डॉ. गौतम सचदेव, ब्रिटेन

धुंध का बुर्का पहनकर आई बरतानी सुबह

धुंध का बुर्का पहनकर आई बरतानी सुबह
पेड़ पर पंछी सरीखी झाड़ती पानी सुबह
बहुत रोका और सोने दो नहीं मानी सुबह
आई परदों से छनी कुछ चाय में छानी सुबह

आ धुलकती है छतों से घास पर शबनम
सुबह वक्त के हर टाट पर बिछ जाय बन रेशम सुबह
जिस डगर टिक जाय उसका दे बदल मौसम सुबह
काम पर जाना पड़ेगा है बड़ी निर्मम सुबह

मोटरों की दौड़ में दुबकी हुई सहमी सुबह
याद करके आदमी की रोज बेरहमी सुबह
भीड़-भड़कम में धंसी संकोच से वहमी सुबह
फिर नया दिन आ गया होती गलतफहमी सुबह

गांव की अल्हड़ छरहरी मस्त पगडंडी सुबह
चंद मिनटों में लगा दे रूप की मंडी सुबह
प्रेम करना सोचकर है बहुत पाखंडी सुबह
है अभी हल्दी, सलेटी झट हुई ठंडी सुबह

जख्म सपनों के भरे फाहे धरे गीली सुबह
धूप से मिलकर हुई कुछ और भी सीली सुबह
भागने पर हो रही मजबूर पर ढीली सुबह
ताकती मुड़-मुड़ रुकेगी पर न शर्मीली सुबह

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