गया एक और प्यासा आत्महन्ता सीढ़ियां रचकर शवों की ललकता पीने सुनहरा स्वर्ग का मृगजल।
अभी मुंह रक्त पी खारा हुआ था हाथ हत्या से रंगे बदले हुए थे बोटियों में और शव के नाम पर कुछ लोथड़े।
छूछा कफन कुछ गोलियों छरों बमों के चंद तमगों को समेटे चाटता था धूल
जय-जयकार से अविचल ।
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का संकलन ब्रिटेन की प्रतिनिधि हिन्दी क
खोजते मृगजल बधिक इनसान के पहले वहां पहुंचे हुए मरुभूमि में भटके पथिक ज्यों कारवां से छूटकर ।
और यह उन्मत्त प्यासा मुक्त साधक की तरह बलिदान का खप्पर उठाए अनगिनत सपने संजोए अमर लोकातीत निधियों के सुनहरी रमणियों के मानता मैं आ गया हूं छोड़कर अन्याय के मरघट अंधेरों में कहीं नीचे।
घाट
चल रहा हूं नित्य मैं कांवर उठाए ढो रहा हूं नित्य प्यासे अंध तापस जनक-जननी काल एवं कामना को सामने लहरा रहा तालाब जिसमें तृप्त होने को छलकती लालसाएं और पक्का घाट जिसपर पांव रखना सीढ़ियां विश्वास की खुद ही बनाए
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तिनिधि हिन्दी कविताओं
पर वहां दुश्मन छिपे हैं रक्तलोलुप झाड़ियों में शाप जिनको लग नहीं पाता किसी प्यासे पथिक का जा मिला परिवेश भी चोरी छिपे हर धनुर्धर से और पानी हो रहा बंदी उन्हीं का।
प्यास मेरी और मेरे अश्रितों की रक्त को पानी बनाने ठेलती है
घाट मानों जाल फैलाए हुए बस सांस रोके मुस्कराता आज मेरी अवशता पर
जानता वह कुंभ भर जाने से पहले जब जरा हुंकार लेगा, चीख उसमें स्वर मिलाने के लिए तत्क्षण बढ़ेगी। और मेरा खून पत्थर के लिए बूंदें गिराकर जा मिलेगा दुश्मनों से, फिर वहां कर्तव्य मिट्टी से मिलेगा अंध तापस की तृषा हर चीख का संस्पर्श पाने, क्षार बन-बनकर उड़ेगी तापसी रोती रहेगी।
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